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अपन्थक
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अपमार/अपस्मार
निच्छारेही ति, मि. प. 242; - थ ब. व. - ... तुम्हाकं सकटं अपब्बजन नपुं, पब्बजन का निषे., क्रि. ना. [अप्रव्रजन], अपनेथा ति .... जा. अट्ठ. 3.90; - य्य विधि., प्र. पु., ए. गृहत्याग न करना, प्रव्रजित जीवन का ग्रहण न करना - व., मिटा देना चाहिए - एसनिय .... अपनेय्य विसदोस अहं इमस्स ... इदानिस्स अपब्बज्जनत्थाय सरीरवण्ण सउपादिसेसं. म. नि. 3.42; - य्यं विधि., उ. पु., ए. व., वण्णयिस्सामी ति, जा. अट्ठ. 3.348. उपरिवत् - .... एतं अढि अपनेय्यं जा. अट्ठ. 3.22; - अपब्बजितुं प + Vबज के निमि. कृ. का निषे., प्रव्रजित न सि अद्य., प्र. पु.. ए. व., दूर कर दिया, हटा दिया - होने के लिए - न हि सक्का अम्हेसु एकेन अपब्बजितु न्ति, सोवण्णपादुकाति इमानि पञ्च राजककुधभण्डानि अपनेसि, ध. प. अट्ठ. 1.79. जा. अट्ठ. 5.257; - स्सन्ति भवि., प्र. पु., ब. व., दूर कर अपब्बजित त्रि., पब्बजित का निषे. [अप्रव्रजित], वह, देंगे, मिटा देंगे, त्याग देंगे - ते इमं भोजनं भूजित्वा । जिसने गृहस्थ जीवन को त्याग प्रव्रज्या ग्रहण नहीं की है कामरूपारूपभवेसु सब्बं तहमपनेस्सन्तीति, मि. प. 232; या भिक्षुसङ्घ में प्रवेश नहीं पाया है, गृहस्थ - - नयितुं निमि. कृ., दूर करने के लिये - किं न समत्थो अपब्बजितोपि अयं मोघपुरिसो कप्पट्ठियमेव कम्म इद्धिया अत्तनो उपघातं अपनयितुं. मि. प. 182; - त्वा पू. आयूहिस्सतीति कारुञ्जेन देवदत्तं पब्बाजेसी ति, मि. प. का. कृ., दूर ले जाकर, एक ओर हटा कर - ... तं भिक्खु 117; - ता पु.. प्र. वि., ब. व. - तत्थ चराति अपब्बजिता बाहायं गहेत्वा एकमन्तं अपनेत्वा तं भिक्खु एतदवोच, दी. एव पब्बजितरूपेन रट्ठपिण्ड भुञ्जन्ता पटिच्छन्नकम्मन्तत्ता, नि. 1.202; सो संवेगप्पत्तो कासायानि अपनेत्वा गिहिनियामेन उदा. अट्ठ. 271. परिदहित्वा .... ध. प. अट्ठ. 1.10; - य्य त्रि., सं. कृ., दूर अपबज्जा स्त्री., पब्बज्जा का निषे. [अप्रव्रज्या], प्रव्रज्या किये जाने योग्य, हटाने योग्य, त्यागने योग्य, भगा देने का का अभाव, प्रव्रज्या को ग्रहण न करना, गृहस्थ जीवन - पात्र - अपनेय्येसो, भिक्खवे, पुग्गलो, अ. नि. 3(1).17; - गेहञ्चावसति नरो अपब्बज्ज, दी. नि. 3.1203; तब्ब त्रि., सं. कृ., दूर करने योग्य, मिटाने या हटाने योग्य अपब्बज्जमिच्छन्ति अपब्बज्जं गिहिभावं इच्छन्तो, दी. नि. - साकटा पीळेत्वा अपनेतब्बाकारप्पत्ता अहेसं. जा. अट्ठ. अट्ठ. 3.105. 1.143; - नयितब्ब उपरिवत् - अचिन्तियेन अचिन्तियं अपब्बहित्वा अप + वि ऊह का पू. का. कृ., हटा करके, अपनयितब्ब, मि. प. 182.
रास्ते से अलग करके - एकदिवसं अत्तनोव ... सन्निपतितवाने अपन्थक पु., पन्थक का निषे०, पथभ्रष्ट, राह भटका हुआ कचवरं उभयतो अपब्बहित्वा तं ठानं अतिरमणीयमकासि, व्यक्ति - पन्थकोपि अपन्थकोपि मग्गमूळ्हो होति, जा. अट्ठ. म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).197. 1.385.
अपब्मार त्रि., पब्भार का निषे., ब. स. [अप्राग्भार], तीक्ष्ण अपपञ्चित त्रि., पपञ्चित का निषे., प्रपञ्चों के जाल में ढलान से रहित, खड़ी ढलान न रखने वाला, अप्रपाती, नहीं फंसा हुआ, घरेलू जीवन आदि के झमेलों से मुक्त - समतल तटों वाला/वाली - ..., जाता पोक्खरणी सिवा, वनन्तमभिहारयति अपपञ्चितो गिहिपपञ्चेन वनं एव गच्छेय्य, अकक्कसा अपभारा, साधु अप्पटिगन्धिका, जा. अट्ठ. सु. नि. अट्ठ. 2.193.
5.401; अप. 1.12. अपपतित त्रि..प+पत के भू, क. कृ. का निषे. [अप्रपतित, अपभङ्गु त्रि., पभङ्गु का निषे. [अप्रभङ्गुर], अविनाशी, क्षण-क्षण नहीं भटका हुआ, भटकाव या संभ्रम में नहीं फंसा हुआ - में भग्न या नष्ट न होने वाला - यो तस्स निरोधो वूपसमो धम्मेहि समन्नागतो इमस्मा धम्मविनया अपपतितो ति वच्चति, अत्थङ्गमो, इदं अप्पभड, स. नि. 2(1).31. अ. नि. 1(2).3.
अपभस्सर त्रि, पभस्सर का निषे. [अप्रभास्वर], आभा या अपबोधति व्यु. संदिग्ध, अप + Vबुध अथवा आ + प + । दीप्ति से रहित, चमक-दमक से विहीन - कण्हाति काळका, Vबुध का वर्त., प्र. पु.. ए. व., निवारण या बचाव करता है, चित्तस्स अपभस्सरभावकरणा, ध. स. अट्ठ.98. रोक देता है, अपने को बचाते हुए जानता है - यो निन्दं अपमाण त्रि., अप्पमाण के अन्त. द्रष्ट... अपबोधति, अरसो भद्रो कसामिवाति, स. नि. 1(1).9; ध. प. अपमार/अपस्मार पु.. [अपस्मार], मिर्गी का रोग, मूर्छा 143; यो निन्दं अपबोधतीति यो गरहं अपहरन्तो बुज्झति, स. का रोग - अपमारो अपस्मारो, अभि. प. 325; ... पञ्च नि. अट्ठ. 35; ध, प. अट्ठ. 2.48.
आबाधा उस्सन्ना होन्ति - कुलु, गण्डो, किलेसो, सोसो,
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