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अपरप्पच्चय
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अपराजित
2(1).78; तस्मिं अपरपच्चयाति तस्मिं अरियफले, न अझं पत्तियायन्ति, पच्चक्खतोव पटिविज्झित्वा ठिता, स. नि. अट्ठ. 2.251; - भाव पु.. [अपरप्रत्ययभाव], आत्मनिर्भरता, किसी अन्य के प्रति श्रद्धावान न होने की अवस्था - तं किन्ति केन कारणेन अहं अवेच्च अपरपच्चयभावेन सद्दहेय्यं, पे. व. अट्ठ. 196-197. अपरप्पच्चय- पु., कर्म. स. [अपरप्रत्यय], आत्मनिर्भरता, अन्य के प्रति श्रद्धा का अभाव, दूसरों पर आश्रय का अभाव - सयं अभिआ सच्छिकत्वाति अत्तनायेव पञआय पच्चक्खं कत्वा, अपरप्पच्चयेन ञत्वाति अत्थो, उदा. अट्ठ. 140; म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1).173-74; ... अपरपच्चया आणमेवस्स एत्थ होति, स. नि. 1(2).17; अपरप्पच्चयाति न परप्पच्चयेन, अञस्स अपत्तियायेत्वा अत्तपच्चक्खञाणमेवस्स एत्थ होतीति, स. नि. अट्ठ. 2.30. अपरप्पत्तिय त्रि., अपरपच्चय का ही वैकल्पिक शब्द, परप्पत्तिय
का निषे. [अपरपत्तिक], किसी अन्य पर श्रद्धाभाव न रखने वाला - अपरप्पच्चयोति अपरप्पत्तियो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).178; न परो पत्तियो सद्दहातब्बो एतस्स अत्थीति अपरप्पत्तियो, म. नि. टी. (मू.प.) 1(2).194; अनीतिहन्ति इतिहपरिवज्जितं, अपरपत्तियन्ति अत्थो, अ. नि. अट्ठ. 2.267; रआ नाम... अपरपत्तियेन हुत्वा सब्बानि किच्चानि अत्तपच्चक्खेनेव कातब्बानि, जा. अट्ठ. 5.108. अपरभाग पु., कर्म. स. [अपरभाग], क. काल के सन्दर्भ में, आगे आने वाला समय, भावी समय: 1. क्रि. वि. के रूप में सप्त. वि., ए. व. में - आगे चलकर, बाद में, फलस्वरूप - चक्खादीनं ... पुब्बभागे ... एव अपरभागे अवस्समुप्पत्तितो आरम्मणाधिग्गहितुप्पन्नन्ति वुच्चति, सु. नि. अट्ठ. 1.7; सा अपरभागे अअम्पि पुत्तं लभि, ध. प. अट्ठ. 1. 3; 2. ष. वि. में अन्त होने वाले पद के उपरान्त प्रयुक्त -के पीछे, के उपरान्त- तस्स सत्थुनो अपरभागे कोण्डओ मङ्गलो सुमनो रेवतो ..., ध. प. अट्ठ. 1.49; दीपङ्करस्स पन भगवतो अपरभागे एक असङ्घयेय्यं कोण्डओ नाम सत्था उदपादि, जा. अट्ठ. 1.40; ख. बाद वाला भाग, परवर्ती भाग - .... तस्सेव अपरभागेन कहावितरणेन कथंकथीभावस्स. ..., सु. नि. अट्ठ. 1.8; ग. पश्चिम दिशा -
अपरभागे विसाणाय राजधानिया रज्जंकारेसि, दी. नि. अठ्ठ. 3.135. अपररत्त नपुं.. तत्पु. स. [अपररात्र], रात्रि का उत्तरार्द्ध, रात का अन्तिम प्रहर - रत्तिया पुब्बं पुब्बरतं, रत्तिया अपरं अपररत्तं, पारा. अट्ठ. 1.178.
अपरवत्त नपुं.. [अपरवक्त्रा], एक छन्द का नाम, जिसके प्रत्येक पाद में 11 वर्ण रहते हैं तथा जो अर्धसमवृत्त नामक छन्द-वर्ग के अन्तर्गत वेतालिय का एक प्रभेद है - यदि ननरलगा न जा जरा, यदि च तदापरवत्तमिच्छति, वुत्तो. 114. अपरवम्भना स्त्री., परवम्भना का निषे, दूसरों की अवज्ञा का अभाव, अन्य लोगों की उपेक्षा या तिरस्कार न करना - अयञ्च सम्मादिट्टि ... अरियानं अपच्चनीकता सद्धम्मसञत्ति अनत्तुक्कंसना अपरवम्भना, म. नि. 2.73; 78. अपरवम्भी त्रि., परवम्भी का निषे०, दूसरों की अवज्ञा या निन्दा न करने वाला - .... अनत्तुक्कंसका अपरवम्भी अरञ्जवनपत्थानि पन्तानि ... अञ्जतरो ति, म. नि. 1.25; पुन चपरं, भिक्खु अनत्तुक्कसको होति अपरवम्भी, म. नि. 1.135; - म्भिता स्त्री., अपरवम्भी का भाव., दूसरों की निन्दा न करने की प्रकृति - अनत्तक्कंसकतं अपरवम्भितं
अत्तनि सम्पस्समानो भिय्यो पल्लोममापादिं अरओ विहाराय, म. नि. 1.25. अपरसेल पु., कर्म, स. [अपरशैल], 1. पश्चिम की दिशा में स्थित पर्वत - मंदारो परसेलोत्थो, अभि. प. 6063; 2. एक विहार का नाम, अपरसेलिय के अन्त. द्रष्ट.. अपरसेलिय त्रि., अपरसेल से व्यु. [बौ. सं. अपरशैलीय],
अशोक के समय तक विकसित 18 बौद्ध-निकायों में से एक निकाय तथा उसके अनुयायी - अपरापरं पन हेमवतिका, ....... अपरसेलिया, वाजिरियाति अओपि छ आचरियवादा
उप्पन्ना, कथा. अट्ठ. 105; अन्धका नाम पुब्बसेलिया, अपरसेलिया, ..., इमे पच्छा उप्पन्ननिकाया, तदे. पुब्बसेलियभिक्खू च तथा अपरसेलिया, म. वं. 5.12. अपराजित' त्रि., परा + जि के भू. क. कृ. का निषे. [अपराजित], वह, जो पराजित नहीं हुआ है, नहीं हराया गया, अनभिभवनीय; - तो पु., प्र. वि., ए. व. - अस्थि सक्यकुले जातो, सम्बुद्धो अपराजितो, थेरीगा. 192; अत्थदस्सी तु भगवा, सयम्भू अपराजितो, अप. 1.85; 375; - तं द्वि. वि., ए. व. - एका वासि मया दिन्ना, सयम्भु अपराजितं, अप. 1.233; - ता प्र. वि., ब. व. - एतादिसानि कत्वान, सब्बत्थमपराजिता, सु.नि. 272; सब्बत्थमपराजिताति सब्बत्थ खन्धकिलेसाभिसङ्घारदेवपुत्तमारप्पभेदेसु चतूसु पच्चत्थिकेसु एकेनापि अपराजिता हुत्वा, सयमेव ते चत्तारो मारे पराजेत्वाति वुत्तं होति, खु. पा. अट्ठ. 125; - ते द्वि. वि., ब. व. - पच्चेकबुद्धेनेकसते, सयम्भू अपराजिते. अप. 1.3; - ट्ठान
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