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अनभाव
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अनभिनन्दित
गतो, पे. व. 87; अनभितोति अनव्हातो, एहि महं पत्तभावं उपगच्छाति एवं अपक्कोसितो, पे. व. अट्ठ. 54; अनव्हितो । अयाचितो, जा. अट्ठ, 3.142, पाठा. अनव्हितो; 2. विनय के विशेष सन्दर्भ में, सङ्घ में पुनः प्रविष्ट न होने योग्य, आह्वान (अब्भान) के अयोग्य - सो च भिक्ख अनभितो, पारा. 2903; अनभितोति न अभितो, असम्पटिच्छितो अकतब्भानकम्मोति वृत्तं होति, पारा. अट्ठ. 2.193; - टि. विनय-आपत्ति में आपन्न भिक्षु मानत्त अथवा परिवास का पालन कर लेने के बाद सङ्घ में पुनः प्रवेश देने के योग्य बन जाता है, तथा ऐसा भिक्खु 'अस्मानारह' भिक्खु कहलाता है, किन्तु जब तक सङ्घ उसे पुनः प्रवेश योग्य नहीं मानता, तब तक वह 'अनभित' स्थिति में रहता है. अनभाव पु.. [अन्वभाव]. पीछे होने वाला अभाव या अनस्तित्व, उच्छेद, निरोध, अविद्यमानता, अनुपस्थिति - भिक्खु उप्पन्नं कामवितक्क ... ब्यन्तिं करोति अनभावं गमेति, दी. नि. 3.180; म. नि. 1.15; अनभावं गमेतीति अनु अनु अभावं गमेति, म. नि. अट्ट (मू.प.) 1(1).88; म. नि. 1.285; अ. नि. 1(2).16; न अनभावं गमेतीति न अनुअभावं अवड्डि विनासं गमेति, अ. नि. अट्ठ. 2.250; महानि. 77; - कत त्रि., [अन्वभावकृत], आगे चलकर निरुद्ध या विनष्ट, बाद में समुच्छिन्न - ये ते, ब्राह्मण, रूपभोगा ... ते तथागतस्स पहीना ... अनभावंकता आयतिं अनुप्पादधम्मा, पारा. 2; यथा नेसं पच्छाभावो न होति, तथा कता होन्ति, तस्मा आह- अनभावंकताति, अयज्हेत्थ पदच्छेदो - अनुअभावं कता अनभावंकताति. अनभावं गता तिपि पाठो, तस्स अनुअभावं गताति अत्थो, तत्थ पदच्छेदो अनुअभावं गता अनभावं गताति यथा अनुअच्छरिया अनच्छरियाति, पारा. अट्ठ. 1.97, अप. अनभावकत. अनभिज्झा स्त्री., अभिज्झा का निषे., तत्पु. [अनभिध्या]. अलोभ, अनासक्ति, तीन कुशलमूलों में से एक, विराग, तृष्णा का अभाव - चत्तारि धम्मपदानि- अनभिज्झा धम्मपदं ... सम्मासमाधि धम्मपदं, दी. नि. 3.183; अनभिज्झा धम्मपदं नाम अलोभो वा अलोभसीसेन अधिगतज्झानविपस्सनामग्गफलनिब्बानानि वा, दी. नि. अट्ट. 3.186; अहमेतं अनभिज्झं धम्मपदं पच्चक्खाय, अ. नि. 1(2).35; अनभिज्झातिआदीसु अभिज्झापटिक्खेपेन अनभिज्झा, अ. नि. अट्ठ. 2.280; - लु त्रि., [अनभिध्यालु]. निस्पृह, निराकांक्ष, तृष्णाविनिर्मुक्त, अलोभी, लोभरहित - अनभिज्झालूति नित्तण्हो हुत्वा, अ. नि. अट्ठ. 2.2803;
अभिज्झालनोपि अनभिज्झालुनोपि, दी. नि. 1.123; मयमेत्थ अनभिज्झालू भविस्सामा ति सल्लेखो करणीयो. म. नि. 1.53; अनभिज्झालुस्स अभिज्झा पहीना होति, नेत्ति. 43; - सहगत त्रि. [अनभिध्यासहगत], लोभरहित, तृष्णाविनिर्मुक्त, अनासक्त - अनभिज्झासहगतेन चेतसा विहरति, म. नि. 3.98. अनभिज्झित त्रि., निषे. तत्पु. [अनभिध्यित], अभिध्या, आसक्ति तथा लोभादि से रहित, तृष्णा का अनालम्बन या अविषय - अनभिज्झितं सेरितं पेक्खमानो, एको चरे खग्गविसाणकप्पो, सु. नि. 40; एवं सन्तपि लोभाभिभूतेहि सब्बकापुरिसेहि अनभिज्झिता अनभिपत्थिता पब्बज्जा तं अनभिज्झितं परेसं अवसवत्तनेन धम्मपुग्गलवसेन च सेरितं पेक्खमानो, सु. नि. अट्ठ. 1.67. अनभिज्झितु पु., क. ना. का निषे०, अभिध्या, से रहित, आसक्ति-विरहित, लोभादि से मुक्त - यं तं परस्स परवित्तुपकरणं तं अनभिज्झाता होति, अ. नि. 3(2).254. अनभिज्ञात त्रि., अभिज्ञात का निषे. [अनभिज्ञात], वह,
जो अच्छी तरह से ज्ञात न हो अथवा जो अभिज्ञा नामक अर्हत् के ज्ञान का विषय न हो - अमतं तेसं भिक्खवे, अनभिज्ञातं येसं कायगतासति अनभिज्ञाता, अ. नि. 1(1).62; तत्थ अञतरोति नामगोत्तवसेन अनभिज्ञातो
अपाकटो एको, उदा. अट्ठ. 43. अनभिज्ञाय अभि + Vञा के पू. का. कृ. का निषे. [अनभिज्ञाय], ठीक से न जानकर, अभिज्ञा ज्ञान द्वारा ग्रहण न कर - एतेते उभो अन्ते अनभिज्ञआय ओलीयन्ति एके, उदा. 154; उभो अन्ते अनभिआयाति ते एते यथावुत्ते उभोपि अन्ते अजानित्वा, उदा. अट्ठ. 287. अनभिनत अभि + /नम के भू, क. कृ. का निषे. [अनभिनत], राग आदि क्लेशों के प्रति असमर्पित या अविषयीभूत, राग आदि क्लेशों से मुक्त - सतिमतो विपस्सिस्स अनभिनतस्स नो अपनतस्स, म. नि. 2.55; अनभिनतं चित्तं रागे न इजतीति आनेज, पटि. म. 377. अनभिनन्दन/अनभिनन्दना नपुं./स्त्री॰ [अनभिनन्दन,
अनभिनन्दना], अप्रसन्नता, अप्रासादिकता, असुमनस्कता - ... तेसमयं दिट्टि असारागाय सन्तिके, ... अनभिनन्दनाय
सन्तिके अनज्झोसानाय सन्तिके..... म. नि. 2.81. अनभिनन्दित त्रि., अभिनन्दित का निषे., तत्पु. [अनभिनन्दित], वह, जिसका स्वागत न किया गया हो, अवाञ्छित, वह, जो अभीष्ट न हो, नहीं इच्छित - सो सुखञ्चे वेदनं वेदेति
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