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अपिण्डपातिक
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अपिलाप
प्रयुक्त, वास्तव में, निश्चित रूप से - एतावतापि खो, आवसो, अरियसावको सम्मादिद्धि होति. म. नि. 1.59; चिरम्पि खो तं खादेय्य, गद्रभो हरितं यवं जा. अट्ठ. 2.91; ण.(2). च से पूर्व में प्रयुक्त, और ... (में) भी- सरणेसु ठितो पञ्च सीले पि चापरे, म. वं 25.110; भद्दवग्गियपब्बज्जं जटिलानं दमनं पि च, म. वं. 30.79; ण.(3). पि ताव, कम से कम, हर हालत में - एत्थपि ताव दिस्सति ... च. मि. प. 192; ण.(4). पि नाम, संभवतः .... भी - एवम्पि नाम भवेय्य, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).91; बहूनं वसनट्ठाने अफासुकम्पि नाम होति,ध. प. अट्ठ. 1.6; ण.(5). पि रे, अपमान, अवज्ञा या तिरस्कार पर जोर देने वाला - चर पिरे विनस्साति, पाचि. 185; त. कभी-कभी पुनरुक्ति जैसा, अथवा - हन्देहि दानि तरमानरूपो, दीघो हि अद्धापि अयं पुरत्था, जा. अट्ठ. 7.198; थ (1). कभी-कभी अपि या पि संवरणार्थक धातुओं या क्रि. ना. के पू. स. के रूप में भी प्रयुक्त - यतो चायं गङ्गा नदी पभवति यत्थ च महासमुई अप्पेति ..., स. नि. 1(2).165; थ.(2) कभी कभी धारणार्थक Vधा तथा उससे व्यु. शब्दों के पूर्व से प्रयुक्त - गङ्ग मे पिदहिस्सन्ति, न तं सक्कोमि ब्राह्मण, जा. अट्ठ.5.53; तमहं महासिन्धुं अपिधेतुं न सक्कोमि, तदे; थ.(3). निह या लुह तथा उससे व्यु, शब्दों से पूर्व में प्रयुक्त - अपिलटह मञ्जरिन्ति सपल्लवं असोककणिक कण्णे पिलिन्धित्वाति वृत्तं होति, जा. अट्ट. 5.396. अपिण्डपातिक त्रि., पिण्डपातिक का निषे. [अपिण्डपातिक]. 'पिण्डपातिक भिक्षुसमूह से भिन्न समूह वाला भिक्षु, भिक्षाटन कर भोजन ग्रहण न करने वाला भिक्षु - किं पन । अपिण्डपातिकानं अयं नयो न लभतीति, उदा. अट्ठ. 164. अपिण्डित त्रि., पिण्ड के भू. क. कृ. का निषे. [अपिण्डित], पिण्ड के आकार को अप्राप्त, एक साथ मिलाकर पिण्ड का एक गोला न बनाया हुआ - ... अनुत्तण्डुलं अकिलिन्नं अपिण्डितं सुविसद, ... पक्खिपितब्बो, पारा. अट्ठ. 2.256. अपितिक त्रि., ब. स. [अपितृक], बिना पिता वाला, पिता से रहित - अमातिको अपितिको, रुक्खमूलस्मि झायतीति, जा. अट्ट. 5.240. अपिदहन नपुं., पिदहन का निषे. [पिधान], अनाच्छादन, अनियन्त्रण, असंयम - ... यो असंवरो, अथकनं अपिदहनन्ति अत्थो, ध. स. अट्ट. 421. अपिधान नपुं.. [अपिधान], आच्छादन, ढक्कन - अपिधानं निपतति, महाव. 278-79; तिणचुण्णेहिपि पंसुकेहिपि
ओकिरिय्यति ... पे...... ... अपिधानान्ति, चूळव. 241; परसावकुम्भी आपरुता दुग्गन्धा होति... अपिधानन्ति, चूळव. 262 अपिधीयति अपि + vधा के कर्म. वा. का वर्त., प्र. पु., ए. व., ढक दिया जाता है, आच्छादित कर दिया जाता है, अदृश्य बना दिया जाता है - नवेन सुखदुक्खेन, पोराणं अपिधीयति, जा. अट्ठ. 2.130; पोराणं अपिधीयतीति, ..., नवेन हि सुखेन पोराणं सुखं, जा. अट्ठ. 2.130. अपिधेतु अपि + vधा का निमि. कृ., ढक देना, आच्छादित कर देना - अपिधेतुं महासिन्धुं तं कथं सो भविस्सति, जा. अट्ठ. 5.53; तमहं महासिन्धुं अपिधेतुं न सक्कोमि, तदे.. अपिरत्ते अ०, सप्त. वि., प्रतिरू. निपा. [वै. अपिरात्रे]. तड़के, बहुत सबेरे, ऊषा काल में, प्रत्यूष वेला में - अपि रत्तेव मे मनोति अपि बळवपच्चूसे सुपिनं पस्सन्तिया विय मे मनो, जा. अट्ठ. 7.336. अपिळद्ध/अपिळन्ध त्रि., पिळद्ध का निषे. [अपिनद्ध].
शा. अ. न छेदा हुआ, न ढका हुआ, अनाच्छादित, ला. अ. अनलंकृत, असुसज्जित, नहीं सजाया हुआ - अपिळन्धाव सोभसीति त्वं इमेहि अलङ्कारेहि अनलङ्कतापि अतनो रूपसम्पत्तियाव सोभसि, वि. व. अट्ठ. 137. अपिलद्धपुब्ब/अपिळन्द्धपुब्ब त्रि., ब. स. [अपिनद्धपूर्व]. वह अलङ्करण, जिसके द्वारा किसी को पूर्वकाल में अलङ्कत नहीं किया गया हो - यथा च पकतिया अपिळन्धपुब्बं मालं पिळन्धित्वा, ध. स. अट्ठ. 261. अपिळन्धन नपुं.. संभवतः अपि + नह या ळह से व्यु., क्रि. ना., अट्ट के अनुसार पिळन्धन का निषे., अलङ्करण के लिए अनुपयुक्त अलङ्कार - दहरा वियलङ्कार, धारेति अपिळन्धनं, जा. अट्ठ. 6.303; अपिळन्धनन्ति पिळन्धितुं अयुत्तं अलङ्कार धारेति, जा. अट्ठ. 7.303; वातस्स वेगेन च सम्पकम्पिता, भुजेस माला अपिळन्धनानि च, वि. व. 1032; स्थरस घोसो अपिळन्धनान च, खुरस्स नादो अभिहिसंनाय च, वि. व. 1024; अपिळन्धनान चाति अकारो निपातमत्तं वि. व. अट्ठ. 233-34. अपिळयह अपि + निह का पू. का. कृ. [अपिनह्य], बांध कर, अन्तर्जटित कर, पहन कर - ओसित्तवण्णं परिदयह सोभसि, कुसग्गेरतं अपिळयह मञ्जरि जा. अट्ठ. 5.396; अपिलव्ह मञ्जरिन्ति सपल्लवं असोकमञ्जरि कण्णे पिळन्धित्वाति वुत्तं होति, तदे.. अपिलाप पु., पिळु से व्यु., पिलाप का निषे. अथवा अपि + लप से व्यु. [अप्लाव/अपिलाप], शा. अ. नहीं बहना,
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