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अपाणी
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अपापक
अपाणी त्रि., ब. स. [अप्राण], निर्जीव, प्राणरहित, - नं ष. वि., ब. व. - मन्ददसकादीसु पाणीनं विय च, पुप्फफलपल्लवादीसु च अपाणीनं विय, म. नि. अठ्ठ. (मू.प.) 1(1).205; ध. स. अट्ठ. 360. अपातब्ब त्रि., Vपा के सं. कृ. का निषे. [अपातव्य], नहीं पीने योग्य, अपेय - अपरिभोग वा करोतीति अखादितब्बं वा अपातब्बं वा करोति, पारा. अट्ठ. 1.257. अपातुभ त्रि., प्रादुर्भाव से रहित, उत्पत्ति से रहित - सुकच्छवी वेधवेरा थूलबाहू अपातुभा ... अपातुभाति अपातुभावा धनुप्पादरहितापि अत्थो, जा. अट्ठ. 4.164-165. अपातुभाव पु.. पातुभाव का निषे. [अप्रादुर्भाव], प्रकट न होना, अदृश्य स्थिति में होना - अपातुभावो बुद्धस्स सद्धम्मामतदायिनो, सद्धम्मो. 6; दुतियज्झानक्खणे
अपातुभावाति वुत्तं होति, ध. स. अट्ठ. 213. अपातुभूत त्रि, पातुभूत का निषे. [अप्रादुर्भूत], वह, जो प्रकट या स्पष्ट रूप से दृश्य नहीं है, अप्रकाशित, अव्यक्त - यं, भिक्खवे, रूपं अजातं अपातुभूतं भविस्सती ति तस्स सङ्घा, स. नि. 2(1).66; यं एवं अभावितं अपातुभूतं महतो अनत्थाय सवत्तति यथयिद, भिक्खवे, चित्तं, चितं, भिक्खवे, अभावितं अपातुभूतं महतो अनत्थाय संवत्तती ति, अ. नि. 1(1).7; ये धम्मा अजाता अभूता असजाता अनिब्बत्ता ।
अनभिनिब्बत्ता अपातुभूता अनुप्पन्ना, ध. स. 1042. अपातुभोन्त त्रि., पातु + vभू के वर्त. कृ. का निषे. [अप्रादुर्भवत्], प्रकट रूप में नहीं दिख रहा, स्पष्ट रूप से दिखलाई न पड़ने वाला - ते लाभसक्कारे अपातुभोन्ते,
सन्धापिता जन्तुभि सन्तिधम्म, जा. अट्ठ. 7.53. अपाथेय्य त्रि., ब. स. [अपाथेय]. मार्ग के लिए आवश्यक सामग्रियों से रहित, यात्रा के बीच उपयोगी भोजन, जल आदि को न रखने वाला, आवश्यक अपकरणों से रहित - मग्गा कन्तारा, अप्पोदका अप्पभक्खा, न सुकरा अपाथेय्येन गन्तुं महाव. 321; 358. अपादक त्रि., ब. स. [अपादक], शा. अ. बिना पैरों वाला, ला. अ. रेंगने वाला सर्प आदि- मा में अपादको हिंसि, मा में हिंसि द्विपादको, चूळव. 227; अपादकेहि मे मेत्तं, मेत्तं द्विपादकेहि मे, अ. नि. 1(2).84; जा. अट्ठ 2.120. अपादकथा स्त्री., विन. वि. की गाथा संख्या 231 से 236 तक के खण्ड का शीर्षक, विन. वि. (पृ.) 20; पारा. अट्ठ. की एक कथा का शीर्षक, पारा. अट्ठ. 1.290.
अपादान नपुं.. अप + आ + Vदा से व्यु., क्रि. ना. [अपादान], व्याकरण के सन्दर्भ में पञ्च, वि. के कारक का नाम - यस्मा वा अपेति, यस्मा वा भयं जायते यस्मा वा आदत्ते तं कारकं अपादानसज्ज होति, क. व्या. 273; अपादानकारके पञ्चमी विभत्ति होति, क. व्या. 297; अपादाने पञ्चमी, सद्द. 1.60; - कारक नपुं.. कर्म. स. [अपादानकारक], उपरिवत् - अपादानकारके पञ्चमी विभत्ति होति, क. व्या. 297; - विसयत्त नपु., भाव. [अपादानविषयत्व]. अपादान-कारक का विषय या क्षेत्र होना - एत्थ पन अपादानविसयत्ते पि गवावयवभूतस्स विसाणस्स विसंगहित्ता गवं खीरं दुहन्तोति, सद्द. 2.599; - सञ त्रि., ब. स. [अपादानसंज्ञक], अपादान संज्ञा वाला - तं कारकं अपादानसो होति, क. व्या. 273. अपान नपुं.. [अपान], नीचे की ओर अभिमुख होकर बाहर को निकलने वाली प्राण वायु, प्रश्वास - अथो अपानं पस्सासो, अस्सासो आनमुच्चते, अभि. प. 39. अपानक त्रि., पानक का निषे. [अपानक], कोई भी पेय न पीने वाला, पान न करने वाला, प्राचीन काल के तपस्वियों का एक वर्ग - अपानकोपि होति अपानकत्तमनुयुत्तो, दी. नि. 1.150; अपानकोति पटिक्खित्तसीतुदकपानो, दी. नि. अट्ठ. 1.265; अपरे अपानकत्ता होन्ति, मयं पानीयं न पिवामाति वदन्ति, जा. अट्ठ. 5.233; - त्त नपुं, अपानक का भाव. [अपानकत्व], कुछ भी नहीं पीने की अवस्था - परियायभत्तञ्च अपानकत्ता, पापाचारा अरहन्तो वदाना, जा. अट्ठ. 5.230; अपानकोपि होति अपानकत्तमनयत्तो, दी. नि. 3.29. अपानुभ त्रि. मिथ्या अहंकार से ग्रस्त - इमे, भन्ते, लिच्छविकुमारका चण्डा फरुसा अपानुभा, अ. नि. 2(1).70%; अपानुभाति अवड्डिनिस्सिता मानथद्धा, अ. नि. अट्ठ. 3.29. अपापक त्रि., ब. स., पाप-रहित, अदयनीय, दुर्गति से रहित, अकुरूप - कं नपुं, प्र. वि., ए. व. - अपापकं ते मरणं भविरसति, स.नि. 2(1).111; अपापकन्ति अलामक स. नि. अट्ठ. 2.277; - केहि पु./नपुं.. तृ. वि., ब. व. - सकेहि कम्मेहि अपापकेहि पुजेहि मे लद्धमिदं विमानन्ति, जा. अट्ठ. 7.213; तत्थ अपापकेहीति अलामकेहि, तदे. - पिका स्त्री., प्र. वि., ए. व. - दहरा च अपापिका चसि. किं ते पब्बज्जा करिस्सति, थेरीगा. 372; अपापिका चसीति रूपेन अलामिका च असि, उत्तमरूपधरा चाहोसीति अधिप्पायो, थेरीगा. अट्ठ. 276.
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