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विजहति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).136; ये ब्राह्मणा ये च समणा, अज्जे वापि वणिब्बका, जा. अट्ठ. 7.257; 3. 'पि' के रूप में सन्धि-प्रभाववश संक्षिप्तीकृत पूर्वाश्रयी निपा., अनेक तात्पर्यों में अनेक रूपों में प्रयुक्त, स्वरों से पूर्व 'प्' रूप में भी प्राप्त - ... पिसद्दो पि निपातेसु इच्छितब्बो, अपिसद्दो पि च निपातपक्खिको कातब्बो यत्थ किरियावाचकपदतो पुब्बो न होति, सद्द. 3.904; 3.क. 'चि' निपा. के समान प्रश्नवाचक सर्व. 'किं' के शब्दरूपों के उ. प. में प्रयुक्त, अनिश्चित सत्व, स्थान या वस्तु का संकेतक - जो कोई भी, जिस किसी को भी - कम्पि मझे भणति, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).108-109; कम्पि चझं सन्धाय केवलिनं महसिं .... सु. नि. अट्ठ. 2.125; ख. 'अञ' आदि दूसरे सर्व के शब्दरूपों के पश्चात् भी प्रयुक्त, यहां तक कि ... भी- अविदूरे पनस्स अञोपि पञ्चसतमिगपरिवारो साखमिगो नाम वसति, जा. अट्ठ. 1.154; उदका पन अनुग्गतानि अञानिपि सरोगउप्पलादीनि नाम अत्थि, म. नि. अट्ट. (मू.प.) 1(2).83; ग. निपा. एवं ना. प. के पश्चात् भी प्रयुक्त - उपरिवत् - इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो ... बुद्धो भगवा, पारा. 1; इतिपि सो भगवाति आदीसु पन अयं ताव योजना-- सो भगवा अरह इति पि अरह, पारा. अट्ठ. 1.79; घ. वाक्य-विन्यास की किसी भी इकाई में सामान्य तथा प्रथम शब्द के उपरान्त प्रयुक्त, भी - दुस्सङ्गहा पब्बजितापि एके, अथो गहट्ठा घरमावसन्ता. सु. नि. 43; हत्थिपालो तायपि परिसाय आकासे ठत्वा धम्म देसेसि, जा. अट्ठ. 4.439; ङ, संख्यावाचक अथवा समुदायबोधक शब्दों के बाद में प्रयुक्त होने पर समग्रता या सम्पूर्णता का पुष्टिकारक, सब मिलाकर, कुल मिलाकर - मरन्ता उभोपि मरिस्साम, जा. अट्ट. 1.219; अञथत्तं अहु नेव पोत्थकेसुपि तीसु पि, चू. वं. 37.241; च. संभवतः, शायद, हो सकता है कि मैं यह कह सकता हूं कि - आयुञ्च वो कीवतको नु सम्म, सचेपि जानाथ वदेथ आयु. जा. अट्ठ. 4.399; अयं पब्बजित्वापि भरियं जहितुं न सक्कोती ति, गरहिस्सन्ति म. जा. अट्ठ. 6.77; छ.(1) प्रायः विधि के क्रि. रू. के पूर्व में प्रयुक्त - सिया खो पन भिक्खवे सत्थुगारवेनापि न पुच्छेय्याथ, सहायकोपि, भिक्खवे, सहायकस्स आरोचेतूति, दी. नि. 2.116; अयं मय्ह पुत्तानं पापकम्पि चिन्तेय्या ति, जा. अट्ठ. 1.132; छ.(2). कभीकभी विधि; के क्रि. रू. के अनन्तर भी प्रयुक्त -
कुज्झेय्यपि मे अयं जा. अट्ठ. 4.32; चण्डोयं राजा घातापेय्यापि मं, महाव. 365; छ.(3), भवि. के क्रि. रू. से पूर्व में प्रयुक्त- लक्खणेन अङ्केत्वा दासपरिभोगेनापि परिभजिस्सन्ति, जा. अट्ठ. 1.433; इदानि को जानाति, कित्तकापि आगमिस्सन्ति, जा. अट्ठ. 1.473; ज, यद्यपि ... तथापि, रहते हुए भी - अहं मनुस्सभूतोपि समानो तुम्हाकं गुणे न जानाभि, जा. अट्ठ. 1.257; एवं सन्तेपिस्स फलं तितकं जातं, जा. अट्ठ. 2.86%; जानन्तो पि न सक्का ति राजानं आह वड्डको, म. वं. 30.32; झ. फिर भी, तो भी, कम से कम - अप्पेव नाम पुत्तो सुदिन्नो तुम्हम्पि वचनं करेय्या ति, पारा. 18; अप्पेवनाम स्वेपि उपसङ्कमेय्याम कालञ्च समयञ्च उपादाया ति, दी. नि. 1.181; ञ. प्रश्न-सूचक वाक्यों में, यहां तक कि ... भी - को इमस्स उपगतस्स पिण्डकम्पि दस्सति, चूळव. 23; पारा. 282; भिक्खवे, अपि नायं अरिहो भिक्खु गद्धबाधिपुब्बो उस्मीकतोपि इमस्मिं धम्मविनये ति? म. नि. 1.186; ट. किसी कथानक की निरन्तरता बनाए रखने वाले सन्दर्भ में किसी नूतन उद्भावना या घटना का सूचक - सत्थापि अन्तरामग्गे रोयेव पिण्डपातं परिभुञ्जि, थेरोपि भत्तकिच्चावसाने दिवसे, .... जा. अट्ठ. 1.96; हंसराजापि अत्तनो वसनट्ठानमेव गतो, जा. अट्ठ. 1.205; ठ. पि ... पि - चाहे ... चाहे, भले ही - तंयेव वा परिमं रज्जसुखं समनुस्सरन्तो अरुअगतोपि रुक्खमूलगतोपि सुआगारगतोपि अभिक्खणं उदानं उदानेसि, चूळव. 319; इत्थियापि परिसस्सपि नामम्पि गोतम्पि पुच्छितब्बं अहोसि, म. नि. 2.1983; ड. पि ... पि न/ ... नो पि, प्रायः यदा एवं तदा निपा. के उपरान्त प्रयुक्त, जब भी .... तब भी नहीं- यदापि आसी असुरेहि सङ्गमो, जयो सुरानं असुरा पराजिता. तदापि नेतादिसो लोमहंसनो, किमभुतं ददु मरु पमोदिता, सु. नि. 686; तयि मारेन्तिपि अमारेन्तेपि न सक्का अज्ज मया मरणा मुच्चितुन्ति, जा. अट्ठ. 1.169; ढ.(1) पि न, पि ... न/पि ... अ .... यहां तक कि ... में भी नहीं - मया न तादिसो
खन्तिमेत्तानुद्दयसम्पन्नो मनुस्सेसुपि दिठ्ठपुब्बो, जा. अट्ठ. 1.155; अस्सोपि ते नानुच्छविको, ध. प. अठ्ठ. 2.46; ढ.(2). नापि, न ... न पि/न ... पि न तो ... न ही - इधे कच्चो न हेव खो निमित्तेन आदिसति, नापि मनुस्सानं ... अपि च खो ... आदिसति, दी. नि. 3.76; न खो, भिक्खु, ... नापि ... उपादानं, यो खो, .... म. नि. 3.64; इमे ते मनुस्सा नेव जातका, न दासकम्मकरा, नापि, म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(1).303; ण.(1). पि खो,_खो से पूर्व में
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