________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
अतिरेक
6.227 तरवण्ण त्रि. ब. स. [अतिरेकतरवर्ण] दूसरों की अपेक्षा अत्यधिक सुन्दर रूप वाला भिय्यो वण्णवती सियाति अतिरेकतरवण्णा भवेष्यासीति, जा. अड. 4.98 - ता स्त्री०, अतिरेक का भाव, श्रेष्ठता, उत्तमता, उत्कृष्टता
अस्थि बुद्धानं बुद्धेहि हीनातिरेकताति, कथा. 489; दसवग्ग त्रि.. [अतिरेकदशवर्ग]. ऐसा वर्ग (समूह), जिसमें दस से अधिक की संख्या वाले सदस्य या अवयव (भाग) हों - अनुजानाभि, भिक्खवे, दसवग्गेन वा अतिरेकदसवग्गेन वा गणेन उपसम्पादेतुन्ति, महाव. 66: धम्म त्रि. ६. स. छोड़ने योग्य अथवा त्यागने योग्य बातें या धर्म - सिया च में पिण्डपातो अतिरेकधम्मो छडनीयधम्मो म. नि. 1.17: अतिरेकोव अतिरेकधम्मो म. नि. अड. (मू.प.) 1 ( 1 ). 101: पञ्चक त्रि.. ऐसा समूह जिसमें पांच से अधिक लोग हों
न अञ्ञत्र पञ्चकेन वा अतिरेकपञ्चकेन वा तदहेव सञ्छिन्नेन - अत्थतं होति कथिनं, महाव. 331-332; पञ्चमासक त्रि, पांच माशा से अधिक वजन वाला या मूल्य वाला चोरो नाम यो पञ्चमासकं वा अतिरेकपञ्चमासकं वा आदियति पारा 53; - पज्ञावेय्यत्तिय नपुं. आवश्यकता से अधिक बुद्धिमत्ता चक्करतने उप्पन्नमत्ते अतिरेकपञ्ञवेय्यत्तियेन समन्नागतो होति. खु. पा. अड्ड. 139 पण्णास / पञ्ञास क्रि पचास से अधिक की संख्या वाला कूटतास तत्थ अतिरेकपण्णासवस्सानि वसि, जा. अट्ठ. 2.314; - पत्त पु०, [अतिरेकपात्र], अतिरिक्त भिक्षापात्र - अनुजानामि, भिक्खवे, दसाहपरमं अतिरेकपत्तं धारेतुं पारा 365 - पदसत नपुं०, एक सौ से अधिक गाथापद महाकाळनागराजा अतिरेकपदसतेन वण्णं वदन्तो अद्वासि, जा. अड. 1.81 - पाद त्रि०, ब० स०, एक पाद से अधिक मूल्य वाला यथारूपं नाम पादं वा पादारहं वा अतिरेकपादं वा पारा 53: - प्पमाण त्रि. ब. स. [ अतिरेकप्रमाण], असाधारण आकार प्रकार वाला अतिरेकप्पमाणं भासति जा. अनु. 3.89पूजा स्त्री०, विशिष्ट प्रकार की पूजा ते न अतिरेकपूजाय पूजेता होति. म. नि. 1.284 भाग पु उचित भाग से अधिक अञ्जतरो भिक्खु अतिरेकभागेन उत्तरितुकामो होति. महाव, 376; लाभ पु. अतिरिक्त लाभ, अनुमोदित वस्तुओं के अतिरिक्त अन्य का लाभ अतिरेकलाभो सङ्घभत्तं, उद्देसभतं, निमन्तनं महाव. 65; - वीसतिवग्ग त्रि. बीस से अधिक संख्या वाला वर्ग या मण्डली - अतिरेकवीसतिवग्गो भिक्खुसहो महाव. 416 वीसतिवस्स
-
-
...
-
-
www.kobatirth.org
—
116
अतिवत्त
त्रि, बीस वर्ष से अधिक आयुवाला वीसतिवस्सो वा होति अतिरेकवीसतिवस्सो वा अ. नि. 3 (1)108: सञ्जी त्रि.. [अतिरेकसञ्ज्ञी] अधिक की संज्ञा रखनेवाला, किसी धर्म के अत्यधिक होने की अवस्था के प्रति सचेष्ट अतिरेकद्धमासे सेसे गिम्हाने अतिरेकसञ्जी कत्वा निवासेति पारा. 378; विलो. ऊनकसञ्ञी; - सत्त [ सप्त], सात से अधिक संख्या वाला मग कनिस्स अतिरेकसत्तमाससत्तदिवसाधि कानि सत्तवस्सानि निक्खन्तस्सा ति... जा. अट्ठ. 5.311. अतिरोचति अति + √रुच का वर्त प्र. पु. ए. व. [अतिरोचति] दूसरों की तुलना में अधिक प्रकाशित होता है, विशिष्ट गुणों के कारण बहुतों के बीच प्रमुख होता है
अतिरोचति पञ्ञाय, सम्मासम्बुद्धसायको ध. प. 59: भिक्खु दिसन्धि अनुदिसम्पि उद्धम्पि अघोधि तिरियम्पि विरोचति अतिरोचति मि. प. 305: सब्बे तारागणे लोके, आभाय अतिरोचति जा. अड. 5.56.
अतिलहु तृ. वि. प्रतिरू, निपा क्रि. वि. बहुत हल्केपन से, अत्यन्त शीघ्रता के साथ बिना सोचे-विचारे ही अतिलहं खो त्वं मोघपुरिस, बाहुल्लाय आवत्तो यदिदं गणबन्धिक, महाव, 66 क अ उपरिवत् अतिचिरम्पि तिद्वन्ति, अतिलहुकम्पि तिट्ठन्ति चूळव. 358, पाठा. अतिलम्पि
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
For Private and Personal Use Only
-
"
अतिलीन त्रि.. अत्यन्त दुर्बल, अत्यन्त क्षीण, अतीव कृश - इति मे वीरियं न च अतिलीनं भविस्सति न च अतिप्यग्गहितं भविस्सति स. नि. 3 ( 2 ) 337 वीरिय नपुं अत्यन्त शिथिल पराक्रम, अत्यन्त मन्द प्रयास न अच्चारद्धवीरियं, न अतिलीनवीरियं म. नि. 3.199. अतिलूख त्रि. [ अतिरुक्ष] अधिक रूखा, अत्यन्त कड़ा, अतिशय कठोर - सचित्तं परिदूसेन्ति अतिलूखे पि पच्चये, सद्धम्मो . 409.
अतिलोण त्रि, [ अतिलवण] अत्यधिक नमकीन रातो पट्ठाय यागुं ददमाना अच्चुण्डं वा अतिसीतलं वा अतिलोणं वा अलोणं वा देति, जा. अट्ठ. 3.374.
अतिवक त्रि. [अतिवक्र], अत्यधिक टेढ़ा अग्गे अतिवङ्कानीति वातिवानि, जा. अड. 1.162. अतिवत्तत्र अति + वत का भू. क. कृ. [अतिवृत्त], हो चुका, पीछे जा चुका, बीत चुका पार किया जा चुका अतिवत्ता लोकधम्मा, तस्मा अरहा न तसति सब्बभयेहि, मि. प. 147, मुत्तो अज्ज त्वं इतो पहाय सब्बभयानि अतिवत्तो
जा. अट्ठ. 5.79.
-
-