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अपाय
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अपाय
विविधाकम्मकारणा, सम्पराये च अपायदुक्खं अनुभोन्तो सो पापो पापानियेव परसति, ध. प. अट्ठ. 2.9; इध लोके अपायदुक्खं अनुभवन्तो परलोके च अनुतप्पति, जा. अट्ठ. 5. 114; - क्खेहि तृ. वि., ब. व. - इमिना पुञकम्मेन सब्बेहि अपायादिदुक्खेहि मोचेय्यामि, सा. वं. 106(ना.); - दुग्गतिविनिपात पु., द्व. स. [अपायदुर्गतिविनिपात], अधःपतन, दुखद-गति एवं अवनति अर्थात् नरक - अथ खो सो परिमुत्तो निरया परिमुत्तो तिरच्छानयोनिया परिमुत्तो पेत्तिविसया परिमुत्तो अपायदुग्गतिविनिपाता, स. नि. 3(2). 410; अपरिमुत्तो पेत्तिविसया अपरिमुत्ता
अपायदुग्गतिविनिपाताति, अ. नि. 3(1).194; - द्वार नपुं... तत्पु. स. [अपायद्वार], नरक का द्वार - अम्हाकञ्च अपायद्वारानि विवटानेव, तस्मा अञत्र पातो भिक्खाचारवेलं. ध, प. अट्ठ. 1.381; करोति अथ खोपायद्वारानिपि विधेति च, अभि. अव. 164; - पटिसन्धि पु., तत्पु. स. [अपायप्रतिसन्धि], नरक आदि दुखदायक योनियों में पुनर्जन्म, पुनर्जन्म के चार प्रभेदों में सबसे अधम पुनर्भव - अपायपटिसन्धि कामसुगतिपटिसन्धि रूपावचरपटिसन्धि अरूपावचरपटिसन्धि चेति चतुबिधा पटिसन्धि नाम, अभि. ध. स. 33; - परायण त्रि, तत्प. स. [अपायपरायण], निश्चित रूप से नरक प्राप्ति में लगा हुआ, निश्चित रूप से नरक को प्राप्त करने वाला - एवं अकरोन्तस्स पन अत्ता पियो नाम न होति, अपायपरायणमेव नं करोति, ध. प. अट्ठ. 2.76; - परिपूरक त्रि., [अपायपरिपूरक], नरक को परिपूर्ण कर देने वाला, नरक को प्राप्त होने वाला - ततो संवेगमापज्जित्वा पुन अहं इमं तण्हं वड्डेन्तो अपायपरिपूरको भविस्सामि. सु. नि. अट्ट, 1.91; - परिपूरणत्त नपुं., भाव. [अपायपरिपूर्णत्व], नरक को पूरी तरह से भर देना - अनेकसतानं अपायपरिपूरणत्तं अत्तनो सासने पब्बजितानञ्च देवदत्तादीनं.... म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).98; - परिमुत्ति स्त्री., तत्पु. स. [अपायपरिमुक्ति], नरक आदि दुखदायक गतियों से पूर्ण मुक्ति - तस्मा तेसं अपाया-परिमत्तिं सब्बगुणसम्पत्तिञ्च इच्छन्तो आह, म. नि. अट्ट. (मू.प.) । 1(1),98; - पूरक त्रि., तत्पु. स. [अपायपूरक], नरक को भर देने वाला - एवं ते मनुस्सा दिढदिट्टहाने सीलवन्ते अक्कोसन्ता अपुज पसवित्वा अपायपूरका अहेसु. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).311; अम्हेसु पदुद्वचित्तो महाजनो अपायपूरको भवेय्य. अ. नि. अट्ठ. 1.142; - भय नपुं.. तत्पु. स. [अपायभय], नरक का भय, नरक से डर - एवं
अपायभयं पच्चवेक्खन्तस्सापि वीरियसम्बोज्झङ्गो उप्पज्जति, विभ, अट्ठ. 264; भयन्ति अपायभयं तेन सभावेन सण्ठितं
ओत्तप्पं ध. स. अट्ठ. 171; ते मिच्छातपं चरन्ते दिस्वा अपायभयम्हा मुत्ता ति पसीदित्वा .... जा. अट्ट. 4.267; - भय-पच्चवेक्षणता स्त्री॰, भाव. [अपायभयप्रत्यवेक्षणता]. नरक के भय पर अनुचिन्तन - अपिच एकादस धम्मा विरिय सम्बोज्झङ्गरस उपादाय संवत्तन्ति - अपायभयपच्चवेक्षणता सत्थुमहत्तपच्चवेक्षणता, विभ, अट्ठ. 264; - भय-विनिमुत्तता स्त्री॰, भाव., तत्पु. स. [अपायभयविनिर्मुक्तता], नरक आदि के भय से पूरी तरह मुक्त होने की दशा - लमिता सुखसयनता सुखप्पटिबुज्झनता अपायभयविनिमुत्तता इत्थिभावप्पटिलाभरस वा. खु. पा. अट्ठ 24; - भूमि स्त्री., तत्पु. स. [अपायभूमि], प्राणियों द्वारा जन्म ग्रहण करने की चार भूमियों में से वह भूमि, जिसमें अकुशल कर्म करने वाले प्राणी को तिरच्छान, पेत्तिविसय, असुरकाय एवं निरय, इन चार दुखदायक गतियों में उत्पन्न होना पड़ता है - देवाचेव मनुस्सा च, तिस्सो वापायभूमियो, अभि. अव. 40; ये केचि बुद्ध सरणं गतासे, नते गमिस्सन्ति अपायभूमि, स. नि. 1(1).31; खु. पा. अट्ठ. 8; जा. अट्ठ. 1.105; दोसेहि सीदापेन्तरस तथेवापायभूमियं, राद्धम्मो. 43; - मग्ग पु., तत्पु. स. [अपायमार्ग]. नरक की ओर ले जाने वाला मार्ग, कुमार्ग - एत्थ यथा मग्गकुसलो पुरिसो पठमं वज्जेतब्बं अपायमग्गं दस्सेन्तो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).73; सुपिहितसग्गद्वारो, अपायमग्गं समारुळहो, विसुद्धि. 1.55; - मुख नपुं०, तत्पु. स. [अपायमुख], जल की निकासी का विवर या द्वार, पानी के बाहर जाने का निकास मार्ग, अधःपतन का द्वार - तस्सा पुरिसो यानि चेव आयमुखानि तानि विदहेय्य, यानि च अपायमुखानि तानि विवरेय्य, देवो च न सम्मा धार अनुप्पवेच्छेय्य, अ. नि. 1(2).192; अपायमुखानीति अपवाहनच्छिद्दानि, अ. नि. अट्ठ. 2.352; अनुत्तराय विज्जाचरणसम्पदाय चत्तारि अपायमुखानि भवन्ति, दी. नि. 1.88; - लोक पु., कर्म. स. [अपायलोक], दुखदायक गति वाले तिरच्छान, पेत्ति-विसय, असुरकाय तथा नरक नाम वाले चार लोक - लोकेति अपायलो के मनुस्सलोकदेवलोके, खन्धलोके धातुलोके आयतनलोके, महानि.7; यमलोकञ्चाति चतुबिधं अपायलोकञ्च, ध. प. अट्ठ. 1.189; - समुद्द पु., तत्पु. स. [अपायसमुद्र], दुःख से परिपूर्ण विपदाओं के रूप वाला समुद्र, विपत्तियों का
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