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अपरिळाह
कथं कथी, दी. नि. 2.212; अपरियोसितसङ्गप्पोति अनिट्ठितमनोरथो, दी. नि. अट्ठ. 2.298; अपरियोसितसङ्कप्पो, कुतित्थे सञ्चरिं अहं अप. 1.23; - सिक्खत्त नपुं०, भाव. [ अपर्यवसित शिक्षात्व], शिक्षा की अपूर्णता की अवस्था, शिक्षा का अपूर्ण रहना सो हि अपरियोसितसिक्खत्ता तदधिमुत्तत्ता च सिक्खा सा एतस्स सीलन्ति सेखो, उदा.
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अट्ठ. 295.
अपरिळाह त्रि. परिळाह का निषे [ अपरिदाह ], मन में उत्पन्न दाह या जलन से रहित, मानसिक बेचैनी से रहित, मानसिक व्यग्रता या व्याकुलता से मुक्त अदुक्खो एसो धम्मो अनुपघातो अनुपायासो अपरिळाहो, सम्मापटिपदा, म. नि. 3.279; .. सुखो विहारो अविघातो अनुपायासो अपरिळाहो, स. नि. 2 (1).8; अपरिळाहोति निद्दाहो, स. नि. अट्ठ. 2.228; सुखं विहरति अविघातं अनुपायासं अपरिळाहं, स. नि. 1(2).135. अपरिवज्जन नपुं. परि + √वज्ज के क्रि० ना० का नि [ अपरिवर्जन ], परिवर्जन न करना, छोड़ न देना, दूरीकरण का अभाव, स्वीकरण - एतमत्थं विदित्वाति एतं पापानं अपरिवज्जने आदीनवं, उदा. अड. 239. अपरिवार त्रि०, ब० स० [अपरिवार], समूह या झुण्ड से रहित, बिना परिवार वाला, निपट अकेला बुद्धानुबुद्धेसु अपरिवारेन एककेनेव ठातब्बं होति, उदा. अट्ठ. 264. अपरिवेसन नपुं. परि + √विस के क्रि० ना० का निषे. [ अपरिवेषण], प्रतीक्षा न करना, प्रतीक्षा का अभाव, सेवासुश्रूषा का न होना यम अपरिवेसने, यमेति यमयति, यमो,
सद्द 2.557. अपरिव्यत्तत्र, परि + वि + √अञ्ज के भू० क० कृ० का नि.. [ अपरिव्यक्त], पूरी तरह से स्पष्ट या सुव्यक्त न रहने वाला, अस्पष्ट - अपरिव्यत्तहि तस्सा तत्थ किच्च, ध. स. अट्ठ. 218; - किच्च त्रि., ब० स० [अपरिव्यक्तकृत्य ], वह, जिसके क्रिया-कलाप पूरी तरह से स्पष्ट न हों - साकस्मा न वुत्ताति? अपरिब्यत्तकिच्चतो, ध. स. अट्ठ
218.
अपरिसङ्कित त्रि, परि + √स के भू० क० कृ० का निषे.
[अपरिशङ्कित], समस्त शङ्काओं और सन्देहों का अविषयीभूत, वह जिसके विषय में किसी प्रकार की शङ्का न हो तिकोटिपरिसुद्धं मच्छमंसं - अदिट्टं असुतं अपरिसङ्कित न्ति, पारा. 270; अपरिसङ्कितं पन दिट्ठपरिसङ्कितं सुतपरिसङ्कितं तदुभयविमुत्तपरिसङ्कितञ्च ञत्वा तब्बिपक्खतो जानितब्ब
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अपरिसुद्ध
पारा. अट्ठ. 2.172; अमूलकं नाम अदिट्ठ असुतं अपरिसङ्कित, अपरिसङ्कितं नाम चित्तेन अपरिसङ्कितं, पारा. अट्ठ. 155. अपरिसमत्त त्रि, परिसमत्त का निषे [ अपरिसमाप्त], पूरी तरह से समाप्त न किया हुआ, पूर्णता को अप्राप्त, आधेअधूरे तौर पर किया हुआ वत्तमाने आरद्धापरिसमत्ते अत्थे वत्तमानतो क्रियत्था त्यादयो होन्ति, मो. व्या. 6.1. अपरिसावचरत्रि, परिसा + अवचर का निषे, भीड़-भाड़ या जनसमूह के बीच आनन्द न लेने वाला, एकान्तप्रेमी, सभाभीरु अपरिसावचरो समणो गोतमो, दी. नि. 3.27; अपरिसावचरोति अविसारदत्ता परिसं ओतरितुं न सक्कोति, दी. नि. अड. 3.17. अपरिसिञ्चनक त्रि, परिसिञ्चनक का निषे, चारों ओर पानी न डालने वाला, अवसिञ्चन न करने वाला, पानी न छिड़कने वाला - अनवसेकन्ति अनवसिञ्चनक अपरिसिञ्चनकं कत्वा, महानि, अट्ठ. 362. अपरिसुद्ध त्रि, परि + √सुध के भू० क० कृ० का निषे. [ अपरिशुद्ध ], वह, जो पूरी तरह शुद्ध नहीं है या शुद्ध नहीं किया गया है - अपरिसुद्धा, आनन्द, परिसाति, चूळव. 392; अनरियन्ति अरियगरहितं सब्बं असुन्दरं अपरिसुद्ध कम्मं परिवज्जयाम, जा. अट्ट. 4.48; अन्तो असुद्धाति अब्भन्तरतो रागादीहि अपरिसुद्धा, महानि, अट्ठ 358; - कायकम्मन्त त्रि.. ब॰ स॰ [अपरिशुद्धकायकर्मान्त ], वह जिसके शारीरिक कर्म पूरी तरह शुद्ध नहीं हुए हैं - समणा वा ब्राह्मणा वा अपरिसुद्धकायकम्मन्ता अरञ्ञवनपत्थानि पटिसेवन्ति, म. नि. 1.22; - कायसमाचार त्रि, उपरिवत् समणब्राह्मणा अपरिसुद्धकायसमाचारा ... अपरिसुद्धाजीवा, अ. नि. 1 (2). 230; - आणदस्सन त्रि, ब० स० [अपरिशुद्धज्ञानदर्शन], वह, जिसके ज्ञान एवं अन्तर्दृष्टि में पूर्ण विशुद्धि नहीं हुई है -... सत्था अपरिसुद्धञणदस्सनो समानो परिसुद्धञाणदस्सनोम्ही ति पटिजानाति परिसुद्ध असंकिलिट्ठन्ति, अ. नि. 2 (1).117; - धम्मदेसन त्रि०, ब० स०, वह, जिसके धर्मोपदेश में पूर्ण शुद्धि नहीं आ सकी है अपरिसुद्धधम्मदेसनो समानो परिसुद्धधम्मदेसनोम्ही ति पटिजानाति असंकिलिद्वाति, अ० नि० 2 (1).116; मनोकम्मन्त त्रि०, ब० स० [ अपरिशुद्धमनः कर्मान्त], वह, जिसके मानसिक कर्म पूरी तरह शुद्ध नहीं हो सके हैं -
सत्था
समणा वा ब्राह्मणा वा अपरिसुद्धवचीकम्मन्ता पे० अपरिसुद्ध मनोकम्मन्ता पे. पटिसेवन्ति, म. नि. 1.23; - मनोसमाचार त्रि. ब. स. [ अपरिशुद्धमनः समाचार],
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