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अञभागीय
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अञ्जवादक
अञभागीय त्रि., [अन्यभागीय], दूसरे व्यक्ति या वस्तु से सम्बन्धित - स्स ष. वि., ए. व. - आयस्मन्तं दब्बं मल्लपुत्तं अञभागियस्स अधिकरणस्स ... उपादाय पाराजिकेन धम्मेन अनुद्धसेथा ति, पारा. 262. अञमञ त्रि., [अन्योन्य]. 1. एक दूसरे को, आपस में, परस्पर में क. कर्म के रूप में - चंद्वि . वि., ए. व. - ते न सक्कोम सापेतुं अञमचं मयं उभो, सु. नि. 602; भिक्खू अञमझं आवुसोवादेन समुदाचरन्ति, दी. नि. 2.115; ख. क्रि. रू. एवं ना. रू. से पूर्व क्रि. वि. के रूप में - तुम्हे अज्ञमचं किं होथा ति पुट्ठा.... जा. अट्ठ. 4.103; अञमझं अच्चयं देसेत्वा .... ध प. अट्ठ. 1.36; 2. एक के बाद एक करके, विविध रूप से, भिन्न प्रकार से - अञमझं कायसमाचारं ... वचीसमाचारं ... मनोसमाचार ... तञ्च अञ्जमझं अत्तभावपटिलाभान्ति, म. नि. 3.94; तुल. अओञ; - पत्थम्म पु., [अन्योन्योपस्तम्भ], पारस्परिक सहारा - म्भेन तृ. वि., ए. व. - अरओ जातरुक्खापि सम्बहुला अञमञ्जूपत्थम्भेन ठिता साधुयेव, जा. अट्ट, 1.314; - पत्थम्भक त्रि., [अन्योन्योपस्तम्भक], परस्पर में एक दूसरे को सहारा देने वाला - कं द्वि. वि., ए. व. - अञमञ्जूपत्थम्भकं तिदण्डकं विय, विसुद्धि. 2.164; - उपनिस्सित त्रि., एक दूसरे पर निर्भर, परस्पर एक दूसरे पर आश्रित - त्ता प्र. वि., ब. व. - यञ्चेव तत्थ नाम, यञ्चेव रूपं, उभोपेते अञमञ्जूपनिस्सिता, मि. प. 48; - खादिका स्त्री., परस्पर में एक दूसरे का भक्षण - अञमञ्जखादिका एत्थ, भिक्खवे, वत्तति दुब्बलखादिका, म. नि. 3.208; अञमञखादिका ति अञमञखादनं. म. नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.156; - गुत्त त्रि., [अन्योन्यगुप्त अन्योन्यगुप्ता], परस्पर में संरक्षित, पारस्परिक रूप से रक्षित, अन्योन्याश्रय रूप से रक्षित - एवं मयं अञमचं गुत्ता अञ्जमज़ रक्खिता सिप्पानि चेव दस्सेस्साम, स. नि. 3(1).244; - चतुक्क नपुं., विभ. के एक खण्डविशेष का एक शीर्षक, विभ. 177-186; - चित्त त्रि., चञ्चल-चित्त, ढुलमुल चित्त, लघुचित्त, चलचित्त - तानं ष. वि., ब. व. - नहि अञचित्तानन्ति अञ्जनओन चित्तेन समन्नागतानं, लहुचित्तानन्ति अत्थो, जा. अट्ट, 4.51-52; - पच्चय 1. त्रि. [अन्योन्यप्रत्यय], परस्पर में एक दूसरे के साथ कार्यकारण-भाव से जुड़े हुए - या प्र. वि., ब. व. - भावनाय चत्तारिन्द्रियानि तदन्वया होन्ति, सहजातपच्चया होन्ति अञमञ्जपच्चया होन्ति, पटि. म. 235; 2. पु., परस्पर
निर्भरता - अज्ञमञ्ज उप्पादनुपत्थम्भनभावेन उपकारको धम्मो अञमञ्जपच्चयो, विसुद्धि. 2.164; 3. पट्ठान-प्रकरण में प्रतिपादित चौबीस प्रत्ययों के बीच सातवां पच्चय, द्रष्ट. पच्चय के अन्त.; - पच्चयता स्त्री. भाव., परस्पर-सापेक्षता -- सङ्घारपच्चयापि अविज्जाति अञमञ्जपच्चयता दस्सिता, विभ. अट्ठ. 197; - भोजन त्रि., ब. स. [अन्योन्यभोजन], परस्पर में एक दूसरों को खाने वाले - नानं पु., ष. वि., ब. व. - तेसं अञमञभोजनानं वीतिहरणं सखिक अत्तनो पच्चक्खं कत्वा अद्दस, जा. अट्ठ. 6.183; - लग्ग त्रि., [अन्योन्यलग्न], एक दूसरे के साथ संलग्न या जुड़ा हुआ - परम्परासंसत्ताति अञ्जमझं लग्गा, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.298; पाठा. अञमझं लग्गा; - वचन नपुं.. [अन्योन्यवचन], एक दूसरे के लिए हितकारक वचन - नेन तृ. वि., ए. व. - एवं संवद्धा हि तस्स भगवतो परिसा यदिदं अञमञवचनेन अञ्जमजवुठ्ठापनेनाति, पारा. 278; - वुट्ठापन नपुं., [अन्योन्योत्थापन], परस्पर में एक दूसरे को प्रबोधन या उद्बोधन - नेन तृ. वि., ए. व. - यदिदं अञमञवचनेन अञमजवुद्धापनेनाति, पारा. 278; - वेवचन नपुं., आपस में पर्यायवाची - आरा दूरे ति अञमञवेवचनं. जा. अट्ठ. 4.32; कुहिं गता कत्थ गताति अञमञ्जवेवचनानि, जा. अट्ठ. 3.190. अञ्जमोक्ख त्रि., [अन्यमोक्ष], किसी अन्य की सहायता द्वारा मुक्ति प्राप्त करने वाला - क्खा पु., प्र. वि., ब. व. - ते दुप्पमुञ्चा न हि अञ्जमोक्खा, सु. नि. 779; न हि अञ्जमोक्खाति अञ्जेन च मोचेतुं न सक्कोन्ति, सू. नि. अट्ठ 2.211. अञरुचिक त्रि., [अन्यरुचिक], भिन्न रुचियों वाला, भिन्न मनोवृत्ति वाला - केन पु., तृ. वि., ए. व. - दुज्जानं अञदिटिकेन अञखन्तिकेन अञरुचिकेन अञत्रायोगेन अञत्राचरियकेन ..., दी. नि. 1.166. अञवादक त्रि., पूछे गये प्रश्न से बचकर कोई अन्य बात करने वाला, सङ्घ में उठाये मूल मुद्दे से हटकर इधर-उधर की बात करने वाला - को पु., प्र. वि., ए. व. - अञ्जवादको नाम सङ्घमज्झे वत्थुस्मिं वा आपत्तिया वा अनुयुञ्जीयमानो तं न कथेतुकामो तं न उगघाटेतुकामो अजेनझं पटिचरति - को आपन्नो, कि आपन्नो किस्मि आपन्नो, कथं आपन्नो, के भणथ, कि भनथाति, एसो अञ्जवादको, पाचि. 56; - पद नपुं., पाचि. के एक खण्ड का शीर्षक, पाचि. 54-57.
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