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अपतन
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अपत्थद्ध
[अपतमान], शा. अ. नीचे की ओर न गिरने वाला, ला. अ. चार प्रकार की अधम गतियों में उत्पन्न न होने वाला -... चतूसु अपायेसु अपतमाने धारेतीति धम्मो, उदा. अट्ठ. 234. अपतिका/अपतीका स्त्री., ब. स. [अपतिका], बिना पति वाली विधवा अथवा अविवाहित कुमारी - वेधवेराति विधवा अपतिका, जा. अट्ठ. 4.165; कुमारिकं वा अपतिक, पारा.
200.
अपण्णकट्ठानं..., जा. अट्ठ. 1.111; - ता स्त्री., अपण्णक का भाव., सुनिश्चितता, परिपूर्णता, अविरुद्धता - सचे तस्स भोतो सत्थुनो सच्चं वचनं, अपण्णकताय मह...स. नि. 2(2).328; अपण्णकताय मय्हन्ति अयं पटिपदा मयह अपण्णकताय अनपराधकताय एव संवत्ततीति अत्थो, स. नि. अट्ठ. 3.146; - धम्मदेसना स्त्री., कर्म. स., उत्तम धर्मोपदेश, सुस्पष्ट एवं सुनिश्चित अर्थ वाला धर्मोपदेश - इमं ताव अपण्णकधम्मदेसनं भगवा सावत्थिं उपनिस्साय जेतवनमहाविहारे विहरन्तो कथेसि, जा. अट्ठ. 1.104; 113; ... इमिस्सा अपण्णकधम्मदेसनाय अभिसम्बुद्धो हुत्वा इमं गाथमाह, जा. अट्ठ. 1.111; - पटिपदा स्त्री., कर्म. स., पूरी तरह से सुरक्षित मार्ग, जटिलता से मुक्त मार्ग, अष्टाङ्गिकमार्ग - सब्बम्पेतं अपण्णकट्ठानं अपण्णकपटिपदा, निय्यानिकपटिपदाति अत्थो, जा. अट्ठ. 1.111; धम्मेहि समन्नागतो भिक्खु अपण्णकपटिपदं पटिपन्नो होति, अ. नि. 1(2).89; ततियवग्गस्स पठमे अपण्णकप्पटिपदन्ति अविरद्धप्पटिपदं, अ. नि. अट्ठ. 2.311; - वग्ग पु., व्य. सं., 1. जा. अट्ठ. के एक खण्ड का शीर्षक, जा. अट्ट, 1.104-1463; 2. अ. नि. के एक वर्ग का नाम, अ. नि. 1(2).89-96; - वचन नपुं., कर्म. स., निश्चय का अर्थ कहने वाला वचन, सार-तत्त्व से परिपूर्ण वचन - अद्धाति एकसवचनं .... अपण्णकवचनं अवत्थापनवचनमेतं अद्धाति, महानि. 2; अपण्णकवचनन्ति पलासरहितं सारवचनं अविरद्धकारणं अपण्णकं ठानमेके तिआदीसु विय, महानि. अट्ठ. 15; - सुत्त नपुं.. 1. म. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, म. नि. 2.71-83; 2. अ. नि. के एक सुत्त का शीर्षक, अ. नि. 1(1).136-137. अपतन' त्रि., पतन का निषे. [अपतन], उड़ने में अक्षम, न उड़ने योग्य - सन्ति पक्खा अपतना, सन्ति पादा अवञ्चना, जा. अट्ठ. 1.211; तत्थ सन्ति पक्खा अपतनाति मय्हं पक्खा नाम अत्थि उपलब्मन्ति, तदे.. अपतन' नपुं., पतन का निषे, नहीं गिरना, केवल स. प. के पू. प. के रूप में ही प्रयुक्त; - धम्म त्रि., ब. स. [अपतनधर्म], पतन की ओर न जाने वाला, बुरी गतियों में पतित न होने वाला - अविनिपातधम्मोति चतूसु अपायेसु अपतनधम्मो, दी. नि. अट्ट, 1.252; - सभाव त्रि०, ब. स. [अपतनस्वभाव], उपरिवत् - चतूस अपायेसु उपपज्जनवसेन
अपतनसभावोति अत्थो, उदा. अट्ठ. 236. अपतमान त्रि., पत के वर्त. कृ., आत्मने का निषे.
अपत्तक त्रि., ब. स. [अपात्रक], बिना भिक्षापात्र वाला, भिक्षापात्र न रखने वाला - ... भिक्खू अपत्तकं उपसम्पादेन्ति, महाव. 114; न, भिक्खवे, अपत्तको उपसम्पादेतब्बो, तदे.. अपत्तचीवरक त्रि., ब. स. [अपात्रचीवरक], भिक्षापात्र एवं चीवर से विहीन - ... भिक्खु अपत्तचीवरकं उपसम्पादेन्ति, महाव. 114. अपत्तिक त्रि., अपत्ति से व्यु. [अप्राप्तिक], दूसरों द्वारा फल का भाग नहीं प्राप्त किए जाने योग्य (दान आदि)- इत्थीहि अपत्तिकं करोमा ति एते वदन्तीति, दी. नि. अट्ठ. 2.274. अपत्तियायेत्वा पत्तियायति के पू. का. कृ. का निषे., विश्वास न करके, भरोसा न करके - अपरप्पच्चयाति न परप्पच्चयेन, अञ्जस्स अपत्तिययेत्वा अत्तपच्चक्खञाणमेवस्स एत्थ होतीति, स. नि. अट्ठ. 2.30. अपत्थ' त्रि., अप + अत्थ- का ब. स. [अपार्थ], निरर्थक, बिना अर्थ या तात्पर्य वाला - ब्याहतं पुनरुत्तं वा, अपत्थं वा निरत्थक, अप. 2.154. अपत्थ- त्रि., अप+ अस के भू. क. कृ. से व्यु. [अपास्त]. दूर फेंक दिया गया, बेकार समझ कर छोड़ दिया गया - यानिमानि अपत्थानि, अलाबूनेव सारदे, ध. प. 149; तत्थ अपत्थानीति छड्डितानि, ध. प. अट्ठ. 2.62. अपत्थट त्रि०, अप + vथर का भू. क. कृ. [अपस्तृत], ढक दिया गया, पिनद्ध, पिहित, बन्द - रहदेहमस्मि ओगाळहो, अहारियजमत्तिके, मायाउसूयसारम्भ, थिनमिद्धमपत्थटे थेरगा. 759. अपत्थद्ध त्रि., अप + vथम्म का पू. का. कृ. [अवस्तब्ध], अपने ऊपर दर्प या अभिमान करने वाला, घमण्ड करने वाला - सकुणग्घि सके बले अपत्थद्धा सके बले असंवदमाना लापं सकुणं पमुञ्चि, स. नि. 3(1).225; दी. नि. अट्ठ. 3.27; अपत्थद्धाति अवगाळहत्थम्भा सञ्जातत्थम्भा, लीन (दी.नि.टी.) 3.23.
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