________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अधम्म
160
अधम्म
पालि-त्रिपिटक तथा अट्ठ आदि में 'धम्म' शब्द का प्रयोग अत्यन्त व्यापक अर्थ में हुआ है (द्रष्ट. धम्म, आगे) यद्यपि शब्द-संरचना की दृष्टि से अधम्म पद 'धम्म' का विलोम है परन्तु यह धम्म के सभी सङ्केतित तात्पर्यों का निषे. नहीं है। स्कन्धों, आयतनों आदि के सूचक 'धम्म' के निषे. रू. में अधम्म का प्रयोग साहित्य में नहीं दिखता। यहां 'अधम्म' का तात्पर्य उन अकुशल कर्मों से है जो लोभ, मोह एवं द्वेष नामक तीन अकुशलमूलों से सहगत होकर उत्पन्न होते रहते हैं तथा जिनके एक प्रकार के विपाक के प्रभाव से प्राणी को चार प्रकार की अपायभूमियों में से किसी एक में पुनर्जन्म लेकर दुख भोगने को विवश होना पड़ता है; - कम्म नपुं.. कर्म. स. [अधर्मकर्म], धर्म-विपरीत कर्म, अकुशल कर्म, पापकर्म - न, भिक्खवे, अधम्मकम्म कातब्बं. महाव. 143; अधम्मकम्मे धम्मकम्मसी , पाचि. 56; ... यस्सं परिसायं अधम्मकम्मानि नप्पवत्तन्ति, अ. नि. 1(1).903; - कार पु., [अधर्मकार], धर्म-विपरीत क्रिया, अधार्मिक आचरण - अधम्मकारोति ... ठपितं विनिच्छयधम्म भिन्दित्वा पवत्ता अधम्मकिरिया, जा. अट्ठ. 4.358; - कारक त्रि., [अधर्मकारक], धर्म-विपरीत काम करने वाला, प्राणिहिंसादि अकुशल कर्म करने वाला - ... ते ते अधम्मकारके पक्खन्दित्वा खादितुकामतं विय कत्वा दस्सेति, जा. अट्ठ. 4.165; - किरिया स्त्री., ष. तत्पु. [अधर्मक्रिया], अधर्म की क्रिया, अन्याय - अधम्मकारोति ... पवत्ता अधम्मकिरिया, जा. अठ्ठ. 4.358, अधम्मकारो का समाना.; - गारव त्रि., बहु. स. [अधर्मगौरवक], अधर्म में गौरव अनुभव करने वाला - ये केचि कामेसु असञता जना, अधम्मिका होन्ति अधम्मगारवा, अ. नि. 1(2).22; - चरण नपुं.. तत्पु. [अधर्मचरण], धर्म-विपरीत आचरण, कपटपूर्ण व्यवहार - धिरत्थु तं यसलाभ, धनलाभञ्च ब्राह्मण, या वृत्ति विनिपातेन, अधम्मचरणेन वा, जा. अट्ठ. 2.348; अधम्मकिरिया एवं अधम्मकारो का समाना; - चरिया स्त्री., तत्पु. [अधर्मचर्या], विसमचर्या, पापाचार, धर्म-विपरीत अनुचित आचरण - न च सप्पुरिसो कायदुच्चरितादिवसेन अधम्मचरिय चरेय्य, जा. अट्ट, 2.348; अधम्मचरियाविसमचरियाहेतु खो, गहपतयो, ... निरयं उपपज्जन्ति, म. नि. 1.359; - चारी त्रि., [अधर्मचारी], दस प्रकार के अकुशल कर्म करने वाला, पाप अथवा अधर्म का आचरण करने वाला - तिविधं खो, गहपतयो, कायेन अधम्मचारी ... चतुबिधं वाचाय अधम्मचारी ... तिविधं मनसा अधम्मचारी विसमचारी होति.
म. नि. 1.366; - टि. प्राणिहिंसा, अदत्त का आदान एवं अब्रह्मचर्य, ये तीन कायिक पाप कर्म हैं, असत्य-भाषण, चुगली, कठोर वाणी एवं निरर्थक वार्तालाप, ये चार वाणी के पापकर्म हैं तथा लोभ, द्वेष एवं मिथ्या-दृष्टि, ये तीन मानसिक पाप-कर्म हैं. दस प्रकार के इन्हीं पापकर्मों को करने वाला ही 'अधम्मचारी' कहलाता है; - चुदित त्रि., तत्पु. [अधर्मचुदित], अनुचित-रूप से प्रेरित किया गया - अधम्मचुदितस्स, आवुसो, भिक्खुनो पञ्चहाकारेहि अविष्पटिसारो उपदहातब्बो, अ. नि. 2(1).182; - चोदक त्रि., ब. स. [अधर्मचोदक], विनय द्वारा निर्धारित मापदण्डों का पालन किए बिना ही दूसरे भिक्षु को विनय की शिक्षा पर चलने हेतु प्रेरित करने वाला - अधम्मचोदकस्स, आवुसो, भिक्खुनो पञ्चहाकारेहि विप्पटिसारो उपदहातब्बो, अ. नि. 2(1).183; चूळव. 411; - टि. विनय की शिक्षाओं के अनुसार यदि कोई वरिष्ठ भिक्षु किसी कनिष्ठ भिक्षु को विनय शिक्षापदों के अनुरूप आचरण करने को प्रेरित करना चाहता है तो उसे पहले अपने अन्दर पांच धर्मों का प्रत्यवेक्षण करने के उपरान्त ही दूसरे भिक्षु को शुद्ध आचरण हेतु प्रेरित करना चाहिए। उसे निम्नलिखित पांच बातों के बारे में अच्छी तरह स्वयं आत्म-मन्थन कर लेना चाहिए: - 1. क्या मेरे शारीरिक कर्म परिशुद्ध हैं? 2. क्या मेरे वाणी के कर्म परिशुद्ध हैं? 3. क्या मेरे चित्त में साथी भिक्षुओं के प्रति मैत्रीभावना जागृत है ? 4. क्या मैं बहुश्रुत हूं एवं सूत्रान्तों का अच्छा ज्ञान पा चुका हूँ? 5. क्या मुझे प्रातिमोक्ष-सूत्रों का सुस्पष्ट ज्ञान है? इसके अतिरिक्त उसे अपने अन्दर कालवादी, भूतवादी, मृदुवादी, अर्थवादी एवं मैत्रीचित्त-सहित वादी, इन पांच धर्मों को जागरूक करके ही अन्यों को मार्ग-दर्शन देना चाहिए, जो भिक्षु ऊपर उल्लिखित पूर्वाधारों के बिना ही दूसरों का विनय के विषय में मार्गदर्शन करता है, वही अधम्मचोदक है; - टु त्रि., [अधर्मस्थ], अधर्म में स्थित, पापमय जीवन बितानेवाला - खत्तियो च अधम्मट्ठो, वेस्सो चाधम्मनिस्सितो, ते परिच्चज्जुभो लोके, उपपज्जन्ति दुग्गतिं. जा. अट्ठ. 3.167; - त्त नपुं.. भाव. [अधर्मत्व], धर्मप्रतिकूलता, धर्म आचरण से वैपरीत्य, दुष्टता, पाप-परायणता - ... इद, भिक्खवे, कम्म अधम्मत्ता वग्गत्ता कुप्पं अट्ठानारह, महाव, 412; तुल. वग्गत्त अथवा वग्गत्ता; - दिहि त्रि., ब. स. [अधर्मदृष्टि]. विनय-निर्दिष्ट पांच आपत्तियों या अपराधों में आपतित ऐसा भिक्षु जो धर्मानुकूल आचरण में भी अधर्म की मिथ्या धारणा बनाता है - पञ्च आपत्तियो
For Private and Personal Use Only