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महावीर ग्रंथमाला--१७ वां पुष्प
महाकवि दौलतराम कासलीवाल
व्यक्तित्व एवं कृतित्व
लेयक डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल
एम. ए., पी-एच. डी., शास्त्री
भूमिका डा० हीरालाल माहेश्वरी एम. ए., एल-एल. बी., डी. फिल., डी. लिट.
प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर
प्रकाशक
सोहनलाल सोगाणी
मंत्री प्रबन्धकारिणी कमेटी वि० जन प्र० क्षेत्र श्रीमहावीरजी,
महाबोर भवन, जयपुर -३
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विषय-सूची
प्रकाशकीय
प्राभार
भूमिका
प्रस्तावना
ओषधरस्वामि चरित
पूरी कृति)
विवेक बिल्लास
७३-१५०
अध्यात्म बारहखड़ी
आंशिक पाक
१५१-२४२
श्रीपाल चरित
२४३-२५२
पपपुराण भाषा
२५३-२८०
हरिवंश पुराण भाषा
२८१-२६४
परमात्मप्रकाग भाषा टीका
२६५-०६८
प्रादिपुराणा
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प्रकाशकीय
" महाकवि दौलतराम कासनीवाल -व्यक्तित्व एवं कृतित्व " पुस्तक को पाठकों के हाथों में देते हुए हमें प्रत्यधिक प्रसन्नता है। श्री महावीर ग्रंथमाला का यह १७ वा प्रकाशन है। इनमें राजस्थान के जन सास्त्र भण्डारों को अन्य सूची के पांच भाग. प्रशस्ति संग्रह, प्रद्य म्नचरित, जिदात परित राजस्थान के जैन सातव्यक्तित्व एव कृतित्व, Jaina Grantha Bhandars in Rajasthan, हिन्दी पद संग्रह जैसी महत्त्वपूर्ण पुस्तकों के नाम उल्लेखनीय है । "राजस्थान के जैन सन्त', पुस्तक पं. गोपालदास वरय्या पुरस्कार द्वारा पृ:स्कृत होना हमारे प्रकाशनों के स्तर की ओर एक संकेत है । क्षेत्र द्वाग मंचालित साहित्य शोध विभाग का मुख्य उद्देश्य प्राचीन एवं अलभ्य साहित्य का संरक्षण, महत्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रकाशन तथा राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों का सूचीकरण करना रहा है। इस उद्देश्य में उसे कहाँ तक सफलता मिली है इसके बारे में तो विद्वान ही कुछ कह सकते हैं। लेकिन क्षेत्र द्वारा प्रकाशित साहित्य हे अाधार पर देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में जनधर्म एवं साहित्य के प्रति विद्वानों में जो सूचि पैदा हुई है वह इसकी प्रगति का शुभ सूपक है । इसके अतिरिक्त साहित्य शोध विभाग में जितनी अधिक संख्या में विद्वान एवं शोध छात्र अपने शोध कार्य के लिये प्राने लगे हैं वह भी जैन साहित्य के प्रति विद्वानों की अभिरुवि में वृद्धि का एक कदम है ऐसा हमारा विश्वास है।
जयपुर नगर गत २४५ वर्षों से जन विद्वानों का केन्द्र रहा है। हिन्दी साहित्य की इन्होंने जो महत्वपुर्ण सेवा को थी वह देश के विद्वानों से छिपी नहीं है। इन . धानों में दौलतराम जी, टोडरमल जी, बखतराम जी, जयचन्द जी, पारसनाम जी, सदासुख जी, गुमानीराम, चंगाराम भांवसा पादि के नाम उल्लेखनीय है । इन विद्वानों में से 40 टोडरमल जी के बारे में तो समाज अवश्य जानता है लेकिन अन्य विद्वानों के सम्बन्ध में विशेष जानकारी बहुत कम लोगों को है । दौलतराम कासलीवाल जयपुर नगर के ऐसे ही प्रथम महाकवि थे जिनके ग्रन्थों का हम स्वाध्याय तो करते रहते हैं लेकिन उनके व्यक्तित्व के बारे में अधिक नहीं जानते । इन्होने हिन्दी भाषा में १८ ग्रन्थों की रचना करके साहित्य की महान सेवा की थी। प्रस्तुत पुस्तक में उनके विस्तृत जीवन परिचय के अतिरिक्त या कासलीवाल जी ने तत्कालीन जयपुर के विद्वानों एवं
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राजनैतिक तथा सामाजिक स्थिति के सम्बन्ध में भी अच्छी जानकारी दी है । पुस्तक में उनकी दो महत्वपूर्ण कृतियों - जीवन्धर चरित एवं विवेक विलास को पूर्ण रूप से तथा अन्य कुछ कृतियों के पाश दिये गये हैं । हमारा विश्वाम है कि हिन्दी साहित्य पर काम करने वाले विद्वानों के लिये यह पुस्तक उपयोगी एवं महत्वपुर्ण सिद्ध होगी। प्रस्तुत पुस्तक हिन्दी के जैन कवियों को प्रकाश में लाने की हमारी योजना का एक शुभारम्भ है।
हिन्दी जैन कवियों पर विस्तृत परिचयात्मक पुस्तकों के अतिरिक्त भगवान महावीर के जीवन से सम्बन्धित हिन्दी कृतियों के सम्पादन का कार्य भी चल रहा है। इनके प्रकाशन का कार्य भी शीघ्न ही प्रारम्भ होने वाला है ।
पुस्तक की भूमिका लिखने में राजस्थानी भाषा एवं साहित्य के यघिकारी विद्वान् डा. हीरालाल जी माहेश्वरी ने जो कष्ट उठाया है इसके लिये हम उनके पूर्ण प्राभारी हैं।
सोहनलाल सोगाणी
मंत्री
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भूमिका
णोध मनन और महानता की दृष्टि से हिन्दी भाषा पौर माहित्य के अनेकविध अध्ययन में बहुत सी जिज्ञासामों, पूर्वापर सम्बन्ध सूत्रों के प्रोझल रह जाने के कारण उत्पन्न उलझनों और समस्याघों का सामना करना पड़ता है । ये समस्याए भिन्न-भिन्न रूपों में हिन्दी के विद्वानों और शोधकों के सम्मुख यदाकदा पाती रहती हैं। जहां तक जनसाधारण का प्रश्न है, वह तो बड़ी बोली' को, जो राष्ट्र भाषा के रूप में स्वीकृत है, हिन्दी मानता है किन्तु हिन्दी से थोड़ा-बहुत भी प्रेम रखने वाले यह जानते हैं कि हिन्दी की इयता बड़ी होली की नई तिहानों ने पनिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी, राजम्यानो, बिहारी तथा पहाड़ी और इनकी बोलियों को हिन्दी के अन्तर्मन ममझा है । कतिपय विद्वानों ने पश्चिमी हिन्दी और पूर्वी हिन्दी को बोलियों को हिन्दी के अन्तर्गत लेने का सुझाव दिया है । इस प्रकार, मोटे रूप में हिन्दी के अर्थ के सम्बन्ध में ये तीन मत प्रचलित है। भाषा सानिक दृष्टि से मैथिली, बज. राजस्थानी, अवधी और खड़ी बोली पृथक्-पृथक् भाषाए हैं, पर साहित्यिक दृष्टि से विद्वान इनमें लिखे गार साहित्य को हिन्दी साहित्य के अन्तर्गत ममझने हैं, और यह तो स्वीकृत तथ्य है ही कि परिमाण और गुण की दृष्टि में इन पांचों में लिखा गया साहित्य बहुत ही महत्वपूरणं है । ___ इसके अतिरिक्त हिन्दी में बहुत बड़े परिमाण में एक प्रकार के मिश्रित साहित्य का भी निर्माण हुमा है । यह उस मिश्रित भाषा में रया गया है जो प्रमुखतः दो भाषाओं के संकलन और एकीकरण से बनी है, पया-- राजस्थानी और ब्रज जिसे पिंगल कहते हैं, राजस्थानी और बड़ी बोली (जिसके उदाहरण झूलएा, नीसारणी और वरिल्ल छन्दों में चित प्रचुर रचनाए हैं।, आज मौर खड़ी बोली । पं० टोडरमल, पं० दौलतगम कामनीयान प्रादि भनेक लेखकों की गद्य रचनाएं इसी प्रकार की हैं। मिश्रित भाषा का आधारभूत व्याकरणिक ढांचा तो प्राय: एक भाषा का ही रहता है परन्तु दूसरी भाषा स्पष्टत: अन्योन्याश्रित रूप से समीकृत हुई रहती है। कहना न होगा कि "पिंगल" के अतिरिक्त अन्य ऐसी किसी भी मिश्रित भाषा' और उसके साहित्य का अध्ययन हिन्दी में नहीं हुआ है । मैं कहना चाहता हूं कि मिश्रित भाषा का ऐसा समवाय और समवायिक मिश्रित भाषानों का प्रचारप्रसार हिन्दी भाषा के इतिहास की महनीय घटना है, यह उसको समन्वया
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स्मक प्रवृत्ति और सरलीकरण का उद्घोष है। शोधाथियों को इस प्रोर प्रेरित होना चाहिए।
इसलिए जब हिन्दी संज्ञा के अन्तर्गत उसका भाषिक या साहित्यिक अध्ययन किया जाता है । विशेषतः लगभग संवत् १६२५ तक ) तो अध्येता के लिए यह बताना परमावश्यक हो जाता है कि वह इसके अन्तर्गत किस भाषा का (राजस्थानी, प्रज, अवधी या मिश्रित भादि का) अध्ययन प्रस्तुत कर रहा है । यदि कोई अध्येता हिन्दी नाम के अन्तर्गत उसके प्राभोग में आने वाली किसी भाषा-विशेष का उल्लेख न करके, सामान्य रूप से एक भाषा मा उसके साहित्य का ही अध्ययन प्रस्तुत करता है, तो वह हिन्दी नाम की सार्थकता कदापि सिद्ध नहीं करता । यह केवल प्रध्ये ता का अपना और सुविधावादी दृष्टिकोण हो है। दुर्भाग्य से हिन्दी में आजकल ऐसे अध्ययन ही प्रतिक हो रहे हैं, जो अनेक भ्रान्तियों को जन्म देते हैं।
उपयुक्त कथन से यह सिद्ध है कि हिन्दी का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक और उसकी- अर्थात् उसकी विभिन्न बोलियों को प्रयोग में लाने वालों की संख्या देश की लगभग एक तिहाई जनसंख्या के बराबर है। इतने बड़े प्रदेश में हिन्दी की विभिन्न बोलियों में रचे गए साहित्य का,अभी तक प्राकलन और संचयन भी भली प्रकार नहीं हो सका है, पौर जब कोई भी साहित्यिक महत्व की कृति या प्रच्छा कवि जब कभी प्रकाश में प्रासा है तो हिन्दी साहित्य की परम्परा में या तो वह एक नई कड़ी जोड़ता है अथवा क्षीण ही सही, किसी नई परम्परा की सूचना देता है । अनेक कारणों से बड़े क्षेत्र विशेष में लोक भावना के अनुसार, कतिपय नवीन साहित्यिक पम्पराए प्रारम्भ हो जाती हैं। इसके विशिष्ट कारण पारम्परिक, भौगोलिक, राजनैतिक और सामाजिक होते हैं । यद्यपि सास्कृतिक स्रोत प्रायः सबका समान ही रहता है तथापि इन कारणों से लोक में विभिन्न परम्परा या परम्परात्रों का विकास और प्रसार हो जाता है। जैसे भाषा विशेष की अपनी प्रकृति होती है वैसे ही इन साहित्यिक परम्परायों की भी अपनी विशेषताएं होती हैं, जिन्हें भाषा विशेष की साहित्यिक जातीय परम्पराए कह सकते हैं। उदाहरणार्थ, ब्रज भाषा की प्रकृति की मुख्य बातें ये कही जा सकती हैं-मुक्तक, सवैया, मनहरण, योर दोहा छन्द, शृंगार प्रेम तथा राधा-गोपी-कृष्ण विषयक रचनाओं का बाहुल्य, हृदय की कोमल मनोवृत्तियों को अभिव्यक्ति प्रादि । राजस्थानी की प्रकृति की मुख्य बातें हैं--- मुक्तक रचनामों के साथ-साथ प्रभूलश: प्रबन्धात्मक ऐतिहासिक और वीर रसात्मक रचनामों का निर्माण, शुद्ध लौकिक प्रेमकाव्य, अोज गुण प्रधान, कोमल शक्तियों के साथ-साथ परुष और कठोर
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सियों का चित्रण, राम और कृष्ण के वीर और उद्धारक रूपों का विशेषतः
चत्रणा, डिगल गीत दोहा और भीमागी प्रादि छन्दों का प्रभूत प्रयोग प्रादि । पजी में जहां राधा कृष्ण और गोपी कृष्णा से सम्बधित अनेक लीलाओं और चरित्र का वर्णन मिलता है, यहां राजस्थानी में रुक्मिणि-कृष्ण प्रबन्ध अथवा रामग्ति नियमाञ्चों का पता है । यद्यपि भगवान के सभी अवतार सभी जगह मान्य है तथापि उल्लिखित कारणों से राजस्थानी में जहाँ भगपान के उधारक और वीर रूप को विशेष रूप से लिया गया है, वहां बजी में विशेषत: कृष्ण के बाल अथवा राधा कृष्ण या गोपी कृष्ण रूप को । यह तो एक छोटा सा उदाहरण है जो यह सिद्ध करता है कि व्यापक रूप से हिन्दी साहित्व के सम्यक् प्रौर मांगोपांग अध्ययन में प्रत्येक क्षेत्र में लिखे गये प्रत्येक प्रकार के हिन्दी साहित्य का पालोड़न-बिलोड़न और बहा प्रचलित विशेष परम्परामों को समझने की एक महती मावश्यकता है । इस संदर्भ में एक और बात की ओर संकेत करना भी प्रावश्यक है। ऐमी अनेक समृद्ध साहित्यिक परम्पनाएं पौर काळय' ग्रन्य हैं, जिनका इस दृष्टि से हिन्दी साहित्य के इतिहास ग्रन्थों में समुचित मूल्यांकन नहीं हुया है। कइयों का तो नामोल्लेख मात्र भी नहीं है । विद्वानों के पुनः विचारार्थ इन परम्परामों की अोर ध्यान दिलाया जा सकता है----जैन साहित्य परम्पग, संत काब्य परम्परा, राम और कृष्ण काम परम्परा, ऐतिहासिक और वीर रसास्मक काम्य परम्परा, विभिन्न जीवन्त सम्प्रदायों का साम्प्रदायिकता में मुक्त साहित्य और उसकी सतत प्रवाहमान परम्परा । 'पादिकाल' के जाली या परवर्ती सिद्ध हुए काव्यों का मथाकालों में सन्निवेश, भक्ति काल में अनेकशः धीर काच्यों तथा लौकिक प्रेम काठयों प्रादि का विवेचन, रीतिकाल में पूर्वकालों की परम्परागों के अतिरिस, नवीन उद्भूत सम्प्रदायों के साम्प्रदायिकता मुक्त काव्यों, राष्ट्रीय काव्यों का समावेश आदि प्रादि । ये कुछ ऐसी बातें हैं जिनको हिन्दी साहित्य के इतिहास में सम्यक स्थान मिलना चाहिए । अब यह बात अनेक विद्वानों द्वारा मान ली गई है कि जिन रचनामों में साहित्यिक गुण हैं पौर जिनका प्रेरणा स्रोत धर्म है, साहित्यिक, इतिहास में विवेचनीय है।
___ ऊपर हिन्दी साहित्य के इतिहास में जैन साहित्य के सन्निवेश और मिथित भाषा का उस्लेम्न हो चुका है । कहना न होगा कि जैन साहित्य के अनेक कवि और कृतियाँ इस दृष्टि से हिन्दी साहित्य के इतिहास में विवेचनीय हैं। भाषा की दृष्टि से भी जैन साहित्य का गौरवपूर्ण स्थान है। हिन्दी की अन्यान्य प्रमुख काव्यधारामों की माति, जैन साहित्य धार। भी किसी न किसी स्प में सतत प्रवहमान रही है । आदिकाल से लेकर प्रद्य पर्यन्त जन साहित्य की
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अनेक कृतियां प्रकाश में पा चुकी हैं किन्तु फिर भी उनका किसी प्रकार का कोई उल्लेख साहित्येतिहास में एक धारा विशेष के रूप में अथवा भाषागत देन के रूप में विद्वानों द्वारा नहीं किया गया है।
डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल की प्रस्तुत कृति 'महाकवि दोलत राम कासलीवाल व्यक्तित्व एवं कृतित्व' एक ऐसा ही ग्रन्थ है जो पांच दृष्टियों से विशेष रूप से उल्लेखनीय है :--(१) दौलतराम का काव्य (२। उनका गद्य {३) पाठ-सम्गदन और व्याख्या की दृष्टि से (४) काव्य रूप, भाषा, कथानक रूढ़ियाँ और तत्कालीन समाज चित्रण (५१ कवि द्वारा अपनी भाषा विषयक संकेत।
यह भ्राश्चर्य की बात ही कही जानी चाहिए कि दौलतरामजी का प्राचामं पं० रामचन्द्र शुक्ल द्वारा उल्लेख किए जाने के बाद भी, ये परवर्ती विद्वानों की दृष्टि से प्रोझल ही रहे। शुक्लजी ने अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास में 'गद्य का विकास' (पृ० ११; संदर्भ में पालतराम का नामोल्लय और जनके गध में लिने प्रादिपुराणा को नमूने के रूप में कतिपय पंक्तियाँ उद्धृत की है। इस प्रकार एक हिन्दी गद्य लेखक के रूप में दौलतरामजी साहित्य संसार में थोड़े बहुत परिचित तो ये किन्तु इस रूप में भी उनकी किसी प्रकार की कोई चर्चा नहीं हुई।
प्रस्तुत पुस्तक के सुयोग्य संपादक और लेखक डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल ने इसमें न केवल कवि की तीन गद्य कृतियों--'पद्मपुराण भाषा', 'मादिपुराण', और 'हरिवंश गरण' के कतिपय अशों को मूल रूप में दिया है, अपितु उमकी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रचनाओं, 'जीवन्धर स्वामी.चरित', 'विवेक विलास' पूर्ण रूप में तथा श्रीपाल चरित, परमात्म प्रकाश भाषा दीका एवं अध्यात्म बारहखड़ी का प्रांशिक रूप में समावेश किया है। इससे मद्य लेखक के रूप में भी दौलतराम जी प्रकट होते हैं। हिन्दी गद्य के अनुसन्धित्सुमों के लिए इसमें पर्याप्त सामग्नी है । इनकी भाषा खड़ी बोली मिश्रित ब्रज भाषा है जिसमें यत्र-तत्र हूंढाड़ी की झलक भी दिखाई देती है, किन्तु बहुत ही कम | और निपिचय ही यह मिश्रित भाषा अध्ययन का नवीन बिन्दु उपस्थित करती है । ज और खड़ी बोली मिश्चित ऐसी भाषा के उदाहरण केवल दौलतरामजी की रचनामों में ही नहीं प्राप्त होते, इनसे किचित् पूर्व हुए पं० टोडरमलजी के मोक्षमार्गप्रकाशक की भाषा भी ऐसी ही है। दोनों की भाषा में अंतर इल ना है कि जहाँ टोडरमलजी के मोसमाम प्रकाशक वी भाषा में ब्रजी अपेक्षाकृत प्रधान है, वहां दौलत रामजी की भाषा में ब्रज और खड़ी बोली दोनों का बसवर सा मिश्रण है। ढुंढाड़ी का हल्का पट दोनों की ही भाषामों में है, जो दोनों के इस क्षेत्र के निवासी होने
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के कारण स्वाभाविक ही था । खड़ी बोली और ब्रज भाषानों के विकास क्रम में इस प्रकार को भाषा का प्रचलन, उसकी मुख्य-मुख्य कृतिया और उसके समय विशेष के स्वरूप तथा मानक खड़ी बोली के विकास क्रम में उसका योगदान, अध्ययन के वे नए आयाम हैं, जिनकी प्रोर शोघाधियों का ध्यान जाना चाहिए । यह अहाँ हमारी सांस्कृतिक परम्परामों के प्रसार का घोतक है, वहां तदयुगीन एक सामान्य भाषा की आवश्यकता पूर्ति की घोर उल्लेखनीय कदम भी।
दौलतरामजी का काव्य जैन धर्म से प्रभावित तो है किन्तु उनकी कृतियों में सुन्दर काव्यत्व के भी दर्शन होते हैं । जैन काव्यों की चरित परम्परा में उनके 'जीवन्धर स्वामी चरित', 'श्रेणिक परित' और श्रीपाल चरित उल्लेखनीय हैं । यद्यपि ये अधिकांश में पद्यात्मक कृतियां हैं. नथापि अनेक स्थलों पर रूप, स्थिति और पनोभावनाप्रो के मोहक चित्र इन में मिलते हैं। काव्य, प्रध्यात्म और रूप की दृष्टि से दौलतरामजी की सर्वाधिक महत्वपूर्ण रचनाए विवेक विलास और अध्यात्म-बारहखड़ी हैं। ये दोनों कृतियां हिन्दी को दो विषिष्ट परम्पराओं-रूपक काध तथा फको काव्य या बावनी काव्य या बारह खड़ी काव्य परम्परा की न केवल महत्वपूर्ण कृतियां ही हैं, अपितु उनके प्रौढ़ रूप का दिमाग की हैं। विपास में बोई है, जो हा काव्य परम्परा में भी विशेष रूपेण उल्लेखनीय है । जन कवियों द्वारा लिखित रूपक या प्रतीक काव्य की परम्परा पुरानी है । हिन्दी में पन्द्रहवीं शताब्दी उत्तगर्व के प्रारंभ में राजशेखर सूरि रचित 'त्रिभुवन दीप प्रबन्ध' (अपर नाम प्रबोष चिन्तामणि या परमहस प्रबन्ध) इस प्रकार की एक महत्वपूर्ण रचना है। इस परम्परा में जैन और जनेतर सभी कवियों ने योगदान दिया है किन्तु सर्वाधिक कृतियां जैन कवियों की ही मिलती हैं। जेनेतर कवियों में इस कोटि की रचना अधिकाशतः विभिन्न सम्प्रदायों के कवियों ने अध्यात्म-दृष्टि से की हैं, जिनमें विष्णोई कवि सुरजनदासजी कृत 'ज्ञान महातम' और 'ज्ञान तिलक' तथा सेवादास रचित 'पिसण संधार,' प्रबन्धाभास बड़े रूपक काव्य है। ६२४ दोहों में रचित विवेक विलास इस परम्परा को सर्वाधिक बड़ी और महत्वपूर्ण रचना है । इसी प्रकार कदको या बारहखड़ी काव्य भी बहुत लिखा गया है जिसमें नेतर कवियों का योगदान, रूपक काव्यों की तुलना में बहुत ज्यादा है। ऐसी काव्य परम्परा में प्रस्तुत कवि की अध्यात्म बारहखड़ी का महत्त्व स्वयं स्पष्ट है।
पार सपाटन पोर व्याख्या के क्षेत्र में भी दौलतराम जी के परमात्मप्रकाश भाषा टीका का विशेष महत्व है। इसमें उन्होंने परमात्म प्रकाश के पाठ के साथ प्रत्येक छन्द की विस्तार से टीका, जिसे व्याख्या कह सकते है, की है । इम कृति के पाय-संपादन के लिए दौलतरामनी द्वारा प्रस्तुत किया गया पाठ
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भी विचारणीय सिद्ध हो सकता है । इसके जो दो उदाहरण प्रकाशित 'टीका' में दिए गए हैं, उनको डा. ए. एन. उपाध्ये संपादित 'परमात्म प्रकाश' से मिलाने पर शान्तों में कुछ अन्तर प्रतीत होता है । डा० उपाध्ये के संबधित पाठ में जहाँ 'भासमो', 'दिन-काया', 'दिब-जोमों, मब्द हैं, वहां इस टीका में उनके स्थान पर क्रमश: भासल, दिनकाउ, तथा दिव्च जोम शब्द हैं । शब्दान्त में 'प्रो' और 'उ' के ये प्रयोग स्थर परिवर्तन के लेखन-प्रमाद के कारण भी हो सकते है और भाषा-प्रवृत्ति भी। यदि इसकी विभिन्न प्रतियों के तुलनात्मक अध्ययन से यह सिद्ध हो कि इस भाषा टीका का पाठ एक, विभिन्न परम्परा या उप परम्परा का है, तो निस्सन्देह इसका महत्व बढ़ जाएगा। अर्थों का स्पष्टीकरण टीका में विस्तार से किया गया है जो इसके अध्येतानों को मूल मंतव्य को हृदयं गम कराने में सहायता देता है | संदेश रासक को समझने के लिए जैसे लक्ष्मी चन्द्र कृत टिप्परगक रूपा व्याख्या तथा दूसरी टीका जिस अवचूरिफा कहा गया है, का जो महत्व है. वैसा ही महत्व परमात्मप्रकाश को समझने के लिए दौलत राम कासलीवाल की इस भाषा टोका का है। यहां यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि अपभ्रंश काव्यों को समझने के लिए ऐसी टीकानों का प्राज बञ्जा महत्व है । अपभ्रंश की ही नहीं, हिन्दी की बहुत सी पुरानी कृतियों को भी यदि उनकी टीकाए' उपलब्ध होती, तो और भी अच्छी तरह समझा जाता । राठौड़ पृथ्वीराज की 'वेलि क्रिसन रुकमणी' का भावार्थ उसकी ऐली विभिन्न टीकानों के कारण ही हमको प्रधानतः सुलभ हुआ है।
मध्ययुगीन काव्यों में अनेक कथानक झढ़ियों का प्रयोग हुना है । जैन कामों में भी विभिन्न अवसरों पर कथा को वांछित मोड़ देने में इनका प्रयोग किया गया है। दौलतराम जी के उल्लिखित चरित काव्यों में उनका प्रभूत प्रयोग हुआ है। इस दृष्टि से यह एक स्वतन्त्र अध्ययन का विषय है। तत्कालीन समाज और कतिपय स्थानों तथा व्यक्तियों के नामोल्लेख दौलतराम जी की रचनामों में किए गए मिलते हैं। इससे उनके समय के समाज को विशेषत: जैन समाज को समझने का माध्यम तो मिलता ही है, साथ ही उस समय के अन्य जन विद्वानों और कवियों का उल्लेख, जैन साहित्यिक परम्परा का द्योतन तथा उल्लिखित लोगों के विषय में अध्ययन करने की हमारी इच्छा को जाग्रत करता है।
एक उल्लेखनीय बात यह है कि दौलतराम जी ने अपनी भाषा को 'देश भाषा' की संज्ञा दी है। प्रायः सभी हिन्दू कवियों ने अपनी भाषा-बोतन के लिए ऐसे या ऐसे ही अन्य प्रयोग किए हैं। 'देश भाषा' प्राकृत भाषा या भाषा के ऐसे उललेख, मुसलमान कवियों द्वारा लिखी गई की खड़ी बोली रचनाओं के
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लिए प्रयुक्त हिन्दी, हिन्दवी प्रादि के संदर्भ में कुछ विचारणीय संकेत उपस्थित करते हैं । खड़ीबोली प्रसार के प्रसंग में ऐसे संकेतों द्वारा घोतित भाषा और उसकी भूल प्रवृत्ति का अध्ययन, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से किया जाना नितान्त प्रावश्यक है। हिन्दी को लिला ना विशेषतः खड़ी छोलो के सबन्ध में महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकालंगे।
___ डा. कस्तूरचन्दजी कासलीवाल ने अपनी बृहद् प्रस्तावना में दौलतरामजी और उनकी कृतियों पर तो अनेकविध प्रकाश डाला ही है, तत्कालीन विद्वत्-मंडली और विभिन्न कवियों का भी संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित परिचय दिया है, जो मूल रूप में पठनीय है। दौलतराम जी का समय संवत् १७४६ से १८२६ तक अर्थात् अठारहवीं शताब्दी उतरार्ध और उन्नीसवीं का पूर्वाद्ध था। इस प्रकार, डा• कासलीवाल जी की प्रस्तावना से उस समय के अन्य महत्वपूर्ण कवियों का परिचय भी प्राप्त हो जाता है । इस समय से सबग्घित जैन साहित्य पर शोध कार्य करने वालों के लिये एक प्राधार भूमि इस प्रस्तावना में मिलती है।
हा फासलीवाल लगभग पिछले २५ वर्षों से किसी न किसी रूप में साहित्य सेवा करते रहे हैं । हिन्दी संसार उनकी विभिन्न कृतियों प्रौर लेखों के माध्यम से उनसे परिचित है । अनेक महत्त्वपूर्ण कृतियां उन्होंने साहित्य ससार को प्रदान की हैं। जिन तथ्यों, साहित्यिक मान्यताप्रों और परम्परामों को उन्होंने साकार रूप दिया है, उनसे लब्धप्रतिष्ठ विद्वानों ने अपने मत. मत्तान्सरों में संशोधन वि.ए है । मनक शोधाथियो को उनकी रचनामों से नवीन क्षेत्र, प्राधार भूमि, प्रेरणा पोर मम्बल मिला है। बिना किसी प्रकार का शौरगुल किए वे एकान्त भाव से माहित्य साधना में लीन और 'प्रसूर्यपश्य' रचनाओं को हमारे सम्मुख रख रहे है । स्वतः ग्रंणा के स्रोत और घुन के धनी डा० कासलीवाल जैसे साहित्य साधक और गोधक कम ही मिलेंगे। उनकी सभी कृतियों का साहित्य संसार में बहुत अच्छा स्वागत हुपा है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि उनका यह प्रन्थ यथारुचि, साहित्यिक और धर्मभाव-तुष्टि के अतिरिक्त मनन और शोध का प्राधार बनेगा तथा इसका उन अनेक दृष्टियों से अध्ययन किया जाएगा जिनका किंचित सकेत-उल्लेख ऊपर किया जा चुका है।
ऐसी महत्वपूर्ण और सुन्दर कुति के प्रकाशन के लिए डॉ० कासलीवाल तथा श्री दि जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी के मंत्री एवं प्रबन्ध कारिणा के समस्त सदस्य हिन्दी संमार को योर से धन्यवाद के पात्र हैं।
डा० हीरालाल माहेश्वरी
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प्रस्तावना हिन्दी के विकास में राजस्थानी जनता में यहां के कवियों का विशेष योगदान रहा है । १० वीं शतारिद के पहल से ही अपभ्रंश और फिर गजस्थानी भाषा के माध्यम से हिन्दी की जितनी सेवा यहां के नियासियों एवं विद्वानों ने की थी। यह इतिहास के स्वरिणम पृष्ठों में प्रकित रहेगी। अपभ्रंश भाषा के बहुचित कवि धनपाल राजस्थानी विद्वान थे । जिनकी "भविसयत कहा' कथा साहित्य की देजोड़ कृति है। इसी तरह 'धम्मपरिक्वा' के
चयिता हरिषेण' राजस्थानी महाकवि थे। जिन्होंने मेवाड़ देश को जन संकूल लिखा है न कथाओं ने गिन का जनश्यि बनाने में इन कवियों का महत्वपुर्ण योगदान रहा है। इमो तग्न् प्राचार्य हरिभद्रमूरि चित्तौड़ के थे जिन्होंने प्राकृत एवं अपभ्रश में कितनी ही वृतियों को प्रस्तुत करक हिन्दी के विकास का मार्ग प्रशस्त किया था । हिन्दी की जननी अपभ्र ग राजस्थान की प्रत्यधिक लोकप्रिय मापा रही थी और यही कारण है कि हम भाषा की अधिकांश पाण्डुलिपियां राजस्थान के जैन ग्रन्थ भण्डारों में आज भी मुरक्षित हैं । अबतक अपभ्रण की छोटी बही ५०० कृतियां उपलब्ध हो चुकी है । जिनमें अधिकांश राजस्थान के शास्त्र-भण्डारों में संग्रहीत है | जब जनता मंस्कृत एव प्राकृत से ऊब चुकी की; तब उसने अपभ्रंश का महाग लिया और उनी का आगे चलकर हिन्दी के रूप में विकास हुना। मवत् १३५४ में रचित जिबदस्त चरित' इसका स्पाट उदाहरण है। यह कान्य अपभ्रण एवं हिन्दी के बीच की कड़ी का काव्य है । अपनपा ने धीर-धीरे हिन्दी का स्थान किस प्रकार लिया, यह अपभ्रा के उत्तरकालीन काव्यों से जाना जा सकता हैं। इसी तरह सधार कवि रचित प्रद्युम्न चरित (मं० १४११ का नाम भी लिया जा सकता है । इन काव्यों में हिन्दी के टे (तद्भव ) शब्दों का प्रयोग भाषा विकास की दृष्टि से उल्लेखनीय है 1
हिन्दी का आदिकालिक इतिहास राजस्थान के कवियों का इतिहास है। वह यहां की जनता की भाषा का इतिहास है । रामो काल के नाम से जो काल निर्देश दिया जाता है। वह सद राजस्थानी कवियों की ही पचनानों के बगरण है । रासो साहित्य यहां के प्रादिकालिक कवियों का प्रधान साहित्य है। यद्यपि जनप्रिय कवियों ने काव्य की अन्य शैलियों में भी खूब लिखा है; लेकिन
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महाकवि दौलत राम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
उसमें भी रासो साहित्य की ही प्रधानता है । शानिभद्र मूरि वा "भरतेश्वर बाहुबलि रास" संभवतः इस काव्य विधा की प्रथम रचना है। इसके पाचात "स्थू लिभद्र रास" (संवत् १२०९), "चन्दन बाला रास' (१२५७ सन्) "रेवन्त गिरि रास", "नेमिनाथ रास' जैसे पचासों रास संज्ञक काव्य लिले गये: जिन्होंने जनता में पहुँच कर हिन्दी भाषा को लोकप्रिय बनाने में अपना पूरा योग दिया। प्रो० रामचन्द्र शुक्ल एवं डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी के श्रादिकाल का स्वरूप जिस रूप में स्वीकार किया है, उसे संवारने में जैन काय निरंप को। क को इन कवियों ने अपनी समत लखनी से देश के बोरों के प्रति श्रद्धाञ्जलि समापन की तथा दूसरी ओर राजस्थानी कवियों के प्रति वीर रसात्मक काव्य लिखने के लिए अपनी कृतज्ञता प्रकट की। लेकिन अन कवि एक ही धाग से चिपके नहीं है। उन्होंने ऐस कान में भी आध्यात्मिक, भक्ति परक्र, एवं नीति परक काव्य निखकर अपनी जनप्रिय दृष्टि का उदाहरण प्रस्तुत किया । प्रादिकालिक कृतियों में मुनि रामसिह का 'दोहा पाहुड़' एक महत्वपूर्ण कृति है, जिसमें अध्यात्म, भनि, एवं नीलि के साथ ही तत्कालीन समाज की परम्परामों पर भी प्राक्षेप किये गये हैं। डॉ० हीरालाल जैन के अनुसार यह सन् १००० यो कृति है; जिसमें २२२ दोहे हैं। रामसिंह राजस्थानी कवि थे और अध्यात्म प्रचार एवं समाज सुधार में उनकी गही अभिरुचि थी। योगीन्धु कवि का 'योगसार' एवं 'परमात्म-प्रकाश अध्यात्म माहिम की अनुपम कृतिया हैं ।
आदिकाल के पश्चात् मध्यकाल में राजधानी विद्वानों की हिन्दी सेवा का क्रम अधिक जोर से चला । उस काल के विद्वानों ने दो नाम दिये है पहला भक्तिकाल और दूसरा रीतिकाल । इस कान में राजस्थान में मीरां, दादगाल, ब्रह्म जिनदास, भट्टारका नाकीन. बुमुदचन्द्र, ज्ञानपा , दौलतराम जैस कत्रि हुए; जिन्होंने हिन्दी को लोकप्रिय बनाने में सर्वाधिक योग दिया । इन कवियों ने हिन्दी को जन भाषा नाम देकर नथा उसमें संकड़ों कृरिया लिखकर उसे झोंपड़ियों तक पहुंचाने में अपनी असाधारण प्रतिभा का परिचय दिया । हिन्दी में काव्य, चरित, रास, फागु. वलि, नौपई, दोहा गादि के प में सैकड़ों हजारो कृतियों को लिखकर उस लोकप्रिय बनाया । एक ओर भील जंगी सन्त कवयित्री कृष्ण की भक्ति में नल्लीज होग, भक्ति रस ये यात प्रोत एवं गेय सुलभ पदों को रचना करने लगी तो दूसरी ओर जैन कवियों द्वारा अध्यात्म, भक्ति एवं नीति परक रचना लिबर माहित्य की विदेशी को पल्लवित किया। राधाकृष्ण के समान नमि-राजुल के पदों का निर्माण हुना,
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और उनमें श्रृंगार एवं विरह की कहानी कही जाने लगी। फागु, राम एव पिरक रचनाओं में खुलकर श्रृंगार रस का प्रयोग हुआ | भक्ति एव रीतिकाल में राजस्थान के जैन कवियों को सर्जना की की, लेकिन अभी उसके शतांश का भी मूल्यांकन नहीं हो सका है। अभी तो केवल बनारसीदास, भूधरदास जैसे कवियों का नामोल्लेख मात्र हुआ है और शेव सारा साहित् समालोचकों विद्वानों एवं गवेषकों की दृष्टि से अछूता पड़ा हुआ है ।
मध्यकाल में हिन्दी पुर्णत: जन भाषा बन चुकी थी और संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश भी सामान्य जन की समझ के बाहर हो चुकी थी । जंनाचार्य एवं विद्वान् जनता की मनोभावना को पहिचान चुके थे। इसलिए उन्होंने १६ वीं शताब्दी से ही संस्कृत प्राकृत ग्रन्थों की हिन्दी वचनिका लिखना प्रारम्भ कर दिया, जिससे उनकी रचनाएं घर-घर पहुंचने लगीं । उनको न केवल धार्मिक इष्टि से अपितु साहित्यिक दृष्टि से भी पर होने लगी। आगरा, कामां, उदयपुर एवं जयपुर मे ऐनी ही संलियां, जिन्हें आजकल के शब्दों में गोष्ठियों का नाम दिया जा सकता है, चलती थी। हिन्दी भाषा में after लिखने वाले कवि जनप्रिय कवि बन गये और उनकी कृतियों का प्रचार-प्रसार घर-घर तक पहुंच गया।
ऐसे ही जनप्रिय कवियों में महाकवि दौलतराम का नाम विशेषतः है। दर दौलतराम का जन्म उस समय हुआ था; जब कनीर दास, मीरा, सूरदास, तुलसीदास एवं बनारसीदास जैसे कवि लोकप्रिय हो चुके थे और इसके साथ ही हिन्दी भाषा की नींव भी सुदृढ़ होती जा रही थी । मीरां एवं सूरदास के पद, रामायण की चौपाइयां तथा बनारसीदास के नाटक समयसार के मन्दिरों में घरों में एवं राजपथ पर चलते-चलते गाये जाने लगे थे और सामान्य जनता भी उनके प्रचार-प्रसार के लिए कृत संकल्प हो चुकी थी । प्राकृत एवं संस्कृत ग्रंथों की भाषा वचनिकाएं लिखी जाने लगी थी और सामान्य पाठक उन्हें चाव से पढ़ने लगा था। जैन कवियों का प्रमुख केन्द्र उत्तर प्रदेश से हटकर राजस्थान बन चुका था। ऐसे उपयुक्त वातावरण में कवित्रर दौलतराम का जन्म हुआ ।
महाकवि दौलतराम का जन्म राजस्थान की एक बड़ी रियासत जयपुर के तहसील स्तर के ग्राम बसा में हुआ। बसवा राजस्थान के प्राचीन नगरों
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१ बसवा जयपुर से १०३ किलोमीटर एवं देहली से २०५ किलोमीटर दूरी पर स्थित है ।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
में गिना जाता है । जो देहली से अहमदावाद जाने वाली पश्चिमी रेल लाइन पर एक स्टेशन है। कवि ने अपनी कृतियों में बसपा का नामोल्लेख किया है किन्तु न उसे ग्राम लिखा और न नगर । बसे राजस्थान के जन ग्रन्थ भण्डारों में बसवा में लिपिबद्ध किये हुए कितने ही ग्रथ मिलते हैं इनमें "श्रिलोक चौवीसी पूजा" की प्रतिलिपि सं० १७०४ में बसवा में ही लिग्बी हुई उपलब्ध होती है । संवत् १७३३ में त्रिलोकमार की पाण्डुलिपि भी अपने आप में उल्लेखनीय है । स्वयं कवि ने "बसर्व चास हमारी जानि" कहकर अपने प्रथम निवास स्थान का 'पुण्याचव कथाकोश' की अन्तिम पुष्पिकानों में अर्णन किया है. इनके घर के सामने ही जिन मन्दिर था । रामचन्द्र शुक्ल ने अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास में बसवा को मध्यप्रदेश का नगर माना , जो सही नहीं है ।
दौलत राम का जन्म संवत् १७४६ की आषाढ़ बुदी १४ को हुा' । इनका जन्म नाम बेगराज घ।। इनके पिता का नाम प्रानन्दराम एवं पितामह का नाम घासीराम था । ये खाडेलवाल जाशि एवं कासलीवाल गोत्र के दि० जैन श्रावक थे । कवि ने अपनी माता के नाम का कहीं भी उल्लेख नहीं किया । इनका बाल्यकाल कैसे बीता, कहाँ तक अध्ययन किया और ये किसके पास पड़े इन सब के बारे में कवि मौन हैं किन्तु इनके पिता के उच्च पद पर कार्य करने के कारण इनकी भी शिक्षा अच्छी हुई होगी । यौर ऐसा लगता है कि इन्हें संस्कृत, प्राकृत एवं हिन्दी इन तीनों ही भाषाओं की उत्तम शिक्षा मिली थी । धामिक ग्रन्थों का अध्ययन भी इन्हें कराया गया होगा । इनकी विद्वता एवं गहन अध्ययन के कारण ही यं प्रागर] की 'अध्यातम सैली' के लोकप्रिय सदस्य बन गये थे ।
परिवार :--- कवि के परिवार का विवरण निम्न प्रकार दिया जा सकता है।
१. देखियं राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की वन्य मुची चतुर्थ भाग -
पृष्ठ संख्या २८३ __ दौलतराम अानन्दराम का घासीराम का दिवारण श्री महाराजकंवार माधोसिंह का । राजस्थान राज्य अभिलेखागार रजिस्टर कोमवार सं० २१ गृष्ट संख्या ७४ जान बानि-मां श्रावक सोय, खण्डेलवाल जानहुँ सब कोय । अनि काहिए कासलीवाल प्रानन्द राम सुत वचन रसाल ।। ६२ ।।
पुण्यामब कवा को
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घासीराम
श्रानन्दराम
-
-।
1 -.. मियराम
- .- .. --- -
दौलतराम
बाताबरलाल
लालबन्द अजीतदास, शंभूनाथ, जादूराम. शीतलदास. जोधगन्न. गृलाबदाम
कवि के पिता आनन्दराम भी जयपुर महाराजा की सेवा में थे और जोधपुर के महाराजा अभसिंह के पास जयपुर महाराजा की पोर में दहली में रहते थे।
इनका निधन संवत् १७६२ की आषाढ़ सुदी १४ को हुा । जब कवि की आयु ४३ वर्ष की थी । कवि के पिता की मृत्यु के पश्चात इनके बड़े पुत्र एवं कवि के बड़े भाई निर्भयराम को जयपुर महाराजा की और से मातमी का सिरोपाव देहली भेजा गया था । ऐसा राजस्थान राज्य अभिलेखागार में संग्रहीत रिकार में उल्लेख मिलता है । निर्भयराम भी अपने पिता के समान देहली में महाराजा की ओर से अभैसिंह के पास ही रहते थे। कवि के छोटे भाई बख्तावरलाल के बारे में विशेष उल्लेख नहीं मिलता ।
कधि के ६ पुत्र थे । चार पुत्रों का उल्लेख तो स्वयं कवि ने अध्यात्म मारहखड़ी के इकारान्त वर्णन में किया है जो निम्न प्रकार है :
ई में श्री जी की भक्ति प्रार्थना पाइ कवि का कवीला को नाव प्रायो । मानन्द पिता दौलति इत्यादि पुत्र अजितदास इत्यादि चारि दौलति का पुष इति इकारावर स्तुति सम्पूर्ण" ।
. ऐसा लगता है कि उक्त चार पुत्र अध्यात्म बारहखड़ी की समाप्ति तक (संवत् १७६८ तक हो गये थे । घोष दो पुष जोधराज एवं गुलाबदास बाद में हुए होंगे। जोधराज अपने पिता के समान ही साहित्यिक व्यक्ति थे । इन्होंने संवत् १८८४ में कामा में सुखविलास नामक विशाल संग्रह ग्रन्थ की रचना की थी। इस कृति में इन्होंने अपने आपका निम्न प्रकार परिचय दिया है :४. देखिये दस्तूर कोमवार राजस्थान अभिलेखागार बीकानेरS.No.1252
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल व्यक्तित्व एवं कृतित्व
दौलत सूख कामा वस, जोध कासलीवाल । निज सुख कारन ग्रह कियो, सुखविलास गुणमाल ।।
कवि के छटे पुत्र गुलाबदास काअभिलेखागार के रिकार्ड मे दौलतराम का पुत्र एवं आनन्दराम का पौत्र के रूप में उल्लेन्न आया है। इन्हें संवत १८२० ब संवत् १८२४ में जयपुर महाराजा द्वारा सम्मानित किये जाने का उल्लेख भी मिलता है । इनके एक पुत्र साराम भी महाराजा जयपुर की सेवा में थे और संवत् १८२८ में इन्हें भी गावों का पूरा लगान जमा कराने के कारण सिरोपाव देकर सम्मानित किया गया था ।
दौलतराम का प्रथम पुत्र अजीशदास था जो अपने पिता एवं पितामह के समान जयपुर महाराजाओं का अत्यधिक कृपापात्र था । तथा जिसे उसकी कार्यकुशलता के कारण समय समय पर सम्मानित किया गया था। ग्रजीतदास का सर्वप्रथम उल्लेख संवत् १८८१ का मिलता है जब उन्हें मात्र परगना को वसूली का कार्य कुशलता पूर्वक सम्पन्न करने के कारण सिरोपाच दिया गय।
संवत् १८०४ में उन्हें राज्य सेवा में सिरोगाय से सम्मानित करके उदयपुर भेज दिया गया गया । इस समय स्थर कनि दौलतराम जी बहीं थे। ऐसा मालम पड़ता है कि इसके एक दो वर्ष बाद ही दौलतराम जयपुर आगये और उन के स्थान पर अजीलदार कार्य करने लगे। नंवत् १८०८ में अपने ही गांव बसवा की वसूली कर कामं इन्हें दिया गया और इसके उपलक्ष में इन्हें फर सिरोपाव दिया गया। इसके पश्चात् पुनः मनत् १८१२ में बहात्र परगना एवं संवत् १८५ 4 वामगौड़ परगने की वसूली का कार्य करने के कारण उन्हें राम्मानित किया गया । संवत् १८२१ में कविवर दौलत राम की पौत्री एवं अजीनदाम की पुत्री का विवाह या जिसमें महाराजा जयपुर की और से ३६०) की सहायता दी गई ? गंवत् १८२४ में दौलतराम के अाग्रह से इन्हें मरहठा सरदार धुमान के पास भेजा गया तब इन्हें हाथी थगन्ह पारितोपिक में दिया गया। इस प्रकार अजीतदाभ. जोधराज एवं गृलावदास के अतिरिक्त शेष तीन पुत्रों के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती !
युवा होने पर महाकवि दौलतराम को एक बार कायंदण अागरा जाना पटा ! असा से आगरा १०० मील से कुछ अधिक दूर है । प्रागरा उस समय
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रही थी !
उत्तर भारत का प्रमुख नगर था। मुगल शासकों की राजधानी होने के कारसा वह व्यापार का प्रसिद्ध केन्द्र था। लेकिन इन सबके अतिरिक्त वह मांतिक नगर भी था | और अध्यात्मिक सैली का केन्द्र भी महाकवि बनारसीदास का स्वर्गवास हुए ७० वर्ष से भी अधिक हो गये थे लेकिन उनके द्वारा स्थापित यध्यात्म शैली पूर्ववत बन हम सैली में कविवर भुरदास का व्यक्तित्व उभर रहा था । दोलतराम जब आगरा तो वे इस सैली के सहज ही में नियमित सदस्य बन गये और जब तक श्रागरा रहे, तब तक वे आध्यात्मिक संली में बराबर जाने रहे। अपनी प्रथम कृति "gured कथाकोन" में उन्होंन आध्यात्म संतो एवं उनके सदस्यों का विस्तृत वर्णन दिया है। कुछ समय पश्चात् वै इम सैली के प्रमुख सदस्य बन गये । उनकी विद्वता एवं काव्य प्रतिभा के सभी प्रशंसक हो गये। वे, स्वयं शास्त्र पढने लगे और श्रोताओं को उन्होंने अपनी व्याख्यान से मुग्ध कर लिया। जब उन्होंने महापुराण का स्वास्थाय समाप्त किया तो श्रोताओं ने उन्हें स्वतन्त्र काव्य लिखने को प्रेरणा दी और सर्व प्रथम उन्होंने आगरा रहते हुए ही संवत् १७७७ में कथाकोश' की रचना समाप्त की ।
कवि श्रागरा में कितने पक रहे इसका उन्होंने कहा भी उल्लेख नहीं किया। लेकिन ऐसा लगता है कि जयपुर स्थापना के पूर्व ही वे बसका नौट आये और यहां कुछ समय अपने परिवार के साथ रहने के पश्चात वे जयपुर आगये । यह समय कोई सं० १७८५-८६ के लगभग
होगा।
जयपुर नगर का वास तेजी से हो रहा था। बाहर से आने वाले विद्वानों, साहित्यकारों, कत्रियो एवं अन्य विद्या में पारंगत विद्वानों कां मसम्मान जयपुर में बसाया जा रहा था । ऐसे ही समय में इन्हें भी जयपुर तत्कालीन महाराजा सवाई जयसिंह ने अपनी सेवा में बुला लिया और सर्वप्रथम संवत् १७५७ आषाढ़ बुदी ८ के शुभ दिन इन्हें जोधपुर के महाराज 1
सिंह की सेवा में मथुरा भेजा गया । मधुरा जाने के पूर्व हनका सम्मान करने हेतु ४१|) रुपये का सिशेषाव 'दया गया। कवि की सूझ बूझ, प्रतिभा एवं कार्य कुशलता के कारण इन्हे संवत् १७६३ की पोयबुदी दशमी के दिन
१. संवत् १७८७ मिती प्रमा वदी भैंसह कने भेज्योतीने अजय ४१३ ) धान ३. राजस्थान राज्य
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मुकाम मथुरा जो मुसारत अने महरवानगी सिरोपाव कीमती माकि अभिगार रजिस्टर कोमवार पृष्ठ संख्या
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महाकवि दौलत राम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
महाराजा कुमार माधोसिंह को सेट में जमने दीनाप पुर र दिया गया और सम्मान सूचक सिपाव दिया । उदयपुर जाने के पश्चात कवि को अपनी कार्य कुशलता दिखाने का अच्छा अवसर मिल गया । इनकीसेवायों से प्रसन्न होकर महाराजा जयपुर ने संवत १७६४ एवं १८०० में उदयपुर में ही सिरोपाव भेजकर इनकी सेवाओं का मूल्यांकन किया। संवत् १८५३ में जब कवि उदयपुर दरवार में जयपुर महाराजा की और से वकील थे तो दरवार के रनवं के लिये इन्हें १५० भेजे गये । त्रेपन क्रियाकोश में इन्होंने अपने प्रापको "पानन्द सुत जयसुत को मंत्री जय को अनुचर" लिखकर एवं जीवधर स्वामी चरित में 'दौलतराम उकील पुत्र प्रानन्द को हौई" लिखकर अपना परिचय दिया है !
। आगरा के समान उदयपुर में भी ये तत्कालीन समाज समाज में सम्मानित व्यक्ति माने जाने लगे थे। नगर की धानमंडी के दि० जैन अग्नवाल मन्दिर में ये प्रतिदिन जाते थे। इन्होंने आगरा के समान उदयपुर में भी एका ग्याध्यात्मिक संली स्थापित की और स्वयं ही शास्त्र प्रवचन करने लगे । वहां आने के वृछ ही वर्षों के पश्चात् इन्होंने 'बेपन क्रियाका' की रचना की । यह ग्रंथ कवि की स्वतन्त्र कृति है. जिसमें श्रावकों के प्राचार-धर्म का विस्तृत पणेन विया गया है । 'बेपन क्रियाकोश के पश्चात् ने 'अध्यात्म बारहखड़ी' की रचना में नग गये। यह कवि की सबसे बड़ी पात्मक वृति है। भक्ति एवं अध्यात्म की इस अनूठी कृति को लिखने में कितना समय लगा होगा । इन्होंने संवत् १७६८ नं इसे विशाल कृति को समाप्त करके अपनी साहित्यक प्रतिभा के चार चांद लगा दिये । इस कृति के निमगि रात्रि की यशोगाथा और भी फैल गयी और अब उनकी चर्चा चारों भोर होने लगी। बारहखड़ी संज्ञक रचनाओं में इसका महत्वपूर्ण स्थान है और कवि के विशाल जान का परिचयाय है । उदयपुर उनके लिये वरदान सिद्ध हुआ और साहित्यिक क्षेत्र में उन्होंने यहां रहते हुए महान् सेवायें की । सं० १८०५ में उन्होंने "जीवधर चरित" नामक प्रबन्ध काव्य को समाप्त किया, जिसके निर्मागा का याग्रह बहीं के कुछ श्रवकों ने किया था। इसके पश्चात ये और भी साहित्यिक सेवा में लग गरे । "जीवन्धर चरिल" हिन्दी का प्रबन्ध वाव्य है: जिसमें कवि ने अपनी काव्य प्रतिभा का अच्छा परिचय दिया है । कवि का उदयपुर में बहुत सम्मान था। शासक एवं शासित दोनों ही वर्गों में ये लोकप्रिय थे। वक्तृत्व शक्ति के धनी थे तथा तथा लेखन शक्ति इन्हें जन्म से ही प्राप्त थी। इसीलिय उदयपुर प्रवास में ये वहां सर्वप्रिय बन गये । स्वयं उदयपुर महाराणा की इन पर विशेष कृपा
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प्रस्तावना
थी । तत्कालीन महाराणा जगांगह की विणेच 'पा का इन्धान कि उल्लेख किया है.
रहे पाग, राण अति किरपा करई ।।
जानै नौमी तांहि भेद भाव जन धरई ।।
जनता पदान् कति वितन मान उच्चपुर श्रीर. २३. मनी उनकी रचना के प्राधार पर कोई निश्चिा जानाानी नही मिती: नि संवत् १८०७ ताक व जय मागे-मा जान पड़ा। दां मना राजा रावाई माधोसि नगगुर की गई पर बंटे थे यौन की कहा के कधि मन्त्री रह चुके थे 1
जयपुर मान के पश्चात चे गुन. जयापुर मगजान गवा में रह लगे । राज्य मया निमित उनि जना शेष जीवन गाहित्य मा प गपित कर ।। मी स! कहीं पर टोडरमल का व्यकिव उभर रहा था। ये महान कालिकारी समाज-सुधारक थ, साथ ही म न ग्रन्थों ग. महान जागा छ । उनी बागी में जाटु था तथा उन्हान पान नित्य में मारं अयपुर को प्रसारित कर लि! था । रविवार दौलतगाला म प्रभम परिनरय
व उनमे हुया तो ऐसा मालूम होने लगा जमे गंगा-याना का मंगम होगा। हो । दौलतराम सामग गे थे । महाराजा के प्राधिक निकट मा. उन्होंने अपने आप मकिा ममात्रा में दुर रजय सारित्र्य निर्मागा की मोर अधिक लगाया । अब नत्र उन्हान ! TE नामोश यो छोई शप रचगार प्रमुग्नतः पन में ही तिमिन मा श्री। लाइन के प्रभाव पं. कारण वे भी गद्य की और भुर. गीर गंवत् १८१६ गे लेकर १२६ नर ८ महान् में विशाल वाय ग्रन्या को निगा कर डालो । कानन में इन खोड़े से समय में विशाल साहित्य का निर्मागा गार जहान नकार्नीन गमाज के ६६-बड़े पनि यो अचय बनिन कर दिया !
बागें श्रीपाल चरित्र एवं विदना-बिलाग को छोड़ब र दाप ममी ग्रन्थ हिदी गय में गि । पापुमा प्राविपुलामा हरिवंश पुराना में अन्य गी शागिर है । वाव ३ गानों के माध्यम ग गन्हान उनलाके स्वाध्याय की काही बदल दिया और फिर तो सार दल में उन्हीं के ग्रन्धा का स्वाध्याय होने लगा।
दोनताराम एवं टोदाम-लका नाथ अधिक भर नहीं ६ मकः । बोडरमल का स्वर्गवास सं०१८२६ के पूर्व ही हो गय। माना की अग
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महाकवि दौलतराम परालीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
कृति को भी इन्हें ही पूर्ण करना पड़ा 1 कवि टोडरमल की विद्वत्ता से अत्यधिक प्रभावित थे। इसलिए जब 'स्मार्थ सिद्ध युपाय' को पूरा करने का प्रपन आया, तो रतनचन्द दीवान ने अत्यधिक विनय के साथ दौलतराम से प्रार्थना की
तासु रतन दीवान ने कही प्रीत घर एह । करिये टीका पररा उर पा धरम सनेह ।।
तब टीका पूरण करी भाषा रूप निधान । "पुरुषार्थसिद्ध युपाय भागा" का रचना काल सं० १८२७ है। इसी वर्ष या इसके कुछ समय पहिल इन्होंने "विवेक विलास से याध्यात्मिक ग्रन्थ को समाप्त किया और फिर "हरिवंश पुराण' जैसी विणाल गा कृति को संवत् १८२६ में समाप्त किया । यह कवि को अन्तिम कृति थी ।
उगी वर्ष भादवा सुदी २ को उनका स्वर्गवास हो गया । राजस्थान राज्य अभिलेखागार में संग्रहीत रिकार्ड के अनुसार फागुन मुदी ११ को कवि के बद पुत्र अजीतदास की मातमी होने पर राज्न की ओर से सिरोपान प्रदान किया गया ।
दौलतराम नाम वाले अन्य विद्वान
दौलतराम के नाम में शब तक जितने प्रसिद्ध विद्वान हुए। उनमें से कुछ प्रद्धि विद्वान् निम्न प्रकार हैं
१ दिलाराम अथवा दौलत राम ये दो के रहने वाले थे और इन्होंने संवत् १= में दिलासा
१ अटारहस ऊपरे संवत सत्ताईस
मास मार्गशिर ऋतु शिक्षित दोयज रजनीश ।। २ अट्ठारह गौ संवला. ता पर धर गुसातीस ।
घार शुक्र पूज्यो तिथि, ने मास रति ईस ।।२६।। ३ संवत् १८८६ मिती भादवा सुदि २ बाके मिती फागुण सुदी ११ में बावति
मुसारन अलह का बाप की मातमी को सिगाव बखस्यो कीमती साबिक थान ३।
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प्रस्तावना
विलास एवं प्रात्म-द्वादशी कृतियां लिखी थीं । ये पाटनी गोत्र के श्रावक ये तथा पिता का नाम चतुर्भुज था। २. दौलतराम:
ये असनी (फतेहर) के निवासी थे । और इनके पिता का नाम शिवनाथ था । इन्होने लगभग १८६७ में प्रलंकार संग्रह एवं कविप्रिया पर टीका लिखी भी। ये जैनेतर विद्वान थे। ३. दौलतराम :
ये मारवाड़ नरेश महाराजा मानसिंह के प्राश्रित थे। इनका समय संवत् १८६३ के लगभग माना गया है। इनकी एफ रचना "जालंधर नाथ जी रो गुरण” उपलब्ध होती है। ४. दौलतराम :
ये मैनपुरी के रहने वाले थे। जाति से कायस्थ थे। उनकी एक लघु कृति "ज्योनार" नाम से मिलती है। ५, दौलतराम :
ये हाथरस के रहने वाले थे । इनका जन्म संवत् १८५५-५६ में हुभा । इनके पिता का नाम टोडरमल एवं जाति पल्लीवाल जैन थी। कपड़े के व्यापार के साथ कविता बनाने की भी इनकी प्रारम्भ से ही रूचि थी। इनके प्राध्यात्मिक एवं भक्ति परक पद अत्यधिक उच्चकोटि के मिलते हैं, जो १०० से भी अधिक संख्या में हैं। इनकी 'छहढाला' के लघु होने पर भी जैन समाज में अत्यधिक लोकप्रिय है।
तत्कालीन साहित्यिक वातावरण
कविवर दौलतराम का समय सं० १७४६ से १८२६ तक रहा है। उस समय राजस्थान का साहित्यिक वातावरण कैसा था -इस सम्बन्ध में यहां कुछ विचार करना है। यह तो निर्विवाद रूप से सही है कि उस समय तक हिन्दी भाषा की प्रतिष्ठा हो चुकी थी और उसके चार स्तम्भ कबीरदास, सूरदास, मीरा, तुलसीदाम जैसे महाकवि हो चुके थे तथा ही रस्ह, सधार, ब्रह्म जिनदास, रलकोति, कुमुदचन्द्र, बनारसीदास, राजमल्ल जैसे जैन कवियों ने भी अपनी हिन्दी रचनानों के माध्यम से हिन्दी को पूर्ण रूप से अपना लिया था। उधर भामेर में हिन्दी का अच्छा वातावरण था और यहां कितने
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तिटय एवं कृतित्व
ही विद्वानों ने इसके प्रचार प्रसार की पोर विशेष योग दिवा था। इनमें कविवर बिहारी की "सतसई" का श्रृंगार रस की महत्यपूर्ण कृति के रूप में समादर होने लगा था। प्रामेर में ही अजयराज पाटनी हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वान थे। जिनकी छोटी-बड़ी लगभग २० रचनाए प्राप्त हो चुकी हैं। इनमें मादिपुराण भाषा (१७६७), नेमिनाथ चरित (१७६२), यशोधर चौपई (१७६२) जैसे महत्वपूर्ण रचनाए हैं। प्रजयराज कवि के समकालीन विद्वान् थे। तथा उन्होंने भामेर के सम्बन्ध में अच्छा वर्णन लिखा है। पं. नेमिचन्द भी आमेर के ही कवि थे; जिनकी एकमात्र कृति 'नेमिनाथ रास' हिन्दी का अच्छा प्रबन्ध काव्य है । कवि ने इसे सं० १७६६ में ही समाप्त किया था।
सतरास गुणहत्तरे सुदि प्रासोज बसे रवि जाती। रास रच्यो श्री नेमिको, बुद्धि सारु में कियो बखाणती ।।
पामेर के समान सांगानेर में भी कवि के पूर्व हिन्दी के कितने ही विद्वान हो चुके थे और उन्होंने भी साहित्य की खूब सेवा की थी। इनमें बह्म रायमल्ल, जोधराज गोदीका, किशनसिंह के नाम विशेषत: उल्लेखनीय हैं । ब्रह्म रायमल्ल सन्त कधि थे और उनकी कृतियों में हनुमत रास', 'श्रीपाल रास', 'सुदर्शनरास', 'भविष्यदत कथा' के नाम उल्लेखनीय है । जोधराज गोदीका की 'सम्यकत्व कौमुदी' कथा उल्लेखनीय कृति है; जिसका रचना काल संवत
समकालीन हिन्दी विद्वान् महाकवि दौलतराम का समय सवत् १७४६ से १.२६ तक का है। ८० वर्ष का यह समय भारत के इतिहास का एक धुंधला चित्र उपस्थित करता है । उस काल में राजनैतिक अस्थिरता तो थी ही, सामाजिक दृष्टि से भी समाज में अन्तविरोध था । रूढ़ियों एवं अन्धविश्वासों में वह फंसता जा रहा था। १४ से १८वीं शताब्दी तक अत्यधिक समर्थ भट्टारक संस्था का ह्रास प्रारम्भ हो गया था, तथा समाज में उनके विरुद्ध विद्रोह होने लगा था । अध्यात्म-शलियों ने इस संस्था के ह्रास में विशेष योग दिया । समाज में स्पष्ट रूप से दो दल बन चुके थे। भट्टारकों के समर्धक द्रीस पथ प्राम्नाय वाले कहलाने लगे। जबकि उनके विरोधी एवं समाज सुधारक तेरह पंच अम्नाय वाले कहलाने लगे थे। इसी प्रकार विद्वानों में भी दो विचार-धारायें पाचुकी थी। प्रागरा, आमेर, उदयपुर, जयपुर एवं सांगानेर में विद्वानों का विशेष जोर था। एवं वहां उनका ध्यापक प्रभाव भी था। इन विद्वानों ने सवन् १७५० से
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१९०० तक जितना जबरदस्त साहित्य-लेखन का कार्य किया, उसने देश में साहित्य के प्रति नवीन क्रान्ति पैदा की और इससे समाज में नव चेतना जागृत हुई। नये नये ग्रन्थों की मांग होने लगी और उसकी पूर्ति भी हमारे इन्ही विद्वानों ने की। यहां हम ऐसे ही कुछ प्रमुख विद्वानों का परिचय उपस्थित कर रहे हैं
भूधरदास :
दौलतराम एवं भूधरदास की भेंट सर्व प्रथम भाग में हुई थी । दौलतराम के अनुसार भूधरदास आगरे की अध्यात्म शैली के प्रमुख विद्वान थे । माहगंज में रहते थे। ये अधिकांश समय जिनेन्द्र पूजा एवं भक्ति में लवलीन रहते थे । भूवरदास का जन्म कब और कहां हुआ ? उनकी शिक्षा-दीक्षा कहां हुई तथा वे जीवन भर क्या करते रहे, इसके सम्बन्ध में कवि की रचनाएं मीन है । कवि को संस्कृत एवं प्राकृत ग्रन्थों का अच्छा ज्ञान था। पुराल साहित्य का उन्होंने अच्छा अध्ययन किया था - जिसका स्पष्ट प्रभाव उनकी रचनाओं में मिलता है। कवि खण्डेलवाल जैन थे तथा एक विद्वान के अनुसार उनका भी गोत्र कासलीवाल था । अतः दौलतराम जब आगरा पहुंचे तो दोनों कवियों में अनिष्ट सम्बन्ध हो गया ।
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'सूरदास' का साहित्यिक जीवन संभवतः अधिक लम्बा नहीं रहा । उन्होंने अपने जीवन के अन्तिम १५-२० वर्ष ही साहित्य सेवा एवं लेखन में लगाये। उनकी प्रथम वृति जैन शतक है जिसे उन्होंने संवत् १७८१ पौष कृष्णा १३ रविवार के दिन समाप्त की थी। इसकी रचना महाराजा सवाई जयसिंह के सूबा हाकिम गुलाबचन्द की प्रेरणा से हुई थी । गुलाबचन्द शाह हरीसिंह के वंशज थे; जो धार्मिक प्रकृति वाले व्यक्ति थे तथा प्रागरा प्राने पर उसने कवि से निवेदन किया था -
मागरे में बाल बुद्धि भूधर खण्डेलवाल,
बालक के ख्याल सों कवित्त रच जाने हैं । ऐसे ही करत भये जैसिंघ सवाई सूबा,
हाकिम गुलाबचन्द आये तिहि ठाने है ।
हरीसिंह शाह के सवंस धर्मरागी नर,
तिनके कहे स जोरि दीनौ एक ठाने है ।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
फिरि फिरि मेरे मेरे आलस का अंस भयो,
उनकी सहाय यह मेरे मान माने है । सतरहसे इक्यासिया, पोह पास्न तमलीन,
तिथि तेरस रविवार को प्रातक समापत कीन ।।४।। जन शतक स्तुति परक, नीति परक एवं जैनधर्म महिमापरक कृति है । उनकी दूसरी कृति पार्वपुराण है जो हिन्दी की एक बेजोड़ कृति है। यह एक महाकाव्य है। जिसमें २६वें तीर्थकर पार्श्वनाथ के जीवन चरित को निबद्ध किया गया है। भाव, भाषा एवं शैली की दृष्टि से यह कृति भाषा साहित्य की सर्वोत्तम कृतियों में से है । इसकी रचना सं. १७८६ में हुई थी। पार्श्वपुराण' जन-साहित्य में सर्वाधिक लोकप्रिय काव्यों में से है। जिसकी पाण्डुनिमित प्रा:नी जान के ही नहीं किन्तु समस्त देश के शास्त्र भण्डारों में विपुल संख्या में संग्रहीत है। इस पुराण के अतिरिक्त कवि ने हिन्दी पर भी लिखे हैं. जिनकी संख्या ७४ है जो अध्यात्म एवं भक्ति परक है 1
भूघरदास यद्यपि त्रागरे के थे, लेकिन उनका जयपुर के विद्वानों से विशेष सम्बन्ध था। कषि कभी जयपुर माये थे या नही--इसके सम्बन्ध में तो कोई निश्चित तथ्य नहीं मिलते लेकिन यह अवश्य है कि इनका जयपुर के विद्वानों एवं समाज के नेताओं तथा उच्च अधिकारियों से अच्छा परिचम था। प्रागरा के मन्दिरों में स्थित जन भण्डारों की विशेष खोज नहीं होने के कारण अभी इनके जन्म एवं मृत्यु के बारे में निश्चित तिथि नहीं मिलती। लेकिन कषि संवत् १८०० के पूर्व ही स्वर्गवासी हो गये हों. - ऐसा अनुमानित किया जाता है। किशनसिंह :
रामपुरा के निवासी थे। रामपुरा जशियारा-टोंक के समीप है तथा जो आजकल अलीगढ़ वे. नाम से जाना जाता है : किशनसिंह के पिता का नाम सुख देव पाटनी था; · जिनके द्वारा अलीगढ़ (रामपुरा) में एक विशाल मन्दिर का निर्माण करवाया गया था तथा जिसका लेख इसी मन्दिर में उत्कीरणं है । मन्दिर की नींघ संवत् १७२१ में लगी थी। किशनसिंह दो भाई थे । आनन्द सिंह इनके लघु भ्राता थे। ये भी खण्डेलवाल एवं पाटनी गोत्र के थे । इनके पिता माथुरदास बसंत के प्रधान थे। उनकी सभी ओर प्रसिद्धि थी। लेकिन किशनसिंह अपने गांव में नहीं रहे और सांगानेर आकर बस गये। वे संभवत:
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प्रस्तावना
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कुछ समय चौथ का बरवाड़ा तथा प्रागरा भी रहे थे। सांगानेर प्राने के पश्चात् वे साहित्य निर्माण में लग गये। उन्होंने १० से भी अधिक रचनाए की है। जिनके नाम निम्न प्रकार हैं१. णमोकार रास
संवत् १७६० २. चौबीस दण्डक ३. पुण्यास्रव कथाकोश
१७७३ ४, भद्रबाहु चरित्र ५. अपनक्रिया कोश
१७८४ ६. लब्धि विधान कथा
१७८२ ७. निर्वाण काण्ड भाषा ८. चतुषिंशति स्तुति १. चेनन गीत १०. चेतन लौरी
११. पद संग्रह नेमिचन्द :
आमेर के जिन हिन्दी विद्वानों एवं कवियों ने साहित्य निर्माण में गहरी अभिरुचि ली थी; उन में कविवर नेमीचन्द का नाम विशेषत: उल्लेखनीय है । नेमिचन्द प्रामर की भट्टारक गादी के भट्टारक जगत्कोति के प्रमुख पिध्य थे। वे खण्डेलवाल जाति के सेठी गोत्र के श्रावक थे तथा अपनी आजीविका उपार्जन के अतिरिक्त शेष समय को काव्य रचना में लगाया करते थे । इनके समय में 'भामेर हो' ढूंढाड प्रदेश की राजधानी थी और उनका यश अपनी सोच्न अवस्था में पहुंच चुका था। कवि ने अपनी कृतियों में यामेर नगर का जो सुन्दर वर्णन किया है. उससे नगर के वैभव, सम्पन्नता एवं विशालता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है ।'
नेमियन्द वो भाई थे झगडु इनके छोटे भाई का नाम था। इनके कितने ही शिष्य थे जिनमें टूगरसी एवं रूपचन्द के नाम विशेषत: उल्लेखनीय हैं। कवि की अब तक तीन कृतियों की उपलब्धि हो चुकी है, जिनके नाम नमीश्नर रास, मे मीश्वर गीत एवं प्रीयंकर चौपई है ।।
'नमीश्वर रास' इनकी प्रमुख कृति है। यह हिन्दी का एक पद्य-ग मिश्चित काब्य है। काव्य की कथावस्तु गद्य एवं पद्य दोनों में ही यरिणत है ।
६ प्रशस्ति संग्रहः पृ २७६
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
हिन्दी-भाषा का यह संभवतः प्रथम काव्य है। जो इतना प्राचीन है। जिसमें गद्य एवं पद्य दोनों ही को अपनाया गया है। रास में ३६ अधिकार हैं। जिनमें २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ के जीवन का वर्णन किया गया है। साथ ही में महाभारत की कथा का भी समावेश किया गया है । रास का रचना काल सं १७६६ पासो सुदी १३ पधार है । पूरा रात १३.८ छन्दों में समाप्त होता है, जिनका विभाजन निम्न प्रकार है
दोहा सोरठा सया कडन हाल फुल पोग २६० २५ २ ११ १०१० १३०८
इसके अतिरितः गद्य में जो वर्णन मिलता है, वह उक्त संख्या से पतिरिक्त है । कृति का दूसरा नाम हरिवश पुगण भी दिया हुआ है।
__ "प्रीत्यंबर चौपई" कवि की दूसरी बड़ी रचना है, जो दोहा और चौपई छन्दों में गिबद्ध है, जिनकी संख्या ३१६ है । इसका रचना काल सं० १७७१ वैशाख सुदी ११ है। चौपाई का प्रारम्भ प्रावीन परम्परा के अनुसार हुया है। जिसमें चौवीस तीर्थंकरों के स्तवन के पश्चात् पंच परमेष्टियों की भक्ति एवं प्राचार्य कुन्दबुन्द का स्मरण किया गया है। चौपई को भाया राजस्थानी है
जोबां बैर भाव मिट गयो, आपस में सब आनन्द भयो। वनमाली हास्या भयो देखि, छह रिति मां फल फूल बस ।
वनमाली फल फूल विराय, श्रेणिक राजा बंदी जू भाय । दीपचन्द कासलीवाल :
दीपचन्द कासलीवाल भी आमेर नगर के ही ऋवि थे। ये भी कवि दौलतराम कासलीवाल के समकालीन कवि थे और इन्हीं के समान गद्य-पद्य दोनों ही शैलियों में रचना करने वाले थे। लेकिन इनफा अध्यात्म की ओर अधिक झुकाव था। इसलिये इनकी अधिकांश रचनायें प्रध्यात्म प्रधान हैं ।
___ कदि का जन्म कब हुअा था। इसके सम्बन्ध में कोई निश्चित जानकारी नहीं मिलती ! इनको एक रचना 'प्रास्मावलोकन' सं० १७७४ की कृति है। इसलिए इनका जन्म सं० १७३० के आस पास होना चाहिये । इनकी एक अन्य रचना सं० १७८१ की है। यदि इसे कवि की अन्तिम रचना मान ली जाये तो इनका सम्पूर्ण जीवन संवत् १७३० से १७८५ तक का माना जा सकता है। इनके नाम के पूर्व शाह शब्द का प्रयोग होता था;
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इससे ज्ञात होता है कि कवि समाज के प्रतिष्ठित पद पर पासीन थे। ये पहले सांगानेर रहते थे और फिर भामेर पाकर रहने लगे थे। कवि ने अपनो 'चिशिलास' नामक कृति में इनका वर्णन निम्न प्रकार से किया है ।
"इस प्रय में प्रथम परमात्मा का वर्णन किया, पीछे जपाय परमात्मा पायों का विखाया । जे परमात्मा को जनमो कियो चाहै ते या ग्रंथ को बार-बार विचारो। यह अन्य दीपचन्द साधर्मी कीया वास है, सांगानेर, प्रा मेर में प्राय, तब यह ग्रंथ कियो सं० १७७६ का मिति फागुण बदी पंचमी को यह मय पूर्ण कियो।
कवि की अब तक निम्न कृतियां उपलब्ध हो चुकी है१. अनुभव प्रकाश, २. ग्रात्मावलोकन, ३. चिदविलास ४. परमात्म पुराण. ५. उपदेश रत्नमाला, ६. ज्ञान मानण्ड
'अनुभव प्रकाश' पूर्ण प्राध्यात्मिक रचना है। धारावाहिक रूप में यह गद्य काव्य यद्यपि प्राकार में लघु है, लेकिन जिस रीति से कवि ने गागर में सा, भर दिया है. वह उसी दिन्ना एवं गोरे में पारिक गम्भीर बात कहने का चातुर्य प्रगट करता है ।
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'मात्मावलोकन' इनकी दूसरी आध्यात्मिक कृति है । जिसमें प्रारमा एवं परमात्मा के सम्बन्ध पर विशद विवेचन किया गया है। गद्य शैली में इस प्रकार का विवेचन अन्य ववियों द्वारा बहुत ही कम हुना है । ग्रन्य में विभिन्न अधिकार है। इसकी भाषा इंडारी है। जिस पर बज भाषा का पूर्ण प्रभाव है । पर साथ ही उर्दू भाषा के शब्दों का भी प्रयोग हुना है ।
इसी प्रकार की कवि की अन्य कृतियां भी अध्यात्मपूर्ण है। महाकवि दोलतराम से इनका कितना सम्पर्क रहा इसके सम्बन्ध में निश्चित जानकारी नहीं मिलती। अजयराज पाटनी :
"अजयराज पाटनी" दौलतराम के समकालीन ज्येष्ठ विद्वान थे। पाटनी जी हिन्दी के श्रेष्ठ कबि थे। अपनी लघु रचनायों द्वार। पाठकों को नमी-नयी कृतियां भेंट किया करते थे। अब तक उनकी २० रचनामों का पता लग चुका है, जिनमें पूजा, जयमाल, कथा, गीत, चरित, चौपई, विवाह बंदना, बत्तीसी आदि सभी नाम की कृतियां मिलती हैं। राजस्थान के विभिन्न
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
शास्त्र-भण्डारों में अब तक इनकी निम्न रचना उपलब्ध होती हैं
१. ग्रादिनाथ पूजा, २. कवका बत्तीसी, ३. चरखा चउपई, ४. चार मित्रों की कथा, ५. चौबीस तीर्थकर पूजा, ६. चौबीस तीर्थकर स्तुति, ७. जिन गीत, 5. जिनजी की रसोई, ६. सायोकार सिद्धि. १०. नन्दीश्वर पुजा, ११. नेमिनाथ चरित्र, १६. १ मा पूजा, १२. भाभ-नायनी का सालेहा, १४. बाल्य वर्णन, १५. बीस तीर्थंकरों की जयमाल, १६. यशोधर चौपई, १७. वंदना, १८. शांतिनाथ जयमाल, १६. शिवरमणी विवाह, २०. विनती।
उक्त रचनायें कवि की काव्य विविधता की प्रोर संकेत करती है। जिनमें सामान्य विषय से लेकर रूपक काव्य तक की रचनामें उपलब्ध होती हैं। कवि प्राकृतिक सौन्दर्य के प्रेमी थे; जो उनकी रचनाओं की विभिन्न प्रशस्तियों से मालूम होती है। ये पाक शास्त्र के भी विगेषज्ञ थे । 'जिन जी की रसोई' कृति में पाक शास्त्र का अच्छा परिचय मिलता है। "शिव रमणी विवाह' में तीर्थंकर की बरात का रूपक बांधा गया है। जिसमें तीर्थकर दुल्हा है सधा मुक्ति को व के रूप में प्रस्तुत किया गया है। तीर्थकर के प्रवचनों को सुनने वाले सभी भव्य जन उनके बराती है। पंचम गति अर्थात् मोक्ष ससुराल है; जहां दे मुक्तिवधु के साथ ज्ञान सरोवर में खूब स्नान किया करते हैं । यञ्चपि इसमें केवल १७ पद्य ही हैं। लेकिन रूपकों का अच्छा रूप प्रस्तुत किया गया है।
इसी तरह चरखा चौपई भी एक सुन्दर रूपक कात्र्य है। इसमें कवि ने गागर में सागर भरा है । चरखे को लेकर कवि ने जो रूपक बांधा है, वैसा रूपक अन्यत्र मिलना कठिन है। इस लघु कृति में शील और संयम दो छूटे हैं। शुभ यान ताड़ियां एवं शुक्ल म्यान को घरखे का पाया बनाया है। संसार रूपी जेवड़ी का दामणा, दश धर्म को माल, चार दान को हथली तथा प्रारमा को साक् के रूप में प्रस्तुत किया है। क्षमा की आटियां बनाकर ज्ञान गुफा में रखने की ओर सकेत किया गया है। उस शताबिद में 'चरखा' अत्यधिक लोकप्रिय था तथा सब रोजी-रोटी देने वाला एवं गरीबों का एकमात्र सहारा था ।'
- भाव, भाषा एवं शैली को दृष्टि से यह महत्वपूर्ण कृति है ।
१ ऐसो चरखो गांव कोय, ताके घर अति प्रानन्द होय 1 अजराज थोड़ा में कही, चतर नारि मानि जो सही ।।
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'जिनजी की रसोई' पाक शास्त्र पर एक महत्वपुर्ण कृति है। जैन ऋषियों द्वारा लिखी हुई संभवतः ऐसो प्रथम रचना है जो केवल पाक-शास्त्र से सम्बन्ध रखती है। इसमें कवि ने व्यजनों, पक्वानों एवं फसों के नाम गिनाकर उनके बनाने की विधि का उल्लेख किया है । इसी के साथ तीर्थकर के विविध प्रकार के प्राभूषणों का भी वर्णन मिलता है। जैसे रूठे हुये कृष्णा जी को यशोदा मनाती थी; उसी तरह इसमें कवि ने "सुम रूसो मत मेरे चिमना, सेलो वहुविधि घर के अंगना" कहकर उन्हें मनाने की प्रक्रिपा अपनायी है।
सोहे सुन्दर कुण्डल कान, गले हार मोतिन को जाणि । कड़ा जड़ाऊ हाथा पगा, रंग रंग का पहरे भंगा ।। होरा जडित पांच अति सोहे, सुर नर नाग सकल मन मोहे । माथे मुकुट अनुपम सार, खेले कुंबर महासुख कार ।।
इसी तरह विविध प्रकार के ध्यजनों का जब वर्णन किया गया है। तो ऐसा लगता है कि मानों स्वयं कवि उन्हें बनाने बैठ गया हो
जांबू नीवू स्वारा मिठा, करौ सवाद रही मति रूठा । सरदा खरबूजा काकडी, नौझी प्राणी तुरत की घड़ी ।। केरीपाक मुरबा भला, पांति खांड घी में घिलमिला । छोलि बादाम धरे अखरोट, चारौली पिस्ता की मोट ।। वेसरण की चौखी पापडी, धिरत मांहि तलते भी धरी । मुख विलास मुख मांहि विलाई, तास वोपमा कही न जाई ।
प्रस्तुत रचना संवत् १७६५ की है। एक ओर मामेर में अजयराज साहित्य की गंगा बहा रहे थे तो दूसरी ओर दौलतराम उदयपुर में काव्य रचना कर रहे थे। अजयराज अन्त तक आमेर में ही रहे और जयपुर वसने के बाद भी उन्होंने भामेर में रहना ही उचित समझा। इन्होंने भामेर नगर, वहां के राजमहल, प्राकृतिक दृश्य, मन्दिर यादि का प्रच्छा वर्णन किया है। इन्होंने महाराजा जयसिंह के शासन काल का भी उल्लेख किया है । एक वर्णन देखिये
अजयराज इह कीयो वखापा, राज सवाई जर्यासह प्राण । अंबावती सहरै सुभ थान, जिन मन्दिर जिन देव विमान ।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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नीर निवारण सो बनराई, वेलि गुलाब चमेली जाई । चंपो मरो अरु सेवति, यो हो नाना विधि किती || बहु मेवा बहुविधि सार, वरात मोहे लागे बार । गढ़ मन्दिर कछु कह्यौ न जाइ, मुखिया लोग बसे अधिकाई ॥ तामें जिन मन्दिर इकसार, तहां विराजे नेमि कुमार । स्याम मूर्ति शोभा प्रति घरणी, ताकी दोषमा जाइ न वणी ।। खुशालचन्द काला :
खुणालचन्द राजस्थान के गौरवमान कवि थे । श्रपने जीवन के बीस से भी अधिक बसन्त ऋतुयें इन्होंने साहित्य निर्माण में व्यतीत की थी। कवि को एक नगर में रहने का अवसर नहीं मिला। इनके पूर्वज टोडारायसिंह के निवासी थे, लेकिन फिर जिहानाबाद - जयसिंहपुरा में जाकर रहने लगे थे । कवि का जन्म संभवतः यहीं हुआ होगा । इनके पिता का नाम सुन्दरदास एवं माता का नाम सुजानदे था । काला इनका गोत्र था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा दीक्षा जयसिंहपुरा में ही हुई थी; लेकिन फिर भट्टारक देवेन्द्रकीति के साथ से सांगानेर आ गये और कविवर लक्ष्मीदास चांदवाड़ के शिष्य बनने का इन्हें सौभाग्य प्राप्त हुआ। इन्हीं के पास इन्होंने शास्त्र ज्ञान प्राप्त हुआ, जिसका उल्लेख कवि ने अपनी रचनाओं में बड़ी कृतज्ञता से किया है
जिन सु भये तहां नाम लिखमीदास,
चतुर विवेकी श्रुत ज्ञान कू उपाय के । तिने पास मै भी कछु ग्रहम सौ प्रकाश भयो,
फेरि मैं बस्यो जिहानाबाद मध्य श्रायके ||
इसके पश्चात् कवि फिर वापिस जयसिंह पुरा चले गये। वहां सुखानन्द घर में गोकुलचन्द श्रावक रहते ये; उन्ही के श्राग्रह से काँच ने संवत् १७५०
नाम के उत्तम वणिक थे। उन्हीं के जिनको कवि शास्त्र सुनाया करते थे। में हरिवंश पुराण की रचना की थी
सरह मध्य इक वणिक वर साह सुखानन्द जानि । ताके गेह विष रहै, गोकुलचंद सु जांनि ॥१०॥
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प्रस्तावना
तिन ढिग मैं जाऊ' सदा, पदु शास्त्र सुभाय । तिनको वर उपदेश लै, मैं भाषा बनवाय ।।११।।
कवि ने अपनी रचनाओं में महाराज जयसिंह, उनके प्रसिद्ध नगर सांगानेर एवं उसमें होने वाले धार्मिक उत्सबों का अच्छा वर्णन किया है । उस सग महाराजा विशद के सुख नहाराजा अर्यातहतिय का मामेर में शासन था।
देश ढुढाहर जागौं सार, तामै घरम तणु अधिकार । बिसनसिंह सुत जैसिंह राय, राज कर सचकू सुखदाय ।। देश तनी महिमा अति बनी, जिन-गेहा करि प्रति ही बनी । जिन मन्दिर भवि पूजा करै, के इक व्रत ले केइक धरै ।। जिन मन्दिर करवाये नवा, सुरग विमान तनी कर धवा । रथ जात्रादि होत बहु जहां, पुन्य उपाइन भवियन तहां ।।
खुशालचन्द काला के अब तक जिन ग्रन्थों की उपलब्धि हो चुकी हैबे निम्न प्रकार हैं
१. हरिवंश पुराण, २. यशोधर चरित, ३. पपपुराण, ४. प्रत कथाकोश, ५. जम्बूस्वामी चरित, ६, घन्यकुमार चरित, ७, सद्भाषितावली, ८. उत्तर पुराण, ६. चौबीस महा राज पूजा, १०. शान्ति नाथ पुराण, ११. वर्तमान पुराण।
—ये सभी कृतियां हिन्दी भाषा की सुन्दर कुतियां हैं, जिनमें काव्य के सभी लक्ष्ण उपलब्ध होते हैं । हरिवंश पुराण ३६ मंघियों का महाकाव्य है, जिसमें २२३ तीर्थकर नेमिनाथ एवं 'महाभारत की कथा का विस्तृत वर्णन है। पुरासा में दोहा, चौपाई, प्ररिल्ल, सवैय्या, सोरठा ग्रादि छन्दों का उपयोग हुना है। इसका रचनाकाल संवत् १७८० वैशाख सुदी तीज है। इसी तरह उत्तर पुराण का रचना काल सं० १७६६ मंगसिर सुदी दशमी का है। यह भी संघियों में विभक्त है तथा इसको वर्णन पेली प्राचार्य गुणभद्र के उत्तर पुराण के अनुसार ही मिलती है। इसको भाषा में राजस्थानी एवं ब्रज का सम्मिश्रण है। वैसे यह पुराण दोहा चौपाई छन्द प्रधान है; किन्तु डिल्ल, छप्पय जैसे छन्दों का प्रयोग भी हुआ है।
'व्रत कथाकोश' में कवि ने २३ ब्रत कथानों का संग्रह किया है। जिनकी रचना सं० १७५२ से १७८७ तक की गयी थी । कुछ कथाए तो छोटे-२
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल - व्यक्तित्व एवं कृतित्व
काव्यों के बराबर हैं, जिनकी छन्द सं० ३०० से भी अधिक हो गई है । कथाओं में धार्मिक पुट है तथा उनमें नैतिकता के वर्णन की प्रमुखत्ता है। मध्य युग में जन-साधारण में कथाओं के प्रति जो आकर्षण पैदा हुआ था उसके परिणाम स्वरूप कवि ने ऐसी रचनाओं को छन्दोबद्ध किया था ।
खुशालचन्द ने अपने साहित्य के माध्यम से जन-साधारण में जो जागृति उत्पन्न को थी, उसने सारे राजस्थान को ही नहीं; किन्तु उत्तर भारत की जैन समाज में भावात्मक एकता स्थापित करने में अत्यधिक योग दिया था। खुशालचन्द समन्वयवादी कवि थे । इसलिये हिन्दी में रचना भी उसी दृष्टि से किया करते थे ।
कविवर दौलतराम अथवा महापंडित टोटर मल्ल से कवि का साक्षात्कार कभी हुआ श्रथवा नहीं- इसके बारे में तीनों ही विद्वानों ने अपनी रचनाओं में कुछ उल्लेख नहीं किया। लेकिन खुशालचन्द भी महाराज जयसिंह के कृपापात्र थे, और दौलतराम उनके राजदूत थे, इसलिए दोनों में अवश्य ही मित्रता रही होगी। तीनों ही कवि समाज के थलग २ वर्ग का नेतृत्व करते थे; इसलिए यद्यपि वे परस्पर में अधिक सम्पर्क में रहे भी तो भी एक दूसरे के मध्य साहित्यिक परिचय तो रहा ही होगा । टोडरमल :
नहीं हों,
महापंडित टोडरमल कचिवर दौलतराम के समकालीन विद्वान हो नहीं थे, किन्तु वे उनके घनिष्ट मित्र भी थे। महाकवि द्वारा पुराण ग्रंथों की भाषा टीका टोडरमल की विशेष प्रेरणा के कारण ही सफल हो सकी थी। जिस मनोयोग से टोडरमल ने गोम्मटसार श्रादि ग्रन्थों की हिन्दी में भाषा टीका को भी उससे भी अधिक मनोयोग से कवि ने पद्मपुराण आदिपुराण एवं हरिवंश पुराण की भाषा की थी । टोडरमल के ग्रंथ धत्यधिक गम्भीर एवं गुढ़ शैली में लिखे गये हैं, तथा साधारण पाठक के लिए सहज गम्य नहीं है, जबकि दौलतराम ने अपने सभी ग्रंथ साधरण पाठकों के लिए निवद्ध किये। इसलिए जितना जबरदस्त प्रचार दौलतराम के ग्रन्थों का हो - सका, उतना टोडरमलजी के ग्रन्थों का नहीं हो सका ।
टोडरमल जी की आयु एवं जन्म संवत् दोनों के बारे में विद्वानों की धारणाएं बदल रही हैं। पहिले उनको आयु २६-२७ वर्ष की ही मानी जाती थी। लेकिन राजस्थान के अजमेर के भण्डार में "सामुद्रिक सुरुप लक्षण""
१ राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रंथ सूची- पंचम भाग - पृष्ठ संख्या १२०५
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प्रस्तावना
को संवत् १७६३ की एक प्रति मिली है, उसमें पं० टोडरमल जी के पठनार्थ प्रतिलिपि की गई—ऐसा स्पष्ट उल्लेख मिला है। यदि उस समय कवि की मायु १५ वर्ष की भी मान ली जावे तो भी उनकी मायु ४५ वर्ष की होनी चाहिये ।
टोडरमल ने सर्वप्रथम रहस्यपूर्ण चिट्ठी लिखी। इस अकेली चिट्ठी से ही पता चलता है कि उनकी ख्याति राजस्थान को पार करके पंजाब तक पहुंच गई थी। उन्होंने गोम्मटसार, त्रिलोकसार, क्षपणासार एवं लब्धिसार जैसे सैद्धान्तिक ग्रंथों की भाषा टोका करके जैन समाज को अपनी मोर प्राकृष्ट कर लिया। यह प्रथम अवसर था जबकि हिन्दी में किसी विद्वान ने प्राकृत माषा के ऐसे महत्वपूर्ण एवं लोकप्रिय ग्रन्थों पर हिन्दो टोका लिखी हो। इसलिए इन ग्रन्थों के निर्माण के पश्चात् उनकी कौति पताका घारों पोर सहराने लगी। विद्वत्ता के साथ ही उनकी बक्तृत्व शक्ति भी विलक्षण थी एव समाज को रूढ़ियों एवं अन्ध विश्वासों से निकाल कर सम्यक् मार्ग पर लाने को उनकी जबरदस्त भावना थी। इसलिये अपने जीवन में उन्हें अनेक संघों से जूझना पड़ा और इन्हीं संघर्षों से अन्त में जूझते २ पडित जी ने अपना जीवन भी समर्पण कर दिया। वे शहीद हुए थे तथा तत्कालीन समाज की साम्प्रदायिकता की अग्नि में उन्होंने अपने पापको होम दिया । उनका 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' यद्यपि पूर्णतः धार्मिक ग्रंथ है; किन्तु बह आकर्षक शैली एवं विद्रोहात्मक पद्धत्ति में लिखा गया है। जिसका एक-एक वाक्य रहस्यपूर्ण एवं धार्मिक अर्थ को लिये है ।
टोडरमल के पश्चात् होने वाले सभी परवर्ती कवियों ने अपनी रचनात्रों में टॉउरमल का सादर उल्लेख किया है तथा उनकी विष्ठता की प्रशंसा की है। स्वयं महाकवि दौलतराम ने पुरुषार्थ सिद्ध पाय" टोका में टोडरमल जी की विद्वत्ता का निम्न प्रकार उल्लेख किया है
भाषा टीका ता ऊपर कीनी टोडरमल्ल । मुनिबर कृत बाकी रही तांके मांहि प्रचल्ल ।। बे तो परभब गये, जयपुर नगर मझार ।
सम साधर्मी तब कियो मन में यह विचार ॥ बस्तराम साह:
कविधर बख्तराम महाकवि दौलतराम के समय प्रसिद्ध कवि थे । ये इतिहास, सिद्धान्त एवं दर्शन के महान पण्डित थे । भट्टारकों में इनका पूर्ण
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
विश्वास था और ये बीस पंथ आम्नाय वाले वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वालों में से प्रमुख थे। इन्होंने 'मिथ्यात्व खाडन' लिखकर महा पं० टोडरमल जी के विचारों का विरोध किया और भट्टारकों का खुलकर समर्थन किया । जयपुर में लश्कर का दि० जैन मन्दिर इनका साहित्यिक केन्द्र था और यहीं बैठकर इन्होंने साहित्य सर्जन किया था। बुद्धि विलास' इनकी महत्त्वपूर्ण कृति है; जिसका इतिहास से पूर्ण सम्बन्ध है। कवि ने इसमें तत्कालीन समाज, राज व्यवस्था, जयपुर नगर निर्माण आदि का अच्छा वर्णन किया है। यह उनकी सं० १८२७ मंगसिर सुधी १२ की रचना है ।
बस्तराम पाकसू के निवासी थे । बाकसू जयपुर से करीब २४ मोल दक्षिण पूर्व में बसा हुश्रा एक प्राचीन नगर है। जिसका जैन कवियों ने काफी अच्छा वर्णन किया है। इनके पिता पेमराज साह थे जो बाकसू में ही रहते थे । द.वि चाकसू से जयपुर स्थानान्तरित हो गये थे और यहीं पर विद्वानों के सम्पर्क में रहकर साहित्य सेवा किया करते थे। मिथ्यात्व लण्डन नाटक में कवि ने अपना वर्णन निम्न प्रकार किया है
ग्रन्थ अनेक रहस्य ललि, जो कछु पायौ थाह । बख्तराम वरननु कियो, पेमराज सुत साह ।।१४८।। प्रादि चाटसू नगर के, वासी तिनि को जांनि । हाल सवाई जैनगर, मांहि बसे हैं प्रांनि ।। १४५।। तहाँ लसकरी देहुरे, राजत श्री प्रेभु नेम । तिनको दरसण करत ही. उपजत है अति प्रेम ।। १४१६।।
कवि की एक लघु रचना "धर्मबुद्धि कथा' एवं कुछ पद भी मिलते हैं । बुद्धि विलास में अपने प्रबल विरोधी महा पं० टोडरमल की मृत्यु पर जो पंक्तियां लिखीं, वे अत्यधिक महत्वपूर्ण हैंयक तेरह पंथिनु में भ्रमी, टोडरमल्ल नाम साहिमी । कहे खलनि के नृपरिसि तांहि, हति के धरची असुचि थल नाहि ।
उक्त घटना के अतिरिक्त कवि ने अपनी रचनामों में तत्कालीन विद्वानों के सम्बन्ध में मौन ही रहना उचित समझा।
१ राजस्थान पुरातत्व मन्दिर जोधपुर में प्रकाशित । सम्पादक श्री पअधर पाठक।
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प्रस्तावना
जयचन्द छाबड़ा:
महा पंडित टोडरमल एवं दौलतराम के पश्चात् जिन विद्वानों को समाज द्वारा सर्वाधिक सम्मान प्राप्त हुआ; उनमें जमचन्द छाबड़ा प्रमुख विद्वान हैं। इनका भी समुचा जीवन ही साहित्य-देवता को समर्पित था और साहित्य एवं ममाज की मेवा ही उनके जीवन का प्रमुख लक्ष्य था । महाकवि दौलतराम एवं महा पंडित टोडरमल दोनों का ही इनके जीवन पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ा और साहित्यिक क्षेत्र में इन्हीं का उन्होंने अनुसरण किया।
जयचन्द छाबड़ा का जन्म जयपुर से . मील दक्षिण की प्रोर जयपुर मालपुरा रोड़ पर स्थित फागी ग्राम में हुया था। यह समय ऐसा था जब दौलतराम की गौरव गाथा चारों ओर फैल चुकी थी और टोडरमल के साहित्यिक के क्षेत्र में पदार्पण की भूमिका बन रही थी। इनके पिता का नाम मोतीराम था । गोन छाबड़ा एवं जाति खण्डेलशन थी। ११ वर्ष की अवस्था मे ही मे अपने ग्राम के मन्दिर में जाने लगे और तत्वचर्चा में रूचि लेने लगे । कुछ समय पश्चात् वे जयपुर में प्रागये और यहां प्राने के पश्चात् तो उन्हें ऐसा लगने लगा कि मानों उन्हें अपनी प्रभोष्ट वस्तु मिल गई हो । अब वे जयपुर पाये तो उन्हें अपने आपको विद्वानों की गोद में पाया । पं० वंशीधर, टोडरमल, दौलतराम, भाई रायमल्ल, बस्तराम आदि सभी शास्त्रज्ञ एवं सत्वोपदेशी थे। फिर क्या था जयचन्द ने भी अपने-अपको इन्हीं विद्वानों के समर्पित कर दिया । सर्व प्रथम इन्होंने तत्वार्थ मूत्र पर संवत् १८५६ में बपनिका लिली और फिर इसके दो वर्ष पश्चात् सवार्थसिद्धि पर विस्तृत वनिका लिखी जो अर्थ प्रकाशिका के नाम से अधिक प्रसिद्ध है । फिर तो वे एक के पपवान् दूसरे ग्रन्थ की भाषा टीका लिखने लगे और अपने १२-१३ वर्ष के साहित्यिक काल में १५ ग्रन्थों पर भाषा टोकायें लिख दी । ऐसा मालूम होता है कि उनका मस्तिष्क सैद्धान्तिक ज्ञान से भर चुका था और अब तो. केवल निकलने की देरी घो । अब तक उनके निम्न घय प्राप्त हो चुके है
रचनाकाल
१, सस्वार्थ सूत्र व नका, सं० १८५६ २. सर्वार्थसिद्धि वनका, चैत्र शुक्ला पंचमी १८६१ ३. प्रमेयरत्नमाला वनिका, प्राषाढ़ शुक्ला ४ सं०१८६३ ४. स्वामी कातिकेयानुप्रेक्षा भाषा, श्रावण कृष्णा ३ सं० १८६३
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-पक्तित्व एवं कृतित्व
५. द्रव्यसंग्रह वचनिका, धानमा कृष्णा १४ में० १८६३ ६. समयसार बच निका, कार्तिक कृष्णा १० सं० १८६४ ७. देवागम स्तोत्र (ग्राप्त मीमांसा), चैत्र कृष्णा १४ सं० १८६६ . प्रष्ट पाहुड़ बनिका, भाद्रपद शुबला १२ सं० १९६७ ६. ज्ञानार्णव वचनिका, माघ कृष्णा ५ सं० १८६६ १०, भक्तामर स्तोत्र वचनिका, कार्तिक कृष्णा १० सं० १७० ११. पद संग्रह, १२. सामायिक पाठ व नका, १३. पत्रपरीक्षा वाचनिका १४. चन्द्रप्रभ चरित द्वि० सर्ग, १५. धन्यकुमार वचनिका,
उक्त ग्रन्थों की नामावली के अाधार पर कवि के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का स्वतः ही प्राभास मिल जाता है । उन्होंने सैद्धान्तिका, तात्विक, प्राध्यात्मिक स्तुति परक, दार्शनिक एवं धरित-प्रधान सभी ग्रन्थों की राजस्थानी भाषा में वनिकाए' लिखीं और उनके पठन-पाठन का सर्वत्र प्रचार किया । इनके ग्रन्थों की भाषा अत्यधिक सरल, सरस एवं सुगम्य है।
तत्कालीन जयपुर दरबार से उनका मधुर सम्बन्ध था। अपनी एक कृति में उन्होंने महाराजा सवाई जगतसिंह के शासन की अच्छी प्रशंसा की है । कधि के अनुसार राज्य में सर्वत्र अमन चैन था तथा सभी धर्मावलम्बियों को अपने २ धर्म पालन की पूरी छूट थी। राजा के कितने ही मंत्री थे और उनमें परस्पर में मैत्री भावना थी। संवत् १५६१ में जयपुर में जो प्रतिष्ठा महोत्सब हुआ था, उसमें कवि का विशेष योग था।
करी प्रतिष्ठा मन्दिर नयो, चन्द्रप्रभ जिन थापन थयो। ताकरि पुण्य बढ़ौ यश भयो, सर्व जैनिन को मन हरयो ।।
दीवान रायचन्द से भी कधि का विशेष सम्बन्ध था इन्होंने कवि को सभी चिन्ताओं से मुक्त कर दिया पीर साहित्य निर्माण पर विशेष जोर दिया।
ताके -हिंग हम थिरता पाय । करी बचनिका यह मन लाय ।।
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प्रस्तावना
जयचन्द का पुत्र नन्दलाल छाबड़ा भी अपने पिता के समान ही साहित्य प्रेमी था । वह अनेक शास्त्रों का ज्ञाता या तथा अपने पिता को साहित्य रचना में योग दिया करता था। जयचन्द जी ने एक स्थान पर अपने पुत्र की निम्न प्रकार प्रसंशा की--
नन्दलाल मेरा सुत गुनी, बालपने ते विद्या गुनी । पंडित भयौ बड़ी परवीन, ताहूनै यह प्रेरणा कीन ।।
जयचन्द जी के पश्चात् होने वाले सभी कवियों ने इनकी मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है। थानसिंह :
भानसिंह महाऋषि दौलतराम के उत्तरकालीन कवि थे। इनके द्वारा रचित "सुबुद्धि प्रकाश" एवं "यान विलास" उल्लेखनीय रचनाए है । 'मुबुद्धि प्रकाश' सुभाषित रचना है, जिसकी एक पाण्डुलिपि जयपुर के बधीचन्द जी के मन्दिर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है। रचना काफी अच्छी है । तथा उसमें १४६ पत्र हैं। इसका रचनाकाल संवत् १८४७ है। इसी तरह 'पान विलास कवि की रचनाओं को संग्रहात्मक कृति है। कधि बहुत ही स्पष्टवादी एवं निडर थे लथा तथ्यों को रखने में कभी भी नहीं हिसकते थे। जयपुर में महाराजा माधोसिंह के समय में जो साम्प्रदायिक उपद्रव हुये थे, उनका सुबुद्धि प्रकाश की प्रशस्ति में जो वर्णन किया है, वह उनकी निर्भयता का सूचक है
माधव प्राग सिव धरमो मुखियौ भयो । जैन्यासों करि द्रोह वच में ले लियो ।। देव धर्म गुरु धत को विनय विगारियो। कीयो नांहि विचारि पाप विस्तारियौ ।।१२।।
दोहा भूप प्ररथ समझ्यो नहीं, मंत्री के वसी होय । डंड सहर मैं नाखियो, दुखी भये सब लोय ।।६३।। विविध भांति घन घटि गयो, पायौ बहुत कलेम ।
दुखी होय पुर को तजो, तब ताको परदेस [१६४।।
कषि खण्डेलवाल जाति में ठोल्या गोत्र के थे । हेमराज इनके दादा थे । हेमराज के बड़े पुत्र मलूकचन्य, द्वितीय मोहन राम, सृतीय लूणकरण तथा
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
चतुर्घ साहिब राम थे। इन चारों ही पुत्रों के भी अच्छी संख्या में संतान थी। थानसिंह मोहनराम के पुत्र थे। इनका जन्म सांगानेर में हुआ था। अयपुर एवं सांगानेर में जब साम्प्रदायिक उपद्रम हुये तब कवि भरतपुर चले गये थे । लेकिन वहां कुछ समय तक रहने के बाद वे फिर महाराजा माधवसिंह के दरबार में प्रागमे और वहीं पर ध्यापार करने लगे। यहां रहते हुये उन्होंने सुबुद्धि प्रकाश की रचना की। परन्तु इनके पिता वापिस जमपुर नहीं पाये और करौली में रहकर ही व्यापार मादि करने लगे । थानसिंह अपने समय के प्रगतिशील कवि थे तथा साहित्य सेवा में सदैव संलग्न रहते थे।
राजनैतिक स्थिति
दौलतराम अपने ८० वर्ष के जीवन में बसना, पागरा, उदयपुर एवं जयपुर रहे। अागरा के अतिरिक्त इनका अधिक सम्पर्क जयपुर के महाराजानों से रहा लेकिन कवि ने अपनी रचनामों में जयपुर के महाराजारों एवं उदयपुर के महाराणा जगतसिंह के नामोल्लेख के अतिरिक्त सरकालीन राजनैतिक स्थिति अथवा शासन का कोई वन नहीं किया। कवि प्रागरा भी काफी समय तक रहे लेकिन मुगल शासन के बारे में भी वे मौन ही रहे । इससे पता चलता है कि कचि की राजनीति अथवा तत्कालीन शासन के बारे में लिखने में कोई रुचि नहीं थी। इसके अतिरिक्त अमपुर महाराजा के उच्च पदाधिकारी होने के कारण उन्होंने अपने जीवन को साहित्य रचना तक ही सीमित रखा और अन्य प्रपच्चों से दूर रहे।
कवि ने जब पुवावस्था में पदार्पण किया था उस समय देहली पर मुगल बादशाहों का शासन था जो अपने ह्रास की भोर तीय गति से बढ़ रहा था। सम्राट औरंजेव के पश्चाई भारतीय शासन की बागडोर मजबूत हाथों में नहीं रही थी 1 उसके उत्तराधिकारियों को प्रापस में लड़ने से ही अवकाश नहीं मिलता था, इसके अतिरिक्त वे अत्यधिक बिलासी, आलसी एवं अयोग्य भी थे। ना उनमें अकबर जंसी दूरदशिला थी और न औरंगजेब जैसी राजनैतिक चतुरसा । फरूनसियर एवं मुहम्मदशाह जसे मुगल सम्राटों का शासन एकदम दीला तथा निकम्मा था तथा केन्द्रीय शासन नाम मात्र का रह गया था। कवि ने मुगल साम्राज्य का पूरा पतन अपनी मांखों से देखा होगा ।
लेकिन कवि के समय में राजस्थान के शासकगण सणक्त बन गये थे। जयपुर के महाराजा सवाई जयसिंह (सन १६६६-१७४३) जैसे योग्य एवं दूरदर्शी
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प्रस्तावना
शासकों के कारण संवत् १८०० तक राज्य में शान्ति रही और राज्य की समी तरह से उन्नति होती रही। महाराजा सवाई जयसिंह के पश्चात् जयपुर की गद्दी पर महाराजा सवाई ईश्वरीसिंह (सन् १७४३-१७५०) सवाई माधोसिंह (सन् १७५०-६८) एवं सत्राई पृथ्वीसिंह (सन् १७६८-१७७८} बैठे। इन तीनों ही राजामों के शासनकाल में चारों प्रोर प्रशान्ति रही। तथा इन तीनों ही शासकों को लड़ाइयों से भी प्रकास नहीं मिला। यहां पर सुरक्षा के नाम जैसी कोई चीज ही नहीं रही। मराठों के अतिरिक्त स्वयं मुगल बादशाह भी इनके विरुद्ध हो गये थे और उन पर सदैव युद्ध की तसवार टंगी रहती थी । महाराजा ईश्वरीसिंह ने केवल सात वर्ष तक शासन किया और अन्त में मराठों के आक्रा में ययभीत रहर कसा पी लिया। इसके परमाद सवाई माधोसिंह गद्दी पर बैठे लेकिन सतरह वर्ष के शासन में उसे कितनी ही लड़ाइयां लड़नी पड़ी। मरहाटामों के बार बार के प्राक्रमग्गों में शासन व्यवस्था एक दम ढीली पड़ गयी थी और गज्य की सारी प्रामदनी फौजों पर ही खचं करनी पड़ती थी। इमलिये उस समय कला एवं साहित्य को कोई प्रोत्साहन नहीं मिला । इनके पश्चात् सवाई पृथ्वीसिंह शासन पर बैठे। लेकिन उस समय वे केवल पांच वर्ष के थे और ग्यारह वर्ष के पश्चात् ही उनका स्वर्गवास हो गया। इसलिये वे भी शासन को सशक्त बनाने की दिशा में कोई कार्य नहीं कर सके ।
महाराजा माधोसिंह एवं पृथ्वीमिह के शासनकाल में शासन पर मंत्रियों एवं पुरोहितों का अधिक प्रमुख रहा । संवत् १८१८ से १८२६ तक सारे राज्य में शवों एवं जैनों में साम्प्रदायिक झगड़े होते रहे । राज्य में शवों का प्रभुत्व होने के कारण बहुत से जैन मन्दिरों को नष्ट कर दिया गया तथा कितने ही मन्दिरों को शव मन्दिरों में परिवर्तित कर दिया गया। केवल -६ वर्ष में ही इस प्रकार के तीन बार उपद्रव हुए जिसमें धन सम्पत्ति की अपार क्षति हुई । इस सम्बन्ध में तत्कालीन कवि बखतराम साह ने अपने चुदि बिलास (संवत् १८२७) में इन घटनामों का निम्न प्रकार उल्लेख किया है--
संवत् ११८ में एक श्याम तिवाड़ी हुआ जिसने किसी प्रयोग से महाराजा माधोसिंह को अपने वश में कर लिया। महाराजा ने श्याम तिवाड़ी को सभी धर्म गुरुयों का प्रधान बना दिया और आचमन (संकल्प) करके राज्य का पूग भार ही उसे सौंप दिया। गलता के बालानन्द प्रादि जो धर्मगुरु थे वे सभी देखते रहे । इस घटना के कुछ दिनों पश्चात् ही सारे राज्य में उत्पात होने लगे। महाराजा से मनमाना आदेश लेकर जनों को रात्रि भोजन
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महाकवि दौलतराम काराजीनामा तिन मनिल
करने पर मजबूर किया जाने लगा तथा उनके मन्दिरों को तोड़ फोड़ दिया गया। राज्य के समस्त जैनों को इतना भातंकित कर दिया गया कि उनका दर्शन, स्वाध्याय एवं पूजापाठ भी बन्द हो गया। किसी मन्दिर को प्राधा और किसी को पूरा ही नष्ट कर दिया गया। या तो केवल भामेर का सावला जी का मन्दिर सुरक्षित रहा प्रथवा वे ही मन्दिर बच सके जिनकी रक्षा का पूरा प्रबन्ध था 1 किसी में जबरन शिव मूर्ति स्थापित कर दी गयी। इस प्रकार चारों ओर श्याम तिवारी के अत्याचार होने लगे। किसी से कोई उपाय नहीं बन सका 1 और न किसी साधु महारमा का जादू मंत्र ही काम कर सका । लेकिन जब श्याम तिवारी के अत्याचारों की वास्तविकता का महाराजा माधोसिंह को मालूम पड़ा तो उन्होंने उसे यथोचित दण्ड दिया और मध्याह्न में जयपुर नगर से निकलवा दिया। वह केवल घोवती एवं दुपट्टा सान ले जा सका। उस समय वह केवल अकेला था और उसके पीछे से लड़के हुरिया देते जाले थे । महाराजा ने उसका गुरूपद छीन लिया और जैसा उसने कार्य किया था वैसा ही उसको दण्ड दिया गया।
सोरठा अंधावति मै ऐक, म्यांम प्रभू के देहरं। रही धर्म के टेक, बच्यो सु जान्यो चमतक्रत ।:१२६४।।
चौपई कोए प्राधो कोऊ सारो, बच्यो जहां छत्री रखवारो। काहू मै सिवमूरति परि दो, अंसी मची स्याम की गरदी ।।१२६५।। १ संवत अट्ठारहसै गये, अपरि जके अठारह भये । तब इक भयो तिवाड़ी स्यांम, जिंभी अति पाखंड को धाम ।।१२८६ ।। स्वछ अधिक द्विज सब घाटि, दौरत ही साइन की हाटि । करि प्रयोग राजा बसि कियो, माधवेस नप गुर पद दियौ ।।१२६० ।। गलता बालानंद दै प्राधि, रहे झांकते बैठ वादि । सबको ताहि सिरोमनि कियो, फुनि वैसनू राज पद दियौ ।।१२६१।। लियौ आचमन पाव पखार, सोप्यौं ताहि राज सब भार । दिन कितेक बीते हैं जवें, महा उपद्रव कीनौं तवै ।।१२६१॥ हम भूप को लेकै चाहि, निम जिमाप देवल दिय ढाहि 1 अमल राज को जनी जहां, नांव न ले जिनमत को तहां ।। १२६२।।
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प्रस्तावना
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इस घटना के १२ वर्ष तक राज्य में पूर्ण शान्ति रही । जैन धर्मावलम्बियों ने पुनः अपने मन्दिरों का निर्माण करा लिया। रथयात्रा होने लगी तथा मन्दिरों में ठाट बाट से पूजा एवं उत्सव होने लगे । संवन् १८२१ में जयपुर नगर में इन्द्रध्वज पूजन का विशाल प्रायोजन किया गया जिसमें देश के विभिन्न स्थानों से हजारों स्त्री पुरुपों ने भाग लिया। इस आयोजन में जनों ने अपने वैभव का खूध प्रदर्शन किया। जयपुर के महाराजा ने मी एक भादेश जारी किया था कि "पूजा के अधि जो वस्तु चाहिये सो ही दरबार सू ले जावो"। लेकिन इस विशाल आयोजन का एक वर्ग विशेष पर प्रध्या प्रभाव नहीं पड़ा और उन्होंने कुछ समय पश्चात् ही एक शिव मुर्ति तोड़ने का जैनों पर प्रारोप लगाया । महाराजा ने भी अपनी व्यस्तता के कारण घटना को विशेष प्रांत नहीं की। भने म अापकों पोट कर लिया गया । अन्त में तत्कालिन महापंटित टोडरमल के ऊपर सारा दोषारोपरण लगाया गया तथा महाराजा के प्रादेश से उन्हें मृत्यु दण्ड दिया गया और मारने के पश्चात् उनकी लाम को गहमी के ढेर में डाल दिया गया। टोडरमल उस समय क्रान्तिकारी समाज सुधारक एवं प्रबल पंडित थे। समाज के ऊपर उनका पूर्ण प्रभाव था । महाराजा के मातंक के कारण सारा जैन समाज कोई विरोष नहीं कर सका।
फुनि मत बरस ड्योढ़ मै थप्यो, मिलि सवहीं फिरि अरहंत जप्यो । लिये देहुरा फेरि चिनाय, दं प्रकोड प्रतिमां पधराय ॥१३०१।। नाच कूदन फिरि बहु लगे. धर्म माझि फिरि अधिक पगे। पूजत फुनि हाथी सुखपाल, प्रभु चढाय रथ नचत दिसाल ।३१३०२।। तब ब्राह्मनु मतो यह कियो, सिव उठान को टौंना दियो । तामै सबै श्रावकी कंद, करिके इंड किये नृप कैद ।।१३०३॥ यक तेरह पथिनु मैं ध्रमी, हो तो महा जोग्य साहिमी । कहे खलनि के नृप रि.सि ताहि, हति के धरधो असुचि थल बाहि । १३०४१
टोडरमल जी के बलिदान के पश्चात् राज्य में फिर शान्ति ही स्थापित हो गयी और फिर पूर्ववत मन्दिरों में पूजा पाठ, रथ यात्रा उत्सव विधान होने
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महाकवि दौलतराम कासनीयाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
लगे । चारों और अमन चैन व्याप्त हो गया। लेकिन यह शान्ति प्रधिक समय तक नहीं रह सकी और संवत् १८२६ में एक वगं ने धार्मिक विद्वषता की फिर आग फैला दी । चारों और मन्दिरों को लूटा जाने लगा और मूर्तियों को तोड़ डाला गया | इन लोगों ने किसी की बात नहीं सुनी और कहने लगे कि उन्हें राजा का यही प्रादेश है। जयपुर, आमेर, सवाईमाधोपुर एवं खण्वार के मन्दिरों को उसी समप्र लूटा गया । लेनिन महाराजा जयपुर की फिर सारे गज्य में दुहाई फिरी जिससे लूट खसोट होना बन्द हो गया और राज्य में फिर साम्प्रदायिक सद्भावना स्थापित हो गयौं । कुनि भई छब्बीसा के साल, मिले सकल द्विज लधु र बिसाल । सबनि मतो यकः पक्को कियो, सिव उठांन फुमि दुगन दियो ।।१३०७।। द्विजन प्रादि वह मेल हजार, बिना हुकम पाय दरबार । दौरि देहुरा जिन लिय लूदि, मूरति विघन करी बहु टि ।।१३०८।। काहू की मांनी नही कानि, कहीं कम हमका है जानि । असा म्लेछन हूँ नहीं करी, वहरि दुहाई नृप की फिरी ।।१३०६ ।।
दोहा लुटि फूटि सबढे चुके, फिरी दुहाई बोस । कहनावति भई लुटि गए, भाग्यो बारह कोस ।।१३१०।।
कवि बखताराम के अतिरिक्त तत्कालीन कवि थान सिंह ने भी अपने 'सूबुद्धिप्रकाश में उस समय की राजनैतिक सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति का अच्छा वर्णन किया है। सर्व प्रथम कवि ने महागाजा जयसिंह के शासन का, जयपुर नगर की स्थापना की, एवं वहां व्यापार की बड़ी प्रशंसा की है। कवि ने लिखा है कि महाराजा जयसिंह ने अामेर और सांगानेर के मध्म में जयपुर नगर बसाया तया सूत बांवकर नगर के बाजार, दरवाजे प्रादि बनाये अपने लिये सात मंजिल वाला महल बनवाया तथा राज्य के बाहर से बड़े २ रोठ साहूकारों को बुलाकर नगर में बसाया। न्यायसंगत हैक्स लगाये जिससे नगर का छ्यापार खूब बढ़ गया और सांगानेर एवं आमेर उजड़ने लगे। राज्य के शासन की बागडोर जैनों के हाथों में थी। राजा शैव धर्मानुयायी था। नगर में शव एवं जैनों के अनेक शिखर बत्र मन्दिर थे जयसिंह की मृत्यु के पश्चात् ईश्वरीसिंह ने शासन की बागडोर सम्हाली और राज्य में शान्ति रही तथा प्रजा भी प्रानन्द से रहती रही । ईश्वरीसिंह के पश्चात् महाराजा सवाई
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प्रस्तावना
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माधोसिंह जयपुर के शासक बने। उनके शासन में शेव धर्मावलम्बी शासन में प्रधान बन गये और जैनों से विरोध करने का महाराजा से प्रदेश ले लिये। इसके पश्चात् वेद, धर्म, गुरु, एवं शास्त्रों का अपमान किया गया। महाराजा मंत्रियों के रहस्य को समझ नहीं सके धर उनके कहने में प्राकर नगर के निवासियों से डंड वसूल किया गया। इससे नगर के निवासी अत्यधिक दुखी हो गये। बहुत से लोग नगर छोड़कर चले गये। स्वयं कवि को जयपुर छोड़कर भरतपुर जाना पड़ा । सवाई माधोसिंह के पश्चात् सवाई प्रतापसिंह जयपुर महाराजा बने । वे भी अत्यधिक लोभी थे और सभी धर्मावलम्बियों के मन्दिरों का ब्राह्मणों का एवं अतिथियों के धन को भी जबरन से लिया था इससे नगर में लोग श्रोर भी दुखी हो गये और उदास होकर नगर छोड़ने लगे ।
उक्त दोनों वनों से ज्ञात होता है कि संवत् १८१५ में लेकर संवत् १८२६ तक जयपुर राज्य का धार्मिक वातावरण काफी उत्तेजनापूर्ण रहा। तथा शासन में जो व धर्मावलम्बी थे उन्होंने शासन का फायदा उठाकर दूसरे वर्ग को अधिक से अधिक नुकसान पहुंचाने का प्रयास किया। लेकिन यह स्थिति अधिक समय तक नहीं रही और जयपुर निवासी एक दूसरे प्रति गही सद्भावना के साथ रहेने लगे। इसके अतिरिक्त जयपुर के तत्कालीन शासकों ने कभी सम्प्रदाय विशेष का पक्ष नहीं लिया और राज्य में जैनों को शासन के उच्चस्थ पद पर नियुक्त किया जाता रहा। राव कृपाराम, रामचन्द्र छाबड़ा, बालचन्द छाबड़ा, रतनचन्द्र जैसे व्यक्ति दीवान के पद पर कार्य करते रहे । और धर्म विशेष का शासन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा ।
माधव आगे सिव धरमी मुखियो भयो । जैन्यासों करि द्रोह वच मैं ले लियो । देव धर्म गुरु श्रुत को विनय विगरियो । कोयौ नांहि विचारि पाप विस्तारियो ॥ भूप रथ समभयो नहीं मंत्री के बसि होय । खंड सहर मैं नाखियो दुखी भये सब लोय | विविध भांति धन घटि गयी पायी बहुत क्लेस 1 दुखी होय पुर को तजो तब ताक परदेस ||
सुबुद्धिप्रकाण
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
जयपुर नगर की स्थापना
महाराजा सवाई जयसिंह केवल योद्धा एवं राजनीतिज्ञ ही नहीं थे किन्तु नगर निर्माता भी थे । सन् १७२५ में उन्होंने 'जयनिवास' नामक महल की नीव रखी और नवम्बर १७२७ में महल के चारों प्रार एक नवीन नगर का निर्माण प्रारम्भ करा दिया । पहिले इस नगर का नाम जयनगर रखा गया। बाद में सवाई जयपुर के नाम से प्रसिद्ध हो गया और अब केवल जयपुर के नाम से विख्यात है। इस नगर के निर्माण का सबसे अधिक श्रेय विद्याधर नाम के व्यक्ति को है, जिसे टाड ने जैन लिना था लेकिन अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार वह बंगाली था । नगर निर्माण के पश्चात् उसका महागजा सवाई जयसिंह द्वारा स्खूब मम्मानित किया गया। उसे रेवन्यू मिनिस्टर बनाया गया। उसके नाम से एक विद्याधर का रास्ता एवं विद्याधर का वाम बनाया गया तथा इसके अतिरिक्त पांच हजार वी जागीर भी उसे दी गयी।
जयपुर नगर तीन ओर पहाड़ियों से घिरा हुया है। इसके उत्तर की और आमेर है जो पहिले राज्य की राजधानी था। लघा दक्षिण की ओर सांगानेर है जो जयपुर वसने से पूर्व एक वैभवशाली नगर था। नगर के चारों मोर परकोटा बनाया गया था। उसके नीचे एक गहरी खाई थी जो नदी के समान' लगती श्री। ऊचे ऊचे दरवाजे थे। चौपड़ के समान बाजार थे तथा जिनके बीच बीच में चौक बनाये गये थे। बाजार की सड़क के एक और नहर थी जिसे चौपड़ पर बने हुए कुण्डों को पानी मिलता था और जयपुर के नागरिक इनका पानी पीते थे। बाजार एवं गलियों को एकदम सीधा बनाया गया था और फिर उसी के अनुसार महल एवं मकान बनाये गये थे । जयपुर बसने के पश्चात् नगर में बसने के लिये राज्य के बाहर से भी घनादध ध्यापारियों को बुलाया गया था, जिससे नगर का व्यापार खूब बढ़ गया था । कविवर वखतराम ने अपने बुद्धि विलास में जयपुर नगर की उत्पत्ति का बहुत ही सुन्दर एव विस्तृत वर्णन किया है। वगान का प्रारम्भिक अश निम्न प्रकार हैसोहै अंबावति की दक्षिण दिसि सांगानेरि,
दोऊ वीचि सहर अनीपम बगायो है । नांम ताको धरौ हैं स्वाई जयपुर,
मानों सुरनि ही मिलि सुरपुर सौं रनायीं है ॥६८
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प्रस्तावना
चारचौ दिसी रच्यो उतंग कोट, ता परि कंगरनि की वनी जोद। तिह तलि चौडी खाई बनाय प्रोडी मनु सरिता चली जाय ।। ६६ ।। दरवाजे मचे बने गोरख पौरिया बैठि तिह करत जोख । चौपरि के कोन्हे हैं वाजार विचि वीचि बनाए चौक चार ।। १००॥ स्याऐ नहेरि बाजार मांहि । विचि मैं बंवे गहरे रखाहि । चौकनि मैं कुड रचे गंभीर । जग पीवत तिनकौं मिष्ट नीर ।। १०१।। हाटिन के विचि रस्ता रखाय । दीन्हें. ते सूधे चले जाय । वहु वने हवैली कूप वाग। सुदर तिनु लखि मन लगत लाग ।। १०२॥ धनवान जु व्यापारी कितेक वहु देस सुदेसनि तें पाए अनेक ते करत विराज प्रति निसंक होय
परदेस सुदेसाहि जात कोय ।।१०३।। नगर में ज्योतिष यंत्रालय का निर्माण कराया गया जिससे ग्रहों की साल का अच्छी तरह से पता लगने लगा और उसी के आधार पर 'जयविनोद' नाम से तिथि पत्र निकलने लगा। देश के कोने-कोने से पंडित आने लगे और साहित्य, तर्क एवं न्याय पर विविध चर्चाय होने लगी । कारीगरों को बसाया गया जिससे नगर का ब्यापार बढ़ने लगा । बाजार में समुदायों में टुप्ताने थी जिसमें ग्राहकों को ठीक भावों पर वस्तुयें मिलती रहती थी । पहाड़ों के नीचे ही तालकटोरा था जिसका दूसरा नाम जयसागर भी था। इसमें
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
विविध प्रकार के पक्षीगरण बैठे रहते थे । महाराजा ने अपने निवास के लिए सात मंजिल वाला चन्द्रमहल बनाया जिसकी शोभा अवर्णनीय है। नगर के तीन और पर्वत मालानों पर अनेक गढ़ बनवाये गये इन में रघुनाथगढ़, शंकरगढ़, हयरोई, सुदर्शनगढ़ एवं जयगढ़, के नाम उल्लेखनीय हैं । महाराजा सवाई जयसिंह ने जयपुर नगर में प्रश्वमेध यज्ञ भी किया था। इस मज्ञ में भाग लेने के लिद जदने पनि
हामा ३ विशेष रूप से ब्रह्मपुरी में बसा दिया ।
जयपुर नगर की सुन्दरता के बारे में पायचात्य कलाविदों ने बहत प्रशंसा की है। फादर तीफेन्थलर ने जयपुर नगर की सुन्दरता का वर्णन करते हुए लिया है कि "यह नगर, जबकि एकदम नवीन नगर है फिर भी देश के पुराने नगरों से भी सुन्दर है क्योंकि प्राचीन नगरों मे बाजार एवं गलियां प्रत्यधिक सकड़े हैं जबकि जयपुर नगर की प्रत्येक गली एव बाजार समान रूपसे लम्बे चौड़े हैं। मुख्य सड़क जो सांगानेरी गेट से प्रारम्भ होती है तथा उत्तरी गेट तक जाती है इतनी चौड़ो है कि छह सात गाड़ियां प्रासानी से एक साथ निकल सकती हैं। नगर में अनेक सुन्दर मन्दिर है जो शिव अथवा विषाणु के हैं। इसी तरह सन् १८२० में जब किसी प्रिटिश मिलिटरी अधिकारी ने जयपुर नगर को देखा तब उसने निम्न शब्द कहें थे'
"जयपुर नगर के प्रमुख सड़कें गलण्ड की बहुत सी सड़कों से उत्तम है। यह इण्डिया का सर्वोत्तम नगर है।" इसी तरह और भी पाश्चात्य एवं भारतीय कला विशारदों ने जयपुर नगर के निर्माण की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है।
जयपुर नगर को गुलाबी नगर कहा जाता है। और इसी नाम मे यह सारे देश में विख्यात है। गत २०० वर्षों में इसकी सुन्दरता में परिवचन होता रहा है, तथा सरगासूली, हवामहल, म्यूजियम, एवं समनिवास शाग मे नगर की सुन्दरता में अभिवृद्धि हुई है।
१८वीं शताब्दी के एक हिन्दी विद्वान भाई रायमल्ल ने संबत् १८२१ में लिखी एक पत्रिका में इसे जैन नगरी के रूप में लिखा हैं। यहां जितनी संख्या में दि० जैन मन्दिर हैं उतने देश के किसी नगर में नहीं है तथा संधत् १७८४ से लेकर संवत् १९५० तक जितने अधिक जैन विद्वान् हुए उतने अन्यत्र किसी
1. History of Jaipur State by Dr, M. L. Sharma.
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प्रस्तावना
नगर में नहीं हो सके । नगर में हस्तलिखित शास्त्र भण्डारों की संख्या भी काफी अच्छी है जिनमें २५ हजार से भी अधिक ग्रन्धों का संग्रह मिलता है।' विशाल मन्दिरों का नगर
नहावि
सयपुर काम ; आग्दों से दम्खा होगा । तथा उसके निर्माण की योजना को कार्यान्वित करने में सरकार की अोर से अवश्य ही भाग लिया होगा। जयपुर नगर विशाल मन्दिरों का नगर है। यहां जितनी संख्या में शैव, वैष्णव एवं जैन मन्दिर हैं उतनी संरूपा में देश में अन्यत्र कहीं भी नहीं मिलते । यही नहीं सभी मन्दिर विशाल हैं और कलापूर्ण भी हैं जिनमें वर्तमान समय में भी दर्शनाथियों की अपार भीड़ लगी रहती है। प्रमुख बाजारों में, चौपड़ के चारों ओर एवं गलियों में एक के बाद दूसरा मन्दिर देखने को मिलेगा, जिलकी सीढ़ियां बाजार की प्रमुख सड़क की पटरी को छूती हुई होती हैं । नगर के परकोटे में इतने अधिक मन्दिरों का निर्मागा तत्कालीन जनता की धार्मिक प्रवृत्ति की ओर
एष्ट मकेत है | नीड़ा रास्ता में स्थित ताड़केश्वरजी का मन्दिर शव मन्दिरों में सबसे प्रसिद्ध एवं प्राचीनतम मन्दिर है, इसी तरह गोविन्ददेवजी का मन्दिर वं रामचन्दजी का मन्दिर यहां के प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय मधिों में से हैं ।
वपणन एवं शैध मन्दिरों के समान नगर में जैन मन्दिों की संख्या भी कम नहीं है। जयपुर नगर एवं उसके उपनगरों से स्थित जन मन्दिरों एवं चैत्यालयों की संख्या पहिले १७५ मानी जाती थी लेकिन वर्तमान में कुछ नये मन्दिर बन गये हैं और कुछ चैत्यालय कम हो गये हैं। नगर के अधिकांश मन्दिर विशाल एवं कलापूर्गा हैं। जिनमें अत्यधिक मनोज एवं प्राचीन मूर्तियां विराजमान हैं। दि० जैन मन्दिर पाटोदी एवं दि. जैन तेरहपंथी बड़ा मन्दिर यहां के प्राचीनतम मन्दिर है। कहते हैं इतका निर्माण जयपुर के निर्माण के साथ हुआ था। पंचायती मन्दिरों के अतिरिक्त प्रक्किांश मन्दिर विशिष्ट व्यमियों द्वारा निर्मित है। विशाल मन्दिरों में जैन मन्दिर बड़ा दीवामजी दि. जैन मन्दिर छोटा दीवानजी, सिरमोगियों का मन्दिर, संघी जी का मन्दिर, विभुकों का मन्दिर, ठोलियों का मन्दिर, महावीर स्वामी का मन्दिर, दारोगाजी का मन्दिर, वीचन्द जी का मन्दिर, चाकसू का मन्दिर, चौबीस १. देखिये श्री दि० जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीर जी से प्रकाशित राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रन्थ मुची भाग १ से ४ तक 1
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महाराज का मन्दिर, खानियों का राणाजी का मन्दिर आदि के नाम विशेषतः उल्लेखनीय हैं। इनमें कितने ही मन्दिरों में विशाल शास्त्र भण्डार हैं जिनमें प्राकृत, अपभ्रंश संस्कृत एवं हिन्दी की प्राचीनतम पाण्डुलिपियां हैं जिनकी सख्मा २५ हजार से कम नहीं है और जो राष्ट्र के प्रमुल्य संपत्ति है तथा समूचे राजस्थान को जिन पर गर्व है ।
सामाजिक स्थिति
महाकवि दौलतराम के समय मे राजनैतिक अस्थिरता के समान देश की सामाजिक स्थिति भी छात्र डोल ही भी । मुगल सम्राट् श्रीरंगजेत्र के अत्याचारों के कारण समस्त हिन्दू समाज वस्त, पीड़ित एवं भयभीत था । जैन समाज भी मुगलों उसीड़न से बच नहीं सका था । मध्यप्रदेश में सेकड़ों जैन मन्दिरों को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया गया था और संस्कृति एव साहित्य की रक्षा कैसे हो यह प्रमुख समस्या सबके सामने बनी हुई थी । जैन समाज विभिन्न वर्गों में विभाजित था। १८वीं शताब्दी तक भट्टारकों का जबरदस्त प्रभाव था। शासन एवं जनता दोनों में ही उनका पूर्ण प्रभाव था । देहली पट्ट के भट्टारकों का जिनमें भट्टारक शुभचन्द्र, जिनचन्द्र एवं प्रभाचंद्र के नाम उल्लेखनीय है, उत्तरी भारत में अपना जबरदस्त प्रभाव स्थापित कर रखा था। इनकी विद्वत्ता एवं त्याग में जनता पर जादू जंसा कार्य किया था। इनके प्रभाव के कारण अनेक मन्दिरों का निर्माण हुआ एवं बड़ी-बड़ी प्रतिष्ठायें हुई। लेकिन फिर भी देहली के बादशाहू सिकन्दर लोदी (१२=६१४१७ ई०) की कट्टरता एवं असहिष्ण ुता के कारण देहली से भट्टारक पट्ट faaौड़ स्थानान्तरित किया गया और मंडलाचार्य धर्मचन्द्र (सन् १५२४) चित्तौड़ पट्ट पर आसीन हुए। इनके कुछ वर्षों पश्चात् ही भट्टारक रत्नकीनि ने नागौर में भट्टारक गादी स्थापित की। मुगलों के चित्तौड़ पर भी बराबर आक्रमण होते रहने के कारण धर्मचन्द्र के शिष्य ललितकीति ने (संवत् १६०३) चित्तौड़ में अपनी गादी स्थानान्तरित की और राजस्थान के पूर्वी क्षेत्र में अपना जवरदस्त प्रभाव स्थापित किया ।
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भट्टारक ललितकीति द्वारा भट्टारक गादी स्थानान्तरित किये जाने के पश्चात् राजस्थान के इस क्षेत्र में साहित्यिक एवं सांस्कृतिक जागरण पुनः प्रारंभ हुआ । इस समय श्रामेर के राज्य में प्राय: शान्ति थी और मुगलों के आक्रमण का कोई डर नहीं था। भट्टारक ललित कीर्ति के पश्चात् भट्टारक चन्द्रकीर्ति एवं भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति हुए जिन्होंने अपनी विद्वता तथा त्याग के बल पर सारे राजस्थान में अपना प्रभाव स्थापित किया । संवत् १६६१ मं
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प्रस्तावना
सांगानेर में भट्टारक नरेन्द्रकीर्ति भट्टारक पट्ट पर बैठे। कवि बखराम मह ने अपने "बुद्धिविलास" में इसका निम्न प्रकार वर्शन किया है-
नरेंद्रकीरति नाम, पट इक सांगानेर में ।
भये महामुन धाम, सोलहसँ इक्यारणये ।। ६६६ ।।
३.५
भ० नरेन्द्रकीति का देश के विभिन्न भागों में बड़ा भागे प्रभाव था । राजस्थान, मालवा, गेवाड़, महाराष्ट्र एवं देहली आदि में इनके रहते थे और जब वे जाते तो उनका खूब स्वागत होता था । तत्कालीन कितने ही विद्वान इनके शिष्य एवं प्रशंग थे । अनेक स्तोत्रों की हिन्दी गद्य में टीका करने वाले खपराज इन्हीं के शिष्य थे। संवत् १७१७ में इन्होंने अपनी संस्कृत मंजरी की प्रति भेट की थी। इसी तरह टोडारायसिंह के प्रसिद्ध कव पंडित जगन्नाथ इन्हीं के शिष्य थे। उनके समय में टोडारायसिंह में संस्कृत ग्रन्थों के पठन पाठन का अच्छा प्रचार या अष्टसही एवं प्रमानिक जैसे न्याय ग्रन्थों का लेखन, प्रवचन एवं पाठन होता था ।
लेकिन इन्हीं भट्टारक नरेन्द्रकीर्ति के समय में दिगम्बर समाज के प्रसिद्ध तेरापंथ का प्रभाव बढ़ने लगा जिसने तत्कालीन समाज में व्याप्त शिथिलाचार का विरोध होने लगा । बखतराम साह ने अपने मिथ्यात्वखंडन (मं० १८२१ । में इसका निम्न प्रकार उल्लेख किया है
भट्टारक आरि के नरेन्द्रकोरति नाम |
यह कुपंथ तिनकै समै नयो चल्यो अब धाम ||
लेकिन संवत् १८२७ में ममाप्त होने वाले वुद्धि किलाग में इन्होंने हाथ का उदय संवत् १६८३ में माना है ।
इनही गछ मैं नीकस्यो, नूतन तेरह पंथ । सौलह से वीयासिये सो सब जग जानंत ।। ६२३ ।।
इस प्रकार लगता है खतराम स्वयं भी इस पंथ के उदय के सम्बन्ध में एक मत नहीं है। लेकिन कुछ भी हो भ० नरेन्द्रकीति के समय में
तं काफी जोर पकड़ लिया था । इन्हीं के समय संगानेर में अमरा भीमा हुए जो अपार सम्पत्ति के स्वामी थे। जिन्हें अपनी सम्पत्ति पर काफी गर्व था। एक वार जिनवानी का अविनय करने के कारण इन्हें मन्दिर से निकाल दिया गया
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महाकवि दौलन राम कासलीवाल व्यक्तित्व एवं कृतित्व
घा । इसमें कोधित होकर ये भट्टारकों के विरोधी बन गये और तेरहपंथ के प्रचार प्रसार में पूर्ण योग देने लगे | इसका पुन जोधराज भी इन्हीं के विचारों का था । वह संस्कृत एवं हिन्दी का बड़ा भारी विद्वान था 1 इन्होंने सम्यक्त कौमुदी भापा (संवत् १७२४) प्रवचनसार भाषा (संवत् १७२६। पद्मनंदिपंचविणान (स. १७२४) ज्ञानसमुद्र एवं प्रीतिकार चरित जैसी महत्वपूर्मा रचनाओं का निर्माण करके हिन्दी साहित्य की बड़ी भारी सेवा की थी।
तेरहपंथियों के विरोध के बावजूद भट्टारकों के प्रभाव में कोई विशेष अन्तर नहीं आया। भट्टारखा नरेद्रकीति के पश्वाल भ० सुरेन्द्र कोनि (संवत्१७२२) जगनीति (मंवत् १७३३) भट्टारक गद्दी पर बैठे । संवत् ११६ में भट्टारक जगतकीति ने चांदखेडी । एक विशाल प्रतिष्ठा समारोह का संचालन किया जिससे उनकी प्रतिष्ठा और प्रभाव में और भी बृद्धि हुई । समाज में इन
को में पूजा पाठ, विधान आदि में इतना बाह्याडम्बर ला दिया था, जिसने समाज के प्रबुद्ध वर्ग के चिन्तन पर गहरी चोट को । समाज में अध्यात्म शैली के नाम से जो गोलियां चलती थीं उन्होंने तेरहपंथ के प्रचार में पर्याप्त महायता दी और आगे चलकर वे ही गोष्ठियां तेरहपंथ की गोष्ठियों में परिवर्तित हो गयी । महाकवि दौलतराम जव अागरा गये थे तो वहां ध्यागसली पहिले से ही चलती श्री और जब उन्होंने उदयपुर में स्त्र प्रभचन प्रारम्भ किया तो उसे भी इसी पेली के नाम से प्रसिद्ध किया ।
१६ वीं शताब्दी के प्रारम्भ में जयपुर में महापंडित टोडरमल का उदय हुआ। टोडरमल जी महान विद्वान श्रे, णास्त्रों के ज्ञाता थे वक्त तन कला में अत्यधिक प्रवीण थे और इन नत्रके अतिरित्त समाज सुधार में अग्रसर थे । वे भट्टारक परम्परा के पूर्ण विशेची थे और तेरहांथ के कट्टर समर्थक थे । इन्होंने इस युग में नरहपंथ के प्रत्रार में सबने अधिक योग दिया । तेरहपंच के प्रचार पं. टोअरमन्न जी के अतिरिक्त भाई रायमल्ल, दीवान रतन चन्द, दीवान बालचन्द डा.दि विशेष सहायक अने। इन्होंने ज्ञान के प्रसार के लिा विशेष प्रयत्न किये और बालक बालिकाओं को धार्मिक ज्ञान प्रदान करने के लिा कुछ विद्वानों को नियुक्त किया । भाई रायमल्ल ने अपनी एक पत्रिका में इसका निम्न प्रकार उल्लेख किया है
"और यहा देश बारा लेखक सदैव सासले जिनवाणी लिखते हैं । वा सोचते हैं । और एक ब्राह्मण महनदार चाकर रझ्या है सो बीस तीस
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प्रस्तावना
लड़के बालकन कून्याय ज्याकरण गणित शास्त्र पढ़ाते है । और सो-पचास भाई या बायर्या चर्चा व्याकरण का प्रध्य यन करे है।"
संवत् १८२१ में जयपुर में 'इन्द्रवज पूजा महोत्मब' का प्रायोजन विशाल रूप में हुआ था। भाई रायमल्ल ने अपनी पत्रिका में इनका जिम सुन्दर ढंग से वर्णन किया है उससे पता चलता है कि इस महोत्सव में देश के विमा भागों से हजारों की संख्या में स्त्री पुरुष सम्मिलित हुए थे। जयपुर दरबार की ओर से इस प्रायोजन को सफल बनाने के लिए पूरी सुविधाए प्रदान की गयी थी। भाई रायमल्ल ने लिखा है कि "ए उछव फेरि ई पर्याय मैं देखणा दुर्लभ है। ए कार्य दरबार की प्रामा सू हुवा है पोर ए हुकम हुवा है जो पाक पूजाजी के अथि जो वस्तु चाहिजे सो ही दरबार सू ले जाबो । .........."पर दोन्यू दिवान रतनचन्द वा बालचन्द या कार्य विष प्रमेश्वरी है" ।
लेकिन इतना होने पर भी बीस पंय अाम्नाय वालों का प्रभाव कम नहीं हुआ था। महापंडित टोडरमल जी के समय में भट्टारक क्षेमेन्द्रकीति एवं भट्टारक सुरेन्द्रकीति भट्टारक पट्ट पर विराजमान थे। पं. टोडरमलजी के होते हुए इन दोनों भट्टारकों का संवत् १८१५ एवं संवत् १८२२ में जयपुर में ही पट्टाभिषेक किया गया और जयपुर नगर को इन्होंने अपनी गतिविधियों का केन्द्र बनाया। एक अोर संवत् १८३१ में जयपुर नगर में टोडरमल जी के समर्थकों की योर से विशाल इन्द्रध्वज पूजन का प्रायोजन हुना तो दूसरी मोर से संवत् १८२६ में सवाई माधोपुर में विशाल पंचकल्याणक प्रतिष्ठया समारोह हुमा जिसका भट्टारक सुरेन्द्रकीर्ति ने संचालन किया था 1 इस विशाल प्रायोजन में हजारों मूर्तियों की प्रतिष्ठा की गयी और उन्हें राजस्थान के प्राय: प्रत्येक गांव के अंन मन्दिर में स्थापित की गयी। यह प्रतिष्ठा संगही नन्दलाल ने करायी थी और इसमें लाखों रुपया व्यय करके मट्टारकों के प्रभाव को पुनः स्थापित किया गया। महापं हित टोडरमल जी के बलिदान के कुछ समय पश्चात् ही उनके विरोधियों की ओर से ऐसा विशाल प्रायोजन से ऐमा लगने लगा जैसे मानों कोई विशेष घटना ही नहीं घटी हो। जिस प्रकार महापंडित टोडरमल ने सिद्धान्त अन्यों की भाषानुवाद करके अपनी विचारधारा के प्रचार में वृद्धि की उसी प्रकार बीस पंथ के फट्टर समर्थक एवं भट्टारक परम्पग के प्रशंसक पंडित बखतराम साह ने संवत् १८२१ में अपने "मिथ्यात्व खंडन" ग्रन्थ में तेरहपंथ की कड़ी प्रालोचना की तथा संवत् १८२७ में बुद्धि विलास
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महाकवि दोलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
को लिख कर जैन इतिहास पर विशेष प्रकापा डाला | बखतराम का "मिध्यात्य खलन" महापंडित टोडरमल के सुधारवादी विचारों का जबाव था।
समाज में पंचायत प्रथा का जोर था। पंचायत की प्राजा बिना कोई भी सामाजिक एवं धार्मिक कार्य नहीं होते थे। समाज एव जाति से बहिष्कृत करना इनका साधारण कार्य था । जयपुर में ऐसो ही चार पंचायतें थी जिनमें दो पंचायत तेरहपंध तथा दो बीसपंथ अम्नाय वाले श्रावकों की थी । जयपुर में पाटोदी का मन्दिर, चाकसू का मन्दिर, बड़ा मन्दिर एवं वीचन्द मी मन्दिर क्रमशः बीस एवं तेरह पंथ प्राम्नाय के पंचायती मन्दिर कहलाते हैं।
जयपुर नगर में जैन समाज का अत्यधिक प्रभाव था। शासन में उनका पूरा जोर था और अधिकांश दीवान जैन ही हुमा करते थे। यदि हम सबत् १८१८ से १८२६ तक के समय को इतिहास में से निकाल दें तो फिर शोष समय में जयपुर के शासन में सदैव जैनों का जोर रहा और यही कारण है कि देश में किसी भी नगर में इतने जैन मन्दिर एवं चैत्यालय नहीं हैं जितने जयपुर में मिलते हैं। संवत् १८२१ में लिखी एक पत्रिका में जयपुर नगर का जो वर्णन किया गया है वह इस दृष्टि से उल्लेखनीय है
और ई नम्र विर्ष सात विपन का प्रभाव है। भावार्थ ई नग्न विष कलाल कसाई वेश्या न पाइए है और जीव हिंसा की भी मनाई है । राजा का नाम माधवसिंह है ताक राज विषं वर्तमान (इस समय) एते कुषिसन दरबार की प्राज्ञात न पाईए हैं। पर जैनी लोग का समूह बस है । दरबार के मतसद्दी सर्व जैनी हैं और साहूकार लोग सदं जनो हैं जद्यपि और भी हैं परि गौराता रूप है मुख्यता रूप नाही । छह सात वा आठ वा दस हजार जैनी महाजनां का घर पाईए है। ऐसा जैनी लोगां का समूह और ननविर्ष नाही और इहां के देश विर्ष सर्वत्र मुस्थपणं श्रावगी लोग बसे है तात एह नम्र व देशा बहोत निर्मल पवित्र है । तात धर्मात्मा पुरुष बसने का स्थानक है। प्रबार तो ए साक्षात् धर्मपुरी है ।"
महापंडित टोडरमल जी के पश्चात् जयपुर नगर में जितने भी पंडित एवं शास्त्रों के झाता हुए उनमें प्रमुख तेरहपंथ आम्नाय वाले थे तथा टोडरमल के गहरे प्रशासक थे । इन विद्वानों में पंडित जयचन्द जी छाबड़ा, पं० गुमानीराम भावसा एवं पं० सदा सुख कासलीवाल के नाम विशेषत: उल्लेखनीय हैं। लेकिन धीरे-धीरे तेरह और बीस पंथों का वैमनस्य समाप्त होने लगा और इच्छानुसार पंथों को मानने को स्वतन्त्रता दे दी गयो । यही कारण है
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प्रस्तावना
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कि संवत् १८६१ में जयपुर नगर में जो विशाल प्रतिष्ठा समारोह हुमा या वह भट्टारक सुखेन्द्रकीति के निर्देशन में सम्पन्न हुप्रा तथा इस समारोह को प्रतिष्ठा कराने वाले थे। दीवान बारचन्द के सुपुत्र सपही रायचन्द । दोवान बालचन्द टोडरमल जो के प्रगमकों मे से थे एवं तेरहपंच की प्रोट उनका विशेष झुकाव था।
महाकवि की अब तक १८ रचनात्रों की म्बोज की जा चुकी है। इन रचनात्रों को हम तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं
१. मौलिक रचनायें २, अनुदित रवनायें
३. हा टीकाये
मौलिक रचनामों में हमने उन रचनायों को लिया है जिन्हें पवि ने पूर्व प्राचार्यों के ग्रन्थों पर प्राधारित होने पर भी स्वतन्त्र रूप से निबद्ध किया है तथा जिनमें अपना मौलिक चिन्तन दिया है । इसके अतिरिक्त इस श्रेणी में वे रचनायें भी सम्मिलित हैं जिनमें कवि ने अपने सर्वथा मोलिक विचार लिखे हैं। विवेक क्लिास एवं अध्यात्म बारहखडी ऐसी ही कृतियों में है । कवि की मौलिक रचनायें निम्न प्रकार हैं
१. प्रपनक्रियाकोश २. जीबंधर चरित ३. अध्यात्मबारहखडी ४. विवेक विलास ५. थणिक चरित ६. श्रीपाल चरित ७. चौबीम दण्डक ८, सिद्ध पूजाष्टक
इसके पश्चात् वे रचनायें रखी गयी हैं जो भाषा पनिका के रूप में लिखी गयी हैं जिनमें कवि ने पूर्वाचार्यों की रचनामों का हिन्दी गद्य में वचनिका के रूप में अर्थ किया है और अपनो अोर से विशेष घटाया बढ़ाया नहीं है। लेकिन कभि ने जिस कला के साथ उनकी भाषा टीका लिखी है ये ऐसी लगने लगी है जैसे वे मानों कवि की पूर्णत: मौलिक रचनायें हैं। कवि ने इनको जिस धारा प्रवाह में लिया है वहै उसकी स्वयं की कला है। ऐसी रचनावों में निम्न रचनायें प्राती हैं
१. पुण्यात वकथाकोश
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महाकदि टोलतराम कासनीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
६. पदमपुराण ३. आदिपुराण ४. पुरुषार्थ सिद्धयु पाय ५. हरिवंश पुराण ६. परमात्मप्रकाश ७. सार समुच्चय
इसके अतिरिक्त तीन ऐसी रचनाये हैं जिनकी टीकानों को कवि ने या टीका का नाम दिया है। टव्वा टीका का अर्थ उम टीका से है जिसमें कवि ने किसी कृति का हिन्दी में पूरा अर्थ नहीं लिखा हो किन्तु पाठकों को उनका अर्थ समझाने के लिए संकेत के रूप में कठिन शब्दों का उनके ऊपर ही अर्थ लिख दिया हो। ऐसी रचनाओं में निम्न रचनायो को लिया गया है
१ तत्वार्थसूत्र वा टीका २ बसुनन्दि श्रावकाचार टम्बा टीका ३ स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा टब्बा टीका
इन सभी १८ रचनाम्रो का संक्षिप्त परिचय विषय के वर्गीकृतानुसार यहाँ दिया जा रहा है१ श्रेपनक्रियाकोश:
"पनक्रियाकोश" का नाम यद्यपि "पुण्यानवकथाकोश" से मन्तिम दो शब्दों में साम्यता रखता है। लेकिन यह कथा प्रधान न होकर प्रावर प्रधान रचना है। जैसा कि इसके नाम से ही रचना के विषय का बोध होना है । इसमें थावकों द्वारा पालन योग्य ५६ क्रियानों का प्रति सूक्ष्म एवं विस्तृत विवेचन किया गया है। इन ५३ क्रियाओं के नाम निम्न प्रकार हैं
५. मूनगुण-पांच उदम्बर एवं तीन मकार (मद्य, मांस एवं मधु) १२ व्रत-पंच अणुव्रत, तीन गुमावत और चार शिक्षानत १२. तप-छह बाह्य तप-अनशन, अवमीदर्य, तपरिसंख्यान,
सपरियाग. वियतपास्यासन एवं
कायलेण । छह ग्राभ्यंतर ता---प्रय दिनन, विनय, बसावृत्य
स्वयव कायमगं गौर ध्यान ।
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१. सम्यवत्व ११. प्रतिमा
४. दान
१. जलमाल
९. रात्रि भोजन ध्यान
३. रत्नत्रय
५३. योग
प्रस्तावना
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मानव मात्र के जीवन को शुद्ध, सात्विक एवं प्राचारवान बनाने के लिये इन क्रियाओं का पालन प्रावश्यक है । कवि ने अपने रचना चातुर्य मे इन सबका इतना सुन्दर वर्णन किया है कि सारा क्रियाकोश ही एक धारावाहिक उपन्यासमा मालूम देता है। गृहस्थों के जीवन-विकास एवं सुधार की ऐसी परिष्कृत कृति भारतीय साहित्य की सुन्दरतम कृति है ।
1
"क्रियाकोश" यद्यपि पूर्णतः धार्मिक रचना है | श्रावकों की क्रियाओं से इसका सम्बन्ध है लेकिन फिर भी कवि ने इसे पूर्णतः मणिकर, आकर्षक तथा सरस बनाने का प्रयास किया है। जिस समय यह रचना निबद्ध की गयी थी उस समय कवि अपनी पूर्ण यौवनावस्था में था। जगत का वैभव उनके लिए सुलभ था । एक और शासन का उच्चपद उन्हें प्राप्त या तो दूसरी बोर उनकी विद्वत्ता, साहित्यिक रूचि एवं लोकप्रियता की कहानी चारों धोर फैल चुकी थी। आगरा एवं जयपुर में उन्होंने जो स्थाति प्राप्त की थी उसमें उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही थी। ऐसे समय में त्रेपनक्रिया कोश' की रचना इस तथ्य की ओर संकेत करती है कि तत्कालीन जैन समाज में जो आचार हीनता एवं क्रियाओं के पालन में डिलाई व्याप्त हो गयी थी, उससे कबि स्वयं विन थे। उन्हें शिथिलता जरा भी पसन्द नहीं थी। इसलिये उदयपुर जाने के पचात् ही उन्होंने 'पनक्रियाकोश' को रचना निबद्ध किया। जिसके महत्व के सम्बन्ध में उन्होंने निम्न शब्दों का प्रयोग किया है
सब ग्रंथति में त्रेपन किरिया, इन करि इन बिन भव वन फिरिया । जो ए त्रेपन किरिया धारें, सो भवि अपनो कारिज सारे ।।२१३३ ।।
सुरंग मुकति दाता एकिरिया, जिनवानी सुनि जिनि ए घरिया । तिन पाईं निज परति शुद्धा ज्ञान स्वरूपा प्रति प्रति बुद्धा ।। २१३४
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-पस्किस्व एवं कृतित्व
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हैं अनादि सिद्धा ए सर्वा, ए किरिया धरिवौ तजि गर्वा । ठौर ठौर इनको जस भाई, ए किरिया गावं जिनराई ।।२१३५।।
– रचना के अन्त में कवि ने हिन्दी भाषा में रचना का औचित्य-वर्णन करते हुए लिखा है कि गणवरों एवं प्राचार्यों ने प्राकृत में इन क्रियानों का वर्णन किया है तथा संस्कृत भाषा को इरा पचमकाल में बहुत कम व्यक्ति समझते हैं। इसलिए संस्कृत कृतियों के प्राधार पर ही यह कृति अन्हें नर भाषा अर्थात् हिन्दी में लिखी है। उम रामय हिन्दी को 'नर भाषा' से सम्बोधन किया जाता था, ऐसा संकेत कदि की एक प्रशस्ति से मिलता हैगराधर गावं मुनिवर गावें, देवभाष मै शबद सुमादै । पंचमकाल मांहि सुरभाषा, बिरला समझे जिनमत सास्त्रा ।।२१३६॥ ताते यह नर भाषा कीनी, सुरभाषा अनुसारे लीनी । जो नर नारि पढ़े मन लाई, सो सुख पावै अति अधिकाई ।। २१३७।। रचना काल :
अपन क्रियाकोश की रचना उदयपुर में रहते हुये की गई थी। उस दिन मंवत् १७६५ की भादवा सुदी १२ मंगलबार का शुभ दिन था। तथा कवि सवाई जयसिंह के पुत्र सवाई माधोसिंह के मंत्री एवं सवाई जयसिंह की योर से उदयपुर दरबार में जयपुर का प्रतिनिधित्व करते थेसंवत सत्रासै पच्चाराब, भादव सुदि वारस तिथि जारराव । मंगलवार उदपुर माहैं. पूरन कीनी संस नाहै ॥२१३८|| ग्रानंद सुत जयसुत को मंत्री, जय को अनुचर जाहि कहै । सो दौलत जिनदासनिदासा, जिन मारग की शरण गहै ॥२१३६।। विषय बर्णन :
जैसा कि पहले लिखा जा चुका है, अपनक्रियाकोश में ५३ क्रियानों का वर्णन किया गया है। क्रियाकोश अध्यायों अथवा भागों में विभक्त नहीं है। किन्तु नियमानुसार उसका नामोल्लेख कर दिया गया है। सर्व प्रथम ६६ पद्यों में मंगलाचरण किया गया है। जिसमें ६३ मलाका महापुरुषों को प्राचार्य कुन्द-कुन्द, दशलक्षण धर्म, षोड़शारणा भावना, रत्नत्रय एवं स साधुनों को नमस्कार किया गया है। इसके पश्चात वपन कियानों का वर्णन प्रारम्भ होता है। अष्ट मुलगणों का त्याग करने के लिये कवि ने सोदाहरण
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तर्क प्रस्तुत किया है। पंच उदम्बर-बड़फल, पीपल फल, पाकर, अमर एवं कटूमर फल्बों में असंख्य जीवों का निमास रहता है इसलिए मद्य, मांस एवं मधु के साथ ही इनका से धन भी वजित है। इसी प्रसंग में २२ प्रभावों का भी बरखन पाया है। इसके पश्चात रसोई, जलगृह ग्वं हाय चवको की क्रियानों में सावधानी बरतने के लिए कहा गया है। जिमसे जी सिा न हो। भोजन जितना सास्तिक होगा उतना ही वह स्वास्थ्यप्रद हो । भारतीय जीवन में खान-पान को शुद्धि को जो विश्लेष महत्व दिया गया है, इस दृष्टि से कवि ने इसका वर्णन किया है। जैन धर्म हिमा प्रधान धर्म है। इसलिय भोजन की सभी किसानों में अहिंसा धर्म का परिपालन प्रावश्यक है। कविवर दौलतराम ने अपनी इस कृति में इन सब पर बड़ा ही सूचम बर्गन किया हैग्रण जाणु फल त्यागहु मित्र, प्रण छाण्यो जल ज्यों अपवित्र । स्यागी पदमूल दूषित कर मुलभ जीव घनन्त ।।११६॥
दधि गुड़ खावो कबहु न जोग, घरजें श्रीगुर वस्तु प्रजोग।
मूलगुणों का वर्णन करने के पश्चात् बारहवतो का विस्तृत वर्णन किया गया हैं। इन बारह व्रतो के नाम है-पंच अरबत --हिसागुनता, सत्यागुयत. प्रचौमावस, ब्रह्मचर्वाणुनार एवं परिग्रहपरिमारणुवात । तीन गुणवत-दिग्नत, देशवन, एवं अनर्थदण्डवत । चार शिक्षाग्रतसामाधिक, प्रोषधोपवास, भोगौपभोगपरिमाणवत एवं यावृत्य । हन १२ प्रतो का वर्णन ३८८ पद्य से प्रारम्भ होकर १३५० पद्य संख्या सक समान होता है । इस प्रकार त्रिपाकोश मंथ का श्राधे से अधिक भाग इन व्रतों के चणन तक सीमित है। वास्तव में ये १२ व्रत एमे हैं जिनके पालने से मानव देवत्व सम बन सकता है। उसमें से बुराइपा समाप्त हो जाती हैं तथा अच्छाइयों की भोर उसकी जीवनचर्या बढ़ने लगती है। यदि हम व्रतों का अरगु मात्र भी हमारे जीवन में उतर जावे तो हमारा देश सभी हटियों से उन्नत हो सकता है।
यतों के वर्णन के पश्चात् १२ हपों के मत्व पर प्रकाश डाला गया है। प्रास्मा के विकारों पर विजय पाने के लिए तयों का रिपालन अावश्यक प्रतलाया गया है। इनमें ६ बाह्य तप हैं जिनका शारीरिक क्रियाओं में सम्बन्ध है। उपचास करना, झुल से कम खाना, प्रतिदिन किसी एक रस
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का परित्याग करना, घारया छोड़कर सोना तथा शरीर को क्लेश देना ये सभी बाह्य तप है। इनके परि-पालन गे साधुनों की तपश्चर्या में उड़ना
आती है। इसी प्रकार शून्ह अभ्यतर तप भी हैं । जिन्हें साधक स्वयमेव करता है और जिनसे उदात्त भावों के सामने में शान्ति मिलती है ।
इसके पण्चात् सम्यक्त्व, ग्यारह प्रतिमा धान, जल छानने की विधि, गवि गोजनत्याग एवं रत्नत्रय के परिपालन के महत्व पर प्रकाश डाला गया है। कवि ने इन सभी में अपनी प्रगाध ज्ञान की छाप छोड़ी है। साथ में ऐसी क्रियानों के महत्व को पद्यों में लिखकर इसकी जन साधारण को विस्तृत जानकारी भी दी है।
इस प्रकार "गनक्रिमाकोश' में यद्यपि जैनाचार का वर्णन है, लेकिन यह माना जाय रे लिए ननिक सदिला है । जिसने अड़िया धर्म का परिपालन, सत्य व्यवहार को जीवन में उतारने पर जोर, चोरी, अनैतिक जीवन एवं अनावश्यक संग्रह प्रादि की बुराइयों की खुलकर निन्दा की गयी है। ब्रतों से जीवन की अत्यधिक समित, नियंत्रित एवं विकसित करने की कला सिखायों गयी है । वास्तव में ऐसी पुस्तकों को धार्मिक प्रावरण में न रखकर सार्वजनिक उपयोग के लिए प्रस्तुत की जानी चाहिए ।
भाषा:
भाषा की दृष्टि से यह कवि की प्रथम छन्दोबद्ध रचना थो। इसलिए कवि इसमें किसी एक शैली पर स्थिर नहीं रह सका। कहीं पर यदि शुद्ध हिन्दी का प्रयोग हुना है तो कहीं पर राजस्थानी का। ब्रज भाषा के शब्दों के प्रयोग से कवि बच नहीं सका है। इसी तरह अपने मन्तव्य के लिए कहीं प्राकृत पद्यों का उदाहरण दिया गया है तो कहीं संस्कृत छन्दों को भी उद्धृत किया गया है। यही नहीं एक दो स्थान पर लो अपने विषय का प्रतिपादन करने के लिए उसने गद्म का भी प्रयोग किया है ।
जीवंधर चरित्र 'जीवंधार चरित' कवि की दूसरी काव्यात्मक कृति है। इसमें जीपंधर के जीवन का चित्रण किया गया है। जीवंधर का जीवन जैन समाज में अत्यधिक प्रिय रहा है। इसीलिए संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश आदि सभी भाषामों में जी बंधर के जीवन पर अनेक रचनाए मिलती है। हिन्दी भाषा में इस रित को निबद्ध करने की रणा कवि को उदयपुर में स्वाध्याय प्रेमियों
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द्वारा मिली थी। ऋवि ने इस कृति की प्रशम्लि में उनका साभार उल्लेख किया है। कवि धान मंठी उदयपुर में प्रतिदिन प्रवचन किया करते थे । एक बार उन्होंने महापुराण पर प्रवचन किया। इसी महापुराण में जीबंधर की भी एक सुन्दर कथा प्राती है। जब श्रीतायों न उस कथा को मुना तो रामी श्रोताओं ने एवं विशेषतः कालाडेहरा के निवासी श्री चतुरभुज अग्रवाल ने कवि से निवेदन किया कि देव भाषा अर्थात् संस्कृत तो अत्यधिक कठिन है । उसका स्वाध्याय तो पडित लोग ही व.र सकते हैं, लेकिन सामान्य श्रावकों के लिये शक्ति के बाहर की बात हैं। इसलिय यदि इस काम को हिन्दी में रचना हो जावे तो सभी सरलता से समझ सकेंगे । इसी प्रकार कवि के प्रमग्न मित्र पृथ्वीराज का भी यही प्राग्रह था। सागवाड़ निवामी हुमह जातीय श्रावक सेठ वेलजी का प्रायह भी विशेष था। इन लोगों के ग्राग्रह को टालना स्वयं कवि के लिए भी संभव नहीं था। अतएव कवि का अन्त में भाषा में जीवन्धर चरित को बार करना दी था और पुत्र १०५ की पाढ़ शुक्ला वितीया की शुभवेला में इस गाथ की समान्ति कर दी गई ।
'जीवंबर चरित' एका प्रबन्ध काव्य है। इसमें प्रबन्ध काव्योचित मभी गुण मिलते हैं। सारा काव्य अध्यायों में विभक्त है। जिनकी समस्या पांच है। इन अध्यायों में जिस प्रकार का वर्णन मिलता है, उसका संक्षिप्त परिचय अध्याय की पुष्पिका में दिया गया है जिससे इस अध्याय का पूरा चित्र सामने प्रा जाता है। इन अध्यायों में कवि ने जीवन्धर चरित को अपनी काञ्च प्रति'मा द्वारा सरस, सुबंध, एवं सरल बनाने का प्रयास किया है। कदि ने अपने काय के परम्परागत कथानक में यद्यपि कोई विशेष परिवर्तन मही किया है फिर भी कुछ नवीन उभावनात्रों की मृष्टि अवश्य हुई है। समूचा काव्य एक इतिवृतसा लगता है । जिसमें जीवन्धर के विभिन्न पक्षी की उद्. भावना हुई है। कथा वस्तु का पूर्णतः निर्वाह हुया है। वह पाठको को कभी रुलाती तो कभी हंसाती हुई धागे ले चलती है। वास्तव मे जीवघर का चरित क्या है-मानों उस महापुरुष की कहानी है, जिसने जीवन में भी हार नहीं मानी तथा जिसने कभी अम्पायी का पक्ष नहीं लिया । वह र मनुष्य की कहानी है। जिसे जीवन में कुछ कर दिखलाने की तान इच्छा है। वह एक ऐसे पुण्यात्मा की कहानी है। जिसने जीवन में सब कुछ पाक। भी उसे निस्सार जानकर छोड़ दिया तथा अन्त में तपस्वी जीवन को प्रायर कर निर्धारण की प्राप्ति की।
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काम बरीन कवि के सभी पन उच्चकोटि के है। एक बार जीवघर नगर के बाहर अपने साथियो के साथ कोली का खेल खेल रहे थे। इतने में एक तपस्वी ने जीवन्धर से नगर की दुरी के बारे में पूछ लिया-इसका जीवन्धर ने जो सुन्दर उत्तर दिया वह कितना सामयिक एवं प्राकर्षक है
बोले कंवर सर्व यह जान, बालक चेलक पंथ पिछान । तू अति वृद्ध ज्ञान न तोकौं, किती दूर पुर पूछ मोकी ।।११।। तरवर सरवर वाग विसाला, बहुरि देखिए खेलत वाला । तहां क्यों न लखिए पुर मीरा, संस कहा राखिए वीरा ।।१२।। ज्यौं लखि धूम अनि हूं जाने, त्यौं बालक लखि पुर परवाने । जोबंधर के सूनिये वैना, तापस कीये नीचे नैनां ।।६३||
एक बार जीवन्धर रोने लगे । जब तपस्वी ने जीवन्धर से नहीं रोने के लिए कहा तो जीवधर ने उसका जवाय कितने व्यग्य से दिया, वह पढ़ने योग्य है
रोवे के गुन तुम नहि जानौ, मेरी वात यि परवानी। जाय सलेस्लम जो दुख दाई, नेत्र विमल व अति अधिकाई । १०५॥ तितै प्रहार हु सीतल होई, या तो प्रोगुन नहि कोई ।।
आदि काल से ही लड़की के विवाह की चिन्सा माता-पिता को रही है। पुत्री के विवाह के पश्चात् उन्हें अपूर्व प्रसन्नता होती है । इसी तरह का एक प्रसंग जीवन्धर चरित में भी आया है। जिसमें इसी तरह की बात कही गयी है--
रहै कंवारी कन्यका, व्याह् जोगि घर माहि । मात तात को दूसरी, ता सम चिंता नाहि ।। ४७।। पुत्री परणावन समा, नहि निर्चितता और ।।
प्रस्तुस काव्य में नायक का चरित्र अलौकिक कार्यों से ही नहीं उभारा गया है। किन्तु वीणा-वादना प्रतियोगिता में जीवन्धर की विजय बतलाकर
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नायक के ही चरित्र को समुन्नत बनाया गया है साथ ही अपने स्वयं की वीणावादन की कला पर भी प्रकाश डाला गया हैसुनि करि चित्रत रहे भूचरा खेचरा।
मृग मोहित व्हे महाराग मैं चित धरा। या विद्या करि हुई कवंर की कीरती।
जांनी सब संसार राग मैं कीमती ॥३७॥२१ जीबन्दर सुगन्ध परीक्षा में भी प्रवीण थे, इसलिए कवि ने "मंघ परख वा दूजो नाहि, जीवन्धर सो धररणी माहि'-७०/२४ के शब्दों में अपने नायक की प्रशंसा की है। जीवधर अत्यधिक दयालु थे। अब एक श्वान भयभीत होकर उल्टा तालाब में पड़ जाता है सो उसे वे अपने शरणों की भी परवाह न करते हुए तालाब में कूद पड़ते हैं और मरते हुए कुत्ते को एणमोकार मंत्र सुनाते हैं। जिससे वह मरकर यक्ष योनि को प्राप्त करता हैप्रारण छोडि वे सनगुख भयो, सुनिके कुमर कहाई हि लयो । जान्यों इह जीधै नहिं कोइ, याको मरण अवारहि होय ।।७२।।२५ तब ताके काननि मै आप, दियो मंत्र जो नासै पाप । नमोकार सो मंत्र न और, इहै मंत्र सब श्रुत को मौर ।।७३।।२५
कधि मे व्यापारियों की मनोवृत्ति पर अच्छी चुटकी ली है और लिखा हैबनियनि की इह रीति अनादि, हरडै सूठि प्रावला आदि । बेचें और मोलि ले सही, इन तौ रीति और ही गही ॥६६॥२७ जीवन्धर :
काध्य का नायक जीवन्धर है। उसके पिता राज नगर के राजा थे । लेकिन उसका जन्म शमशान में हुमा । जन्म लेते ही वह पितृ विहीन हो गया और अपनी माता विजया रानी के द्वारा पालन होने के स्थान पर गंवोत्कट सेठ के घर उसका लालन पालन हुना। लेकिन जीवन्धर पुण्यात्मा था; इसलिए जहां भी गया वहीं पर उसे सब प्रकार की सुख सुविधा मिलती गयी । गंधोत्कट सेठ ने जीवन्धर का लालन-पालन प्रत्यधिक स्नेह के साथ किया । वह
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प्रारम्भ से ही व्युत्पन्न मति था, साहसी था, निडर था तथा प्रापसियों से जूझने वाला था। बचपन में जब उसकी भेंट तपस्वी से हुई तो तपस्वी और उसके मध्य होने वाला वार्तालाप उसके व्युत्पन्न मति होने का स्पष्ट प्रमाण है। तपस्वी द्वारा नगर की दूरी पूछी जाने पर, जीवन्धर द्वारा दिया गया उत्सर उसकी उत्पन्न मति का द्योतक है।
जीवन्धर ने सर्व प्रथम भीलों का उत्पात शांत किया और उनसे गायों को छुड़ा कर काष्ट्रागार को सौंप दी । यह जीवघर की प्रथम सफलता थी। काष्टांगार जैसे धूतं राजा भी उससे लड़ने का साहस नहीं कर सके । उसे जीवन्धर ने अपने भाइयों को साथ लेकर ऐसी शिकस्त दी, जिससे जीवघर की बीरता की चारों ओर प्रशंसा होने लगी। इसके पश्चात् जीवन्धर ने सुधोषा बीन बजाकर गंधर्वदत्ता के साथ विवाह किया-- वह उसका संगीत प्रावीण्य था। काष्टांगार के बिगड़े हुए हायी असनिवेग को सहज ही में वश में कर लिया जिसके उपलक्ष्य में उसे सुरमंजरी जैसी सुन्दर कन्या प्राप्त हुई। काष्टांगार के षडयन्त्र को विफल किया । पभोतमा का विष दूर कर उससे विवाह किया एवं प्राधा राज्य भी प्राप्त किया । सहस्रकूट घत्यालय के कपाट खोलकर क्षेमसुन्दरी को विवाह में प्राप्त किया । धनुष विद्या में प्रवीणता दिखला कर हेमाभा को परिणय संस्कार में बांध लिया तया अपने ही नगर राजपुर में प्राकर उसने विमला एवं गुणमाला जैसी कन्याओं से विवाह किया। इनसे जीवाधर की कीर्ति चारों और फैल गयी। यही नहीं रत्नावली को स्वयंवर में प्राप्त करके अपनी निशाने बाजी की कला में सफलता पाई और अपने पिता की जय हत्या करने वाले तथा प्रवल शत्रु काष्टांगार को रण भूमि में मारकर अपना राज्य वापिस प्राप्त किया और एक लम्बे समय तक अपने कुटुम्बीजनों के साथ उसने जनता को स्वच्छ प्रशासन दिया। इस प्रकार काव्य के नायक जीवन्धर का चरित्र अन्त तक निखरता गया है।
काम कलाः
प्रस्तुत 'चरित' में सभी कान्य गुण उपलब्ध होते हैं। पांच अध्यायों में विभक्त यह कात्म हिन्दी भाषा का प्रमुख काव्य है जो अभी तफ विद्वानों की दृष्टि से प्रोमल रहा । दोहा, चौपई, सोरठा, वेसरी, अरिल्ल, बढदोहा, चालि छन्द, भुजंगी प्रयात, छप्पय प्रादि छन्दों का प्रयोग किया गया है । कवि ने बीच-बीच में दोहा चौपई के अतिरिक्त अन्य छन्दों का प्रयोग करके काव्य की उपयोगिता में वृद्धि की हैं। इसी तरह अलंकारों का प्रयोग भी
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मथेष्ट हुआ है । जिनमें उत्प्रेक्षा, उदाहरण, उमा एवं अनुप्रास प्रलंकारों के नाम उल्लेखनीय हैं।
जोवन्धर चरित' शान्त रस का काव्य है। इसका नायक अनेक साहस पूर्ण कार्यों को करने के पश्चात् एवं दीर्घ समय तक शासन सुख भोगने के उपरति संसार से विरक्त हो जाता है और अन्त में घोर तपस्या करके मोक्ष को पाता है। अपने पूर्व भव में १६ दिन तक हंस के बच्चे को उसकी मां से विलग करने का फल लीनन्धर को दृम अब में अपनी माता से १६ वर्ष तक विछोह मिलता है। क्योंकि सभी जीवों की समान प्रात्माए' होतो है पोर उन्हें भी सुख-दुःख का अनुभव समान रूप से होता है। अन्म से पूर्व हो पिता को मृत्यु, श्मशान में जन्म, सेठ का श्मशान में मृत पुत्र को लाना और उसके स्थान पर जीवन्धर को पालना, यक्षिणी द्वारा उपकार, रक्षा करना और फिर यक्ष द्वारा विपत्तियों में सहायता ये सब कुछ ऐसी घटनाए हैं, जो कम सिद्धान्त में अटूट विश्वास उत्पन्न करने वाली है ।
भाषा:
_ 'जीवन्धर चरित' की भाषा शुद्ध हिन्दी है । यद्यपि कवि ने उसे उदयपुर में रहते हुए छन्दोबद्ध किया था लेकिन मेवाती मौर गुजराती भाषा का इस काव्य पर प्रभाव नहीं है। किन्तु कवि के जयपुर निवासी होने के कारण कहीं-कहीं नारी शब्दों का प्रयोग अवश्य हो गया है।
अध्यात्मबारहखड़ी:
'अध्यात्म बारहखडी' कवि की अध्यात्मक कृतियों में सबसे बड़ी रचना है। इसमें स्वर एवं व्यंजन के माध्यम से प्रध्यात्म विषय का वर्णन किया गया है। स्वयं कवि ने इसका अध्यात्म वारहखही नाम देकर इसके विषय को स्पष्ट किया है। एक प्रकार से वह अध्यात्म विषय का कोश ग्रन्थ है जिसका प्रत्येक वर्णन भक्ति एवं अध्यात्म रस से मोत-प्रोत है। कवि ने इसमें अपने पूरे ज्ञान को ही जैसे उडेल कर रख दिया है। इस ग्रन्थ में तीर्थकरों की विविध रूप में स्तुति मिलेगी । सहस्रनाम, शतनाम जैसी अनेक रचनाएं इसमें समायी हुई हैं। इस कृति का दूसरा नाम "भवत्यक्षरमालिका बावनी स्तवम" भी दिया हुआ है। अध्यात्म बारहखडी इसका अलग नाम है--जैसा कि कवि ने कृति की प्रत्येक पुष्पिका में उल्लेख किया हैं।
कधि ने अपनी इस पूरी कृति को ८ परिच्छेदों में निम्न प्रकार विभक्त किया है
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प्रथम परिच्छे में प्रकार प्रणव महिमा एवं प्रकाशभर से प्रारम्भ होने वाले पर हैं। सर्व प्रथम ५ संस्कृत पद्यों में मंगलाचरण किया गया है। इसके पश्चात् ६६ दूहा एवं नाराच छंदों में प्रवमहिमा, २६ चौपई छन्दों में ओंकार महिमा एवं ११२, दोहा चोपई, छंद वेसरी में प्रकार का बर्णन किया गया है। प्रथम परिच्छेद की पुष्पिका निम्नप्रकार है
___ "इति श्री भक्त्यक्षरमालिका बावनी स्तवन अध्यात्म बारहखड़ी नामध्येय उपासनातं जिनमहसनाम पाभरीनप्रसाविजेट संचागुमाए भगवद भजनानांधिकारे सानंदराम सुत दौलतरामेन अल्पबुद्धिना उपायनीकृते प्रथम स्तुति प्रारंमवारेण प्रणव महिमापूर्वक प्रकारमिश्राशर प्ररूपको नाम प्रथम-परिच्छेद ।।१।।
द्वितीय परिच्छेद में प्रकार से लेकर प्रकार के १६ स्वरान्त पद्यों में भगवद्भक्ति एवं अध्यात्म की मंगा बहायी है। इन स्वरान्त पद्यों की संख्या निम्न प्रकार है:--
अकारान्त पश्च पआकारान्स ।
१३५ इकारान्त , ईकारान्त ॥ सकारान्त , ऊकारान्त ऋकारान्त , ऋकारान्त ॥ लुकारान्त लूकारान्त । एकारान्त । ऐकारान्त , पोकारान्त , प्रौकारान्त , अंकारान्त , प्रकारान्त ,
१९०
१५
१४७१
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५३
जिन छन्दों का इस परिच्छेद में प्रयोग हुआ है, उनमें दोहा, चौपई, पौपया, सवैया, कवित, छन्द गीता, भुजंगीप्रयात, त्रोटक, सवैय्या इकतीसा, छन्द मोतीराम, पबड़ी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । कवि ने कथानों के माध्यम से भी जिन महिमा का वर्णन किया है । इकारान्त पद्यों के अन्त में कवि ने अपने पुत्रों के नाम गिनाये हैं। ऋकार से पहिले जिनवाणी का स्तवन और फिर षट्ऋतुओं का वर्णन मिलता है। सभी वर्णन विस्तृत एवं स्पष्ट हैं एवं कवि की विद्वत्ता के द्योतक हैं ।
तृतीय परिच्छेद :
यह परिच्छेद कवर्ग का है। जिसमें ककार, खकार, गकार, प्रकार एक इकारान्त पचों को दिया गया है। इन परिच्छेदों में ककारान्त के २०५ पद्य हैं, खमारान्त के ८१ पद्य, गकाराम्त के ११७ पच्च प्रौर घकारान्त के ५६ पद्य एवं इकारान्त के २४ पद्म हैं। प्रारम्भ में वर्णन करने से पूर्व संस्कृत पद्य अलग से दिये गये हैं । गृद्ध के प्रसंग में सीताहरण की कथा दी हुई है। चतुर्थ परिच्छेद :
इसमें चवर्ग के सभी पंचाक्षरान्त पद्य हैं इनमें चकारान्त के १६०, छकाराम्त के ७४, अकारान्त के ३२, झकारान्त के ४२ एवं अकारान्त के २० पद्य है। इस प्रकार यह परिच्छेद ३५८ पद्यों में पूर्ण होता है । इनमें झकारान्त में झूठ की बुराइयों पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। इस परिच्छेद का प्रमुख छन्द सर्वया एवं सोरठा है। वरान कुछ क्लिष्ट हो गया है ।
पंचम परिच्छेद :
इसमें दवर्ग के सभी पंचाक्षरान्त पद्य है। इनमें सकारान्त के ३७ पद्म, छकारान्त के ३५ पद्य, डकारान्त के ७६, हकारान्त के २६ पद्य एवं राकारान्त के ४३ पध हैं । इस परिच्छेद में सब मिलाकर २१७ पद्य हैं । इस परिच्छेद का वर्णन सामान्य है। षष्ठम परिच्छेद :
उसमें तवर्ग के पद्य दिये गये हैं। जिसमें तफारान्त के १७३ पद्य, यकारान्त १३६ पद्य, दकारान्त के ३४६ पद्य, धकारान्त के ७६ एवं नकारान्त के १२६ पद्म हैं। सब मिलाकर हिन्दी पद्यों की संख्या ६६६ है,
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जो एक सतसई के रूप में हैं। इस परिच्छेद में श्रेपन क्रिया, अष्ट मूलगुण, द्वादश व्रत, निश्चय व्यवहार नय, गुरणस्थान, पांच ज्ञान-मादि पर पच्छा प्रकाश डाला गया है। इस परिच्छेद का प्रमुख छन्द दोहा चौपई एवं सोरठा है।
सप्तम परिच्छेद :
इस वर्ग में पवर्ग पर आधारित पद्म हैं। इनमें पकारान्त के ३३८ पद्य, फकारान्त के ७० बकारान्त के २७, भकारान्त के १३७ एवं मकारान्त के १९६ पद्य है तथा कुल पद्यों की संख्या ८५८ है। कुण्डलिया, छाघम, सोरठा, शार्दूल Pीडित जगे हदों का भी प्रयोग किया गया है। सभी वर्णन सरस, सरल एवं प्रवाहमय हैं। अलंकारिक शब्दों का भी वर तत्र प्रयोग हुआ है।
अष्टम परिच्छेद :
अध्यात्म बारहखडी का यह अन्तिम परिच्छेद है । जिसमें यकारान्त पद्यों की संख्या ११८, रकान्त ६३, लकारान्त ८६, वकारान्त ११३, शकारान्त १३३, षकारान्त १२६, सकारान्त ४५२, एवं इकारान्त ६३ तथा क्षकारान्त के ८१ पद्य हैं, इस प्रकार इस परिच्छेद की कुल संख्या १२६८ पद्य है जो सबसे अधिक है । इसमें प्राध्यात्मिक वर्णन अपेक्षाकृत अधिक है। दोहा चौपई जैसे छन्दों के अतिरिक्त उपेन्द्रवना, सर्वय्या, कुलिया सोरठा प्रादि इस परिच्छेद के छन्द हैं ।
अध्यात्म बारह खडी काव्यत्व की अपेक्षा से एक अच्छी कृति है। यह एक कोशा ग्रन्थ है, जिसकी रचना जिनसहस्र नाम नाममाला आदि अनेक कोश ग्रन्थ एवं आध्यात्मिक ग्रन्थों के आधार पर की गई है। हिन्दी भाषा में इस प्रकार को बहुत कम कुतियां देखने में आती हैं ।
वर्णन :
शारदा-जिसका अपर नाम भारती, ईश्वरी एवं सरस्वती है, वह सर्वज्ञ प्रभु के मुख से निकली हुई है। कवि ने उसका नर्णन करते हुए लिखा है
"सरवगि के मुखतें मई, सदा सारदा देवि । वहै ईश्वरी भारती, सुर नर मुनिजम सेव ।।२७।।
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थकारान्त में श्रद्धा पर प्रकाश डालते हुये कवि ने लिखा है, कि षद्धा से भगवान जिनेन्द्र का नाम जपना चाहिए । श्रद्धापूर्वक ही किसी को कुछ देना चाहिये । श्रद्धा से ही बत एवं तप की धाराधना की जानी चाहिए ।
श्रद्धा करि जिन नांव जपि, श्रद्धा करि कछु देहु । श्रद्धा करि व्रत शील धरि, नर भव लाही लेहु ।।
कवि जिनेन्द्र की भक्ति में इतने सन्नद्ध थे कि इन्हें यह प्राश्चर्य लगने लगा था कि लोग उन्हें छोड़कर अन्य की कैसे माराधना करते हैं
ते नर नीच शृगाल सम, जे नहिं ध्यावे तोहि । तोहि छोडि औरहि भजें, इह अचरजि अति मोहि ।।१०।। एक दूसरे प्रसंग में कवि ने फिर उनका स्तवन निम्न प्रकार किया हैतेरी निर्माता नहीं, रचिता जग में कोय । अनिर्मातृ भगवान तू, अनिवाच्य वो होय ।।३६१।।
जिनेन्द्र का वर्णन कर सकने में असमर्थ प्रपने प्रापको कवि निम्न प्रकार प्रस्तुत करता है
प्रोजस्वी तुम वर्णना, कथि न सके जनि कोय। मैं मति हीन अजान जो, किम कहि सकि हो तोय ।।३।।
"जिनेन्द्र' के स्तवन में कवि के कुछ प्रत्यधिक सुन्दर, सरल एवं भावपूर्ण पद्य देखिए
'ख' कहिए आकास को, तू प्राकाम स्वरूप 1 सद्ध चिदातम बोधमय, परम हंस जगभूप ।।२। स्व कहिए इन्द्रीनि को, तुम इन्द्रीनि ते दूर । मन पर बुधि ह के पर, घटि घटि अन्तर पूर ।।३।।
घर घर की सेवा करत, उपज्यो अति गति खेद । अब तू अपनी टहल दे, ले निज माहि अभेद ।।१।।
धर धरणी मै हम लगे, धन धरणी को चाहि । . चाहि हमारी मेदि सब, बहु भरमावे काहि ॥२॥
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
४ विवेक विलास
'विवेक विलास' कवि को पद्यात्मक कृतियों में से सबसे महत्वपूर्ण कृति है। पूरी कृति रूपक काव्य है, जिसमें भादि से अन्त तफ रूपकों की मालाए ही मालाए हैं। यह एक ऐसी कृति है, जो किसी भी कवि की काव्य प्रतिभा परखने के लिए पर्याप्त है। कवि ने कृति का नाम विवेक बिलास' दिया है जो पूर्णतः सत्य है। इसमें जगत के प्राणियों को विवेकमय जीवन अपनाने की प्रेरणा दी गयी है। विभिन्न रूपकों से उसे सच्चरित्रता एवं सद्कार्य करने को कहा गया है। पूरा विलास दोहा छन्द में है। जो ६२४ दोहा छन्दों में समाप्त होता है। एक ही काव्य में दोहा छन्द का इतना बड़ा प्रयोग भी बहुत कम देखने को मिलता है। यह एक ही छन्दकृति है। १०वीं शताब्दी में दोहा छन्द कवियो के लिए एवं जनता के लिए कितना लाडला छन्द था। इसकी इस कृति से जानकारी मिलती है।
कवि ने अपनी इस कृति का नाम 'विलास' दिया है। बिलास संशक रचनाएं बनारसीदास में ही लोकप्रिम रही हैं इसलिए प्रत्येक कवि की एक विलास संज्ञक कृति अवश्य मिलती है। इनमें बनारसी विलास, भूधर विलास, धानत विलास, दौलत विलास आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। लेकिन अन्य विलास, संज्ञक रखनायों में एवं विवेक विलास में पर्याप्त अन्तर है। बनारसी विलास में जहां वनारसीदास की सभी लघु कृतियों का संकलन किया गया है । वहां दौलतराम ने अपने विवेक विलास में एक ही कृति को निबद्ध क्रिया है ।
___ विवेक दिलास में निजधाम वर्णन, २. ठगग्राम वर्णन, ३. निज वन निरूपण, ४. निजभवन वर्णन, ५. भावसमुद्र वर्णन, ६. भवसमुद्र वर्णन, ७. शान निरूपण, ८. गवं गिरि वर्णन, ६. निज गंगा वर्णन, १०. प्राशा वैतरणी विपनदी वर्णन, ११. भावसरोवर वर्णन, १२. विभाव सर वर्णन, १३. अध्यात्म वापिका वन. १४ विषय वापी वर्णन. १५. रस कूप वर्णन, १६. भवक्रम वर्णन, १७. अन्तरात्मा ज्ञान राज वर्णन, १८, बहिरात्मा दशा बर्णन, १६. गुरु वचन-इस प्रकार "बिलास' का विषय वर्णन विभक्त किया हुआ है। यद्यपि विवेक मिलास अध्यामों अथवा सर्गों में विभक्त नहीं हैं, लेकिन विभिन्न वर्णन हो इसके प्रध्याम हैं। ये सभी अध्याय ज्ञान रूपी महल से चढ़ने के लिए सोही का कार्य करते हैं। एक के पश्चात् एक वर्णन इस क्रम से हुआ है, जिससे विलास की एक भी कड़ी नहीं टूट सकी है। और विषय सहन ही खुलता चला गया है । समूचा
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प्रस्तावना
विलास रूपकों से भोत-प्रोत है तथा प्रत्येक दोहे में किसी न किसी रूपक का प्रयोग हुपा है। इनसे कवि के अगाध ज्ञान एवं विशाल काव्य-शक्ति का सहज ही पता लगाया आ सकता है।
रचना काल
कवि ने अपनी इस कृति को किस शुभवेला में प्रारम्भ किया था, ओर किस शुभवेला में समाप्त करके साहित्यिक जगत का महान उपकार किया, इसके बारे में अपनी अन्य कृतियों के समान समय का अंचत नहीं समझा। यही नहीं इस महत्वपुर्ण कृति को पूरे राजस्थान के जैन ग्राधगारों में अभी तक एक ही पाण्डुलिपि उपलब्ध हो सकी है जो अयपुर के पाण्डे लूणकारमा जी के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है। यह पाण्डुलिपि सं० १८२७ पौष सुदी ३ वृहस्पतिवार को लिम्बी हुई है। जयपुर में प्राने के पश्चात् कवि ने एक ही पश्चात्मक रचना 'श्रीपाल चरित' को छन्दोबद्ध किया था, जिसमें भी स्पष्ट रूप से रचना काल दिया हुआ है। यह कृति संभवत: 'अध्यात्मबारहखडी' के पश्चात् लिखी गयी थी । वह कवि की काव्यशक्ति का सर्वोच्च समय था। और इसीलिए कवि की लेखनी में ऐसी उत्कृष्ट कृति का सर्जन हो सका। इसलिए इसका रचना काल सं. १७६८ से १८०० तक का माना जा सकता है ।
भाषा
भाषा की दृष्टि से विवेक-विलास एक परिमार्जित हिन्दी कृति है। कवि ने शुद्ध हिन्दो का प्रयोग करके तत्कालीन समय मे प्रपालत हिन्दी शैनी का उदाहरण प्रस्तुत किया है। यद्यपि कवि राजस्थानी थे। उदयपुर में उस समय रहते थे, लेकिन विदेक-बिलास की भाषा पर ढूढारी एवं मेवाली भाषा का सबसे कम प्रभाव पड़ा है। कवि ने शुद्ध हिन्दी में प्रपनी इस कृति को प्रस्तुत किया है। विषय वर्णन
विवेक-विलास "निजधाम वर्णन' से प्रारम्भ होता है । सर्वप्रथम ब्रह्मचर्य की महिमा एवं उससे ब्रह्म पद प्राप्ति का कथन मिलता है। इसके पश्चात् कवि ने जगत में अध्यात्म चर्चा एवं भगवद्भक्ति को ही प्रात्म-साधना के प्रमुख उपाय बतायें हैं। यह प्रात्मा अपने ग्राम प्रदेश में निवास करता है, वहीं उसका अभैपुर है। जहां उसे जरा भी काल का भय नही है।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
प्रभपुर नगर का राजा अात्मा ही है। मभरस भाव उसके मित्र हैं । सम्यक् ज्ञान ही उसका प्रधान अमात्य है। अनन्तनीय मात्मा का सेनापति है। भाव उसका दुर्ग है । उमका गम्भीर स्वभाव ही उसके यहां खाई है। प्रात्म ध्यान ही द्वार हैं और यही अध्यात्म का सार है। अनन्त चतुष्टय भाव ही चार सुभट है। इस प्रकार रूपकों की प्रत्येक पद्य में छटा दिखलायी देती है।
प्रथम अध्याय में इसी तथ्य को स्पष्ट किया गया है कि प्रात्मा राजा है तथा गुगा इसकी प्रजा है । शुद्ध भाव ही । उसके शस्थ हैं जिनसे उसकी जीत होती है। उस पुर में कोई बोर नहीं है। वह प्रात्मा स्वयं मालिक है। उसके पास महासुखों की सभी सामग्री उपस्थित रहती है। शुद्ध पारगामिक भाव ही राजग़भा के पार्षद है। जो सदैद जागा या जाग्थित नहीं है। क्षायिक सम्यक्त्व उसके महाभट हैं जिसके बल पर यह आत्मा निस्कलंक राज्य करता है। निज स्वभाव ही उसका सिंहासन है। उस पर यह बैठकर सब पर शासन करता है। दुःखों को हरण करने वाला स्वभाव ही उसका छन्त्र हैं तथा निर्भय भावों की तरंग चमर है। इसके प्रागे कवि ने प्रात्मा के विभिन्न गुरणों को रूपकों द्वारा समभाया है।
ऐसी प्रात्मा परमानन्द दशा में विराजली हैं, वहां उसे इन्द्रिय-भोगों को जरा भी चिन्ता नहीं हैं। प्रात्मानुभव ही अमृत है जिसका वह सदा पान किया करता है। उसे भूख एवं प्यास की बाधा नहीं होती। जन्म, जरा एवं मृत्यु का भय नहीं तथा रात्रि एवं प्रात: उसके लिए समान हैं । रात्रि में विचरा करने वाले चोरों के समान रागादि भावों का यहां संचार नहीं और उसके प्रात्मपुर में रोग-शोक प्रादि पिशाच नहीं है। ठग के रूप में काम करने वाले काम एवं लोभ का वहां नाम भी नहीं है । ऐसे प्रदेश में वस्तु स्वभाव ही पुर है और बह धर्ममय है। जहां राजा और प्रजा दोनों धर्ममय है । वहां धर्म रहित होकर कोई नहीं रहता। ऐमें यह प्रात्मा जब अपने नगर में रहता है; तत्र चारों ओर महान सुख बरसता है। वह उसका नन्दन वन है। लेकिन इस उपवन में न लो मायारूपी बेलि है और न विकल्पों का जाल है। क्रोधादि पंखों का यहां पूर्णत: मभाव है । उस वन में शुभाशुभ कर्म वृक्ष नहीं है। वहां सुख रूपी सरोवर है। जिसमें सहज नीर भरा हुआ है। वहां अपने भाव वाले तस्वर हैं । इस प्रकार यह पूर्ण वान रूपकों से भरा हुआ है।
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प्रस्तावना
"विवेक-विलास" का दूसरा अध्याय 'ठग ग्राम वर्णन' है। इसमें कवि की भावाभिव्यक्ति है कि हे मनुष्य ! यह जगत ठगों का निवाम-स्थान है। मोहादि वहां के अनन्त ठग हैं, जिनके नाम कहां तक लिए जावें। मोह इन सब ठगों का राजा है; क्योंकि मोह की फांसी के समान जगत में दूसरी फांसी नहीं है। जीवों को यह फांसी देकर मान गुणों को हर लेता है। मोह निद्रा के सरीमा नहीं है. यह नगरः महरा बान चेतना खोकर सोता रहता है। ममता मोह की प्रिया है। जिसके समान अन्य कोई ठगिनी नहीं है। यह ममता सुरेन्द्र नरेन्द्र आदि सभी को ठग लेती हैं। सबसे बड़े ठग राग एवं ष हैं, जिनकी भुजानों के प्रताप से मोह जगत पर शासन करता है। राम की प्रिया सरागता है। विषयों में अनुगगता ही यहां अद्भुत मिनी हैं। द्वेष के समान कोई दुबुद्धि नहीं है । द्वेष की प्रिया दुर्जनता है, जिसने प्रभी सभी को ठगा है। इसी तरह इस नगर में काम के समान दूसरा कोई प्रबल उग नहीं है, जो जगत का शीन हरण करके बदफैल करता रहता है। काम की प्रिया रति है, जो जगत को भरमाती रहती है। इसी प्रकार क्रोध, मान, माया और लोभ रोग, शोक प्रसयम आदि प्रौर भी ठगों के नाम गिनायें हैं :
___विलास' का तीसरा वर्णन निज वन निरूपण' के नाम से है । यत् २५ दोहा छन्दों में पूर्ण होता है । इसमें कवि ने बतलाया है कि जब यह प्रात्मा अपने वन में क्रीडा करती है तो उसे मृत्यु का भी डर नहीं रहता। प्रात्मवन अमर उद्यान है जिसमें परमानन्द प्राप्त होता है। यह वन प्रात्महंस के लिए केलि करने का स्थान है लेकिन यह हम हिंसा से रहित है। तथा शान्ति रस का धारण करने वाला है। इस वन में प्रात्मकला के समान कोई कोयल नहीं है। वह आत्म-वेलि हो रसिया है । यहां मरबर सम भाव के रूप में है। चएल स्वभाव वाले मृग नहीं है नया दुष्ट भाव वाले दुष्ट पशु भी नहीं है। हम आत्म वन में न तो मोह रूपी दत्य का निवास है और न कषाय रूपी किरात ही निवास करता है। इमो तरह से वन में मिलने वाली सामग्री को प्रात्मवन के रूप में चित्रित किया है। वहां न तो कांटे हैं और न विकल्पों का जाल है और न माया पो fan बेलि ही है । इस वन मैं समादिक के रूप में रजनीचर नहीं विचरते हैं : प्रात्म ज्ञान के रूप में घने वृक्ष हैं। यहां तो स्वभाव रुपी प्रमृत वृक्ष है जो सा अमर फल देते हैं। यह एक ऐसा रमीक वन है, जहां प्रात्म राजा विचरण करना है।
__ चतुर्थ अध्याय 'निज भवन बर्णन' के रूप में है। यह विस्तृत वर्णन है, जो ७७ दोहा छन्दों में पूर्ण होता है । 'भव बन' अत्यधिक विरूप है । इसलिए
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वहीं
यह आत्मपरा भी विचार इस भवन में पुष्ट स्वभाव के रूप में दैत्य विचरते हैं। मोह दैत्य शिरोमणि है। राग एवं द्वेष रजनी पर हैं, पाप के रूप में विमान हैं। सात व्यसनों की सेना में महाहिंसक पुरोहित हैं। जिसमें दया का का भी नहीं है। ऐसे भव वन में मोह राजा है। ममता उसकी पटरानी है। आठ कर्मों के रूप में विष वृक्ष हैं जो कांटों से युक्त है तथा छाया रहित है । वह मृत्यु के रूप में उपहार देता रहता है । शुद्धात्म अनुभूति के समान प्रमृत लता नहीं है । शुद्ध भावों के रूप में मृत वृक्ष नहीं है । इसके आगे कवि ने और भी भय वन के डरावने रूप का विस्तार से बर्णन किया है ।
भय वन के समान ही भाव समुद्र का रूपात्मक वर्णन किया गया है । इसमें सागर में मिलने वाले जड़ स्वभाव के रूप में जलचर, मोह भाव, माया एवं लोभ के रूप में मगर, लोलपी जिह्वा के रूप में मछलियां निष्ठुर कछुवा, वृथा विषाद करने वालों के रूप में मींडके, तुच्छ स्वभाव के रूप में झोंगर आदि का वर्णन किया गया है ।
आगे सव समुद्र वर्णन, गर्व गिरि वर्णन, निज गंगा वर्णन, प्राशा - वैतरणी विष नदी वर्णन, भाव सरोवर वर्णन, विभाव सर वर्णन, श्रध्यात्म वापिका मन विषय वापी वर्णन आदि वर्णनों के रूपकों में काफी साम्यता है। समुद्र में पाने वाले मगर, मछली, जलचर, मच्छर, कछुवा आदि के रूपकों का समावेश किया गया है। सभी वर्णन भावमय है । इसी तरह विलास के सभी वर्णनों में रूपकों के अम्बार लगे हुए हैं।
'विवेक विलास' की भाषा प्रौढ़ है तथा वर्णन रुचिकर है। बड़ी ही प्रभावक रीति से कवि ने श्रध्यात्म की गंगा बहायी है, जिसमें आत्मतत्व की प्रधानता है । कवि ने प्रात्मा के विविश्व गुणों का विभिन्न रूपकों के माध्यम से सुन्दर चित्र उपस्थित किया है। यह ग्रात्मा स्वभावतः शुद्ध है । निजानन्द रसलीन है । आत्मा ही नगर है और भ्रात्म भाव ही सागर है तथा आत्मा ही स्वयं का राजा है जो स्वयं के पास है।
प्रतम भावहि नगर है, ग्रात्म भाव पयोधि ।
आत्म राम ही एक है, यह निज घर में सोधि ।। ३०८ ||
ग्राम तत्व' को पहिचान जिसे भी हो गई, वहीं भवसागर से तिर गया तथा जिसने इसकी सिद्धि करली, उसे जन्म मृत्यु के जाल से छुटकारा मिल गया । ऋषि ने अपनी इस कृति में आत्मा को कलुषित करने वाले, शुद्ध
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प्रस्तावना
चैतन्य दशा से दूर रखने वाले, संसार में रुलाने वाले अवगुणों का बुराइयों का एवं दुस्साधनों का जिस स्पष्टता से उल्लेख किया है, वे कवि के गम्भीर चिन्तन की ओर संकेत करते हैं। वास्तव में यह विलास एक ऐसी कृति है । जिसका धर्म एवं सम्प्रदाय कोई सम्बन्ध नहीं । वह केवल अपने हो मे निवास करने वाले ग्राम लक्ष्य तथा उसमें निहित परम शक्तियों का दर्शन कराना चाहता है | वह मनुष्य मात्र को बार-बार चेतावनी देता है कि
निज गुर में बुधि मैं बसे, ताहि न पावो ताप । तातें सकल विलास तजि, सेवो आपनि श्राप ॥ विषे पांच इन्द्रीनि के कालकूट विष तेहि । विष को भूल भयंकरा, भव कानन है एहि ॥
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५ श्रेणिक चरित :
यह कवि की प्राथमिक रचनाओं में से हैं। 'पुण्यालकथाकोश' की भाषा - टीका के पश्चात् उन्होंने इस काव्य की रचना की थी। यह एक प्रबन्ध काव्य हैं जिसमें महाराजा श्रेणिक का जीवन चरित निबद्ध है इसमें ५०१ छन्द हैं तथा बिना किसी सर्ग अथवा अध्याय-भेद के कवि ने एक हो प्रवाह में शिक को जीवन कथा को छन्दोबद्ध किया है । कवि को यह रचना अधिक लोकप्रिय नहीं हो सकी; क्योंकि अभी तक राजस्थान के विभिन्न ग्रन्थ भण्डारों में इसकी केवल दो ही पाण्डुलिपियां मिली हैं
१. एक पाण्टुलिपि भरतपुर के पंचायती मन्दिर में हैं, जिसकी पत्र सं २५६ तथा लेखनकाल संवत् १८८८ है ।
२. दूसरी पाण्डुलिपि 'यशः कीर्ति सरस्वती भवन, ऋषभ देव' में सहीत है। इसमें ४६ पत्र है तथा लेखनकाल संवत् १८०७ कार्तिक सुदी है।
प्रस्तुत परिचय दूसरी गाण्डुलिपि के आधार पर है । पर यह पाण्डुलिपि भी अशुद्ध लिखी हुई है तथा उसकी लिपि भी अच्छी नहीं है । कवि ने 'श्रेणिक चरित' की रचना संवत् १७५२ चैत्र शुक्ला ५ के दिन पूर्ण की थी । इस दिन चन्द्रवार था ।
संमत सतरेस बीमासी श्री चैत्र सुकल तिथि जान । पचमी दिने पुरण करी, वार चन्द्र पहचान || ५०१।।
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महाकवि दौलतगम कागलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतिस्व
चरित की भाषा हिन्दी है । इसमें कवि का काव्य कला की ओर अधिक हमान न होकर काश्य के नायक की कथा का वर्णन करने का रहा हैं ।
इक दिन भूप गयो बन मांही, मारग जती जसोध र पाही। पातापन तप तपीये कोही, देखी श्रेणिक इम कही ।। ६२।। मुनि पे कुक्कर दीये छुड़ाय, तब उन दीन दक्षणा जाय 118 | नमस्कार करी बैठे स्नान, भूपती लखी रांणी गुर जान || ६४॥ मरत साप मुनि गल धरो. नरक सातमी को बंध पड़ो। चौथे दिरा रेनकी बार, कही भूप रागी सब छार ||६५॥
वावि यह काव्य गवचन्द्र के काध्यानमार लिखा है, ऐसा उन्होंने ग्रन्थ की प्रसारित में जलनेस्ल किया हैं ।
सिवानन्द सुनि राम सीष्यो. रामचन्द्र रिषी नाम।
तिन अनुसार बनाय के, रची सो दौलतराम ॥५०॥ ६ श्रोपाल चरित :
'श्रीपालनरित' कवि का प्रबन्धकाव्य है जिसमें फोटिभट श्रीपाल का जीवन चरित निबद्ध है। श्रीगाल के जीवन पर जैनाचार्यों ने सभी भाषामों में काव्य लिखे हैं । हिन्दी मे कवि के पूर्व ब्रह्म यमल ने 'श्रीपाल राम' (सं० १५१.) तथा परिभल कवि ने श्रीपाल चरित (स० १६५१) की रचनाए लिखकर काव्य रचना के मार्ग को प्रशस्त कर दिया था। श्रीपाल एवं मैना सुन्दरी का जीवन अत्यधिक लोकप्रिय रहा है और इसी कारण इनके जीवन पर विविध रचना उपलब्ध होती हैं।
महाकधि दौलतराम ने थीमाल के जीवन की कथा को लोकप्रियता को देखकर ही सवत् १८२२ फागुण सुदी ११ को चरित काव्य के रूप में उसे छन्दोबद्ध किया। कवि ने इस काम को सोमोन भट्टाक के श्रीपाल चरित के आधार पर बनाया है। जिसका उलेख स्वयं कवि में इस प्रकार किया है ... संवत् अष्टादस तसु जान, ऊपर बीस टोय फिर ग्राम । फागुण सुद इग्यार निस माहि, कियो समापत उर हलसाय ।।७५४।। सोमसेन अनुसार ले, दौलतराम सुखदाय । एह भाषा पूरन करी, सकल संघ मुखदाय ।।७५५।।
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प्रस्ताव
श्रीपाल चरित सतसई के रूप में है। जिसमें ७५५ दोहा चौपई हैं । कवि ने इस काव्य में भी कथा का धारावाहिक ही वर्णन किया है | बीच २ में सगं एवं अध्यायों में उसे विभक्त नहीं किया। काव्य की भाषा सीधी एवं सरल है । कवि ने उसमें काव्यत्त लाने का संभवत: कोई प्रयास नहीं किया फिर भी रचना में काव्यत्व स्थान २ पर उपलब्ध होता है ।
सुनि श्रीपाल निसंकित होय, मन माही इम चितित सोय । देखे कहा कर्म करेय, मोनधारी तिनमें संचरेय || १८४|| इनकू पट भूषरण पहराय, कियो तिलक पुजे इन पाय । फेरि चले मारन के काज ल्याए जिहाज पासी सेठराज || १६५।। कोटी भट वर रूप अपार, फिरि फहरे पट भूषण सार । सीस तिलक सोभे इमराय, मानू जस लछमी वर आय ।।१६६ ।।
इस प्रकार समूचा ही काव्य सरल भाषा में निबद्ध है। काव्य की वन शैली एवं भाषा दोनों ही उत्तम हैं ।
'श्रीपाल चरित' में भाग्य एवं पुरुषार्थ की लड़ाई में भाग्य की विजय हुई है। श्रीपाल की रानी मैना सुन्दरी भाग्य पर प्रबल विश्वास रखती थी; जबकि उसका पिता पुरुषार्थं का समर्थक था। भाग्य को नीचा दिखाने के लिए उसने अपनी सुन्दर एवं यौवनपूग पुत्री 'मैना' का विवाह एक कोढ़ी राजा के साथ कर दिया। पर भाग्य से उसका कुष्ठ रोग दूर होगया और उसे पति के रूप में कोटिभट राजा प्राप्त हुआ। इसके पश्चात् भी श्रीपाल के जीवन में कितनी ही विपत्तियां प्रायों; लेकिन उन सभी विपत्तियों में वह स्वर्ग के समान तप करके निकला। उसे अपना राज्य एवं अन्य सभी सम्पदा here मिल गयीं। लेकिन कुछ समय बाद श्रीपाल को संसार में उदासीनता हो गई और उसने सपरिवार वैराग्यमय तपः साधना करके निर्वारण को प्राप्त किया
७ चौबीस दण्डक भाषा :
ग्रह महाकवि की लघु कृति प्रस्तुत कृति में एक गति वाला जीव
है। इसमे ५७ दोहा एवं चोपई छन्द है । अन्य किस किस गति में जा सकता है—
१ महावीर भवन, जयपुर के संग्रह में वेष्टन मं० १६६६ के गुटके में संग्रहीत |
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल व्यक्तित्व एवं कृतित्व
इसका वर्णन किया गया है। कवि ने अपने बर्य-विषय को निम्नप्रकार प्रस्तुत किया है -
पहली दंडक नारक तनौ, भवनपति दस दंडक भनौ । जौतिग बितर सुरग निवास. थावर पंच महादुखरास ।।७।। विकलत्रय अरु नर तिरजंच, पंचेंद्री धारक परपंच । एहे चौबीसी दंडक कहे, अब सुनि इनमैं भेद जु लहै ।।
'तीर्थकर' के माता-पिता मर कर किस गति में जाते हैं इसका कवि ने निम्न प्रकार वर्णन किया है
तीर्थंकर के पिता प्रसिद्ध, सुरग जाय के होहै सिद्ध । माता सुरग लोक ही जाइ, अाखरि सिवपुर वेग लहाय ।।
कवि ने पहिले सात नरकों में पंदा होने वाले जीवों का, फिर स्वर्गगति में जाने वाले देवों का, इसके पश्चात् पशु गति और फिर मनुष्य गति में उत्पन्न होने वाला जीव कम से कम किस गति में एवं अधिक से अधिक किस गति में (नरक, स्वर्ग एवं मोक्ष) जा सकता है-इसका वर्णन किया गया है
ए चौबीसौं दंडक का है, इनकु त्यागि परम पद लहे। . इनमैं रुलै सजग को जीब, इनते रहै तसु त्रिभूवन पीव ॥५२।।
कवि ने इस कृति के रचनाकाल का कोई उल्लेख नहीं किया है। केवल अन्न में अपना नामोल्लेख करके ही कृति को समाप्त कर दिया है--
अंतकरन जो सुधि होय, जिन धरमी अभिराम ।
थोरी बुद्धिप्रकास तें, भाषी दौलतराम ।। ८ सिद्ध पूजाष्टक :
यह कवि की पूजा विषयक कुक्ति है: जिसमें सिद्ध परमेष्ठियों की पुजा लिखी गयी है। इसमें १२ पद्य हैं। यह पुजाष्टक बिना प्रावानन के है तथा प्रारम्भ में मंगलाचरण के पश्चात् जल पढ़ाने का पद्य है, इसी तरह अन्त में प्रर्घ के पश्चात् जयमाला नहीं दी गयी है। अन्तिम दो पद्य
१. महावीर भवन, जयपुर के संग्रह में गुटका सं० १०८१ ३. सं.
१५५० में संग्रहीत ।
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प्रस्तावना
निम्न प्रकार है
अरघ करौ उछाह सौं, नौं आठौं अग निवाय ।
आनन्द दौलतराम कौ, प्रभु भी भौ होइ सहाय ।।११।। च्यार ग्यान घर नहि देख, हम देखें सरधावंत ।
जाने माने अनुभवै, तुम राधौ पास महंत ।। अर्धम् ।। ६ पुण्यात व कथाकोश :
कथानों के माध्यम से जन सामान्य में नैतिकता एवं सदाचार को प्रोत्साहन देना देश की प्राचीन परम्परा रही है। इस दृष्टि से लिखा हुआ कथा-साहित्य संस्कृत, प्राकृत अपभ्रश एवं हिन्दी प्रादि सभी भाषामों में मिलता है। जैनाचार्यों ने अपने कथा साहित्य में नैतिकता एवं सदाचार के प्रयास को सर्वाधिक प्रमुखता दी और देश की प्रायः सभी भाषामों मे विशाल कथा साहित्य का निर्माण किया । पुण्यात्रव कथाकोश, व्रतकथाकोश, पाराधना कथाकोश, कथाकोश प्रादि नामों से उन्होंने सैकड़ों कमाएं लिखी और बालकों, यूवकों एवं पाठकों में स्वाध्याय के प्रति गहरी रुचि पैदा की तथा बुराइयों से बचते हुये शिष्ट जीवन व्यतीत करसे की प्रेरणा दी।
___'पुण्यानव कथाकोश' को सर्व प्रथम मुमुक्षु गम चन्द ने संस्कृत भाषा में लिखा था। इसकी कथाएं जैन समाज में काफी लोकप्रिय है। कविवर दौलतराम ने इन्हीं कथानों को हिन्दी भाषा में निबद्ध करके हिन्दी भाषा भाषी पाठकों के लिए एक महान् अवसर उपस्थित किया । कथाकोश में ५६ कथाएं हैं । मुमुक्षु रामचन्द्र के कथाकोश की प्रशंसा कवि ने निम्न प्रकार है
पुण्यासव की कथा रसाल, पूजादिक अधिकार बिसाल । षट् अधिकार परम उतकिष्ट, छप्पन कथा मध्य है मिष्ट ।।१।। आदिपुराणदिक जे कह्या, अभिप्राय तसु याम लह्या । आचारिज जिम करि अभिलाष. लिखी कथा संस्कृत भाष ।।२।।
रामचन्द्र मुनि अति परवीन, कथा कोश पुण्यासव कीन । तिनकी कहा बड़ाई करौ, बंदन करि निज उर में धरी ॥१०॥
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
___ दौलतराम युवावस्था में पदार्पण करते ही किसी कार्य यश जब प्रागरा गये, तब उन्होंने वहां पुग्यास्रव कथा कोश सुना । सुनकर उन्हें अत्यधिक प्रानन्द माया पौर अत्यधिक रुचि के साथ उन्होंने इसकी भाषा टीका लिखी । काव्य-रचना में पांव रखने का उनका यह प्रघम अवसर था । इसलिए उन्होंने अत्यधिक ध्यान पूर्वक इसकी भाषा टीका लिखी और संवत् १७७७ भादवा सुदी पंचमी शुक्रवार के शुभ मुहत में उन्होंने इसे पूर्ण करके हिन्दी भाषा भाषी पाठकों को भेंट किया।
संवत् सत्रहसे विख्यात, ता परि धरि सत्तरि अरु सात । भादव मास कृष्णा पक्ष जांनि, तिथि पांचै परवो परवानि ।।२८।। रवि सुत को पहिलो दिन जोय, अर सुर गुरु के पीछे होय ।
वारैह गनि लीज्यो सही, ता दिन समापत लही 1॥२६ ।। रचना का प्रमुख कारण :
कवि के प्रागरा जाने पर उन्हें वहां संचालित अध्यात्म शैली में जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ। इस घोली के जिन प्रमुख सदस्यों के नाम दौलतराम ने गिनाये है ; उसमें सर्व प्रथम कविवर भूबरदास का उल्लेख पाता है, जिनके लिए लिखा गया है कि वे स्याहगंज में रहते थे तथा जो जिन स्मरण एवं पूजन में लगे रहते थे और अपने प्रशुभ कर्मों को नष्ट किया करते थे। ये कवि भूघरदास के ही है जिन्होने संवत् १७८६ में भागरा में 'पार्श्वपुराण' की रचना की थी और जिन्होंने अपने मागका "नागरे में बाल बुद्धि भूधर खण्डेलवाल" पंक्तियों से परिचय दिया था। इनके अतिरिक्त सदानन्द, अमरपाल, बिहारीलाल, फतेचन्द, चतुर्भुज आदि उस शैली के प्रमुख सदस्य थे, जो वहां पाकर परस्पर परचा किया करते थे ।
भूधरदास जिनधर्मी ठीक, रहै स्याहगंज में तहकीक । जिन सुमरिन पूजा परवीन, दिन प्रति करै असुभ को छीन ।।१५।। हेमराज साधर्मी भल, जिन बच मांनि असुभ दल मले । अध्यातम च चा निति करे, प्रभु के चरन सदा उर धरै ।।१६।। सदानन्द है प्रानन्द मई. जिन मत की प्राज्ञा तिह लही । अमरपाल भी यामै लिख्यो, परमागम को रस तिन चल्यो ।।१७।।
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प्रस्तावमा
लाल बिहारी हूँ गित सुनै, जिन आगम को नीकै मुने । फतेचंद है रोचक जीके, चरचा कर हरष धरि जीके ॥१८।। चत्रभुज साधरभी जोर, धुकी भकति जसु प्रभु की वोर । मिल आगरे कारन पाय, चरचा कर परस्पर प्राय ।।१६।।
दौलतराम को मुख्य प्रेरणा ऋषभदास से प्राप्त हुई थी और उनके उपदेशों से धर्म के प्रति श्रद्धा एवं साहित्य निर्माण के प्रति रूचि पैदा हुई थी।
रिषभदास उपदेस सौ, हमैं भई परतीति । मिथ्यातम को त्यागि के, लगी धर्म सौं प्रीति ।।२१।।
पुण्यात्रब कथाकोश में जिन कयासों का वर्णन है, जो सभी मुमुक्षु रामचन्द्र के पुण्यात्रव, कथा कोश के प्राधार पर है। सभी कथायों को सरस एवं रोचक शैली में लिखा गया है। कथानों की तालिका निम्न प्रकार है:
१. जिनपुजावतकथा, २. महारराक्षस विद्याधर कथा, ३. मेंढक की कथा, ४. भरत कथा, ५. रत्नशेखर चक्रवर्ती कथा, ६. करकण्टु कथा, ७. बदन्त चक्रवर्ती कथा, . श्रेणिक कथा, ६. पंच नमस्कार मंत्र कथा, १०. महाबली कथा, ११. भामण्डल कथा, १२. यनराजा की कथा, १३. सुकुमाल मुनि कथा, १४. भीम केवली कथा, १५. चाण्डाल कूकरी कथा, १६. सुकौशल मुनि कथा, १७, कुवेरू प्रियाष्ठी कथा. १६. मेघकुमार कथा, १६. सीता जी की कथा, २०, रानी प्रभावती कधा २१. राजा बनकरण कथा, २२. बाई नीली कथा, २३. चाण्डाल कथा, २४. नागकुमार कथा, २५. भविष्यवान का, २६. अशोक रोहिणी कथा, २७. नन्दिमित्र कथा, २८, जामवन्ती का, २६. ललितघण्टा कथा, ३०. अर्जुन' चाण्डाल कथा, ३१. दान कथा (महाराज श्रेगिक सम्बाची), ३२. जयकुमार सुलोचना कथा, ६३, बनजंघ कथा. ३४. युकेल श्रेष्ठी कथा, ३५ सागर चक्रवर्ती कथा, ३६. नलनील था ७. लवकुश कथा, ३८. दशरथ कथा, ३६. भामण्डल कथा, ४०. सुषीमा कथा, ४१. गंधारी कथा, ४३. गौरी कथा, ४३. पद्मावती कथा, ४४. धन्यकुमार कथा, ४५ प्रग नौला ब्राह्मण कथा, ४६. पाष केगरी कथा. ४७. अकलंक देव कथा, ४८ समन्तभद्र कथा, ४६. सतकुमार चक्रवर्ती कथा, ५०. संजय
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मुनि कथा, ५१. मधुपिंगल कथा, ५२. नागवत कथा, ५३. ब्राह्मण चक्रवर्ती कथा, ५४. अजन चोर कथा, ५५. अनन्तमती कथा, ५६, उदयन' कया, ५७. रेवती रानी कथा, ५८. सेठ सुदर्शन कथा, ५. वारिषेण मुनि कथा, ६०. विनार किया, ६२. अकुमार कथा, ६२. प्रीतिकर कथा, ६३. सत्यभामा पूर्व भव कथा, ६४. श्रीपाल चरित्र कथा, ६५, जम्बू स्वामी कथा ।
उक्त ५६ कथाओं के प्रतिरिक्त ६ लघु कथाए' प्रमुख कथानों में प्रा गगी हैं जिससे उनकी ख्या ६५ हो गयी है । इस प्रकार पुण्यात्रव कथाकोकथाओं का वास्तव में कोश ग्रन्थ है । जिनसे जीवन निर्माग को शिक्षा मिलती हैं । प्रत्येक कथा कहने का मुख्य उद्देश्य क्या नायक के जीवन का वर्णन करने के अतिरिक्त नैतिकता, सदाचार और अच्छे कार्यों को करने की परम्परा को जन्म देना है । साथ ही ये कथाए कर्म सिद्धान्त फा भी मुख्य रूप से प्रतिपादन करती है। जैसा हम करेंगे- उसी के अनुलार हमें परिणाम भुगतना पड़ेगा 1 इन सभी कथानों के नायक भारतीय संस्कृति के महापुरुष हैं और इन्हीं महापुरुषों की जीवन गाथा से ये कथाएं अधिक निखर पड़ी हैं। कुछ कथाए' ऐसी भी हैं, जिन पर कितने ही काव्य, चरित एवं रास लिखे गये हैं और उन्हीं को कवि ने संक्षिप्त रूप में इस कृति में प्रस्तुत किया है। ऐसी कथामों में-नागकुमार, भविष्यदत्त, श्रेणिक, जयकुमार सुलोचना, धन्यकुमार, प्रीतिकर, श्रीपाल एवं जम्बूस्वामी की कथाओं के नाम लिये जा सकते हैं । लोकप्रियता
पुण्यात्रव कथाकोश समस्त जैन समाज में अत्यधिक प्रिम कृति के रूप में समाहत है। ऐसा कोई शास्त्र भण्डार नहीं जिसमें इस कथाकोपा की दो चार प्रतियां नहीं मिलती हो। स्वाध्याय प्रेमियों के लिए। इस कथाकोश का स्वाध्याय श्रावश्यक माना जाता है । हिन्दी में इससे पूर्व इतकी बड़ी कृति किसी भी विवाद के द्वारा नहीं लिखी गयी थी। इसलिए देश के अहिन्दी भाषा भाषी प्रदेशों में भी इस कथाकोश का स्वाध्याय करने के लिए सैकड़ों हजारों व्यक्तियों ने हिन्दी सीखी । कवि को इस कृति का चारों मोर जोरदार स्वागत हुग्रा और देश के कोने-कोने में इसका स्वाध्याय' होने लगा। जयपुर के पाटोदी के मन्दिर के शास्त्र भण्डार में इसकी एक प्रति संवत् १७८८ मंगसिर बुदी १३ रविवार के दिन की लिखी हुई है । जिसकी प्रतिलिपि अहमदाबाद में हुई थी। इस पाण्डुलिपि से स्पष्ट है कि गुजरात में भी इसकी प्रतियां लिखी जाती थी और उनको अन्यत्र भेजा जाता था ।
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प्रस्तावना
भाषा:
कवि द्वारा पुण्यात्रव कथाकोश की रचना करीब २५० वर्ष पूर्व प्रागरा में की गयी थी। उस समय भागरा जिला बज भाषा का केन्द्र था लेकिन यहां खड़ी बोली का प्रचलन एवं लेखन भी प्रारम्भ हो गया था। इस कथा कोश की भाषा खड़ी बोली के अधिक निकट है। यहां इस कथाकोश में से चार उद्धरण प्रस्तुत किये गये हैं जिससे पाठकगण इस कृति की भाषा का अच्छी तरह पता लगा सकेंगे।
एक दिन राजा सिकार जायो । राह में प्राप्ताप नाम जोग धरयां जिसोधर मुनिराज देख्या । कोप करि राणी का गुर जाणि कुकरा छोड्या। व स्थान नमस्कार करि आय बंख्या । जब देखि मुनि का गला मैं मुवो सांप नास्यो तीही विरियां सातवां नरक की प्राय बांधी। चौधे दिन राति नै राखी ने कहीं। तब चेलना कही महा पाप कीयो । प्रातमां ने नरक में बोयो । या कहि महा दुःख कीयो । राजा कहीं राणी व काई दूरि करिवा सके न छ चेलणां कही महामुनि बौन करें। पर यो वे कर तो ये मुनि नहीं।
पत्र सं० २१ xxx नागकुमार जी पंचमी को उपवास लीयो। पर विघि पूछी सो साधक काहे छ। फागुण के महीने तथा प्राषाढ़ काती के महीनं सुदी ४ नै पवित्र होय पूजाकरि शास्त्र सुरिण। साधु नै विधिपूर्वक पाहार के पाचं माप एकाभुक्त कीजै। हामि भात पारिण ले सकल संसारी धन्धो छोडि धरम कथा करि दिन पूरो कीजै। रात्रि जागरण कीज्ये । प्रभु का चरणां चित लगा। पाछे उपवास के दिन च्यार प्रकार आहार कषाय को त्याग कर विषय स्यों पाइ सुख होय ।
पत्र सं. ६५
जबूद्वीप पूर्व विदेह पुष्कालयती देस । पुडरीकणी नगरी विर्ष राजा वसुपाल श्रीपाल । तिह नगरी बाहरी सर्वकर उद्यान विर्ष भीम केवली को समोसरण आयो । ते खचरवती सुभगा रतिसना सुसीमा ए चारि वितरी पाप केवली नै पूछती हुई । हे प्रभु म्हां को पति कोगा हवसी ।
पत्र सं०११८
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
"मालव देस उजेणी नगरी विषं राजा अपराजित राणी विजयां त्यांक विनयश्री नाम पुत्री हुई। हस्तिशीषपुर के राजा हरिषेण परणीं । एक दिन दंपति वरदत्त मुनि ने भाहारदान देता हूया । पाछ बहुत कालाइ राज्य कीयौ। एक रात सण्याग्रह विष विनयश्री पति सहित सूती थी। मगर का धूप का धूम करि राजा राणी मृत्यु प्राप्ति हुवा। मध्य भोगभूमि विषे उपज्या । तहां सौ विनयश्री को जीव चंद्रमा के देवी हई।" पत्र सं० १५७
इन उदाहरणों को पढ़ने से जात होगा कि कवि की भाषा कितनी निखरी हुई है। यद्यपि कवि के राजस्थान निवासी होने से इस पर बढारी भाषा का भी कुछ प्रभाव है तथा कहीं-कहीं बज भाषा के शब्दों का भी प्रयोग हुमा है लेकिन फिर भी कथाकोश को हम खड़ी बोली की ही कृति कहेंगे। इसमें विभिन्न नामों का पूर्णतः शुद्ध रूप में व्यवहार किया गया है। इनका तद्भव रूपान्तर नहीं किया गया है। ऐसे सभी शब्द तत्सम हैं-बद्धमान स्वामी, बारिषेण, चम्पापुरी, भरतक्षेत्र, रामदत्ता जम्बुद्वीप मान्यखेट, पात्रकेसरी, प्रकलंक, नि.कलंक । भाषा टीका में 'में" के स्थान पर विष" शब्द का प्रयोग हुआ है। ज्यांक (१३५) उतरया (१३४) देबालागौ (१३३) । लेकिन निम्न उदारणों से ज्ञात होगा कि कवि ने कथा कोपा को कितनी परिष्कृत भाषा में निबद्ध किया था ।
(क) "पीतकर जी स्त्री सहित नान में बैठा तब क्यों वस्तु भूलि आया आ। मो व कलेवा निमित्त नगर में पाया तब नागदत्त पापी जिहाज चलाय दीनी।"
.२०७
(ख) एक दिन रात्रिबंत सिद्धकूट चैताले बंदबानं मयो थो सो हरिचन्द मुनिकन धर्म श्रवण बारि दिगम्बर हुवो। सो एक दिन वन विर्ष गुफा में कायोत्सर्ग तिप्ट घो। दुर तप करि अत्यन्त स्वीस सरीर देख्यो ।। .
पृ० सं० १६० (ग) "यर सातसं प्रग रक्षक जो कोढ़ पीडित छा सो निरोग दया । अहो सिद्धचक्र की पूजा करिवा थकी अस्कृष्ट फल नै कल्पवृक्ष की वेलि की नाई ई भव में दे छ।"
पृ० सं० २१७
प्रभी तक 'पुण्यास्त्र कथाकोश का' भाषा की दृष्टि से अध्ययन नहीं हुया है जिसकी प्रत्यधिवा आवश्यकता है। हिन्दी गद्य साहित्य के इतिहास में इस कृति का पर्याप्त महत्व है। दि० जैन साहित्य में इससे पूर्व इतनी
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यहां तक यह ग्रन्थ
बड़ी भाषा टीका किसी विद्वान् द्वारा नहीं लिखी गई श्री । इसलिए कवि के इस प्रथम प्रयास का सब ओर से मर्मस्पर्शी स्वागत हुआ और देश के एक छोर से दूसरे छोर तक इसका स्वाध्याय होने लगा । गुजरात एवं महाराष्ट्र में भी कोकप्रिय बन गया । जयपुर के पाटोदी के मन्दिर के शास्त्र भण्डार में इसकी एक प्रति संवत् १७५० मंगसिर सुदी १३ रविवार के दिन की लिखी हुई है, जिसकी प्रतिलिपि ग्रहमदाबाद में हुई थी । इसलिए इस ग्रन्थ की भाषा ऐसी है जो तत्कालीन माज में यerfas लोकप्रिय रही।
प्रस्तावना
१० पद्म पुराण :
पुण्यातच कथा कोण की रचना के पश्चात् कवि की यह दूसरी विशाल कृति है; जिसने अपने युग में तुलसीदास की रामायण के समान समाज में जैन रामायण के रूप में सर्वाधिक लोकप्रियता प्राप्त की थी। इसका घर-घर एवं मन्दिर मन्दिर में स्वाध्याय होने लगा था और जिसकी लोकप्रियता ने उस समय के सभी रिकार्ड तोड़ दिये थे । जयपुर आने के पश्चात् कवि ने इसको रचना कब से प्रारम्भ की इसका तो इसमें कोई उल्लेख नहीं मिलता, लेकिन इसकी रचना समाप्ति काल सं. १८२३ है । उस समय महा पं० टोडरमल की गद्यात्मक कृतियों की रूपाति उच्च स्तर तक पहुंच चुकी थी तथा जनता की इच्छा भी पारमक कृति की अपेक्षा गद्यात्मक कृति को पधिक मनोयोग मे पढ़ने की थी । इसलिए दोलराम ने भी गधात्मक कृतियों की ओर विशेष ध्यान दिया ।
'पद्म पुराण' कवि को मूल कृति नहीं है । किन्तु १०-११वीं शताब्दी के महाकवि रविराचार्य की संस्कृत कृति का हिन्दी भाषानुवाद है । लेकिन कवि का लेखन शैली एवं भाषा पर पूर्ण अधिकार होने से यह मानों उसकी स्वयं की मूल रचना के समान लगती है । इसमें १२३ पर्व हैं जिनमें जैन धर्म के अनुसार " रामकथा" का विस्तार से वर्णन हुआ है । भगवान महावीर के समवसरण में जाने के पश्चात् राजा थेशिक राम कथा को सुनने की इच्छा करते हैं और तब भगवान महावीर रामकथा पर विशद व्याख्यान करते हैं । राम कथा के साथ में राक्षस बशी एवं बानर बशी विद्यावरों का, रावण का जन्म, अंजना सुन्दरी और पवनंजय का विवाह वर्मान हनुमान जन्म कथा, रावण को चक्क प्राप्ति एवं राज्याभिषेक और इसके पश्चात् रामकथा की पुनः वर्णन किया गया है । जिसमें राम-लक्ष्मण को ऋद्धि प्राप्त, राम को लोकापवाद की चिन्ता, सोता का जन में विलाप, सीता को लव-कुश की
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
प्राप्ति, एवं उनका लक्ष्मण के साथ युद्ध, सीता की अग्नि परीक्षा आदि विविध वर्णनों के पश्चात् राम निर्धारण प्राप्त करते हैं और इस प्रकार अत्यधिक सुन्दर ढंग से तथा भक्ति पूर्वक राम कथा की समाप्ति होती है । इस कथा के प्रारम्भ में कवि ने निम्न शब्दों में राम के जीवन की प्रशंसा की है
'कसे हैं श्रीराम, लक्ष्मी कर अलिगित है हृदय जिनका और प्रफुल्लित है मुख रूपा कम जिनका, महापुण्याधिकारी हैं, महाबुद्धिमान हैं गुणन के मन्दिर और उदार हैं चरित्र जिनका, केवल ज्ञान के ही गम्य है ।"
महाकवि दौलत राम ने "पद्म पुराण' को हिन्दी गद्य में सिल कर के स्वाध्याय प्रेमियों के लिए महान अवसर प्रदान किया। यही नहीं हिन्दी के पाठकों की गद्य में राम कथा देकर एक नवीन परम्परा को जन्म दिया। अब तक जितनी भी रामायण लिखी गयी थीं वे सब पच में ही थी । महाकवि विमल सूरि ने प्राकृत में, महाकवि स्वयंम् ने अपनश में, महाकवि बाल्मीकि ने संस्कृत में, रविषेरणाचार्य ने संस्कृत मे जो रामकथाए लिखी, वे सब पद्य में ही थी, लेकिन दौलतगम ने इसे गद्य में निबद्ध कर उसकी लोकप्रियता में वृद्धि की तथा उसे जैन समाज के घर-घर में पढ़ी जाने वाली कथा बना दी ।
“पद्म पुराण" की भाषा खड़ी बोली के रूप में है । यद्यपि कुछ विद्वानों ने इसे लूडारी भाषा के रूप में स्वीकार किया है लेकिन वास्तव में कषि ने अजभाषा प्रभावित खड़ी बोली के रूप में इसे प्रस्तुत किया है। जो प्रत्यधिक मनोरम एवं हृदयग्राही बन गई है। कहीं तो इसकी भाषा इतनी मालंकारिक बन पड़ी है, मानों वह हिन्दी की कादम्बरी हो । कवि ने इसे विभिन्न उपमानों से संवारा है।
"पद्म पुराण" की रचना में साधर्मी भाई रायमल्ल का अनुरोध विशेष रूप से उल्लेखनीय है ; जिसका स्वयं कवि ने निम्न प्रकार से उल्लेख किया है
रायमल साधर्मी एक, जाके घर में स्वपर विवेक । दयावंत गुणवंत सुजान, पर उपकारी परम निधान ।। दौलतराम सु ताको मिश्र, तासों भाष्यों वचन पवित्र । पद्मपुराण महाशुभ नथ, तामें लोक शिखर को पंथ ।। भाषा रूप होय जो येह, बहुजन बांच कर अति नेह । ताके वचन हिये में धार, भाषा कीनी मति अनुसार ।।
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प्रस्तावना
:
११. आदिपुराण
1
भरत तथा जैन सभाज
प्रत्येक श्रावक
महापुरुषों का
'श्रादि पुराण' संस्कृत में प्राचार्य जिनसेन की रचना है। काव्य, भाषा एवं वर्णन की दृष्टि से यह रचना संस्कृत भाषा की अनूठी कृति है इस में ४७ प हैं तथा प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव धौर उनके पुत्र सम्राट महायोगी बाहुबलि आदि कर जीवन विस्तृत रूप से श्ररित है । का यह एक प्रत्यधिक प्रिय ग्रम्य है, जिसका स्वाध्याय करना एवं श्राविक के लिए श्रावश्यक माना है। त्रेसठ शलाका जीवन जानने के लिए यह एक महत्वपूर्ण कृति है। ऐसे पुराण की भाषा टीका का कार्य महाकवि दौलतराम ने अपने हाथ में लेकर हिन्दी भाषा भाषियों के लिए महान उपकार का कार्य किया । कवि ने जब संस्कृत में रचित प्रादिपुराण की स्वाध्याय एवं प्रवचन किया तो सभी श्रोताओं ने विशेषतः दोवान रतनचन्द ने उनसे इस पुराण की भाषा टीका करने का अनुरोध किया। कुछ अन्य श्रोताओं एवं स्वाध्याय प्रेमियों ने भी इसके लिए आग्रह किया । उस राम अयपुरका प्रभाव था महाविद्वान टोडरमल का प्रभाव चरमोत्कर्ष पर था। इसलिए कवि को तत्कालीन स्वाध्याय प्रेमियों के आग्रह को मानना ही पड़ा और उन्होंने इसकी भाषा टीका प्रारम्भ करदी ! संवत् १०२३ में पद्मपुराण की रचना के ठीक ७ मास पश्चात् ही उन्होंने यह एक और विशाल गद्य कृति पूर्ण की।
प्रठारह से सम्वता ता ऊपर चौवीस |
कृष्ण पक्ष आसोज की पुष्य नक्षत्र वरीश । शुक्रवार एदादशी पूरण भयो ये ग्रंथ ||
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कवि
इस ग्रन्थ के निर्माण की प्रेरणा में पं० टोडरमल के दोनों पुत्र हरिचन्द एवं गुमानीराम तथा देवीदास गोधा का नाम विशेषतः उल्लेखनीय है । ने भाषा टीका के प्रारम्भ में अपनी जिस रूप में लघुता प्रगट की है । उल्लेखनीय है ।
यह
ला परिभाषा वचनका भाष' मैं मति मन्द | लेहु सुधारि सूपंडिता, ज्ञान रूप निर्द्वन्द || महिमा महापुराण की, मो पं कही न जाय । जानें श्री जिन केवली, तीन भुवन के राय । निज मति माफिक कछू मैं, भाष भाषा रूप । सुनहु भव्यजन भावघर, भजहु भजहु जिन रूप ||
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तिस्व एवं कृतित्व
पादि पुराण विशाल कान्य ग्रन्थ है लेकिन कषि ने भाषा टीका की एक ही शैली को अपनाया है। प्राचार्य जिनसेन के क्लिष्ट शब्दों का अर्थ जितने सरल, बोधगम्य शब्दों में किया है। वह कवि के संस्कृत एवं हिन्दी के भगाध ज्ञान का द्योतक है। पुराण की सरस शैली होने के कारण इसका गीन ही सारे देश में प्रचार हो गया और संकड़ों स्वाध्याय प्रेमियों ने इस ग्रन्थ के स्वाध्याय करने के लिए ही हिन्दी भाषा सीखी। १२ पुरुषार्थ सिद्धयुपाय :
यह प्राचार्य अमृतचन्द्र की कृति है जो संस्कृत भाषा में निषच है । यह ग्रन्थ लघुकाय होने पर भी मागर में सागर का कार्य करता है। प्राचार्य अमृतचन्द्र ने इसमें जैन धर्म की ताविक गम्भीरता का वर्णन किया है । जो उनके महापाण्डित्य का दिग्दर्शन कराता है । इसकी हिन्दी टीका जयपुर के ही महापण्डित उरमल ने प्रारम्भ की भी, जो महाकाय बोलतराम के समकालीन विद्वान थे । लेकिन उनका भसमय में ही स्वर्गवास होने के कारण वे इसे पूरी नहीं कर पाये । तब तत्कालीन जयपुर समाज के प्रमुख दीवान रतनचन्द्र ने दौलतराम से उसे पूर्ण करने का अनुरोध किया। दौलतराम ने संवत १८२५ में मंगसिर सुदी २ के पावन दिन इस ग्रन्थ की भाषा टीका पूर्ण की
तांसु रतन दीवान ने, कही प्रीत कर एह करिये टीका पूरण; उरघर धर्म सनेह । तब टीका पुरण करी, भाषा रूप निधान । कुशल होय चहु संघ को, लहे जीव निज ज्ञान । . सुखी होय राजा प्रजा, होय धर्म की वृद्धि । मिट दोष दुख जगत के, पावे भविजन सिद्धि । अट्ठारहस ऊपरे संवत सत्ताईस मास मार्गशिर ऋतु शिशिर दोयज रजनीश ।।
इसके पहले कवि ने F टोडरमल्ल के नाम का उल्लेख किया है। जिन्होंने उक्त टीका का प्रारम्भ किया था और उसका कितना भाग शेष रह गया था, इसका भी उल्लेख किया हैअमृतचन्द्र मूनीन्द्रकृत प्रय श्रावकाचार,
अध्यात्म रूपी महा प्रार्या छन्द जु सार । पुरुषारथ की सिद्धि को जामै परम उपाय । जाहि सुनत भव भ्रम मिटे, प्रातम तत्व लखाय ।
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प्रस्तावना
भाषा टीका ता ऊपर कीनी टोडरमल्ल मुनिवर कृत बाकी रही ताके माहि अचहल । ये तो परभव कू गये जर मार मार . सब साधर्मी तव कियो मन मैं यह विचार ।
सम्पूर्ण ग्रन्थ में २२८ श्लोक हैं। इनमें अहिसा धर्म पर विशेष जोर दया है। इसके अतिरिक्त पंच प्रणुवत, तीन गुणवत तथा चार शिक्षाव्रत के वर्णन के अतिरिक्त रात्रि भोजन का जबरदस्त निषेध किया गया है ।
महाकवि दौलतराम ने ग्रन्थ के उत्तर भाग की भाषा टीका लिखी ! तथा अत्यधिक सरल शब्दों में उसे प्रस्तुत किया।
"विवेकी पुरुष जो है जो गृहस्थ अवस्था में भी संसार से विरक्त होकर सदा ही मोक्ष मार्ग में उद्यमी रहते हैं और वे ही अवसर पाकर शीघ्र ही मुनि पद को धारण करके सकल परिग्रह को त्याग कर निर्विकल्प ध्यान में प्रारूढ़ होकर पूर्ण रत्नत्रय को मानकर संसार के भ्रमण का उच्छेद कर मीन ही मोक्ष की प्राप्ति करते हैं"
महापष्ठित टोडरमल की भाषा ब्रज भाषा को लिए हुए हैं, प्रब कि दौलतराम की भाषा व ही बोली का रूप लिए हुए है। संस्कृत के दुरूह गम्दों को भी उन्होंने सरल हिन्दी शब्दों में समझा दिया है। कवि ने पहिले श्लोकों की टीका, विषय का स्पष्टीकरण के लिए अर्थ तथा फिर भावार्थ दिया है । १३. हरिवंश पुराण :
हरिबंश पुराण ‘पद्मपुराण' की राम कथा के समान ही कृष्णा कथा है; जिसमें २२खें तीर्थकर नेमिनाथ के जीवन-चरित के वर्णन के प्रसंग में पूरे महाभारत के पात्रों के जीवन का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है । जैनाचार्यो द्वारा पद्मपुराण के समान अपभ्रश में स्वयंभू का रिडणेमिचरिठ तथा संस्कृत में जिनसेनाचार्य का 'हरिवंश पुराण' इस विषय की प्रमुख रचनाएं है। दौलतराम ने ऐसे विशाल पुराण को हिन्दी गद्य टीका करके हिन्दी की लोकप्रियता में श्रीवृद्धि का एक प्रौर प्रयास किया और उसमें वह पूर्णत: सफल भी रहा । 'हरिबंश पुराण' का स्वाध्याय घर-घर होने लगा और हिन्दी क्षेत्रों में भी उसके स्वाध्याय का प्रचार हो गया। राजस्थान के कितने ही भण्डारों में हरिवंश पुराण की एक से अधिक प्रतियां उपलब्ध होती है जो उनके स्वाध्याय के प्रचार को धोतित करती है।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल -व्यक्तित्व एवं कृतित्व
इस कृति का रचनाकाल संवत् १८२६ चैत्र सुदी पूर्णिमा है । इसकी रचना जयपुर नगर में सम्पन्न हुई थी। यह कवि की पत्तिम कृति है। इसकी रचना की घटना भी बड़ी विचित्र हैं । कवि के परम मित्र भाई रायमल्ल जब मालवा गये, तब उन्होंने वहां को समाज को उनके द्वारा रचित श्रादिपुराण एवं पद्मपुरा की भाषा - टीका को पढ़कर सुनायी । एक तो भाई रायमल्ल की प्रवचन शैली, दूसरी इन कृतियों की सरसता — दोनों ने यहां के श्रावकगणों को श्रानन्दित कर दिया। उन्होंने इसे बार-बार सुनने की इच्छा प्रकट की । इसका फल हुआ कि इन दोनों ग्रन्थों का मालवा में बराबर स्वाध्याय होने लगा | पर श्रावकों की प्यास और भी जागृत हुई। उन्होंने भाई रायमल्ल से पद्मपुराण के समान हरिवंश पुराण की भी भाषा टीका लिखवाने की प्रार्थना की क्योंकि वे श्रावक दौलतराम की विद्वत्ता से परिचित हो चुके थे। भाई रायमल्ल को उनकी बात माननी पड़ी। उन्होंने वहीं से दौलतराम को पत्र लिखा कि हरिवंश पुराण की भी ऐसी भाषा टीका लिखो, जो सब को अच्छी लगे । पत्र लेकर पाने वाले साधर्मी भाईयों ने भी महाकवि से भाषा - टीका करने का अनुरोध किया और शोल ही इस महान कार्य को पूरा करने की प्रार्थना की; क्योंकि शरीर का पता नहीं कि वह कब धोखा दे जाये। वैसे भी दौलतराम उस समय काफ़ी वृद्ध हो चुके थे जयपुर के तत्कालीन दीवान रतनचन्द और उनके भाई बिरधीचन्द ने भी पंडितजी से आग्रह किया । फिर क्या उन्होंने दो शीघ्रलिपि लेखक सीताराम
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था - महाकवि इस कार्य में जुट गये। एवं सवाईराम को अपने साथ लिया और शीघ्र ही संवत् १८२६ की चैत्र शुक्ला पूर्णिमा के शुभ दिन इस महान ग्रन्थ की भाषा को पूर्ण कर दिया इस ग्रन्थ के समापन के साथ ही मानों कविकी साहित्य साधना सफल हो गयी । यह उनके जीवन की अन्तिम कृति थी। इसे प्राप्त कर समूचा साहित्यिक जगत निहाल हो गया । १६ हजार श्लोक प्रमाण गद्य कृति लिखना कितनी साधारण साहित्यिक उपलब्धियो ! इसका अनुमान भी करना प्रासान कार्य नहीं है ।
भयो कौन विधि ग्रन्थ यह भाषा रूप विशाल । सो तुम सुनहु महामती, जिन प्राज्ञा प्रतिपाल || १ || जम्बूद्वीप मंभार यह, भरतक्षेत्र शुभ थान । ताके प्रारिज खंड में, मध्य देश परवान ॥२॥
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प्रस्तावना
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अस्तुत: हरिवंश पुराण हिन्दी भाषा की महान निधि है । कवि ने जिस तरह पालंकारिक भाषा में कथा का वर्णन किया है, वह प्राज से २०० वर्ष पूर्व किसी विज्ञान के सामर्थ्य के बाहर था। पद्य कार तो बहुत थे; पर मद्य में और वह भी ललित भाषा में कथा का वर्णन प्रत्येक के वश की बात नहीं थी। नगर सवाई जयसुरा, जहां से बहु या 1 राजा पृथिवीसिंह है, जो कछुवाहा जाति ।।३।। शिरोभाग राजन में, टूडाहड पति सोय । ताके मंत्री श्रावका, और न्यातहु होय ।।४।। बहुत बसें जनी जहा. जीव दया व्रत पाल । पूजा करे जिनेंद्र की, पागम सुने रसाल |५|| बहुत जीव श्रद्धावती, चरचा मांहि सुजान । ग्रन्थ अध्यातम पागमा, सुने बहुत धर कान ।।६।। संस्कृत भाषामई, भये जु प्रादि पुराण । पद्मपुराणादिक बहुरि , भाषा भये निधान ।।७।। रायमल्ल के रुचि बहुत, ब्रत क्रिया परवीन । गये देश मालव विष, जिन शासन लवलीन ।।८।। तहां सुनाये ग्रन्थ उन, भाषा आदिपुराण । पद्मपुराणादिक तथा, तिन को कियो बखान ।।६।। सव भाई राजी भये, सुनकर भाषा रूप। तिनके रुचि अति ही बढी, धारी कथा अनूा ।।१।। रायमल्ल से सवन ने, करी प्रार्थना येह । करवायो हरिवंश की, भाषा बहु गुण गेह ११ आगे दौलतराम ने, टीका भाषा मांहि । करी सो ही यह अब करे, यामें संशय नाहि ।।१२।। तब भेजी पत्री यहां, रायमल्ल धर भाव । लिखो जु साधर्मीन को, करण धर्म प्रभाव ।।१३।।
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महाकवि दौलतराम कासनीया: -०.क्तित्व पता
तथा जु दौलतराम को, मल्ल लिखी वह बात । कर हु भाषा हरिवंश की, सबके चित्त सुहात ॥१४।। सब सामिन मिले जब, श्री चैत्याल्य माहि । भाषी दौलतराम से, जिन श्रु तसे प्रध जाहि ।।१५।। जिनवानी रस अमृता, जा सम सुधा न और 1 जाकर भव भरमण मिटे, पावे निश्चल ठोर ।।१६।। यामैं विलम्ब न कीजिये, करो शीघ्न ही येह । सफल होहि जाकर सही, उत्तम मिनखा देह ।।१७।। रत्नचंद दीवान एक, भूपत के परधान । तिन के भाई शुभ मती, विधीचंद परवान ।।१८।। सो दौलत के मित्र अति, भये जु उद्यम रूप । तिन के आग्रहते यह टीका भई अनूप ।। १६॥ दौलत ने अति भाव घर, भाषा कीनी ग्रन्थ । महा शान्त रस को भरो, सुगम मुक्ति को पंथ ।।२०।। सीताराम जो लेखका, और सवाईराम । तिन पर लिखवायो जु यह, बहुत कथा को धाम ।।२१।। ताकर सुधरे भव यह, अरु पाये शुभ लोक । होये अति प्रानन्द अरु, कबहु न उपजे शोक ॥२२॥ सुखी होह राजा प्रजा, होहु सकल दुःख दूर । बहो धर्म जिनदेव को, जाहि बखाने सूर ॥२३।। न्याति खंडेल जु वाल है, गोत्र कासलीवाल । सुत है आनन्द राम को, बसवे वास विशाल ॥२४॥ सेवक नरपति को सही नामसु दौलतराम । ताने यह भाषा करी, जपकर जिनवर नाम ।।२५॥ अट्ठारह सौ संवता, तापर घर गुरगतीस । बार शुक्र पून्यो तिथी, चैत मास रति ईस ॥२६॥
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प्रस्तावना
पुराण के कितने हो प्रसंग है जिनमें महाकवि ने अपनी सारी लेखनी को उडेल कर रख दिया है। वर्शन शैली सरस एवं श्राकर्षक है । कवि ने प्रारम्भ में ग्रन्थ की उत्पत्ति तथा उसके पश्चात प्रनुक्रमणिका दी है जो हरिवंश पुराण का संक्षिप्त सार है। मात्र इस सार को ही पढ़कर कोई भी इस महान् कृति के विषय वर्णन से परिचित हो सकता है। अन्त में स्वयं महrefa ने भी " यह हरिवंश पुराण का विभाग संक्षेप कर रहा है ।" लिख कर अपने प्रतिपादित ग्रन्थ के विषय में जानकारी दे दी है। यहाँ एक गद्यांश प्रस्तुत किया जा रहा है जिससे हरिवंश पुराण की गद्य शैली का अनुमान हो सकेगा—
भावार्थ::- माता ही स्वामिनी है पर निद्रा ही सभी है सो इस निद्रा सखी ने ऐसी जानी जो मोह कर मेरी स्वामिनी श्रानन्द रूप शुभ स्वप्न के दर्शन को प्राप्त भई मो मैं कृतार्थ भई सेवक का यही धर्म है जो स्वामी को आनन्द उपजावे इसी कर सेवक को कृतायंता है ||७६ || माता तो आप हो जातरूप है परन्तु दिक्कुमारी जगाने के अर्थ माता को ऐसे शुभ शब्द कहती भई सो वे शब्द केवल मंगल हो के अर्थ है। भर माता तो जाग्रतरूप है देवी कहा शब्द कहे सो सुनो। हे विधार्थं कहिये माता ? तू कैसी है जाना है पदार्थों का रहस्य जिसने सो तू विबुध्यास्व कहिये जाग हे विवर्धने ! कहिये वृद्धि रूपिणी थम तू सबको यानन्द बढा | पर हे देवी! विजय लक्ष्मी की स्वामिनी देवी पूर्ण है मनोरथ जिसके सो तू विजय के भाव को प्राप्त हो ||१७|| हे माता ! अब यह चन्द्रमा तुम्हारे मुखरूप चन्द्र को देख कर लज्जावत होय प्रभा रहित होय गया है तुम्हारा मुख निष्कलंक मर गुण कर कहिये गुणों की खान पर चन्द्रमा दोषी कहिये रात्रि उसका करण हारा है उससे दोषकर र कलंकी है ||७६॥ अर दीपों की ज्योति मंद मासे है सो मानों ये दीपक अपने प्रकाश को हंसे हैं जो यह जिनेन् के माता पिता का गृह नखों के उद्योत समान चांद सूर्य का प्रकाश नही यहां हम प्रकाश करें इस
ता दिन यह पूरण भया, श्री हरिवंश पुराण | पढो सुनो अरु सरहो, पंडित करो बखान ॥२७॥ श्री हरिवंश पुराण की भाषा सुनह सुजान । सकल ग्रन्थ संख्या भई, उन्नीस सहस प्रमाण ||२५||
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दो हजार रु चार सौ ता ऊपर पंचास ।
संवत वीर जिनेशका कियो ग्रन्थ परकास ॥२६॥
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महाकवि दौलत राम कासलीलाप्ल–ब्यक्तित्त एवं कृतित्व
समान मूढता कहां ।।१०।। अब संध्या दुष्ट की मित्रता समान निष्फल' डिगती भासे है वंसी है दुष्ट की मित्रता अत्यन्त सुख विष है राग जिसका अर क्षण मात्र में राग मिट जाय है पर यह सांझ भी प्रथम तो राग कहिये प्रारक्तरूप भासे है। अर क्षरण मात्र में प्रारक्तता मिट जाय है ।। भावार्थ-- अन संध्या की भी ललाई मिटे है ।।८१|| अब सूर्य की प्रभा सज्जन को मित्रता समान बड़े है कैसी है मित्रता अबष्य कहिये सफल है अर्थ जिस विष पर कैसी है सूर्य की प्रभा सफल है सकल कार्य जिस विषे ।।२।।
१४ परमात्म प्रकाश भाषा
"परमात्म प्रकाश" भाचार्य योगीन्दु की (६-७वीं शती) कृति है जिसकी रचना का प्रमुख उद्देश्य प्रभाकर भट्ट के उद्योधन के लिए रहा था । मर भ्रंश भाषा में निबद्ध यह ग्रंय अध्यात्म विषय का प्रमुख ग्रन्थ माना जाता है। यह दोहा छन्द में लिया गया है, जिसकी संख्या ३४५ है । इसके दो अधिकार है; जिनमें बहिरात्मा, अन्तरात्मा एवं परमात्मा के स्वरूप का वर्णन किया गया है । यह जैन साहित्य की एक लोकप्रिय कृति रही है।
___ महाकवि दौलत राम कासलीवाल ने इस पर हिन्दी में विस्तृत टीका लिखी; जो ६८६० श्लोक प्रमाण है; जैसा कि स्वयं कवि ने निम्न प्रकार उल्लेख किया है
'यह परमात्म प्रकाश ग्रन्थ का व्याख्यान प्रभाकर भट्ट के संबोधने प्रथि श्रो योगिन्द्र देव ने कीया था ता परि श्री ब्रह्मदेव ने संस्कृत टीका करी । श्री योगीन्द्राचार्य नै प्रभाकर भट्ट संबोधिवे के अथि दोहा तीनस तीयालीस कोए ता परि ब्रह्मवेय ने संस्कृत टीका हजार पांच च्यारि ५००४ कोए ता परि दौलतराम ने भाषा वनिका का श्लोक अहसठिसंनिवे ६८६० संख्या प्रमाण कीए । श्री योगीन्द्राचार्य कृत मूल दोहा ब्रह्मदेवकृत संस्कृत टीका दौलतिराम कृत भाषा वनिका पूर्ण भई ।।
कवि ने अपनी भाषा टीका में विषय का प्रतिपादन अत्यधिक बुद्धिमत्ता पूर्ण किया हैं। जिससे प्रत्येक स्वाध्याय प्रेमी के वह समझ में पा सके । कवि ने इसकी भाषा कब लिखी इसका इसमें कोई उस्लेख नहीं किया किन्तु इस कृति को भी कवि ने उदयपुर रहते हुए ही लिखी थी ऐसा मालूम होता है । क्योंकि जयपुर पाने के वे तो उन्होंने प्रादिपुराण पद्मपुराण एवं हरिवंश पुराण जसे विशालकाय ग्रन्थों की रचना करने में संलग्न हो गये थे ।
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प्रस्तावना
'पना मकाया' नी त है तथा तलाहोर प्रचलित हिन्दी गद्य का सुन्दर रूप है। १५ तत्वार्थ सूत्र सध्या टीका
'तत्वार्थ सूत्र' जैन सिद्धान्तों को प्रतिपादित करने वाला सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रंथ है । यह मूत्र रूप में है और प्राचार्य उमास्वामी विरचित है। इसका रचनाकाल दूसरी-तीसरी शताब्दी माना जाता है । यह अन्य दोनों ही सम्प्रदायों में समान रूप से समावृत हैं । इस पर सस्कृत में किटनी ही टीकाए उपलब्ध है और उनमें पूज्यपाद की सवार्थसिद्धि (छठी शती) मकलकदेव का तत्वार्थराजवातिक (७७७-८३७) एवं विद्यानन्द की श्लोकवात्तिक टीकाए' (सं० २१०) सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय हैं। हिन्दी मे भी कितनी ही टीकाए मिलती है।
कविवर दौलतराम ने इस पर टवा टोका लिख कर इसके स्वाध्याय के प्रचार में अपना योगदान दिया । कवि ने प्रध्यायों के अन्त में "इति तत्वार्थाविगमे मोक्षशास्त्र ए दशमी प्रध्याय अर्थ सहित पूरी हुवी और अन्त में इति उमास्वामि मुनि विरचितं तत्वार्थ सूत्र टन्न! सहित समाप्ति"-इस प्रकार अपनी टीका का परिचय दिया है। प्रथं सूत्रों पर दिया गया है तथा कहीं-२ तो पर्याप्त रूप से विस्तृत बन गया है । इसकी एक पाण्डुलिपि श्री दि० जैन मन्दिर पाण्डे सूमाकरण जी, जयपुर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है। प्रथ की ब्बा टीका का एक उदाहरण देखिये
'अपना पर का उपकार के अधि अपना चित का देना सो दान है । तहां अपना पर का उपकार सो अनुग्रह कहिए सो अपना उपकार तो पुण्य का संचय होना हे और पर का उपकार सम्यग्दर्शन, ज्ञान-चारित्र की वृद्धि होना है. सो इन अर्थनितें स्व कहिला धन ताका अतिसर्ग कहिए त्याग सो दान है।" १६ स्वामी कातिकेयानप्रक्षा टल्या टीका'
यह प्राकृत भाषा का अपूर्व प्राथ है जिसमें बारह अनुप्रेक्षानों का विस्तृत वर्णन किया गया है। दौलतराम ने इसी की हिन्दी में टम्या टीका लिखकर इसके स्वाध्याय के प्रचार को प्रोत्साहन दिया । कवि ने इसकी प्रशस्ति में लिया है कि कार्तिकेयानुप्रेक्षा को टव्वा दोका इन्द्रजीत के बोध कसन को लिए संव १८२६ की ज्येष्ठ कृष्णा द्वादशी के दिन पूर्ण की यो
१. देखिये अनेकान्त,
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महाकवि दौलतराम कासनीयक्तित्दै एक भूमि
सुखी होहु राजा प्रजा, सुखी होई चौसंग । पावहु शिवपुर सज्जना, सो पद सदा अलंध । इन्द्रजीत के कारने, टवाजु बालाबोध ।
भाष्यो दौलतराम ने, जाकर होय प्रबोध ।। १७ वसुनन्दि धावकाचार भाषा
प्राचार्य वसुनन्दि का श्रावकाचार प्राकृत भाषा का सुन्दर एवं महत्वपूर्ण नथ है । इसमें प्राषकों के प्राचार धर्म का वर्णन किया गया है । महाकवि दौलतराम जब उदयपुर में थे, तभी उन्होंने अपनी शास्त्र सभा में इस श्रावकाचार पर प्रवचन किया था । अथ प्राकृत में होने के कारण कवि के द्वारा समझाने पर एक बार तो समझ में प्रागया; लेकिन पुन: उसका स्वाध्यान कैसे किया जाने यह प्रश्न सभी के समक्ष प्राया । अन्त में शास्त्र सभा के प्रमुख श्राताओं में सेठ वेलजी ने दौलतराम से निवेदन किया कि यदि इस ग्रंथ की रचा टीका हो जाये तो इसका स्वाध्याय करने में सभी को सुविधा होगी । वेलजी सेठ का अनुरोध सुनकर कवि इसकी टच्या टीका करने को सहमत हो गये और उन्होंने शोघ्र ही अपने कार्य को समाप्त कर दिया ।
अब तुम सुनहु भव्य इक न, जा विधि टवा भयो सुख दैन उदियापुर में कियो बखान, दौलतिराम आनन्द सुत जान । बाच्यो श्रावक यत विचार, बसुनन्दी गाथा अधिकार । बोले सेठ वेलजी नाम, सुनि नृप मंत्री दौलनिराम । टन्या होय जो गाथा तनो, पुन्य उपजै जिसको घनी । सुनि के दौलति वेल सु वैन, मन धरि गायो मारग जैन । नंदी बिरधी जिन मत सार, सुख पावो चउसंध अपार । दौलति वेल कहो निज बोध, होहु होहु सबको प्रतिबोध ।
टीका काफी विस्तृत हैं तथा भाषा एवं शस्त्री की दृष्टि से वह काफी अच्छी है। १८ सार चौबीसी
ग्रह कवि को पनात्मक प्राध्यात्मिक कृति है जिसमें मानव जीवन का, जगत की गतिविधियों का, यात्म स्वभाव का एवं धामिक जीवन की श्रेष्टता का वर्णन किया गया है। इसी के साथ एक रूपात्मक कथा का भी वर्णन मिलता है । एक बार जीवात्मा ने भवसागर से पार उतरने का उपाय अपने
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प्रस्तावना
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सद्गुरु ने पूछा । इसके उत्तर में इन्होंने बतलायो कि मोह की सुता मायानारी भव जाल से निकलने में सबसे बड़ी बाधा है। इसलिये अपने हृदय से मोह पर विजय प्राप्त करो । कुमित्रों की प्राज्ञा को मत मानो और ज्ञान को अपना प्रधानमंत्री बनायो : सुदिकाही स्पो सुला करो। विवेक को पुरोहित पौर अपनी प्रात्मशक्ति को ही सेनापति रखो। भगवद् भक्ति के सहारे मोह पर विजय प्राप्त करे सभी जाकर इस भव से मुनि मिल सकती है । इसके पश्चात् इस जगत में कौन कौन से पदार्थ सर्वोत्तम हैं उनका भी इसमें वर्णन मिलता है।
धेनु नहीं सुर धेनु सी, रस अमृत सो नाहि उदधि न क्षीरोदनि जिसे, पंडित लोक कहाहि ।।८७॥ ऐरावत से गज नहीं, सुरपुर से पुर नाहि ।
वन नहीं सुरवन सारिखो, क्रीडा रूप लखाहि ।। ७८ वे पद्य मे १०३ पद्यों तक इसी प्रकार का वर्णन मिलता है। पूरी रचना १.४ पद्यों में समाप्त होती है । इसमें रचना काल नहीं दिया हुवा है किन्तु अन्तिम पद्य में अपने नामोल्लेख के साथ ही रचना समाप्त करदी गयी है।
सार समुच्च यह कह्यो, गुर आज्ञा परवान ।
पानंद सुत दोलति में, भजि करि श्रीभगवान ||१०४।। इस पंथ की एक प्रतिलिपि जयपुर के बर्धाचन्द जी मन्दिर के शास्त्र भण्डार में १०८२ संख्या वाले एक गुटके में संग्रहीत है। कवि की विचारधारा
___ महाकवि दौलतराम साहित्य की किसी एक धारा मे नहीं बहे ! पौर न वे किसी परम्परा से ही बचे रहे ! उन्होंने अपना जीवन कथाकोप लिखने से प्रारम्भ किया और अन्त हरिवंश पुराण से किया ! ५२ वर्ष के लम्बे साहित्यिक जीवन में कितने ही उतार चढ़ाव नाय लेकिन उनकी साहित्यिक घारा अजस्र बहती रही। वे रीति कालीन कवि थे ! मुगल बादशाहों एवं राजा महाराजामों की शान शौकत का युग था ! भामेर के दरवारी कवि बिहारी की सतसई ने तत्कालीन जनता पर जादू जैसा कार्य किया या ! चारों योर मस्ती थी ! रंगीन एवं शृगार रस से प्रोत प्रोत कविताए थी और उनमें डूबा हुआ था सारा हिन्दी समाज ! लेकिन दौलतराम राज दरबार में रहते हुए हुए भी इस भरिणक मस्ती से दूर थे! वे जानते थे कि यह जीवन निर्माण का मार्ग नहीं है ! सरागता जीवन की सच्चाई तक नहीं पहुँचने देती
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल - व्यक्तित्व एवं कृतित्व
जबकि वीलगगता उसके अन्तिम छोर तक पहुंचने में सहायक होती है ! इसलिए कवि ने "पुण्यासव कथाकोष” की रचना करके पाठकों को अध्ययन का एक नवीन भागं बतलाया | ये सब ऐसी कथाएं है जिनमें जीवन निर्माण का मार्ग मिलता है ! सरसता एवं धारा प्रवाहिकता में ये कथाएं किसी से कम नहीं ! भाव, भाषा एवं शैली सभी दृष्टियों से उत्तम 1 आगरा की गलियों में अध्यात्म संलियों में तथा मन्दिर एवं स्वाध्याय शालाओं में इन कथाओंों को पढ़ा जाने लगा और इस एक ही कृति में दौलतराम लोकप्रियता के शिखर पर जा बैठे।
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उदयपुर में जब वे पहुँचे तो वहाँ भी राजाशाही थी । कामिनी एवं सुरा का दौर दौरा था ! और कवि को इन राजदरबारों में भी उपस्थित रहना पड़ता था ! जयपुर महाराजकुमार के संरक्षक जो ठहरे ! लेकिन यहाँ भी कवि ने अपने आपको कमल के समान निलिप्त रखा ?
उदयपुर जाने के पश्चात् उनका साहित्यिक जीवन निखर गया। आगरा में उन्हें वहाँ की अध्यात्मक शैली में रहने का अवसर मिला और भूधरदास जैसे महाकवि से साहित्यिक विचार विमर्श करने का सौभाग्य मिला। आगरा से पुनः जयपुर याने के पश्चात् भट्टारकों एवं तत्कालीन विद्वानों के विचारों को जानने एवं समझने का समय प्रश्प्त हुआ। और जब उदयपुर पहुँचे तो उन्हें एकान्त में अपने विचारों का मन्थन करने का खूब समय मिला । यहाँ आगरा एवं जयपुर जैसा न तो साहित्यिक वातावरण था श्रीर न सामाजिक संगठन हो । यहाँ उन्होंने अपने योग्य वस्तावरणा का स्वयं को निर्माण करना पड़ा । एवं शास्त्र प्रवचन के माध्यम से अपने विचारों को प्रसारित करने का सुन्दर अवसर भी मिला। इसलिये उदयपुर जाने के पश्चात् उन्होंने रामाज को सर्वप्रथम "क्रिय | कोश" दिया। इसके आधार पर हम कवि को विचारधारा का अच्छी तरह अध्ययन कर सकते हैं । कवि ने इसमें गृहस्थों के लिए श्रावश्यक त्रेपन क्रियाओं का जिस सुन्दरता एवं विशदता से दर्शन किया। हैं वह कवि के विचारों का द्योतक है। उसने सभी क्रियाओं को जीवन विकास के लिये श्रावश्यक माना है और उनके पालन करने के महत्त्व पर प्रकाश डाला है । आरम्भ में उसने इन कार्यों का नामोल्लेख किया है जिनके सम्पादन से मानव जीवन सामान्यतया प्रशस्त बनता है तथा जिन्हें हम आवक मात्र के लक्षण
कह सकते हैं । ऐसे शुभ कार्यों के नाम निम्न प्रकार हैं
मोक्ष मारगी मुनिवरा, जिनकी सेव करेय ।
सो श्रावक धनि धन्य है जिन मारग चित देय || ६० ||
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प्रस्तावना
जिन मंदिर जो शुभ रचं, अरचे जिनवर देव । जिन पूजा नित प्रति करै, धरै साधु को सेव ॥६१।। करै प्रतिष्ठा परम जो, जान्या कर सुजान । जिन सासन के ग्रन्थ शुभ, लिखवाब मतिवान ।। ६३।। चङ विधि संच ती सदा, सेना वारं यो पर उपगारी सर्व को, पीडा हरै जु वीर ।। ६३।।
उक्त पंनियाँ धावक के लिए प्रशस्त मार्ग को निर्देशित करने वाली है । इमसे यह स्पष्ट है कि वे इन सभी क्रियाओं के पालन करने के पक्ष में थे जिन्हें पूर्वाचायों ने प्रतिपादित की थी। उनकी दृष्टि से जीवन निर्माण के लिये माचार की प्रधानता है चारित्र की विशेषता है। और श्रेपन क्रियाओं के सम्बन्ध में उन्होंने इसी दृष्टि से विस्तृत प्रकाश डाला है। कवि ने अपनी इस कृति के माध्यम स उदयपुर के सामाजिक वातावरण को स्वच्छ बनाया और श्रावकों को इन कियानों को जीवन में उतारने पर विशेष जोर दिया। कवि इससे पुरातन पंथी नहीं बना किन्तु उसने जीवन में चारित्र की. संयम की, अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं परिग्रहपरिमाण प्रादि व्रतों की पुनः प्रतिष्ठापना की। षट् कर्मों के परिपालन को जीवन का आवश्यक अंग चतलामा तथा मद्य मांस एवं मधु को मानव मात्र के लिये त्याज्य बतलाया। कवि के इन विचारों से समाज में नव चेतना का सचार हुअा। इसके लिये उन्होंने शास्त्र प्रवचन प्रारम्भ किया और उसे अपने विचारों को लोगों तक पहुँचान का माध्यम बनाया । भक्त कवि के रूप में
उदयपुर में रहते हुए कवि ने अध्यात्म बारहखडो की रचना की। यह कवि की सबसे विशाल पद्यात्मक काव्य कृति है जिसे हम प्रध्यात्म एवं भक्ति का महाकाय भी कह सकते हैं। इस कृति में वे भक्त कवि के रूप में हमारे सामने उपस्थित हुए हैं । बारहखड़ी के रूप में उन्होंने जिस रूप में भक्ति एवं अध्यात्म की गंगा बहायी है वह हिन्दी काव्य जगत में अनोखी है । उसने सर्व प्रथम निम्न पाब्दों में निग्रंथ जिनमर का स्तवन किया है--
ओर न दूजो देवता और न दूजो पंथ ।
शिव विरंचि जगनाथ है, जो जिनवर भिनथ ।।१०।। १. अध्यात्य बारहखडी पद्य संख्या ४८
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यनित्व एवं कृतित्व
सब बामें वह सबनि में, वह हैं सब ने भिन्न । वा ते सब ही भिन्न है वह भिन्नो च' अभिन्न ।।
कवि के शब्दों में ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश जिन स्वरूप है इसलिये उसने परमात्मा की निम्न शब्दों में भक्ति की है...
तुही जिनेश संकरो, सुखकरो प्रजापती । तुही हिरण्य गर्भ को, प्रगर्भ को धरापती ।।
वह परमात्मा अनन्त गुणात्मक है । प्रनत सुख एवं वीर्य का धारी है। उसके समान वही है और दूसरा कोई भी नहीं है। तेरी ममता तू ही सामी, तौ सौ पोर न अन्तरयामी" कह कर वह प्रभु का स्तवन करता है और अपने "संकल्पा पर सकल विकल्पा. मेरे भेटि जु देव प्रकल्पा" की याचना की है। कवि का प्रभु अमरेश्वर द्वारा पूजित है । सूर्य एवं चन्द्रमा जिनकी सेवा करते है । चारों निकायों के देवों द्वार पूरिस है ! लिप: :.' र भगवान जिन देव के १००८ नामों का मुरणानुवाद किया है उसी प्रकार इस बारहखडी में उसने उसी रूप में जिनदेव का स्तवन किया है। उसने भगवान से कर्म रूपी कलंक को हटाने की प्रार्थना की है। वास्तव में तो जो अरहंत सिद्ध पादि पंच परमेष्ठियों का स्तवन करता है उसके स्वत: ही माया एवं मोह दूर हो जाते हैं। एक स्थान पर उसने कहा है जब किसो भक्त को भव सागर से तारा है तो इन पंच परमेष्ठियों की भक्ति ने ही उसे तारा है अन्य ने किसी में नहीं । क्योंकि वह सब देवों का भी देव है
जब तार जब तू ही तारं, तो बिनु ओर न कर्म निवारै । सब देवनि को तू ही देवा, सब करि पूजति एक अभेवा ।
कवि ने उन सभी महापुरुषों का, भक्तों का, प्राचार्यों एवं साधुनों का नामोल्लेख किया है जिन्होंने जिनेन्द्र भक्ति से भव संकटों से मुक्ति प्राप्त की है क्योंकि जिनेश्वर सब के रक्षक हैं और सब भेदाभेद से विमुख हैं।' रणमोकार मंत्र की महिमा का भी कवि ने वर्णन किया हैं। इस मत्र की महिमा से मरपणासन्न स्थान ने भी देवगति प्राप्त की दी।
मरत मृत्यों स्वाने चितघारी, अघते रहित भयो शुभकारी। लकिन कवि की भक्ति एवं भक्त की कामना दोनों ही उल्लेखनीय है। वह प्रभु
१. अध्यात्म बारहखडी-पृष्ठ संख्या १६२ पद्य संख्या १६६
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प्रस्तावना
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से सांसारिक इच्छाओंों की पूर्ति के लिये निवेदन नहीं करता । स्त्री, सन्तान, स्वास्थ्य एवं सुन्दर शरीर की वह अपने प्रभु से वांखा नहीं करता और न वह कोट्याधीश बनने की याचना करता । वह तो उनसे स्वयं परमात्मा स्वरूप को प्राप्त करने की प्रार्थना करता है क्योंकि उसने इन्हीं के जाल में पड़ कर जन्म जन्मन्तरों में महान दुःख पाये हैं जिनका वहन करना भी कठिन है ।" वह स्वयं लोथंकर बनने की कामना करता है इसलिये वह निम्न शब्दों में स्तवन करता है
प्रतिसे जग के दासन मांगे दे अतिशय चउतीस जु मोहि अष्ट ज प्रतिहारहू देहो, केबल दे विनऊ कह तोहि ।
देहु अनंत चतुष्व निचे तू होहि । श्रतिशय प्रातिहार नहि देतो, अनंत चुतुष्टय दे प्रभु सोहि ।। ४०६ ।।
भगवान जिनेन्द्र देव जहां विराजते हैं उसका वर्णन भी कवि ने भक्ति वश किया है । वहाँ केवल प्रात्म सुख ही श्रात्म सुख है । जगत् का प्रन्य कोई व्यापार नहीं । न असि का व्यापार है और न यहाँ मसि का कार्य है। व्यापार एवं वरिज वहाँ नहीं होता। निर्वाण होने के पश्चात उस लोक में न पठन पाठन की आवश्यकता है और न गुरू शिष्य का भेद है यहाँ यह आत्मा शुद्ध स्वरूप में निवास करती हैं। मोह द्रोह एवं अन्य वैभाविक क्रियाओं को वहाँ कोई स्थान नहीं है और ऐसे ही स्थान प्राप्ति के लिये वह अपने प्रभु से प्रार्थना करता है।
स्तवन मे कवि ने
इस प्रकार सम्पूर्ण अध्यात्म बारहखडो भक्ति भावना से श्रोत प्रोत है । कवि ने इसमें अपना हृदय खोल कर रख दिया है और जितना भी उसे शाकि ज्ञान था उसे उसने अपने भावों में उतारा है। भक्ति एवं जैन सिद्धान्त का भी अच्छा वर्णन किया है क्योंकि जिन भगवान भी उन्हीं सिद्धान्त मय हैं। यही नहीं वर्ष भर के प्रमुख पर्वो के महात्म्य का भी इसी प्रसंग में वर्णन कर दिया है। क्योंकि इन पर्वो का महात्म्य भी तो इनके जीवन की किसी घटना का कारण है । और उनके जीवन की घटनाओं का सांगोपांग
१. सो मेरी मेटो जगनाथा निज परगति को देहु साथा।। पर पति से मैं दुख पायो, आप बिसारि जु जन्म मनायो || २४० ।
२. अध्यात्म बारहखडी- - पत्र संख्या ४३० पृष्ठ संख्या २४१.
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
वर्णन भी भक्ति का एक प्रम है । अक्षय तृतीया पर्व के महात्म्य को कबि में निम्न शब्दों में प्रस्तुत किया है--
बैशाखी शुक्ला जु तीज अक्षय मई रिषभ कियो जा दिवस पारनौ विधि ठई। वरष एक उपवास धारि यम घार जो। मारग प्रगट कियो जु मोह मद मार जो ॥५१॥ घटियां श्रे दस पुनीत कियो जाने सही । सो मानुज भवतारि किय सिव ईसही। ईस रसाहारी जु देवपति देव जो
अषतीज सम करहु करी हम सेव जो ।।५२ । गद्य निर्माता के रूप में
___ दौलत राम हिन्दी गद्य साहित्य के प्रथम विद्वान् थे जिन्होंने अपनी चार वृहद् गद्य रचनाए साहित्य प्रगत को भेंट की। उनकी प्रथम कृति पूण्यास्रवकथाकोश संवत् १७७७ (सन १७२०) की रचना है। उस समय तक हिन्दी कृतियों का अर्थ पद्यात्मक कृतियों में लिया आता था । यद्यपि डा जयकिशन शर्मा ने मन भाषा गद्य का पूर्ण विकास एवं उसका उत्कर्ष काल संवत् १५०० से १७०० तक स्वीकार किया है और इस काल की कुछ रचनात्रों के नाम भी गिनाए हैं ।' इन कृतियों में या तो लघु गद्य रचनाएँ है या फिर वनिका, दीका सजक रचनाएं है लेकिन कविवर दौलतराम ने हिन्दो गद्य में विशालकाय कृतियां प्रस्तुत की ओर हिन्दी पाठकों में हिन्दी के प्रति गहरी रुचि पैदा की । कवि ने जिस धारावाहिक शैली को अपनाया मागे चलकर सारे जन कवि ही नहीं किन्तु जनेतर वियों ने भी उसी शोली का अनुकरण किया । यद्यपि दौलतराम की चारों ही रचनाओं को हम अनुदित रचनायें वह सकते हैं न केवल अनुवाद अथवा मचनिका मात्र नहीं हैं किन्तु इनमें मौलिकता का सर्वत्र सदभाव है जिससे ये
१ हिन्दी माहित्य की प्रतिमा पृष्ठ संख्या ५१२.१३
दौलतराम का हिन्दी गद्य सस्कुस परिनिष्ठ है। वह अपभ्रंस, माकृत तथा देशी शब्दों से मुक्त है । यह ब्रज भाषा का गम है लेकिन फिर भी उम खडी बोली का पूर्व रूप देखा जा सकता है ।
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प्रस्तावना
कृतियाँ स्वतन्त्र गद्य काव्यों के रूप में सामने पाती है। पुण्यास्रव कथाकोश के अतिरिक्त मादिपुराण, पद्मपुराण एवं हरिवंश पुरागा जैसी कृतियों को भाषा एवं शैली की दृष्टि से कवि ने उन्हें सर्वथा मौलिकता प्रदान की और जो अनुवाद में सूना सुना सा नजर प्राता था उसे अपनी कृतियों में जड़ से उखाड़ फेंका। यही कारण हैं कि उनका पद्मपुराण एवं हरिवशपुराणा का स्वाध्याय गत २०० वर्षों में जिलना हुमा उतना स्वाध्याय संभवतः अन्य किसी रचना का नहीं हुधा होगा । बल्कि महाकवि के पूर्व तक हिन्दी गद्य रचनापों के प्रति पाठकों का जो उपेक्षा भाव था उसे भी दौलत राम ने अपनी रचनात्रों के माध्यम से दूर किया। इसके अतिरिक्त प्रव तक भाषा टीका लिखने की जो परम्परा विद्यमान थी वह भी धीरे धीरे समाप्त हो गयी और विद्वान हिन्धों गड में लिखने की प्रोर भुकने लगे। २०वीं शताब्दी में हिन्दी गद्य या उपन्यास, कहानी एवं निबन्धों के रूप में जो विकास हुमा उस में भी वही भावना काम करतो है जिस भावना से दौलतराम को अपनी कृति का माफम हिन्दी गद्य को स्वीकार किया था । 'खेतनि विष नाना प्रकार के खेत हरे हो रहे है भर सरोवरनि में कमल फूल रहे हैं पर वृक्ष पहारमणीक दीखे हैं यह शैली प्राव से २०० वर्ष से भी अधिक समय की है। गत दो सौ वर्ष में हिन्दी भाषा के प्रयोग में कितना परिवर्तन प्राया है इससे हम परिचित हैं लेकिन संवत १८२३ में भी हिन्दी गद्य में लिखने वाले इतने उच्चस्तरीय विद्वान थे यह देखकर हमें भाश्चर्य होता है । और उनकी विद्वत्ता एवं लिखने की शैली को देखकर के ही मालवा समाज ने हरिवंशपुराण को हिन्दी गद्य में निर्माण करने की और प्रार्थना करवायी।
"उनकी वार्ता पुर ग्रामादि विषं प्रसिद्ध भई मो दमन भूपति बलदेव के समाचार सुन कर संका मान नाना प्रकार के प्रायुध घर उपसर्ग करने वे पाये। तब सिद्धार्थ देव उनको ऐसी माया दिखाई वे जहां देखे तहां दोखे।"
उपयुक्त उदाहरण हरिवंशपुराण का है। कवि ने इस पुराण में बड़े बड़े वाक्य लिखे हैं क्रियाओं का प्रयोग कम से कम किया है और उसके प्रयोग से स्थान पर प्रक्रिया पदों का प्रयोग करके बाक्य को लम्बा करता गया है । लेकिन फिर भी भाषा एवं शैली के प्राकर्षण में कोई कमी नहीं पाती है और पाठक उसे सहज भाव से पढ़ता है। हिन्दी गद्य के विकास की दृष्टि से दौलतराम के इन कृतियों का भयधिक महत्व है इसलिये इनका समीक्षा. स्मक अध्ययन आवश्यक हैं ।
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समकालीन शासक, विद्वान् एवं श्रावक १ महाराजा सवाई जयसिंह : (सन् १७०१ से १७४३)
महाराजा सवाई जयसिंह जयपुर राज्य के योग्यतम शासक थे । वीरता, शौय्यं एवं सूझ-बूझ, के लिए अपने समय में देहसी दरबार में अत्यधिक लोकप्रिय थे। वे सन् १७०१ में आमेर की गद्दी पर बैं, लेकिन जब उन्होंने आमेर को अपने राज्य के लिए बहुत छोटा नगर पाया तो सन् १७२७ में जयपुर नगर को बसाया' । इस नगर को महाराजा ने जिस वैज्ञानिक ढंग से बसाया उससे उनको कीति विश्व में फैल गयी। तत्कालीन जैन कवि बस्तराम साह ने अपने बुद्धिविलास में इसका निम्न प्रकार उल्लेख किया है
कूरम सवाई जयस्यंध भूप सिरोमनि, सुजस प्रताप जाको जगत में छायो है । करन-सौ दानी पांडवन-सौ रूपांनी महा,
मांनी मरजाद मेर राम-सी सुहायौ है ।। महाराजा सवाई जयसिंह ने एक लम्बे समय तक राज्य पर शासन किया अपने राज्य की सीमायों में अत्यधिक वृद्धि की।
शासकीय गुणों के अतिरिक्त महाराजा साहित्य, संस्कृति तथा कला के विशेष प्रेमी थे। विवानों एवं कलाकारों को वे खूब संरक्षण प्रदान करते थे। महाकवि दौलतराम का इनसे प्रथम साक्षात्कार कब हुमा---इसका तो कोई उल्लेख नहीं मिलता; लेकिन महाकवि ने सर्वप्रथम अपने 'पनक्रियाकोश' में (सं० १७९५) अपने पापको जयसिंह का अनुचर एवं जयसिंह के सुत (महाराज कुमार) का मंत्री के रूप में प्रस्तुत किया है। इसके पश्चात् जब तक महाराजा जीवित रहे तब सक महाकवि उनकी सेवा में रहे ।
सोहै अवावतिको दक्षिण दिसि सांगानेरि, दोळ वीचि सहर मनोपम वसायौ है। नाम ताको धरयौ है, सवाई जयपुर । मांनौं सुरनि ही मिलि सुरपुर-सौ रचायो है ।।८।।
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प्रस्तावना
महाराजा जयसिंह यद्यपि रणव धर्मानुयायी थे, लेकिन जैनधर्म, साहित्य तथा संस्कृति से उनका विशेष प्रेम था और उनके शासन काल में पूरे राज्य में नये-नये जैन मन्दिरों का निर्माण होता रहा । जयपुर नगर में भी उन्होंने दो चौकड़िया (मोदीखाना एवं घाट दरवाजा) विशेष रूप से जनों को बसने के लिए प्रदान की । उनके शासन में जयपुर नगर में जिस भारी संख्या में विशाल एवं कलापूर्ण जैन मन्दिरों का निर्माण हुना, यह उनकी जैन धर्म के प्रति अनुराग का द्योतक है। कर्नल टॉड ने अपने अन्य "राजस्थान" में यह भी लिखा है कि इस राजा को जैन धर्म के सिद्धान्तों का अच्छा ज्ञान था मौर उनकी विद्या बुद्धि के कारण भी वह जैनों का काफो सम्मान एवं बाबर करता था।' इनके शासनकाल में सैकड़ों ग्रन्थों की प्रतिलिपियां की गई और उनको देश के विभिन्न भण्डारों में विराजमान किया गया। श्रीमहावीरजी क्षेत्र के साहित्य शोध विभाग की ओर से प्रकाशित अन्य सुचियों (५ भाग) एवं प्रशस्ति संग्रह में ऐसे सैकड़ों ग्रन्थों का उल्लेख्न पाया है, जिनकी प्रतिलिपि जयपुर में तथा राज्य के विभिन्न नगरों में हुई थी।
इनके शासनकाल में संवत् १७५८, १७६१, १७६३, १७६६, १७७२, १७७३, १७७७, १७७६, १७६१, १७६६ प्रादि में प्रतिष्ठापित मूर्तियां एवं यन्त्रराज राजस्थान के विभिन्न नगरों में उपलब्ध होते हैं। सबसे बड़ो प्रतिष्ठा इनके शासनकाल में बांसमोह (जयपुर) नगर में हुई थी, जिसे ग्रामेर गादी के भट्टारक देवेन्द्र फीति ने करवायी थी। इस संवत् का मूर्तियां जयपुर एवं राजस्थान के विभिन्न नगरों के मन्दिरों में विराजमान है।
महाराजा जयसिंह के समय में प्रामेर, सांगानेर एवं जयपुर में कितने ही विद्वान हुए, जिनमें अजयराज पाटनी, खुशालचन्द काला, नेमीचन्द, दीपचंद कासलीवाल एवं किशनसिंह के नाम उल्लेखनीय है। इन विद्वानों ने तत्कालीन शासन की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। २ महाराजा सवाई ईश्वरीसिंह (१७४३-१७५०)
महाराजा सवाई जयसिंह के पश्चात् महाराजा सवाई ईश्वरीसिह जयपुर की गद्दी पर बैठे । यद्यपि य अधिक दिनों तक शासन नहीं कर सके; लेकिन जितने वर्षों तक जीवित रहे, अत्यधिक कुशलता से शासन किया । इनके राज्य में अधिकांशत: शान्ति रही । कविवर बख्तराम ने इनके शासन की
१. एनल्स एण्ड एन्टोक्विटीज प्रॉफ राजस्थान--पृ. २९७
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६.२
महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
निम्न शब्दों में प्रशंसा की है
बहुत वर्ष लौं राज किय, श्री जयस्यंघ अवनीप। जिनकै पटि बैठे स्वदिनि, ईश्वरस्यंध महीप ।।१७०।। तिनको दांन ऋपांन को, जय जस करत अपार । जिन सौं जंग जुरे तिन्है, करि छोडे पतभार ।।१७१॥
महाकवि दौलतराम में हर सासनकाल का प्रपनी लियो में उल्लेख नहीं किया है ; क्योंकि उस समय वे महाराज कुमार माधोसिंह की सेवा में उदयपुर रहते थे ।
महाराजा सवाई ईश्वरीसिंह को इमारतें बनाने का बड़ा शौक था और ईश्वर लाट (सरगासूली) उन्हीं के समय में बनायी गयी थी। ३ महाराजा सवाई माधोसिंह : (१७५०-१७६७)
महाकवि दौलतराम महाराज कुमार माधोसिंह के मंत्री होकर उदयपुर गये थे और जब तक माधोसिंह जयपुर के शासक नहीं बने, तब तक वे मंत्री के रूप में उदयपुर में ही रहे । महाराजा सवाई माधोसिंह के शासनकाल में राज्य का काफी विस्तार हुमा पौर रणथम्भौर का प्रसिद्ध किला जयपुर राज्य को प्रासानी से प्राप्त हो गया। बरुतराम साह ने इनके सम्बन्ध में जो कवित्त लिखे हैं वे निम्न प्रकार है-- दोहा : वहरि पाटि बैठे नृपति, रामपुर ते प्राय ।
भाई माधवस्यंधजू, दुरजन कौं दुखदाय ।।१७३।। कवित्त : जिन रामपुर मै करी निज चाकरी,
मो धरि राखी बिचारि हिये । फिरि पाय के राज ढुढाहर को सु नऊ निधि के सुख आनि लिये ।। भनि 'राम' अपातें भले ही भले, अमरेस के से जितु दान दिये। हरि ऐक सुदामा निवाज्यो कहू', नृप माधव केई सुदामा किये ।।१७४।।
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प्रस्तावना
सौरठा : दिये दिवाये दांन, जस प्रगट्यो दसह दिसनि ।
उर्व जगत परिभान, राज कियो यम मुलक परि ।। १७५।। मागै नृपति अनंत, जतन किये आयो न गढ़।
रणथम्भौर महंत, सो माधव सहजै लह्यौ ।।१७६ । कवित्त : अंसी मौज कळत सवाई माधवेस कर,
सुवरन-झर ज्यौं प्रबाह नदी नद के । मान-वेस भान जयसाहिक समान स्थाम, हरत गुमांन निज दांन सौं धनद के ।। मोती अनहद के जराऊ साज सदके, कर द्वार रदके अनाथ दीन दरदके । जोन जम्बूनदके तुरंग करी-कदके,
मतंग मंति मद के कढत सदा सदके ।। : ७७।। सोरठा : चढी फौज करि कोप, भिरि भागे जट्टा प्रबल ।
नई चढी यह वोप, कछवाहन की तेग को ॥१७८11
लेकिन महाराजा पुरोहितों से अधिक प्रभावित थे। एक बार उन्होंने अपना सारा राज्य ही श्याम तिवारी को सौंप दिया; जिसने जैनों पर अनेक जुल्म डाये। मन्दिरों को लूटा गया और मूर्तियों को तोड़ डाला गया । लेकिन महाराजा ने सदैव जनों का पक्ष लिया। जब उन्हें श्याम तिवारी द्वारा किये गये अत्याचारों का पता चला तो उसे उन्होंने तत्काल अपने नगर से निकाल दिया और राज्य में साम्प्रदायिक सदभाव को पुन: उत्पान किया । महापण्डित टोडरमल ने अपनी अधिकांश रचनायें इन्हीं के शासन काल में लिखी थी। इसी तरह महाकवि दौलतराम ने भी श्रीपान चरित (सं. १८२२॥ पद्मपुराण (सं० १८२३) एवं याटिपुराण (सं० १८२४) जैसे महत्वपूर्ण मन्थों की रचना की थी। भाई रापमल्ल ने महाराजा माघोमिह के गासनकाल का वर्णन करते हुए जो लिखा है, वह अत्यधिक महत्व है तथा उस समय शासन पर जैनों के प्रभाव का स्पष्ट द्योतक है--
__''राजा का नाम माधवसिंह है । ताके राज विषं वर्तमान एते कुविसन दरबार की प्राज्ञात न पाईए है। पर जैनी लोग का समूह वस है।
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१४
महाकषि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
दरबार के मुतसद्दी सर्व जनी हैं और साहकार लोग सर्व जैनी है । जबपि
और भी है परि गौणता रूप है मुख्यता रूप नाहि । छह, सात वा पाठ बा दस हजार जैनी महाजनां का घर पाइए है। ऐसा जैनी लोगों का समूह नग्र विर्ष नाहि पीर यहां के देश विर्ष सर्वत्र मुख्य पर्ण थावग लोग घस हैं तात एह नग्र वा देश बहोत निर्मल पवित्र है। तात धर्मात्मा पुरुष बसने का स्थानक है। अबार तो सक्षात घमंपुरी है ।" । ४ महाराजा सबाई पृथ्वीसिंह : (१७६६-१७७७)
गहानी कोलतः म . पन याल तो ये यहाराजा थे। संवत् १८२४ चैत्र बदी ३ को ये जयपुर की गद्दी पर बैठे। कविवर बहतराम ने बुद्धि विलास में इनके सम्बन्ध में निम्न पद्य लिला है
पृथ्वीस्यंघ विख्यात जा दिन त भूपति भऐ। मिटे सकल उत्तपात, सुखी भई सारी प्रजा ।।१८।।
इनके शासनकाल के दो वर्ष पश्चात ही जयपुर राज्य में शासन पर एक वर्ग विशेष का जोर हो गया, जिसने मन्दिरों, मूर्तियों एवं उनके अनुनायियों पर बहुत अन्याय बरसाये । कवि बखतराम ने अपने बुद्धि विलास में इस घटना का निम्न प्रकार उल्लेख किया हैफुनि भई छब्बीसा के साल, मिले सकल द्विज लघु र विशाल । सनि मतो यह पक्कौं कियो, सिव उठान फुनि दूसन दियो ।।१३०७।। द्विजन आदि बहु मेल हजार, बिना हुकम पायें दरबार । दौरि देहरा जिन लिय लूटि, मूरति विघन करी बहु फूटि ।। १३८।।
लेकिन जब महाराजा को इन अत्याचारों का पता लगा तो उन्होंने अपने राज्य में फिर साम्प्रदायिक सद्भाव की घोषणा की और राज्य भर में फिर से सब सम्प्रदाय के अनुयायी शान्ति पूर्वक रहने लगे।
महाराजा के शासनकाल में संवत् १८२६ में सवाई माधोपुर में विशान पंच कल्याणक महोत्सव हुमा, जिसमें हजारों मूर्तियों की प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई। ऐसा विशाल समारोह सारे देश में अपने ढंग का अकेला था। संवत् १८२६ में प्रतिष्ठापित सैकड़ों हजारों मुतियां आज भी उत्तरी भारत के अधिकांण मन्दिरों में मिलती है। यह प्रतिष्ठा समारोह भट्टारक सुरेन्द्रकीति द्वारा सम्पन्न हुमा था।
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प्रस्तावना
महाकवि दौलतराम ने साम्प्रदायिक अशान्ति रहने पर भी अपना साहित्य का निर्माण का कार्य यथावत रखा और हरिवंश पुगण (संवत् १८२६ } जैसे महान ग्रन्थ की भाषा टीका करने में सफल हुए। महाकवि ने पृथ्वीसिंह के शासन काल की निम्न पंक्तियों में प्रशंसा की है
नगर सवाई जयपुरा, जहां बसे बहु न्यात । राजा पृथिवीसिंह है, जो कछुवाहा जाति ।।३।। शिरोभाग राजान में, ढूढाहड़ पति सोय ।
ताके मंत्री श्रावका, और न्यातहु होय ।।४।। ५ महाराणा जगतसिंह :
महाराणमा जगतसिंह उदयपुर के महाराणा थे। महाकवि दौलतराम ने इनका जीवघर चरित की प्रशस्ति में निम्न प्रकार उल्लेख किया है -
उदियापुर ता माहि, राजधानी प्रति सोहै । जगतसिंह महरांगा, पाट सोसोदिन को है ।।
रहै रांग के पास, रांग अति किरपा करई।
जाने नीको जाहि, भेद भाव जुनहि धरई ।।
महाराणा जगतसिंह और सबाई जयसिंह के परस्पर मधुर सम्बन्ध थे। यही नहीं, महाराजा सवाई माधोसिंह उदयपुर महाराणा की राजकुमारी के राजकुमार थे। ६ अमरपाल :
'अमरपाल' का 'पुण्यात्रव कथाकोश' में उल्लेख हुमा है । कवि ने इनकी 'परमागम को रस तिन चल्यो' के रूप में प्रशंसा की है । महाकवि धनारसीदास के साथियों में कौरपाल का नाम उल्लेखनीय है । 'सूक्तिमुक्तावली' का पद्यानुवाद बनारसीदास और कौरपाल ने मिलकर किया था।' 'अमरपाल'
१ नाम सूक्ति मुक्तावली, द्वाविंशति अधिकार । शत श्लोक परमान सब, इति ग्रंथ विस्तार ||१||
अरपाल बनारसी, मित्र जूगल इक चित्त । तिनहिं ग्रथ भाषा कियो, बहुविधि छन्द कवित्त ।। सोलहसै इक्यानवें, ऋतू ग्रीष्म वैशाख । सोमवार एकादशी, करन छत्रसित पास ।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल व्यक्तित्व एवं कृतित्व
संभवत: कौरपाल के सुपोज भथवा वंशज थे और उन्हीं के समान अध्यात्म सली के प्रमुख सदस्य थे । अध्यात्म विषयक रुचि अमरपाल को परम्परा से मिली होगी ऐसा विश्वास किया जा सकता है ।
६६
७ आनन्दराम :
'आनन्दराम ' महाकवि दौलतराम के पिता थे । सर्व प्रथम 'पुण्यात्रव कथाकोश' में कवि ने आनन्दराम सुत लिखकर अपना परिचय दिया है । आनन्दराम बसवा (जयपुर) के रहने वाले थे। श्रर वहीं रहकर संभवतः अपना कामधन्धा करते थे । प्रानन्दराम के पुत्रों तथा उनकी पत्नी के बारे में afa ने कोई परिचय नहीं दिया है। 'पुण्यास्रव कथाकोश' के अतिरिक्त कवि ने पन क्रियाक्रोश जीवंवर चरित, पद्मपुराण और हरिवंशपुराण श्रादि सभी कृतियों में 'आनन्दराम का सादर उल्लेख किया है। जो उनकी अपने पिता के प्रति अनन्यतम भक्ति का प्रतीक हैं ।
८ कदास :
ये उदयपुर के रहने वाले थे तथा महाकवि की वास्त्र सभा के प्रमुख सदस्यों में से थे | कवि से 'आध्यात्मबारहखड़ी' लिखवाने में इनका विशेष योग रहा था ।
६ खेतसिंह :
खेतसिंह दि० जैन श्रग्रवाल मन्दिर, उदयपुर का टहलवा था, जो स्वयं भी पण्डित था। महाकवि दौलतराम ने इनका निम्न प्रकार उल्लेख किया है
मण्डी घान की नगर मांहि, जहां जैन मन्दिर महा ।
तहां टहलवा पंड़ितो इक खेतसिंह नामा कहा ||
P
१० चतुरभुज :
ये भी आगरा की अध्यात्म शैली के प्रमुख श्रोता थे। कवि ने इन्हें साधर्मी लिखा है। भगवद् भक्ति की ओर इनकी विशेष रुचि थी। श्रापात्मिक चर्चाओं में भी ये बड़ी रुचि रखते थे। महाकवि दौलतराम को इन्हीं से शास्त्र प्रवचन एवं साहित्य निर्माण की प्रेरश मिली थी। पुण्यास्रव कथाकोश' में कवि ने इनका सादर स्मरण किया है ।
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प्रस्तावना
ह
११ चतुरभुज अग्रवाल :
एक चतुरभुज का हम पहले उल्लेख कर चुके हैं। ये दूसरे चतुरभुज : हिने महाकाय यो उदयपुर जीवघर परिस: हो रचना करने के लिए प्राग्रह किया था। ये अग्रवाल श्रावक ये तथा कालाडहरा (जयपुर के रहने बाले थे । कवि के थे परम प्रशंसकों में से थे। तथा उदयपुर के अग्रवाल मन्दिर में चलने वाली शास्त्र-सभा के प्रमुख श्रोता थे। अब महाकवि ने बीम हजार श्लोक प्रमाण पाले 'महापुराण' का स्वाध्याय समाप्त किया तो इन्होंने उनसे 'जीवंधर चरित' को हिन्दी में रचने का प्राग्रह किया और इसके लिये निम्न प्राधार प्रस्तुत किया
देव भाष गंभीर, संसकृत विरला जाने । पंडित करै बखान, अलप मति नाहि चखाने ।।
जो है ग्रथ अनूप, देस भाषा के मांहो । बांचे बहुत हि लोक, या महै संक नाही ।। सब गिरंथ की वनि न आवै, तो इह जीवंधर तनी । अवसि मेव करनी सुभाषा, पृषीराज भी इह भनी ।।६।। सुनी 'चतुर' मुख बात, सोहि दौलति उरधारी।
-इस प्रकार इन्हीं के प्रापयश दौलतराम ने 'जीबंधर चरित' की रचना प्रारम्भ की भोर संवत् १८०५ में उसे समाप्त कर हिन्दी को एक प्रबन्ध-काश्म भेंट किया। १२ पण्डित चीमा :
ये उदयपुर के रहने वाले थे। स्वयं कवि ने इनको पंडित की उपाधि लगाकर स्मरण किया है। ये कवि के विशेष प्रशंसक थे तथा तत्वचर्चा में मग्न रहा करते थे । अध्यात्मबारहखड़ी के निर्माण में कवि को इनसे विप्रेष प्रेरणा मिली थी।
१३ पृथ्वीराज :
पृथ्वीराज संभवतः श्रावक थे तथा प० दौलतराम की शास्त्रसभा के ये नियमित श्रोता थे। जीवंधर चरित की रचना करने में इन्होंने भी कवि से
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
प्राग्रह किया था.; . जिसका कवि ने प्र.प्रशस्ति में निम्न प्रकार उल्लेख किया है
सब गिरंथ की बनि न पाव, तो इह जीवंधर तनी।
अवसिमेव करनी सुभाषा, प्रथीराज भी इह भनी ।।६।। १४ फतेचन्द :
आगरा नगर के अध्यात्म शैली के प्रमुख सदस्यों में फतेचन्द का नाम भी उल्लेानी. फतच.६ प शमय के प्रतिष्ठित श्रावक थे तथा शास्त्रों की चर्चा में सदैव तल्लीन रहते थे। ये प्रतिदिन शास्त्र-प्रवचन मैं जाते और नयी-नयी चर्चाय करके श्रोताओं की जिज्ञासा बढ़ाते तथा विषय का स्पष्टीकरण करते थे। महाकवि दौलतराम ने अपने "पुण्यास्रव कथाकोश" में "फतेचन्द है रोचक नीके, चरचा कर हरष धरि जीके' इन शब्दों में इनकी प्रशंसा की है । फतेचन्द प्रागरा निवासी थे अथवा कवि के समान ये भी बाहर से ही वहां प्राये थे—इस सम्बन्ध में निश्चित जानकारी नहीं मिलती; क्योंकि कवि ने प्रागे "मिले भागर कारन पाय" शब्द कहे हैं । १५ बख्तावरदास :
इनका कवि ने अध्यात्म बारहखड़ी की प्रशस्ति में उल्लेख किया है । ये उनकी शास्त्र-सभा के प्रमुख सदस्य थे और कवि के विशेष सम्पर्क में रहते थे। तस्वचर्चा एवं धार्मिक-चिन्तन में विशेष योग देते थे। ये भी उदयपुर के रहने वाले थे।
१६ बिहारीलाल :
श्रावक बिहारीलाल आगरा की अध्यात्म शैली के प्रमुख सदस्य थे। प्रतिदिन शास्त्र सभा में पाते और ध्यान एवं मनन पूर्वक शास्त्र श्रवण करते थे । विद्वानों को शास्त्र-प्रवचन की ओर प्रोत्साहित करते और स्वयं भी उनकी सेवा में सदैव तत्पर रहते । दौलतराम ने इनका 'युण्यामय कथाकोश' की प्रशस्ति में सादर स्मरण किया है और इनके सम्बन्ध में निम्न पंक्तियां लिखी हैं
लाल बिहारी हूं नित सुने, जिन आगम को नीक मुनै ।। १७ बेलजी सेठ
इनका कवि ने अपनी दो कृतियों में उल्लेख किया है। ये बड़ जाति के श्रावक थे तथा सागवाड़ा के निवासी थे। शास्त्र श्रवण में इनकी
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प्रस्तावना
गहरी रुचि थी । जीवघर चरित की रचना करने के लिए कवि से इन्होंने भी प्राग्रह किया था। इसी तरह वसुनन्दि श्रावकाचार की टब्बा टीका करने के लिए उन्होंने विशेष माग्रह किया था । २ जब तक दौलतराम उदयपुर में रहे, तब तक बेलजी सेठ इनके विशेष प्रशंसक रहे ।
१८ भूधरदास :
'भूपरदास' महाकवि दौलतगम के समकालीन विद्वान थे । पुण्यानवकथा सोया को प्रशस्ति में साथ नहीं भर गया है। ये ही भूधरदास हैं। जिन्होंने 'पाशवपुराण' जैसे प्रबन्ध काव्य की रचना संवत् १७८९ में समाप्त की थी। आगरा की अध्यात्म शैली के ये प्रमुख विद्वान थे। कवि का सर्व प्रथम इन्हीं से परिचय हुया और इन्हीं की प्रेरणा से वे साहित्य निर्माण की पोर प्रवृत्त हुए । इनका विस्तृत परिचम प्रस्तावना ११ के पृष्ठ पर देखिए ।
१६ मनोहरदास :
जब महाकवि उदयपुर में महाराजकुमार माधोसिंह के मंत्री बनकर गये तो उन्होंने बह भी दि. अन अग्रवाल मन्दिर में शास्त्र प्रवचन प्रारम्भ किया
और प्रागरा के समान ही उसे भी प्रध्यात्म शैली का रूप दिया । इस शैली के प्रमुख सदस्यों में मनोहरदाम का नाम उल्लेखनीय है। मनीहरदास ने कवि से अध्यात्म मारहखड़ी को छन्दोबद्ध करने का विशेष प्राग्रह किया था; जिसका उल्लेख स्वयं कवि ने उसकी प्रशस्ति में किया है।
१. सुनी चतुर मुख बात, सोहि दौलति उर धारी ।
सेठ बेलजी सुघर, जाति हूंमड हितकारी ।। सागवाड़ है वास, श्रवण की लगनि धणेरी। सब साधरभी लोक, धरै श्रद्धा श्रु त केरो ।। तिनने आग्रह करि कही फुनि, दौलति के मन मैं वसी।
संस्कृत ते भाष कीनी, इहै कथा है नौर सी ||७|| २. बोले सेठ बेलजी नाम, सुनि नृप मंत्री दौलतिताम ।
टब्बा होय जो गाथा तनी, पुण्य उपजै जिसको घनौ ।।
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महाकवि दौलत राम कासलीवाल--व्यक्तित्व एवं कृतित्व
२. रतनचन्द दीवान :
पं० भंवरलाल न्यायतीर्थ ने इनका दीवान माल संवत् १५१३ से १८२५ तक का माना है। महाकवि दौलतराम से इनका परिचय उनके अन्तिम दिनों में हुमा पा; जिसका उल्लेख उन्होंने अपने हरिवंश पुराण की प्रगस्ति में "रतनचन्द दीवान एक, भूपत के परचांन" के रूप में किया है। इस पंक्ति के ग्राघार पर इनका संवत् १८२५ के बाद भी दीवान होना जाहिर होता है।
दीवान रतनचन्द महापंडित टोडरमल की शास्त्रसभा के विशेष श्रोसायों में से थे और पंडित जी का पूरा सम्मान करते थे। भाई रायमल्ल ने अपनी पत्रिका में उस समय के जिन दो दीवानों का उल्लेख किया है। उनमें एक रतनचन्द तथा दूसरे दीवान बालचन्द छाबड़ा थे । इन्होंने जयपुर में बघीचन्द जी के मन्दिर का निर्माण कराया था और मन्दिर निर्माण करने के पश्चात लसे अपने बड़े भाई के नाम से प्रसिद्ध किया था। २१ भाई रायमल्ल :
भाई रायमल्ल' महाकवि दौलतराम के समकालीन श्रावक थे । धर्म एवं साहित्य प्रचार की उत्कट प्रेरणा लेकर वे विद्वानों की सेवा में जाते थे और उनसे नव साहित्य निर्माण का सानुरोध निवेदन करते थे । जहां भी उन्हें विद्वान एवं पण्डित दिखाई देते थे, वे उनके पास जाकर अपनी हार्दिक भावनाएं प्रस्तुत करते ।
उनका जन्म संवत् १७७० के लगभग माना जाता है । बचपन में ही इन के ज्ञान की पिपासा बढ़ने लगी और २२ वर्ष की अवस्था में ही उन्होंने साहिपुरा के विद्वान् श्रावक नीलपति साहूकार से धार्मिक ज्ञान प्राप्त किया और उसके पश्चात् ही वे पूर्ण संयमित जीवन व्यतीत करने लगे एवं जान-वृद्धि को ही एक मात्र अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया । संवत् १८०५ के पूर्व ही वे महाकवि दौलतराम से मिलने उदयपुर पहुंचे। वहां की प्राध्यात्मिक शैली एवं वहां के श्रावकों में धर्म प्रचार को देखकर उन्हें अत्यधिक सन्तोष हुना। इम घटना का भाई रावमल्ल ने अपने पत्र में निम्न प्रकार उल्लेख किया है
___ "जहां दौलतराम के निमिन करि दस बीस साधर्मी व दस बीस बायां सहित शैली का वाणा बाण रझा-ता अवलोकन करि साहिपुरा पारला याया।
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प्रस्तावना
'महाकवि दौलतराम' जब जयपुर आ गये; तब उन्होंने कवि को पद्मपुराण की भाषा करने के लिए विशेष प्राग्रह किया जिसका कवि ने उक्त अन्य प्रशस्ति में निम्न प्रकार उल्लेख किया है
रायमल्ल साधर्मी एक, जाके घट में स्व-पर विवेक । दयावंत गुणवंत सुजान, पर उपकारी परम निधान ।। दौलतराम जु ताको मित्र, तासों भाष्यो वचन पवित्र । पद्मपुराण महाशुभ ग्रंथ, तामें लोक शिखर को पंथ ।। भाषा रूप होय जो यह, बहुजन वांचं करि प्रति नेह । ताके वचन हिये मै धार, भाषा कीनी मति अनुसार ।।
इसके पूर्व भाई रायमल्ल महापण्डित टोडरमल के घनिष्ट सम्पक में प्रा चुके थे। उन्होंने सिंधारणा जाकर गोम्मटसार जैसे महान एवं विशाल ग्रंथों की भाषा टीका करवाने में सफलता प्राप्त की ।'
महापण्डित टोडरमलजी भी भाई रायमल्ल से काफी प्रभावित थे । उन्होंने निम्न शब्दों में उनके प्रति श्रद्धाञ्जलि अर्पित की है
रायमल्ल साधर्मी एक, धर्म सधैय्या सहित विवेक । सो नाना विधि प्रेरक भयो, तब यहु उत्तम कारज सयो ।।
संवत् १६२१ में जयपुर में जो इन्द्रध्वज महोत्सव हुआ था, उसका भाई रायमल्ल ने अतीव सजीव वर्णन किया है। उससे सत्कालीन जयपुर नगर की साहित्यिक, सांस्कृति एवं पार्मिक गतिविधियों का भलीभांति परिचय मिलता है।
संवत् १८२७-२८ में रायमल्ल मालवा देश गये हुए थे। यहां उन्होंने महाकवि दौलतराम द्वारा भाषा में निबद्ध आदि पुराण एवं पद्मपुराण का प्रवचन किया। दोनों ग्रन्थों को सुनकर सभी आवक हर्षित हो गये और उनमें स्वाध्याय की रुचि में वृद्धि हुई। उसी समय वहां के श्रावकों ने भाई रायमल्ल से दौलतराम के द्वारा हरिवंश पुराण की भी टीका करने का निवेदन
१ शुभ दिन टीका प्रारम्भ हुई..........."वे तो टीका बरगवते गये ।
हम बांचते गये । बरस तीन में चारि प्रवां की ६५००० टीका भई। पीछे जयपुर पाए ।
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१०२ महाकवि दौलतराम कासलीवाल- व्यक्तित्व एवं कृतित्व
कया। जिससे इस महान ग्रन्थ का स्वाध्याय भी सुगमता से हो सके। भाई राममल्ल ने वहीं से दौलतराम को पत्र भेजा; जिसमें सारी वस्तु स्थिति का दिग्दर्शन कराया। महाकवि को भाई रायमल्ल का आग्रह स्वीकार करना पड़ा। इस घटना को कवि ने हरिवंश पुराण को प्रशस्ति में उल्लेख किया है । २२ रिषभदास :
'पुण्यात कथाकोश' की रचना तथा धार्मिक जीवन व्यतीत करने की प्रोर सबसे अधिक प्रेरणा देने वालों में रिषभदास का नाम उल्लेखनीय है। इन्हीं के उपदेश से कवि मिथ्याचरण त्याग कर सम्यक आचरण की प्रोर प्रवृत्त हुए थे । महाकवि ने रिषभदास की प्रशंसा में निम्न पंक्तियां लिखी हैं
रिषभ उपदेस सो हमे
मिथ्यातम को त्याग के लगो धरम सौ प्रीति ॥२१॥ रिषभदेव जयवन्त जग, सुखी होहु तसु दास । जिन हमकों जिन मत विषे, कौयो महा गहास ||२२||
२३ सदानन्द :
सदानन्द श्रागरा की अध्यात्म शैली के प्रमुख सदस्य थे। कवि ने "सदानन्द है श्रानन्द मई, जिनमत की प्राज्ञा तिह लही" - शब्दों में इनका स्मरण किया है।
२४ सीताराम सवाईराम
ये दोनों महाकवि के समय के ग्रन्थ-लेखक थे । महाऋषि हरिवंश पुराण की भाषा टीका बोलते गये थे और ये दोनो उसे लिखते गये थे । उसका उल्लेख कवि ने निम्न प्रकार किया है
सौताराम जुलेखका और सवाई राम ।
तिन पर लिखवायो जु यह, बहुत कथा को धाम ||
२५ हरिदास
ये उदयपुर के रहने वाले थे। सभा के ये प्रमुख श्रोता थे तथा उनके
यहां पर कवि द्वारा संचालित शास्त्रविशेष सम्पर्क में रहते थे । कवि ने
'अध्यात्म बारहखडी' की प्रशस्ति में इनका विशेष रूप से स्मरण किया है ।
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प्रस्तावना
२६ हेमराज :
कवि ने हेमराज का 'पुण्यास फयाकोश' में स्मरण किया है और उनके सम्मान में निम्न पत्र लिखा है
हेमराज साधर्मी मले, जिन बच मांनि असुभ दल मले । प्रध्यातम चरचा निति करै, प्रभु के चरन सदा उर धरै ।।
हेमराज जैन धर्मावलम्बी थे जिनवाणी में उनकी प्रदट बद्धा थी। वे मागरा की प्रध्यात्म शैली के प्रमुख सदस्य थे । तपा अध्यात्म-चर्चा में संलग्न रहा करते थे।
मागरा के ही अन्य पाजे हेमराज संभवतः उनसे भिन्न विधान थे ।
डा० कस्तूरचंद कासलीवाल
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निर स्वामि चरिन
रचनाकाल : संवत् १८०१ प्रावाद सुबला २ गुरुवार
रचना स्थान : उदयपुर (राजस्थान)
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल व्यक्तित्व एवं कृतिस्व
दोहा मंगल पाठ--
बरधमान भगवान कौं, करि बंदन मनलाय । जिनवानी की करि प्रणति, नमि गौतम के पाय ।।१।। जोबंधर मुनिराय की, कहीं कथा सुखदाय ।।
बुद्धि पराक्रम रस भरी, सुनो भव्य मनलाय ॥२॥ राजा श्रेणिक द्वारा सुधर्माचार्य से प्रश्न---- एक दिवस रिपक नृपति, समवसरण के मांहि । लखत. फिरत है जिन विभव, जा सम जग मैं नाहि ।।३।। लखि सोभा चउ बननि की, उपज्यो हर्ष अपार । वन प्रसौष में ८ (दलि, देख्या पुनि अविकार ||४|| ध्यानारूढ़ विसुद्ध जो, मगन महा परवीन । मानो बैठो सिद्ध ही, निज स्वरूप लवलीन ॥५॥ देखि अवस्था धीर की, सफल करे नृप नेन । . दे प्रवक्षणा करि प्रगति, धन्य धन्य कहि वैन ।।६।। प्राय सुधर्माचार्य पै, पूछो प्रसन रसाल । स्वामी देख्यो साधु इक, रहित सकल जगजाल ।।७।। अति सुरूप सुदर महा, जो' वन माहि महंत । जीत्या बैठो मदनमद, निसचल निरमल संत ।।८।। तन वच मन बुधि के परं, पहुँच्यो मुनि वरवीर । परमतत्व परचे किया, तिष्ठं गुण गम्भीर ।। कौन पुरिष ए सौ कहाँ, करि किरपा गुरदेव । सुरनर मुनिवर खेचरा, करें तिहारो सेव ।।१०।।
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--. -.-.. मूलपाठ-जीवन
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. जीवंधर स्वामि परित
तव सुधर्म गुरु बोलिया, सुनि हो श्रेणिक भूप । कहीं कथा जोगिन्ा की, अद्भुत प्रति रस रूप ॥११॥
चौपई
कथा का प्रारम्भयाही 'भरतमोत्र' के मांहि, हेमांगव' इक देश वसांहि । तहां 'राजपुर' नगर अनूप, सज करै सत्यंधर भूप ।।१२।। पटरानी 'विजया' गुग्ण स्वांनि, जा समान रति रूप न मानि । मंत्री 'काष्टांगारिक' एक, प्रोहित 'रुद्रवत्त' अविवेक ।।१३।। महारानी विजया द्वारा स्वप्न दर्शनएक समै विजयो पटरानि, देखे सुपना दुख सुखदांनि । अाप उतारि धरयो मुझ सोस, मुकुट जु सत्यंधर धरणीस ।।१४।। अष्ट हेम घंटा जुत सोहि, चिह्न राज को मुस्त्रि इह होहि । बहुरि लख्यो सुपिनों मैं एक, तरु असोक प्राश्रित अविवेक ।।१५।। ताने तरु काट्यो ता माहि, ऊग्यो बालवृक्ष सक नाहि ।
लह लहाट करतो तत्काल, अति सुदर रसरूप रसाल ।।१६।। स्वप्न फल
प्रात समैं राजा हिग जाय, सुपिन भेद भाखे समुझाय । नृप बोले रानी सुनि बात, निश्च होय हमारी धात ।।१७।। अष्ट लाभ हैं तुमकौं सही, लहि हौ सुत राजा अतिमही । सुनि करि नृप वियोग नृपनारि, भई सोक जुत अर्थ विचारि ||१८|| राजा सुभ वचननि ते पोषि, सोक रहित कोनी अति तापि । कयक दिवस वीतिया अब, रह्यो गर्भ रानी को तब ।।१६।। चय करि सुर्ग थको सुरमहा, उयर मझार बास जिह लहा। जैसे सरद विष सर मांहि, राज हंस थिरता जुधरांहि ।।२०।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
गधोत्कट बरिणक् के पुत्र का अभाव
और सुनौं इक बात रसाल, इक गंधोत्कट वरिपक्क विसाल । अति धनवंत महा मतियत, ताहि पुरि निब मुशवंत ।।२१।। एक दिवस वड माग प्रभाव, देखे सीसगुप्त मुनिराव । नाम 'मनोहर' वन है एक, तहाँ विराजे परम विवेक ।।२२।। तीन ज्ञान धारक जगनाव, तिनकों नमि पूछयौ निज भाव । हे प्रभु, मेरे सुत बहु भये, अलप आय हूँ मरि मरि गये ।।२३।। हुइहैं दीरघ आयु हु कोइ, मुनि बोले, अद्भुत सुत होइ ।
मन धरि बात सेठ इक सुनौं, पाप पुन्य के नाटक सुनौं ।॥२४॥ पुत्र प्राप्ति के लिये भविष्यवाणी----
पुत्र होयगौ तुम्हरै अब, ततखिण मृत्यु होयगौ तवं । तुम जै हो नांषन बन ठांम, तहां पाय हो सुत गुणधाम ।।२५।। महा मंडलिक नृपपद धार, अति विद्यानिधि अति अविकार । सकल त्यागि भव भाव महंत, तद्भव मुकत होई सो संत ।।२६।। ये मुनि वचन सेठ की कहे, ते इक जखिणी ने उर गहे । सूत पर माता की उपगार, करिया गई भूप के द्वार ।।२७।। राज लोक मै पहुँचौ सोइ, रानी की अति बल्लभ होय । गरुड यंत्र ते रक्षा करी, धर्मवंत सेवा चित धरी ।।२।। एक समय मधुरितु परताप, फूले तरवर हर संताप ।
काहू दिवस राज दरबार, प्रोहित आयो प्रात मझार ।।२९ ।। राजा सत्यन्धर की उदासीनता
आभूषण रहिता पटरानि, देखी विजया गुण की खानि। पूछयो कहां विराज राव, मेरे नृप दरसन को भाव ॥३०॥ रांनी भाल्यो पोढे भूप, देख्यो जायन नृप को रूप । असे वैन सुने द्विज जनै, निमत विचारयो मन मैं तवं ॥३१॥
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जीबंधर स्वामि चरित
होय अमंगल नृप के सही, या माहे कछु संस नहीं ।
बाहुरि आयो मंत्री गेह, प्रात समै हो करि अति नेह ।।३२।। राज पुरोहित द्वारा काष्टांगार को भड़काना
प्रोहित स्वामी-धर्म तै गयो, ले एकांत कहत यों भयो। काष्टांगारिक सुनि मुझ वात, करि तू तुरत राव को घात ।।३३।। तेरे राज होय तहकीक, मेरौं वचन न मांनि अलीक । सुनि करि मंत्री प्रोहित वैन, कान मूदि नीचे करि नैन ।।३४।। बोल्यो जोगि नही इह रीति, तुम भाषी सो बड़ी अनीति । मैं जु करत हो वोच्छे काम, करि किरपा नरपति गुग्गधाम ।। ३५।। मो कौं अाप बराबरि कियों, अति दुर्लभ मंत्री पद दियो। तब बोल्यो प्रोहित जडमति, मेरो वचन झूट नहिं रती ।।३६।। नृप सुत करिहै तेरो अंत, तात जतन करो वुधिवंत । पैसे कहि प्रोहित घर गयो, पाप प्रभाव रोग अति भयो ।।३।। दिन तीजै नर देही त्यागि, नरकि गयो द्विज अघपथ लागि ।
ताके बचन धारि परधान, आप मरण ते डरयो प्रयांन ।।३८।। काष्टांगार द्वारा विद्रोह
नृप मारण की इच्छा धरी, धरम-करम की परिणति हरी । T सहस्र भट अपने किये, बहुत द्रव्य दे निज में लिये ।।३६ ।। घेरयो जाय राजदरबार, तब भूपति ने किये विचार । गरुड यंत्र करि रांनी कालि, लरिवा पायो आप गुणादि ।।४।। नृप दरसन करि कैयक भटा, काष्टांगारिक दल ते फटा ।
तिनकौं लारलेय नृप लरयो, भागौ मंत्री मन मैं इग्यो ।।४।। सत्यन्धर की मृत्यु
तब मंत्री सुत सेना लाय, मिल्यो तात सौ तुरतहि प्राय । पिता पुत्र दोऊ इक होय, हत्यो जुद्ध मैं भूपति सोइ ।।४२।।
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म एवं कृतित्व
काष्टांगारिक राजा भयो, कृतघन स्वामि धर्म तें गयो । जैसे सठ करि सविष ग्रहार, चाहे भूख त परिहार ||४३|| जिम कोई करि कपटी मित, चाहे जड़मनि भयो नचित । ज्यों हिंसक मत धरि खल होइ, चाहे सुगति सु कैसे होय ॥४४॥ | तैसे मंत्री प्रथम अयांन लियो राज तजि धर्म विधान ।
स्वामि द्रोह सौ और न पाप पापी लहैं नरक संताप || ४५ ।।
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विजया रानी की रक्षा
गरुड यंत्र परिकार असवार, जविरणी हूँ रानी की लार । ले गई जु मसांरानि मांहि, रोवत राखी संसै नाहि ||४६ ||
पुत्रोत्पत्ति
करी रात्रि की रक्षा महा, तहां पुत्र में जनम जु लहा । महा मनोहर रूप रसाल, मांनी ऊग्यो चंद्र विसाल || ४७||
रानी के नृप की जु वियोग, पति विछोह सौ और न सोग । तातें उच्छव कछु नहि कियो, बारबार भरि याहियाँ ||४५ || तुरत उठायो जखिणी बाल, रतन दीप जोये ततकाल । देखी रानी विमनो इसी, दीं करि जरी लगा हूँ जिसी ॥४६॥
यक्षिणी द्वारा उदबोधन
तव जखिरि दीयो उपदेश, सुनि हे रानी धर्म जिनेस |
सब संबंध विनश्वर जानि, सब थानक दुस्थानक मांनि ||५०||
!
धन जोवन क्षरण भंगुर देह, दीप सिखा सम जीतब एह ।
अर इह काय प्रसुचि कौठांम, यासौं प्रीति तजें गुरधाम ।। ५.१ ।।
राज जगत में जानों इसी चपला चमतकार
जिसी ।
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वि पुन्य बीमूढ़ मति देह, सब वस्तुनि स्यों कियो सनेह ||५२ || ते सब जांहि अवसिह रीति, दाह दायनी जग की प्रीति ।
छति वस्तु स रति नहि करें, अर श्रछती की चाह न धरें ।। ५३ ।।
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जीवधर स्वामि चरित
विनासीक जाने जग भाव, उत्तम जन को इहै स्वभाव । सब व्यापक है जाकी ज्ञान, सो सर्वज्ञ देव भगवान ॥५४॥1 ताने सकल लखो परजाय, कबहू कोई थिर न रहाय । काह सौं करिवो नहीं प्रीति, परचम तौ ग्राछी इह रीति ।।५।। अर जौ कहूँ प्रीति ह करें, तो इह बात हिये मैं धरै। घरतमांन अर हगी जोहू, इन सौं प्रीति होय तो होहु ।।५६।। गई वस्तु सौं कसी प्रीति, वृथा सोक धरिवौ सठ रीति । कौंन परिष सर मोनु जुन रि, नीद त्रिलिंग रहित अविकारि ।।५७|| लखि भूठौ संसार चरित्र, कर्म जोग संबंध विचित्र । चरिम सरोरी सुत इह जानि, अति परतापी पूजि प्रवानि ।।५८।। दुष्ट शत्रु कौं करें निकंद, तो कौं उपजावे अानन्द । करि सनान लै जोगि प्रहार, समाधान धरि मन मैं सार ।।५६।। सोक किये भरतार न मिलें, काल पदारथ सब को गिल । भिन्न भिन्न सबकी गति जांनि, कर्म भेदतै भेद प्रवानि ।।६।। इत्यादिक युक्तिनि समुझाय, सीक रहित कोनी सुत माय ।
आप रही थाही के पासि, महा मित्रता रीति प्रकासि ।।६१।। गंधोत्कट को मृत पुत्र की प्राप्ति
दुख में कबहु न छांडे मंग, इह मिनि को धर्म अभंग अब आयो गंधोत्कट जहां, मृतग पुत्र नाष नर तहाँ ।।६।। नांषि आपनौ मिरतक बाल, जात हुतो घर कौं ततकाल ।
सुन्यौं तवै मुस्वर गंभीर, रानी सुत की सेठ सुधीर ।।६३।। जीबंधर की प्राप्ति
तव चितारे मुनि के बैन, चित में पायो बहुतहि चैन ।
जीवो जीवो वालक महा, पुण्य प्रभाव जनम इह लहा ॥६४।। - हाथ पसारे करि अति नेह, रानी जान्यौं श्रेष्ठी एह । दियो पुत्र तव ताकै हाथ, जी हहै पिरथी को नाथ ।।६।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल व्यक्तित्व एवं कृतित्व
समुझायो फुनि या विधि ताहि, पाली सेठ जतन करियाहि ।
काहू पासि भेद मति कहो, इहें वात गाढ़ी करि गहौ ।। ६६ ।।
यों ही करिहों निसंदेह, यों कहि सेठ ले गयो गेह ।
सेठ नारिको वंश नाम, तासों सेठ खिज्यो गुरणधांम ||६७||
तो मैं बुद्धि नही है मूलि, कहीं कहां लौं तेरी भूलि । वितु परखे जीवतांनांना पुत्र निन ॥६८ दीरय आय मनोहर काय इहै पुत्र तोक सुखदाय | ले ले यहि प्रीति करि पालि, अर व सौं सब भूलि जुटालि ॥ ६६ ॥
तव हरषी सेठानी महा, प्रति आदर तें बालक यहा । जीत बाल भानु को एह, अपराजित वलवंत ग्रह || ७०१ | पुत्रोत्सव
कियो सेठ उछाह अपार, जैसो पुत्र जनम व्योहार । करी क्रिया सूत्रोति सबै धरचो नांम जीवंधर तबै ॥ ७१ ॥ धरचो तवं ओवंधर नाम, जासौं सुधरै सबही काम । अब विजया जखिरगी ले लार, गरुड यंत्र पर सवार ।। ७२ ।। गई पिश्रवन ते ततकाल, दंडकवन पहुँची गुणमाल । जहां परमती तापस रहें, धरि आश्रम कंदादिक हैं ||७३ || तहां रही निज नांम छिपाय, पति वियोगनी दुरबलि काय । जखिणी शोक हरण के हेत, रानि की उपदेशहि देत || ७४ ॥ ॥ जे प्राचीन कथा सति रूप, ते याकै ढिग कहें अनूप । भाखे इह झूठो संसार, साचो जिन मारग भवतार ।। ७५ ।।
जिन जिन मांहि श्रापदा परी, अर आपद में थिरता धरि । तिन तिन की परकारी बात, जिम सुनि या सहु सोक विलात ॥७६॥
जति पर श्रावक की जो धर्म, सो सहु प्रकट करें विनु भर्म । या विधि जीखरणी दे उपदेस, करी धर्म जुत याहि विसेस ॥७७॥
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जीवंधर स्वामि चरित
छंद वेसरी
अव तुम सुनौं और इक वाता, जा विधि मिल प्रष्ट ही भ्राता। विजया की हूँ सौकि वखानी, सत्यं घर को ल्हौरी रांनी ॥७।। रति इक अवर अनग पताका, तिनक पुण्य कर्म परिपाका । मधुर धकुल टू पुत्र विसुद्धा, सुनि जिन धर्म भये प्रतिबुद्धा ॥७९॥ धारे श्रावक वृत्त सबैही, जिनके धारै मोह दवही । नर सेनापति हौ राजा के नाम विमति सुभ मति तांक ॥८॥ होती नयावसी सुभ नारी, ताके वेवसेन सुत भारी। अर प्रोहित हो सागर नांमा, हुती श्रीमती ताक भामा ॥१॥ जांके पुत्र महा परवीना, बुडिषेण विद्या लवलीना। अर इक श्रेष्ठी हो धनपाला, ताकै श्रीदत्ता सुभचाला १८२॥ हुती नारि ताके गुणवंता, पुत्र भये वरदत कुलवंता। अर आगे मतिसागर नांमा, मंत्री हो नृप के अभिरामा ॥८३॥ ताकै नारि अनुपमा रूपा, जाकै मधुमुख पुत्र प्ररूपा। मधुर वकुल अर ए चउ जोधा, मिलि हूये पद सुभट प्रबोधा ।।८।। षट द्रव्यनि से भास भाई, एक क्षेत्र बासी सुखदाई । रहैं सेठ परि कला विसुद्धी, जीवधर के सखा सुयुद्धी। जीवंधर जुत सातौं एही, सत्य सुरूपी परम सनेही ।।५।। सप्त तत्व ज्यों लोक मझारे, सौहैं सातौं अति गुण भारे। बालकेलि अति चाव कराए, महा परायण प्रीत धराए ।।८६॥ राति दिवस विछुरै न कही, जिनकी बहुतहि विरद फवही । बहुरि सेठ की नारि जुनंबा, ताक सुत मंदाव्य अनंदा ।।८७१। भयो महाहितकारी वीरा, तब ए पाठ भये अतिधीरा । अष्ट गुणनि से पार्टी एही, सब सुरूप सुन्दर सुचि देही ।।८।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल व्यक्तित्व एवं कृतित्व
बालक्रीड़ा एवं तपस्वी से भेंट
एक दिवस या पुर के पास, कंवर करत हे केलि बिलास । लाख तनी गोली करि वाला, खेलत हे रस रूप रसाली ।।८।। एक पुरिख तापस के रूपा, जीवधर कौं देखि अनूपा । पूछन लागी होय खुश्याला, केती दूरे नगर है लाला ।।६०॥ बोले कंबर सबै इह जाने, बालक चेलक पंथ पिछाने । तू अति वृद्ध ज्ञान न तोकौं, किती दूर पुरै पूछ मोकौं ।। ६१ ।। तरवर सरवर बाग विसाला, बहुरि देखिए खेलत वाला । तहाँ क्यों न लखिये तीत, संक्षे कहाासि पोरस ।। १२॥ ज्यौं लम्बि धूम अगनि हूँ जाने, त्यों बालक लखि पुर परवाने । जीवंधर के सुनिये वनां, तापस "कीये नीचे नैनां ॥३॥ क्रांति कंवर की अर सब चेष्टा, देखी बुद्धि तापसी श्रष्ठा। अर सुनि सुभसुर सुदर बांनी, जामी'बालक है अति ज्ञानी ॥४॥ ऐसा"मान्य जगत जन नाही, परम पुरष प्रगटे भू माही । महाराज परकाज सुधारा, चिह्नन करि लखिए गुरणभारा ॥६५॥ बहुरि बंस परखन की एही, बोल्यो सुनिहो कवर सनेही । भोजन देहु भूख मुझ लागी, तूः बद्ध पर सुत है बड़भागी १६६।। तब दैनौं करि भोजन यांकी, लाये लाला को पिता कौं ।' भोजन तापस कौं दे ताता, तुम ही दाता जगत विख्याती ।।१७।। विन जुक्त सुनि सुत के बना, गंधोतकट पायो प्रति चनां । . धन्य भाग्य अपने ल स्त्रि भाई, लियो कंवर को कंठ लगाई ।।६।। कह्यो सेठ सुनि प्रारण प्रधारा, हम ए करि हैं लार ग्रहारा.), तुम पहली जीमी निचिता, जीवंधर जीवनि के मिंता ।18६ ।। करि सनांन जीमैं हम पार्छ, तापस कौसु जिमावै पार्छ।
जनक वचन सुनि भोजन कारन, बैठे जीवघर जगतारन ।।१०।। १ भूल पाठ एमा ..
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जीवंधर स्वामि चरित
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सकल सखा जुत अद्भुत बालक, प्रति मन भावन पर दुख टेलिक । . तहां बाल लीला :कर लौटे, रोवत खिजत महागुरण मोटे ||१०१ || उस्न अन्न हूँ जीमों कैसे, मांसौं बोलं वचन जुसे । माको प्रतिबिह्वल जब कीनी, तब तापस इह सिक्षा दीनी ॥ १०२ ॥ तो कौं रोबो जोगिन लाला, तू मंगल मूरति गुणमाला |
यद्यपि तेरी वय है छोटो, तौ पनि तो मैं मति अति मोटी ।। १०३ । १ धीरज आदि गुणनि करि भाई, तू सब जग को सिखर दिखाई । सुनितापस के वचन विवेकी, वोले आप भाव करि एको ।। १०४ || रोवे के लुन तुम नहि जानी, मेरी बात हिये परवानी ।
७
जाय सलेम जो दुख दाई, नेत्र विमल प्रति अधिकाई ॥ १०५१। तिते श्रहार हु सीतल होई, यांमैं तो श्रीगुन नहि कोई |
इन बचनांने तापस सुख पायो, अर भाता का हियो सिहायो ॥ १०६ ॥
15
सकल. सख्य जूत पुत्र जिमाए, पाछें श्रेष्ठी को पत्रराए । तापस करें प्रति तिरपत कीयो, प्राछो विधि तें भोजन दीयो ॥ १०७॥
तव तापस बोल्यो सुभ ना, कंबर देखि हरखे मुझ नैना ||१०८ || देखि जोगि ता मोहित हूंवो, भयो जाय नहि यातें जूवो । जो तुम आज्ञा द्यो सुखदाता, तो मैं याहि पढ़ाऊ ताता ।। १०६ । सूत्र समुद के जल तें याकी, धोऊ सनमति सुगुरा भरा को । सुनि करि बोले सेठ प्रवीनां, मैं हों जिन मारग श्राधीनां ।। ११० ।। अनमती को सिर नहि नांऊ, प्रांत धर्म के पासि न जाऊ | नमसकार विन अभिमांनी, दुख पावें मन मांहि निदांनी ।।१११ ।। तब वोल्यो आपस सुभ देनां बात हमारी सुनिदि जैनां | नगर सिंहपुर को में भूपा, श्ररिजकर्मा नांम परूपा ॥ ११२ ॥ | बोरनंदि के मुनि व्रत लीयो, पतिषेण सुतर्कों नृप कीयो । सम्यक सहित मुनीसर व्रत्ता, पाले जगतें होय निवृत्ता ।। ११३ ॥
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल व्यक्तित्व एवं कृतित्व
पछे दाह झुर उपज्यो मोकौं, कही कहांली वेदन तोकौं । तब मैं भयो भिष्ट प्राचारा, चारित रहित सांग इह धारा ।।११४।। जिनमत की श्रद्धा है मेरे, जैसी उर में श्रद्धा तेरे । धर्म भ्रात मोकों तुम जांनी, परमत को संदेह न प्रानौ ।।११५।। समाचार तांके सुनि सारा, परख्यो ताकी बहु परकारा। तब पढ़िवा गौप्यो सिवगामी, ताकै हिग जोबंधर स्वामी ।।११६।। विद्याध्ययनअर सौंपे याके सव मित्रा, जे सव वातनि मांहि विचित्रा। सो समदिष्टी इनको लेकै, कीये पंडित विद्या दकै ॥११७॥ शस्त्र शास्त्र आदिक बहु विद्या, छंदादिक सहु पद्यर गद्या। कुबर पढ़ाए महा सुबुद्धी, थोड़े दिन में भये प्रबुद्धी ।।११८।। ज्यौं दीपति करि सूरिज सौहे, त्या विद्या करिए मन मोहे । वालदसातै जोवन माहो, आये श्रीगंपर सक नाही ।।११।। तव पारिजवर्मा सुखदाई, तजि परभेष हुवो मुनिराई । गहि निज ध्यान लह्यो शिवधामा, जहां विराजे केवल रामा ।१२०।। अब तुम सुनौ कंवर परतापा, नगर तनी मेट्यो संतापा । महा सुभट बर बीर सु धीरा, पर जीवनि की हइ जु पीरा ॥१२१।।
__ दोहा
कालकुट भील द्वारा नगर में उत्पात--
कालकूट नामा कुधी, मुखिया भीलनि माहि । पापी प्रगट्यो ता समैं, जाकै करुणा नांहि ॥१२२।। अति कारौ अति कुटिल जो, वह अकारौ सोइ । सुनते जाको नाम ही, धीरज धरै न कोइ ॥१२३।। धनुष वान धारयां रहै, राती प्रांखि विरूप । पढ़ी है र भ्रकुटी सदा, रुद्र ध्यान को रूप ॥१२४।।
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जीबंधर स्वामि परित
अश्व पूंछ से मूछ के, बाल कठोर महांन । देख्यो जाय न दुष्टधी, दुरजन पाप निधान ॥१२५।। आय परै जब गांव परि, थांभि सके नहिं कोय । लूटै धन पिरपरे तनौं, संक घरं नहि सोय ।।१२६।। काल कूट विष सारिखौ, काल कूट इह भील । अति कुसोल अति नीच नर, दीखे महा कुचील 11१२७।। जानि जेक इह तिमर ही, धरि मानुष को काय । रवि किरणनि कार डरि कुधी, विचरे नाम छिपाय ॥ १२८।। निरदय सेना जा कने, सींगी नाद करत । अभख अहारी गौ हतक, करै पसुनिको अंत ॥१२६।। ज्यौं तमाल वृक्षांनि को, वाम होय अति स्याम । त्यौं कारी भीलांनि को, दल प्रायो अध धाम ।।१३०।। डरे नगर के लोक सब, देखि भील को जोर । नहीं जानिये ह कहा, उपज्यो परि घरि सोर ॥१३१॥ घेरी गाय सुनम्र की, घेरे पसू अछेह । तव काष्टांगारिक नृपति, करी घोषणा एह ।।१३२।। जो लरि दुष्ट किसतस., गाय छुड़ावै कोय ।
सो मेरी गोदावरी, पुत्री को पति होय ।।१३३।। जीवंधर द्वारा उपद्रव का दमन--
इहै घोषणा सुनि सुधि, जीवंधर सुकुमार । सात सखा जुत साह सुत, ले प्रायुध रण सार ।।१३४।। चले तुरत भीलांनि परि, ज्यौं तम परि रविद्यांम । इनके पीछे भूप सुत, कासांगारिक नाम ॥१३५।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल --व्यक्तित्व एवं कृतित्व
सोऊ चाल्यो देखिवा, इन को युद्ध बिसाल ।
लरे सेठ सुत भील सौ, जीवंधर गुणमाल ॥ १३६ ॥
आठों भाई एकल परे भील दल मांहि ।
बांस चलाये या विधी कर दुष्ट हटांहि ।।१३७।।
3
र विद्या में निपुन ए. धनुरवेद के मूल ।
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सर सांधे अति सीघ्र ही, लखि न सकें प्रतिकूल ।। १३८ ।।
वन दें नहि बांन पर श्रावत बांरंग कटांहि ।
चोट चुका पारकी, पर करें चोट रोकेँ अपने बांन हैं, पर के वांन जाय संचरे पर सिरे, धारें जुद्ध या विधि ररंग करि रिपुनि कीं, जीति जीवंधर को लोक में, प्रकटी कला अतीव ।। १४१ ॥
छुड़ाए जीव ।
कराहि ॥१३६॥
अनेक ।
विवेक ॥१४०॥
-
ज्यों दुरंनेय को दलि महा, जय पावै नय सार ।
बुल मलि दल दुष्ट कौं, जीत्यो साह कुमार ।। १४२ ।। वरच विजे लुखिमी प्रगट, आयो नगर मकार । अपने जस करि दस दिसा, पूरवती प्रविकार ।। १४३ ।।
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- कुंद पहुप पर हंस पख, जा सम उज्जल नाहि । ग्रेस उज्जल परम जस, प्रगट्यो पिरथी मांहि || १४४ ॥ देह कंवर को ग्रांच तरु, पहुप सूर पण रूप 1 कीरति भई सुगंधता, अद्भुत अतुल अनूप ॥। १४५।१५ लोक नेत्र भमरा भये, परं प्रत्रिप्ता होय ।
या विधि आये घर विषे लोक वेढिया सोय || १४६॥ राज पुरोहित भूप में कही बात परकासि । कंबर लार साह सुत, लरे बहुत गुरारासि ।।१४७।।
तब बुलाय नृप पूछिया, तुम श्रठनि में कौन ।
जीत्यो भील गणांनितें, सो भाखी तजि मौंन ॥ १४८ ॥
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जीवंधर स्वामि चरित
नंदाव्य के साथ गोदावरी का विवाह
एक वाक्य बोले सर्व, लखि जोवंधर सैन । जीत्यो है नंदान्य इह, जाके मृग से नैन ॥१४६।। तब विवाह विधि करि नृपति, परणायो नंदाढ्य । दीनी पुत्री प्रापनी, गोदावरी गुणाज्य ॥१५०।।
इति श्री जीवंधरस्वामिचरित्रे महापुराणानुसारेण वालावनोष भाषायां बाललीला-विद्याभ्यास भीस-विजय-विमोचन नंदाब्य-विवाहप्ररूपणो नाम प्रथमोध्यायः ॥१॥
। द्वितीय अध्यास
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गगनवल्लभ के विद्याधर राजा रानी वर्णन--- .. . सुनी और इक बात महारस की भरी,
भरत क्षेत्र वैलान्य श्रेरिण दधरण परी। अमर नगर, सम नमर गगनवसभ जहां,.
विद्याधर भूपाल गरूडवेगो तहां ॥१॥ भाइनि काठ्यो सोइ थान भूपती,
तब तिन कियो विचार रहन को सुभमती । रतनसोध कै. मांहि नाम मनु जो. दयो..
परवत देखि मनोगि चित्त हरषित भयो ।।२।। जहां वसायो नगर नाम रमरणीय जो,
तहां रह्यो खग भूप शांति रस पीय जो। ताकै नारि स्वरूप धारिणी नाम है,
सुता नाम गंधर्ववता गुणघांम है ॥३॥
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल व्यक्तित्व एवं कृतित्व
एक दिवस गंधर्ववत्ता उपवासिया,
जाय देहरें पूजि देव गुण रासिया | ग्राम पिता को दई प्रासिका सुभकरी,
देखी खेचरराय ताहि जोवन भरी ॥४॥
तब पूछयो परधान नांममति सागरा,
देहि कौन कौं याहि कहो गुण प्रागरा | तब वोल्यो परधान सुन भूपाल जो,
मंदिरगिर गयो सकल दुख टालजी ||५|| नंदन वन के मांहि पूर्व दिसि बेहुरा ।
तहां वंदिया देव जगत के सेकुरा । दरसन कारणि नांम विपुलमति चारणा,
श्राये हे जोगीस जगत के तारणा ||६|
करि प्रणाम मै सुन्यों धर्म जिनराय को,
जगत पूजि जग पार कर सुखदाय को ।
बहुरि पूछियो एह कहो जग तातजी,
मेरे नृप की सुता रूप विख्यात जी ||७|| ताहि को पति कौन तवं मुनि बोलिया,
मुझ परि होय दयाल अवधि द्विग खोलिया ।
गंधदत्ता के विवाह की भविष्यवाणी
―T
भरत क्षेत्र के मांहि देस मांगा,
तहां रामपुर नगर हरे सुरपुर मदा ||८||
सत्यंधर भूपाल सत्य भूषरण घरा,
ताके विजया नांम महारांनी परा I
तिन को सुत मतिवान वरें तांको सही,
कौन रीति करि सोहु धारि तू उर मही ||६||
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जीवंधर स्वामि चरित
तेरे नृप की सुता धारिहे धारणा,
जो तर बीन वजाय होय चित हाररणा ।
सो बहु गुण को नाथ हाथ मेरी गहूं,
जग
बीन बजाय रिझाय ताहि परनें सही
सुनि परतज्ञा एह श्राय हैं बहु नरा,
वीन स्वयंवर मांहि भूचरा खेचरा । कोई ताहि रिझाय सके नहि नागरा,
सत्यंधर की पूत गुणनिकों सागरा ||११ ।।
१७
*
होनहार ए वात सकल मोर्सी कहीं 1 समुझाय को मुनिरायजी,
मैं तुम सों को सु श्रीसर पायजी ||१२|
सुनि मंत्री के बैन सोच करि भूपती,
बोल्यो सुति मंत्री सचित्त धरि सुभमति । लाको झन इहां होइ किस रीति सौं,
कैसे सो गुरणवांन विवाह प्रीति सों ॥। १३ ।। प्रकट को परधान भूपपं यों तवै,
कहयो मोहि संजोग साधुन यो सबै नगर 'रामपुर' मांहि महा धरमातमा,
'वृषभदास' इक सेठ दास परमात्मा ।। १८ ।।
सागरसेन सु नांम ज्ञान के सागरा
जाकं सुन्दर नारि नांम 'पदमावती',
ताकै सुत 'ति' सकल ए जिनमती । एक दिवस पुर पासि प्रीतिवर्द्धन वना
तहाँ विराजे आय केवली निजघना || १५||
त्रिभुवन गुरु जगदीस गुपनिके आगरा ।
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१८
महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
पिता सहित जिनदत्त पूजिवा आइ है,
दे परदक्षणा जोरि हाथ सिरनाइ है ।।१६।। गपडवेग है जहां जायगौ दरसने,
देखि तहां जिनदत्त भक्ति रस सरसन । करिहै तासौं प्रीति धर्म अनुराग सौं,
जांनै गौ इह प्रीति भई बड भाम सौं ।।१७।। खग मैं वामैं भेद भाव रहि है नहीं,
होनहार इह बात अलप दिन मै सही । ताही ते इह काज सरैगो ब्याह की,
ताही के पुर ब्याह -होय उछाह को ।।१८।। ए मुनि भाषे वैन मोन खै नाथ जी,
ते मै तोसौ कहै सकल बड़ हाथ जी । मुनि भाषी सो भई प्रीति जिनदत्त सौं,
भेद रह्यो नहि कोई जैनमत रत्त सौ ।।१६।। अब तु सुनि जा भांति मिल संजोग जी,
वृषभवास बड भाग गयो मुनि जोग जी। जिनदत्तहि सब सौंप साध गुरणपाल पैं,
दिक्षा लीनी देव सकल अघटाल पं ॥२०॥ बहुरि सुव्रता पासि त्यागि जग की मती,
भई अर्यका सेठ नारि पदमावती । जे कुलवंती नारि पतिव्रत धारिणी,
तिनको एई रीति कही सुभकारिणी ॥२१॥ अब जिनदत सपूत पाय पद तात की,
परकास निति धर्म घातिया घातको। अतुल द्रिव्य को ईस सीस सेठांनि को,
सिख्या दायक धीर सुगुर जेठानि को ।।२२॥
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जीवंधर स्वामि चरित
सो व्यापार निमित्त आहे ह्यां प्रभू,
रतन दीप के मांहि रतन बहुते विभू । ताही तें इह काज सिद्ध गौ महा,
अतिसार ए तात भाषि चप रहा ||२३|| कैयक दिन में तहां वरिष्कपति आइयो,
खुसी हुवो खग भूप ताहि उर लाइयो । पाहुन गति प्रति करी रीति पाली सर्व,
करि प्रति चित्त प्रसन्न बात भाषी तबै ||२४||
तेरे मेरे भेद रह्यो नांही भया,
तन मन जन धन धांम एक हूं परणया । मेरी तेरी सुता दोय नाही मनी,
तेरे पुर परणाय व्याह को धनी ||२५||
चीन बजाय रिझाय याहि जीते जिको,
वर पुत्री को होय घोर निश्च तिको। ए सुनि खग के वैन सेठ जिम जो,
मित्राई प्रतिपाल धर्म में रत्त जो ॥ २६॥
निज पुत्री सम जांनि विद्याधर की सुता,
लेय गयो निज नगर बहुत स्वग संजुता ।
रच्यो स्वयंवर गेहू मनोहर वन महैं,
जाकी सोभा देखि देव अचिरज गर्हे ॥ २७॥
बहुत कला में निपुन भूचरा खेचरा,
१६
ये अति सुकुमार बीन में तत्परा ।
प्रथमहि पूजा करी देव जिनराय की,
महा मंगलाचार कररण सुखदाय की ||२८|
जब प्राये सव सुघर स्वयंवर साल में,
दीप अधिकी कान्ति जिनों के भाल मैं
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महाकचि दौलतराम कासलीवाल- व्यक्तित्व एवं कृतित्व
तब आई गंधर्वबता गुणरासिका,
लैकें वीन प्रवीन महारस भासिका ||२६|
नांम सुघोषा वीन सुलक्षणा की भरी,
ताके तारनि मांहि सुवरस रसभरी । बीन बजाई शुद्ध जबै विद्याधरी,
हृते वीन परवीन तिनों की सुधि हरी ||३०|
जानी इह गंधर्व सूत्र की मूरती,
श्रर इह सब संगीत कला की सूरती ।
जीति सक्यो नहीं कोई वीन मैं नागरा,
सब को जीति सुजान हियं गुण आगरा ||३१॥
जीवंधर की वीरणा प्रतियोगिता में विजय -
तवै जीतिवा याहि धीर जीवंधरा,
सकल कला परवीन वान मैं तत्परा । प्राये सभा मझार सार गुण के भरे,
पक्षपात सौं रहित तिने साखी करे ||३२|०
अधिकारीनि सौं की देहू वीरणा हमें,
जिनके तार बजाय चित्त प्रति ही रमे ।
वीन क्यारि तिन ल्याय चतुर के हिंग धरी,
बोल्यो तब परवीन बीन दूषरण भरी ||३३||
केस रोम लव श्रादि इनों में योगुना,
हम को दे ए बीन रोग चाहीं सुना ।
यो तिन सौं कहि सौंपि दई र बोलिया,
सुनि हो नभचर सुता गांठ उर खोलिया ।। ३४ ।।
जो तू मछर रहित महागुण की भरी,
तौ तेरी दे दीन वजांऊ चित घरी |
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जीबंधर स्वामि चरित
तब अति होय प्रसन्न विद्याधर को सुता,
दई सुघोषा वीन सुद्ध तारनि जुता ।।३।। लेके वीन प्रवीन बजाई रस भरी,
राग सूत्र अनुसारि लगाई रंग झरी । काढ़े सुर गंभीर गीत संजुत महा,
मधुर मनोहर रूप सुजस जाय न कहा ।।३६॥ सुनि करि चित्रत रहे भूचरा खेचरा,
मृग मोहित व्है महाराग मै चित धरा । या विद्या करि हुई कंबर की कोरती,
जांनी सब संसार राग मैं कीमती ।।।३७। धन्य धन्य ए वचन तेहि पहपा भये,
तिन करि पूजे कुमर पंडितनि सिर नये । हरयो गयो सुनि वीन चित्त कंवरी तनौं,
लगे काम के वान भेदियो उर धनौं ।।३८।। माला घाली कठि कंबर के खग सुत्ता,
सीलवंति मुगवति रूप करि अद्भुता । कहा कहा नहि होय पुण्य परभाव सौं,
तातें धारी पुण्य भव्य सुभ भाव सौं ।।३६।। जैसे दिन मै दीप दिपै नहि भानु पैं,
सैसे पर नर भये कंवर बहु जान पैं। भासे अति दैदीपमान निज लोक जे,
जीसंघर परताप धरै गुन थोक जे ।।४।। थकित भई लख रूप लाल की खेचरी,
एक रूप इक भाव होय करि ढिग खरी। वीन सुप्रोषा हेत पाइयो सुभपती,
करी वीन की तवै खुसी है थुति प्रती।।४।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
सत्य सु घोषा नाम वीन तेरौ सही,
बड़े वंसतै भई आप तोकौं चहीं । मधुरा अति रस तार चित्त की हारिणी,
कीयो कंधर मिलाप तेंहि सुखकारिणी ॥४२।। अति प्रवीन तू सखी निपुन दूती महा,
तेरेई परसाद गुरणपती पति लहा । ह्यां तो अतिरस भयो सुनौं अन्त्र सज्जनां,
काष्टांगारिक पूत सु प्रेरचो दुरजनां ।।४३।। हरणे की गंधर्ववता की जड़मती,
काष्टांगारिफ नाम कियो उद्यम प्रती। तब कुमर इह जांनि भये असवार जी,
जय गिर गज परि पाप सावता लारजी ।।४।। तब तात गंधर्ववत्ता कौं नभचरा,
गराड़वेग सुभ नाम बुद्धि मैं ततपरा । जाय परयो मध्यस्थ दुहे के सुभमती,
अति उपाय परवीन विद्याधर को पती ॥४५।।
गंधर्वदत्ता के साथ जीवंधर का विवाह-- शांत कियो दल शत्रु सरि मेटी सबै,
अति उछाह ते व्याह हुवो पुर मैं तब । जीवंधर कौं देय पुत्रिका आपनी,
हूवो अति निहचित खेचरा को धनीं ।।४६।।
दोहा
रहै कंवारी कन्यका, व्याह जोगि घर मांहि । मात तात की दूसरी, ता सम चिता नांहि ।।४७।।
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जीवंबर स्वामि चरित
पुत्री पररगावन समा नहि निचितता और 1 तातें भयो निचित प्रति, गरुड़वेग खग मौर ||४८५ || जीवंधर झर खग सुता, वढ्यो परसपर नेह । जिनके र सिंगार को कथा छेह ॥४६॥
रति स्वरूप रामा इहै, काम स्वरूप कुमार । ar किसोर नागर नवल, वय न बढ़े सिगार ||५०||
सम स्वरूप सम गुन सबै, समविद्या सम सील । क्यों न परसपर प्रोति ह्न, चित्त एक द्वय डोल ।। ५१ ।।
इति गंधर्ववत विवाह निरूपणम् ।।
चौपई
२३
अब ग्राई मधु' रितु प्रति चाव, मदन वरधनी मोद सुभाव ।
फूले तर बाजी सुभ वाय प्रगटो परिमल प्रति अधिकाय ।। ५२ ।।
J
वन सुर मलय नांम विख्यात नंदन वन की तुल्य लखात |
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तहां चले नरपति प्रति रंग, चाले नगर लोक नृप संग || ५३ ।। निज निज संपति प्रगट दिखाय, सुख कारण ले बहु समुदाय । श्रति उछव उपज्यो वन मांहि, जाहि लखें सब सोक नसांहि ।। ५४||
इक वैश्रवरवत है साह, जाकै इनि दिनि बहुत उछाह ।
घांम ।
तमंजरी जाकै नारि, रूपवती पति आज्ञाकारि ।। ५५ ।। ताकै पुत्री सुरमंजरी, अति सुंदर अति सुंदर चतुराई स्याम लता दासी जा कनें, सुरगंजरि के गुण प्रति ले भाई चंद्रोदय नांम, करणवास महा गुरण जहां लख बहुजन समुदाय, तहां बचन यों भाषै जाय ॥ ५७ ॥ या सम और न कोई सुगंध, जांक पाय भमर संघ । यो कहि इत उत फिरती फिरें, सब गुण मैं मुझ स्वामिनि सिरें ।। ५८ ।। १ मूलपाठ रवि
भरी ।
|
भनें ।। ५६ ।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तिव एवं कृतित्व
बहुरि कुमारवत्त इक साह, विमला नारि तनों जो नाह । पुरणमाला ताकै. सुभ सुता, रूपवती बहु गुण करि जुता ।।५६ ।। ताक दासी विद्य तलता, मानवती चतुराई रता । सोहू लाई चूरगवास, सूर्योदय इह नाम प्रकास ॥६०॥ इह हू पंडित सभा मझार, करै प्रसंसा विविध प्रकार । हमरे चूरण वास समान, नई विष हूँ न खान ६१ सकल कला परवीन सु जानि, मुझ स्वामिनि सी और न मानि । भले भौंह अर मृग से नैन, यों दासो बोल मधु बन ॥६॥ भमर भमैया परित हकीक, मेरे वचन न होय अलीक । स्याम लता अर विद्युत लता, निज निज स्वामिनि गुरण मैं रता॥६३।।
सुगंध परीक्षा-- दोऊ दासी मछर भरी, करें विवाद सभा मैं स्वरी । हुते सुगंध परखबा घनें, बनें उन अतिरस के सनें ॥६४।। कोऊ परस्त्रि सक्यो न सुगंध, दोऊ दीसें एक प्रबंध । अधिक वोछ जान्यों नहि परें, तव जीवंपर परख जु करै ।।६।। परखि दुहूँ को बोले लाल, चंद्रोदय है गंध विसाल । जो नहि मानी मेरे वैन, तो देखी परतखि निज नैन ।।६६।। यों कहि मस.लि हाथ ते सही, दोऊ चूरण डारे महीं । चंद्रोदय परि भ्रमर जु पाय, लागे अति सुगंध परभाय ।।६७।। तवै हुते जेते मतिवांन, तिननें बात करी परमांन । सनि सिराह्यो चंद्रोदयो, तवं विवाद सारौ मिटि गयो ॥६८।। सदा करत ही विद्यावाद, दोऊ धारत हो उदमाद । तब ते वाद दुहुनि को गयो, दोऊ कन्या अति हित भयो ।।६।। गंध परखवा दुजौ नाहि, जीबंधर सौ धरणी मांहि । यो कहि सबनि प्रसंसा करी, इन की देह गुणनिसौं भरी ॥७॥
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जीवंधर स्वामि चरित
ताही सम और इक बात, भई सोहु धारों विरूपात । निज इछा स कुकर एक क्रीड़ा करत हुतौ प्रविवेक ॥ ७१ ॥
२५
जीवंधर द्वारा कुत्ते को रामोकार मंत्र सुनानা—
दुष्ट बालका लार जु परे, लकरी लोढी माररणा करे । दौरी कूकर अति हो डरो, श्रीडे द्रह मांही गिरि परयो ||७२ || प्रारण छोडि वे सनमुख भयो, सुनिकें कुमर कढ़ाई हिलयो । जान्यों इह जीवै नहि कोइ, याकी मरण अवारहि होय ||७२ || तव ताके कांनति में श्राप दियो मंत्र जो ना पाए । नमोकार सौ मंत्र न और इहे मंत्र सब श्रुतको मौर ।।७३|| यक्ष मित्रता
धारघो कूकर मन में एह, सुभ भावनि सों त्यागी देह । यक्ष सुदरसन नामा भयो, महामंत्र तं सब गयी ||७४ ॥
चंद्रोदय गिर विषै निवास, देवनि की पूरव भवभास 1 जक्ष चितारि सकल परसंग, आयो कवंर पासि प्रतिरंग || ७५ ॥
कहत भयो हो सुगुर सुजान, तुव परसाद लह्यो सुभ थांन । पाई प्रति विभूति में नाथ, करि किरपा तें पकरथो हाथ ||७६ ॥ दीयो महामंत्र ते सही, जाकी महिमा जाय न कही । याहि देखि सब अचिरज रहे नमोकार के गुन सरदहे ॥७७॥ ॥
जक्ष लिज्ञ महा मतिवांन, करो कंवर की पूज विघांन । दिये दिव्य आभर अमोल पर मित्राई कही प्रड़ोल || ७८ ।।
करी वीनती बारंबार, मोहि गनौं अपनों निरधार 1 अव सी हरख-विषादनि मांहि सदा चितारी से नाहि ॥ ७६ ॥
नमसकार करि अपने धाम, गयो जक्ष गावत गुण ग्रांम । विनु कारण जे पर उपगार करें तेहि पावे फलसार ||८०||
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महाकवि दौलत राम कागलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
राजा के हाथी का बिगड़ना
वन की क्रीड़ा करि नर नारि, पावत है सव नगर मझारि । नृप की हसती गंधमहंत, असनिवेग नामा बलवंत ।।१।। विझक्यो लोक सवद ते महा, अति ही मद करि छकि जो रहा ।
काहू 4 न निवारयो जाय, बहु प्रचंड अति दीरध काय ।।२।। सुरमंजरी को बचाना
सुरमंजरि के रथ परि गजा, दौरखो खौके संक ही भजा । जीवंधर तव आये घाय, जिनते गोपि न कोई उपाय ।।८३।। गज शिक्षा ग्रेयनि परवान, गज सौ लागे क्रीड सुजांन । करे परिभ्रम तीसर दोय, तामैं हस्ती सिथिल जु होय ।।१४। इन कौं खेद होई नहि कवै, इन ते सुर नर खग तिर दवै । बसि करि हाथी वांध्यो ठान, सांवत सकल कला के जान ।३८५।। गज ग्रयनि मैं लखि विज्ञान, करन लगे सब सुजस वखांन ।
आये कंदर अापने गेह, सुर मंजरि के उपज्यो नेह ।।६।। जीर्वधर के प्रति सुरमंजरी की आसक्ति
लखि करि जीवघर को रूप, भई कन्यका काम सुरूप । ताकी चेष्टा लखि करि जवं, मात तात ने जांनी सबै ।।७।। या पुत्री के निश्चं इहै, जीवंधर मेरो कर गहै । तब वैश्रवणवत्त करि नेह, आयो गंधोसकट के गेह ।। करी वीनती वे कर जोरि, बहुरि प्रापनौं सीस निहोरि ।।८।। सुनौं सेठपति मेरे चैन, जीघर जग की सुख दैन ।
इह तेरी सुत अद्भुत रूप, मेरै परणे अतुल अनूप ८६।। सुरमंजरी के साथ विवाह
करि तू मोहि आपनौं दास, तू किरपानिधि सुगुरण निवास । तब बोले गंधोतकट साह्, या सम और जु कौन उछाह् ॥१०
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जीवंधर स्वामि चरित
करी प्रमांण बात में एह, मेरी सुत पर तुव गेह । तव वैश्रवणदत्त निज सुता, सूर मंजरि जो बहगुगा जुता ।।६१।।
२७
तुरतहि भली महूरत पाय, जीवंधर कूं दी पराय ||१२|| भरी रंग रस सुर मंजरी, प्रीतम सौ प्रति प्रीति जु घरी । सूरापन र प्रति सोभाग, जीवंबर सौ नहि बड़भाग || ३ ||
काष्टांगार का षड़यंत्र -
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करें निरंतर कीरति सर्वे काष्ट्रांगारिक कोप्यो तवं । मेरी हस्ती गंध अनूप, प्रसनिवेग हाथिति को भूप ।।६४।। पीस्यो ताहि मान मद् हरचो, कुधी वनिक सुत गरवं भरघो । कुल की रीति तजी मति अंध, सीख्यो राजनि के परबंध ||२५||
aनियनको इह रीति अनादि हरडे सूठि आंवला आदि । बेचै और मोलि ले सही, इन तौ रीति और ही गही ।। ६६ ।।
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करें जाति माफिक जो काम, तासों रहे तात की नाम | इह कुल खंगरण कुबुधि सुरूप, मन में भयो रहे सुतभूप ||६||
तव तेयोपुर को रष्टिपाल, चंडवंड नामा कुटवाल । तास भाथ्यो फाष्टांगारि, जीवंबर को तुरतहि मारि ||८||
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है इह बहुत कुचेष्टा भरयो, धन जोबन छकि बहु वहि परयो । इह नृप आज्ञा सुनि कुटयाल, लेकरि अपने सुभट विसाल ||६|| सजि वजि दौरधो काल समान, जीवंधर परि लेवा प्रांत । सबै साह सुत सुनि इह बात, लेकरि साथि भ्रात निज सात ।। १०२ ।।
ॐ भाई ग्रायुध भरे, करि साहस तलब परिपरे । तुरत भगाय दियो कुटवाल, जीते जीवंधर गुण माल ॥ १०६॥ बहुरि कोप करि काष्टांगारि, भेजे बहुत सुभट रण कारि । तव दयाल मन में एह, धारी जीवंधर गुग्गु गेहूँ ।। १०२ ।।
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२८
महाकवि दौलतराम कासलीवान-व्यक्तित्व एव कृतित्व
कहा रंक ए मौसौं लरे, मेरे बारानि तें सव मरै । पनि हिंसा सौ और न पाप, जीवनि को करणी न सत्ताप ।।१०३।। सातै कोई उपाय बिचारि, मेटौं पाप कारिणो रारि । करौं शांत या सठ की सही, तव सुमरथो उर में सुर वहीं ।।१०४।। जो अपनौं निज मित्र विसाल, जक्ष सुदरसन प्रीति रसाल । पायो तुरत महा बलवान, सकल रारि मेटी मतिवांन ।।१०५।। अर जवि करी बीनती एह, एक बार लखिए मुझ गेह । जीवंधर का चन्द्रोदय पर्वत पर जानाचंद्रोदय परवत सुभथान, तुब परसाद लह्यो गुणवान ।१०६।। तव जीवंधर जग सुखदैन, जखि कौं सुख देवे मृगर्नेन । ताकी वात करी परमान, तब वह लेय गयो निज थान ।।१०७।। नाम बिगिर हस्ति चढ़ाय, इह मित्रनि की रीति कहाय । मित्रनि को पधरावे गेह, दे सुभ वस्तु कर अति नेह ।।१०८।। किनही नहि जांनी इह वात, मात तात अर सातौं भ्रात । करन लगे आकुलता महा, विना कंवर नहि थिरता गहा ।।१०६ ।। जैसे नव पल्लव लहि वाय, अति ही होंहि चलाचल काय । तसे निज जन अथिर जु भये, हमहि जतायें विनु कित गये ।।११।। तव गंधर्वयसा खग सुता, अति विद्या निधि अति गुण जुता । निमत ज्ञान से जांनी बात, कंबरे नाही कछू उतपात ॥१११।। रही निराकुल चित्त सयांन, समुझाये निज जनहित बांन । कंवर लाभ ले आवै सही, या माहै कछु संस नहीं ।।११२।। कबहू मैं जानौं गति कोय, रही हरष सौं थिर चित होय । तव थाके गनि वचन प्रमान, सधनि लाह्यो संतोष निधान ।।११३॥ जीवंधर जस्ति के घरि जाय, कैयक दिवस रहे सुखपाय । बहुरि भयो चलिवे को चित्त, अभिप्राय तब जान्यौं मित्त ।।११४।।
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जीवंधर स्वामि चरित
दोहा
काम मुद्रिका प्राप्ति
काम रूपिणी मुद्रिका, महाक्रांति को रूप । सकल अरथ साधन करी, दीनी अतुल अनूप ।।११।। पर उतारि परवत थकी, किती दूरि पहुँचाय । जांनी इनकी भै नहीं, लाभ हौंहि अधिकाय ।।११६।। तवं सीख करि र्धार गयो, जक्ष प्रीति प्रतिपाल । शील कंवर के चरण जुग, जीवनि के दुखटाल ॥११७।।
इति श्री जोवंधर स्वामी चरित्रे महापुराणानुसारेण वासावयोष भाषायां, 'बीन प्रयीनता', 'गंधर्ववत्ता बिबाह', 'सुगंध परीक्षा, स्थानोपगार अक्षमित्रता, गंध हस्ती विजय, सुरमंजरी विवाह, कौति प्रकाश, काष्टांगारिक कोपरणोधम, यक्षागमन युद्धप्रशांति यक्षग्रहेगमम काममुदिकालाम निरूपरणो माम द्वितीयोध्यायः ॥
बीसरा अध्याय
छन्द-चालि
अव चले कंवर गुण पूरा, पहुंचे केतीयक दूरा । इक नगर नाम 'चंद्राभा', दीखं जाकी वहु प्राभा ॥१॥ अति धौले उजले गेहा, व्है सरद चांदनी जेहा ।
राजा 'धगपत्ति' पुर स्वामी, सो लोकपाल सौ नामी ।।२।। पदमोत्तमा को विषधर द्वारा डसना
अर है 'तिलोतमा रानी, राजा के रूप निघांनी । शुभ 'पदम' उत्तमा पुत्ती, अति सुदर वहुगुण जुत्ती ।।३।। इक्र दिवस गई ही वन मैं, क्रीडा को चाव जु मन में । सो इसी दुष्ट विषधरने, जव सोच हवो नरवर नें ॥४॥
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
तव करी घोषणा पुर में, इह निश्च धारौ उर में । जो याके प्राण उवार, मरिण मंत्रौषध परकारे शा ताको एही परणाऊ, अर सीस प्रापनौं नाऊ । फुनि प्राधौ राज हु तांको, जो नर विष टार यांकौ ।।६।। तव सव पाये विष झारा, लखि लोभ वहुत परकारा। पनि विष नहि हुवा दूरा, पचि पचि हारे गुन पूरा ।।७।। तव नृप के उपयों सौका, दौरे सव दिसि अति लोका। ढूढन विषहारी नर कौं, लखि जीवंघर ततपर कौं ।।८।। पूछन लागी तुम माही, विषहर विद्या अकनाही । देखे अति आकुल लोका, तब बोले तत्व बिलोका ।।६।। कछु इक विद्या है भाई, पूरण विद्या जिनराई । सुनि !|| महा संपरा, गरीः 'जाति मुन पुष्टः ।।१०।। इह नाग मंत्र में निपुना, सब ही वातान में सुगुना । तोपनि चित यी वह जक्षा, जो रास्सै अपनी पक्षा ।।११।। नृप पुत्री निरविष कीनी, जिन मंत्र औषदी दीनी । तव राजा हुवो राजी, जानी ए नर परकाजी ।।१२।। प्रति क्रांति पराक्रमधारी, लक्षण करि लखिए भारी । ए राजवंस बरवीरा, निश्च नर नायक धीरा ।।१३।। तव निज पुत्री परणाई, पर वहुतहि प्रीति जनाई । फुनि भरध राज हू दीयो, निज वचन सत्य नृप कीयो ॥१४॥ कन्या के भ्रात वतीसा, अति ही सज्जन गुण ईसा । सब लोकपाल प्रमुखाजे, जीवंधर सौं सुमुषाजे ॥१५॥ विनयादिक गुण लखि तिनमैं, जोधर राजी मन मैं । कैयक दिन क्रीड़ा कोनी, सबही कौं साता दीनी ।।१६।।
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जीबंधर स्वामि चरित
अब ह्या ते मागें चाले, अतुली वल निसि कौं पाले । काहू सौं नाहि जतायो, एकाकी गमन कगयो ।।१७।। कितीयक कोसनि पहुँचे जी, जीवंधर श्रीधर से जी। इक खेम नगर सुर पुर सौं, सब ही वातनि अति सरसों ।।१८।। इक बन है पुर ते नीरा, देखत ही मेटै पीरा ।
जो नाम मनौरम कहिया, अति सुंदर तरवर सहिया ।।१६।। सहस्रकूट चैत्यालय के कपाट खुलना--
तामैं जिन मंदिर सोहै, सो सहस सिखर मन मोहैं । लखि जीवंधर जिन गेहा, कीयो वंदन धरि नेहा ॥२०॥ दे तीन प्रदक्षण भाई, दरसन को भाव धराई । देवल के पाट विसाला, ते खुले सहज ततकाला ।।२१।। हूबो दरसन जिनवर को, भवत्तारन त्रिभुवन मुर को । जिन सतवन करनै लागौ, अति भक्त शांत रस पागौ ।।२२।। फूल्यो चेपा इक अब हो, दरसातौ राग अधिक ही। कोकिल चुप होय रहे हे, मधु रति को विरह गहे हे ।।२३।। ते लगे बोलने मधुरा, सुनि करि राजी ह्र सुघरा । अर जिन मंदिर के निकटा, इक सरवर प्रति ही सुघटा ।।२४।। सो निर्मल जल करि पूरी, हूवो आतप चक चूरौ । मांनी फटिक द्रव भरियो, गुन निपुन नरनि को करियो ।२५।। तामै फूले ततकाला, कमलादिक गंध बिसाला । अति भमर करें गुजारा, लखतां ह्र हरष अपारा ।।२६।। करिके जु सनांन विसुद्धी, ले आठौं द्रव्य सुबुद्धी । जिनवर का पूजि सुग्यांनी, थुति करन लगी गुण खांनी ॥२७॥ ता खेमनगर को बासी, इक समुद सेठ जस रासी । जाक निरवृति सेठांनी, तार्क पुत्री मतिवांनी ॥२६।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
सो खेमसुरों नामा, मांनी लखिमी गुण धामा । इक दिन विनयधर स्वामी, मुनि ज्ञान ध्यान विसरांमी ।।२६।। तिनको कन्या के ताता, पूछयो लखि के अति ग्याता । मेरी पुत्री कुन पर, तव महा पुरुष यों वरनं ।।३०॥ चंपो फूल ततकाला, ह्र कोकिल सवद रसाला । फुनि पाट जिनालय उघरे, जय जय रव जब वह उचरै ।।३१॥ अर फूल कमल सु बासा, ए सकल चिह्न जे भासा। जाके आने से होवे, जा करि दुखिया दुख खोवै ॥३२॥ सो व्याहै तेरी कन्या, इक पुरख धारिणी धन्या । तव ही ते राख्ने पुरुषा, जे करें सुवर की परषा ॥३३॥ ते रहत हुते या वन मैं, लखि सुनर खुशी व मन मैं । तिन जाय ततक्षरण भाई, श्रेष्ठी को दई बधाई ।।३४।। जे चिह्न वताए गुरनें, ते प्रगटे पाय चतुरनैं । तब सुनि सुख पायो अति ही, सो जाम श्री जिनपति ही ।।३।। वह दई वधाई तिनकौं, अर चल्यो मनोरम वन की।
नहि मुनि के वचन अलीका, इह जांनी जिन तह कीका ५३६।। क्षेमसुन्दरी विवाह
लखि जो बंधर को रूपा, जान्यों इह पुरुष अनूपा । तब निज पुत्री परणाई, पर हित की रीति जनाई ।। ३७।। फुनि करी वीनती एका, सुनिये चितधारि विवेका । इक नगर राजपुर नामा, 'सत्यधर' नृप गुरण धामा ॥३८।। हम कियो तहां निवासा, सो नगर बहुत सुखरासा । व्हां चैन बहुत ही पायो, सत्यंधर राज सुहायो ।।३।। इह धनुष बहुरि ए बाना, हमसौं करि नेह निधांना । दोनें सत्यंधर नृप नैं, तिनसौं अति प्रोति जु अपनै ।।४।।
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जीवंधर स्वामि चरित
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एहैं तुम लायक नी राखौ दीनें नृप तीकें । तब राखें जीवंधर ने प्रति जुद्ध कला ततपर नें ॥ ४६ ॥
हाॅ प्रति संतुष्ट सुज्ञानी, कैयक दिन थिरता यांनी
सुख सौं निवसे ससुरा के प्रति सज्जन भाव भराके ।। ४२ ।।
J
कवहुक विद्याधर पुत्री, प्रति विद्या रूप विचित्र । गंधर्वदत्ता गुणश्रामा, जाके पति ही विसरामा ||४३||
करि प्रिय दरसन को भावा, भाई विद्या परभावा । लख वलभक वह सखिया, हरखित कीनी निज अखिया ॥ १४४ ॥
बिनु मिलें गई फुनि घर को, श्रावो न जतायो वरकौं । घर हूँ तैं परछन आई ह्यां हूं तें परछन जाई ।। ४५ ।।
जानौं ए हित की रीती, जिन के उर प्रेम प्रतीती । देखें प्रीतम उछाहा, नहि और वसत की चाहा ||४६ ||
शुभ लेमसुंदरी गेहा, तिष्टे सुंदर धरि नेहा । कैयक दिन रहि गुणवंता, जीवंधर जगत महंता ॥४७॥
काहू को नांहि जनायो, पर द्रव्य नही अपनायो । ले धनुष वन वरवीरा, निसि कौं उठि वाले धीरा ॥ ४५ ॥ |
है सुजन नांम इक देसा, हेमाभ नगर सुभ भेसा । मित्र नांम है राजा, जाके निति उत्तम काजा ।।४६ ॥
३३
नलिना रांनी गुणधामा, पुत्री हेमाभा नामा |
जाके जनमत ही निमती यों कहत भयो इक सुमती ||५०||
P
है नाम मनोहर वन जो, अति हरे लोक को मन जो ।
तां भीतर बहुत विसाला, आयुध अभ्यास जु साला १५१ ।।
अति करें धनुष अभ्यासा, बहु सस्त्र सूत्र अभ्यासा । जा धनुषधार को वाह्यो, अति सीघ्र हि जाय उमा
||१२||
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सामयि दौलए कामालीन इनिज एनिम्न
सर लागि निसान भाई, ततपिण पाछौ ही प्राई । जा ही मारग करि जावै, ताही मारग फुनि प्रावै ॥५३।। इह हाथ तनी जु सफाई, सर अति हि वेग देजाई।। लखि फरसि करै नहि छेदा, है वाहन ही मैं भेदा ॥५४।। इह होय बल्लभा ताकी, सर श्रुत मैं अति मति जाकी। है वाला प्रति हि सुलषणा, द्वै;कुलको कीरति रखरणा ॥५५।। या विधि को सुनि प्रादेसा, प्राये सावंत बिसेसा । धरि हेमामा को आसा, लागे करने अभ्यासा ॥५६।। नोबंधर हूँ व्हां प्राये, लखि रूप सबनि सुख पाये । जब वोले धनुष धरैया, तुम हूं कछु जानौं भैया ।।५७।। सुनि कहत भये सुकुमारा, हम हूं कछु इक इह धारा। तव कह्यो सवनि सरवाही, जो तुमरै चित्त उमाही ।।५।। वेधी निसांनी बीरा, उर संक न अानों धीरा । तब धनुष चढ़ाय चलायो, सर कंवर सबंनि दरसायो ॥५६॥ सो लागि निसान भाई, ततषिरण पाछौ ही पाई । तव तहां हुते नृप लोका, तिन सब बत्तांत विलोका ।।६।। ते दौरि गये नृप पासे, हरपित व्है सवद प्रकासे । सुनि करि नृा वहु सुख पायो, तिनको दारिद्र नसायो ॥६१।। निज पुत्री जीवघर कौं, परणाई गुण ततपर कौं। प्रति उछव कीयो राजा, भेले करि सर्व समाजा ।।६२।। राजा के पुत्र सपुत्ता, सब ही सज्जन गुण जुत्ता। है बड़े कंबर 'गुगमित्रा', दुजे 'बहुमित्र' विचित्रा ।।६।। तीजे को नाम 'सुमित्रा', चौथे 'धनमित्र' पवित्रा । इत्यादि अनेक कुमारा, 'जीपंधर' सौं हित धाग ।।६४।।
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जीघर स्वामि चरित
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जिन सबकी कला समस्ता, जीवघर दई प्रसस्ता । निन ही के पृष्य प्रभावा, तिष्टे गुन निपुन सुभावा ।।६५।। ए जाही ठौहर जावे, ता ठौहर सव सुख पावै । अव सुनौं वात इक भाई, गंधर्षता सुखदाई ॥६६॥ जीपंधर कौं लखि जाब, सबसौं परछन्न हि पावै । इछा ह्व मन की जबही, देखे निज पति को तवही ।।६७।। नहि पति कौ मुषि यामी, नहि और लखें गति ताकी । अति सीघ्र हि घर तें आचे, अर तुरत हि पाछी जावे ।।६८।। इक दिवस लखी देवर ने, नबाब महामति घर में । तब पूछयो तू कित जावे, काहू कौं नाहि जतावै ॥६६॥ हम हूं कौं ले चलि माई, जा दिसि तू गमन कराई। तब बोली खेचर पुत्ती, अति विद्या गुण करि जुत्ती ॥७०।। जो तेरी इछा बीरा, सौ सुनि तू इक चित धोरा । जा दिसि को मेरौ गमना, ता दिसि तू पहुँचै सुमना ।।७१|| देवाधिष्ठित गुणधामा, इह समर तरंगणि नामा । सज्या है अति सुखदाई, या परि विधि पूर्वक भाई ।।२।। निज बड़ भाई कौं ध्याये, करि सयन तहां तू जाये। यह सुनि भावज के वचना, ताही विधि कीनी रचना ।।७३।। सज्या परि सूते निसि को, चित धरि भाई को दिसि कौं । तब ही जु भोगिनी तुरता, विद्या प्रति सतिनि जुगता ।७४।। सज्या जुत भाई पासे, ले गई महा गुण रासे । जब मिले परसपर दोऊ, इक जिन मारग के जोऊ ।।७।। सुख पूछि उभै हितररसी, हूये इक ठोहर वासी । प्यारे भाईनि को मिलिबौ, या सम नहि मन को खिलिदी ।।७६।। अब याही देस मझारा, इक नगर सोभपुर भारा 1 दृढ़मित्र भूपाल पवित्रा, ताके निज भात सुमित्रा ।।७।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
जाक 'वसुधरा' रानी, पुत्रो 'श्रीचंद्रा' जानी । सो नवयोवन वुद्धिबंती, अति रूपवती गुणवंती ।।७।। इक दिन निज घर आंगन मैं, देखे क्रीडत हित मन मै । द्वै जाति परेवा भारी, जिन मै इक नर, इक नारी ।।७।। तिनकौं लखि मुरछा आई, जाती समररण उपजाई । तव हुती सहली पारो, ते भई सकल दुख रासे ।।८।। चंदन खस सीतल पानी, विझनादि झवकि मतिबांनी । संबोधि ताहि सुभ बचना, मेटी मुरछा की रचना ।।८।। सुनि मात-पिता सुखदाई, कन्या को सखी बुलाई 1 जो अलक सुदरी नामा, अति चातुरता गुणधामा ।।२।। है तिलक चंद्रिका कोया, पुत्री अति चेतन होया। तासौं भाष्यो हे सुमती, तो ढिग उपजे नहि कुमती ।।३।। पुत्री की प्रारण समाना, है सखी महा गुणवांना । करि मुरछा को उपचारा, तू पूछि सकल परकारा ।।४।। तव इह कन्या पैं जाये, पूछन लागी समुझाये । तू देवांगन सी कन्या, कहि मुरछा कारण धन्या ।।८।। जब श्रीगंधा यों बोली, तो मां है बुद्धि अतोली । इह नाहि काढू कहवा की, अति परछन वात हिया की ।।१६।। तौ पनि मैं तो सौ भाषौं, कछु भाव छिपाव न राखौं । प्रागनि सौं अधिकी प्यारी, तू कबहु न मोसौं न्यारी।।७।। करि समाधान चित सुनि तू, मेरे मुस्ख को सब धुनि तु । निज पूरव भव संबंधा, भाषौं सब ही परवंधा ॥८८|| मुहि उपज्यो जाती समरा, उर धरि तू विवरा हमरा । असें कहि वात सूनाई, करि भिन्न भिन्न समझाई । इह सुनि वृत्तांत जु जब ही, उर मैं अवधारधो सव ही। तब ही जु गई तजि ता पें, कन्या के मात पिता पै ।।१०॥
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जीर्वधर स्वामि परित
जा विधि कन्या पें सुनियों, ताही विधि इन 4 भनियों। या भवथी पहली तीजै, भव सौ ले वात सुनीज 11
सोरठा
पूर्व भव वर्णन
हेमांगद इक देश, जहां राजपुर नगर है । वणिक वंस सु भेस, रतन तेज निबसें तहां ।।१२।। जाक गरि सुजान, माम तालम सही: ताकं रूप निधान, नाम भनुपमा पुत्रिका ॥६३।। गुग करि अनुपम होई, नही नाम अनुपमा । रमा उमा सी सोई, सुन्दर सनमति धारिणी ॥६४॥ ताही नगर मझार, कनकतेज इक सेठ है । जाके रूप अपार, नारि चन्द्रमाला कही ॥६५|| ताक सुवरण तेज, पुत्र दुरमती दुविधा। जाक सुभ मैं जेज, असुभ काज मैं सीघ्रता ।।६।। पहली जानं नाहि, प्रौगुन सुबरण तेज के । रतनतेज मन माहि, तवें अनुपमा की सही ।।१७।। करी हुती सुभ जांनि, सेठ सगाई मूढ़ सौं । पछे लक्षण पहचांनि, करी अवज्ञा सठतनी ॥६!! मरिण व्योहारी साह, ताही पुरि गुणमित्र जो । करिके अधिक उछाह, ताहि दई परणायं सो IR६|| लहि पतिसौं संजोग, अलप काल ही सुख भयो । तुरत हि हुवो वियोग, जल जात्रा चाल्यो पति ।।१००।। रतन बिसाहन काज, बैठौ साह जिहाज मैं । चूड़ी बड़ी जिहाज, परी अरय जल भवरण मै ।।१०१।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
मरण धनी को जांनि, दुखित भई अति अनुपमा । महा रूप की संभ, पति बूडक मोह र गाई । वूडी जल मै जाम, महा मोह परभाव तें। भव भव अति दुखदाय, मोह समान न शत्रु को ॥१०३।। नगर राजपुर माहि, गंधोतफट सुभ सेठ है । जा मैं औगुन नाहि, गुन अनेक करि जी भरयो ॥१०४।। ताके गेह मझार, जनम परेबा को लढ्यो । दोऊ अति हित धार, इक नर इक नारी भई ॥१०५।। पत्रनवेग सुभ नाम, भयो कबूतर गुण मितर । रतिवेगा अभिरांम, भई परेवी अनुपमा ॥१०६।। गंधोतकट के पूत, सीखें गुरु पं अक्षरा । ए धार सव सूत, दोऊ तिन पं जाय के ॥१०॥ श्रावक व्रत्त प्रवीन, सेठ सेठनी सुभमती । जिन प्राज्ञा आधीन, तिनकौं लखिए सुरझिया ॥१०८] भये शांति मति धीर, पंधी ही के जनम मै। नदी गंग को नीर, तिसो ऊजलो मन भयो ।।१०।। अति हि परसपर नेह, धर्म सनेही अब भये । वसे सेठ के गेह, परम प्रीति के पात्र ए ॥११०।। सुवरणतेज अयांन, वैर भाव धरि जुगल सौं। मूबो थाप निधान, हूवो दुष्ट क्लिाव सो ॥१११॥ कवहुक इनको देखि, महा निरदई पाफ्धी । अपनों औसर पेखि, पकरी रतिवेग सुभा ॥११२।। ग्रसै राह ज्यों कूर, चन्द्रकला को दुष्ट धी। त्यौं विलाव अघपूर, ग्रसी कबूतर की तिया ॥११३।। तवै कबूतर जान, अति ही भिरयो विलाव तें। नख पक्षादिक घात, करिक नारि छुडाय ली ॥११४।।
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जीवंवर स्वामि चरित
पकरें पापी याहि, ते तैलोक जु श्राइया | प्रति हि डरायो ताहि, गयो भागि प्रति नीच जो ।। ११५ ।। इक दिन पापिनि पासि, रची पार घ्यांवन विषं । तामैं सो गुणारासि, आय गयो परवी व्रती ।।११६ ।। रतिवेगा धरि प्राय दरसाइ लिखि च सौं
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तजी कबूतर काय, निश्चै चारी सज्जना | | ११७ || करी दिलासा साह, सर्वानि सतोषी पक्षणो । श्रति उपज्यो पतिदाह, त्यागे प्राण कबूतरी ॥। ११८ || सो जिनधर्म प्रभाव, श्रीचंद्रा पुत्री भई तुम्हरे सरल सुभाव, महागुणवती मतिवती ॥११३॥ आजि क्रीडते देखि, सुघट परेवा दंपती । निज पूरव भव पेखि, पाय मूरछा भै परी ।। १२० ।। मोसौं निह संदेह, भासी परभव वारता । मैं तुम एह कही जथारथ नाथ जी ||१२१ ।। अलक सुंदरीन, सुनि करि चिंतातुर भये । क्यों लहिये सुख देन, पूरव भव पति पुत्रको ।। १२२ ।। ता विनु या भव मांहि नहि परने इह सुभमती । या कानांहि और पुरष की चित्त मैं ।। १२३ ।। पुरव भव वृत्तांत, श्रीचंद्र को पट्ट में । लिखवायो अति कांत, तवें सुमित्र सुबुद्धि नं ।। १२४ ।। रगतेज इक नाम, नटवर गनि मैं अधिक जो । भदन लता एक धांम, नटनी नृत्य तिन को करि सन्मान, दानादिक सौंप्यो पट्ट निधान, सब ब्योरों समृजाय के ।। १२६ ।।
बहु देव ।
नट नटनी पडलेय पुहपक वन फैलायो चित देय, नात्रन लागे
मैं जाय के 1 रीति सौं । १२७ ।।
प्रवीन सो ।। १२५ ।।
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महाकवि दौलतराम बासलीवाल--व्यक्तित्व एवं कृतित्व
देखें लोक अनेक, देखि देखि हैं अति खुसी। ताहि वन मैं एक, महा मुनीसुर दिढ़वृती ॥१२८।। हुवे ध्यान लवलीन, ज्ञान परायण पुरणा । मन उनमन तन स्त्रीन, नाम समाधिसुगुप्त जे ।।१२६।। पर ताही बन मांहि, क्रीडा कौं कन्या पिता । प्रायो हो सक नाहि, तहाँ भेटिया मुनिवरा ॥१३०।। तीन प्रदक्षण देय, करि वंदन कर जोरि कैं। जा करि शिव सुखलेय, तो जिन धर्म सुन्यों सुधी॥१३१।। सुरग मुकति दातार, धर्म समान न वस्तु को। जे प्रातम ग्यातार, ते हो धर्म धरै सही ॥१३२।। सुनि के धर्म सुरूप, पूछयो राय सुमित्र ने। हे मुनिगण के भूप, कहाँ करपा कारे श्री गुरु ।।१३।। पूरव भव भरतार, मेरी पुत्री को प्रभू । कौन सु क्षेत्र मझार, तिष्टै कौन दसा धरया ।।१३४।। तव बोले मुनिराय, अवधि शान लोचन महा । मुनी सुचित्त लगाय, नगर नाम हेमाभपुर ।।१३।। तिष्ठं तहां अनूप, वणिक पुत्र सावंत जो। जोवन-वंत सुरुप, लखिमीधर भाई नषै ॥१३६॥
छंदवड दोहा
ए सुनि मुनि के वचन विसाला, हरष्यो राव सुमित्रा । ताही क्षण पुत्री कौं ले करि, चाल्यो बुद्धि विचिया ॥१३॥ संग लये नट नटिनी दोऊ, लये परिग्रह लारा। महुच्यो पुर हेमाभ सितावी, जहां पुत्रि भरतारा ।।१३८॥ जाय तहां पर नृत्य नचायों, लोक देखनै पाया । लोक लार नंदादि हुआया, पट मैं चित्त लगाया ।।१३६।।
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जीवंधर स्वामि चरित
उपज्यो जाती समरण यार्को, तुरत मूरछा होई 1 सीत क्रिया करि सज्जन लोकां, महा मूरछा खोई ।।१४०।। पूछचो जीवघर में कारण, मुरछा को भाई सौं । तव नंदादि पट्ट को लिखियो, भाज्यो सुखदाई साँ ।।१४।। सो गुणमित्र अनुपमा भरता, पाय कबूतर काया । भयो रावरौं ल्हौरी भाई, कुल श्रावक के आया ॥१४२।। सुनि करि खुसी भयो जीवंधर, थप्यो व्याह सुखदेवा । प्रथम हि मंगल कारण महती, रची जिनेसुर सेवा ।। १४३।। सुनौ और व्रत्तांत जु भाई, हरि विक्रम इक नामा । भीलनि को नायक नामी जो, जाके बहुत हि गामा ॥१४४।। सो भाइनि के भ ते भागौ, छांडो धरा पुरांनी । आय कपिज्य नाम वन माही, घिरता अपनी ठानी ।।१४५।। नाम दिसागिर परवत ऊपरि, मनगिर नगर वसायो । जाकं नारि सुवरी नामा, सुत वनराज कहायो ।।१४६।। हरि विक्रम के प्यारे चाकर, वट वृक्ष जु अर मित्रा। चित्रसेन फुनि सैंधव नामा, वहरि अरिजय चित्रा ।। १४७।। शत्रु मर्दनो अति बलवंता, ए छह मुखिया गनियां । अर वनराज पुत्र के दोई, सत्रा एक चित भनियां ।।१४८।। लोहजंध पर है धोषण जु, एक दिवस ए दोई । नगर सोभपुर गये देखिवा, श्रीचना तिन जोई ।।१४६।। खेलत ही उपवन के माहि, बहुत सहली संगा। लखि के याकौ रूप अनुपम, देबिनि को सौ अंगा ॥१५०।। करत प्रसंसा जात हुते ए, दाटे घोट कपाला । ते घोरनि कौं पानी पावन, आये नदी नाला ।।१५१।। दोक भोल रोस धरि मन मैं, गये प्रापनं थाने । हो वात वनराज कनारे, हरि बिक्रम नहि जाने ।।१५२।।
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४२
महाकवि दौलतराम कासलीवाल व्यक्तित्व एवं कृतित्व
सुंदर रूप क्रांतिधर कन्या, हम दीखी अद्भुता। अंसी और नहीं मंडल मैं, सुनि किरातपति पूता ।। १५३।। भयो महा कामातुर पापी, जो अन्याय सुरूपा । मुवरण तेज वहुरि मंजारा, सो वनराज परूपा ।।१५४।। पूरव जनम हुती जु सगाई, अव अति आतुर हूवो। काहू भांति ताहि तुम ल्यावो, दीयो तिनको दूधो ।।१५५।। ते अत्ति जोर घोर अघपूरा, लोहगंघ श्रीषेणा । ले करिक यक सांवत लारे, पाये कन्या लेणा ।।१५६।। कन्या की सोवनसाला जो, ताहि ठोक करि पापी । लाय सुरंग सोवती कन्या, लेय गये संतापी ।। १५७।। डारि गये इक लिखि के पत्रा, नाम करण की एई । पहुँचे तुरः पीरपति गुत, राशि ही तेई ॥१५८।। ससि रेखा जुत सनि मंगल ज्यौं, श्रीचंद्रा जुत दोऊ । लखि करि खुसी भयो वनपति सुत, जोवन छक मति खोऊ ।।१५६।। प्रात समै वह वांच्यो पत्रा, जांनी भीलां लीनी । किंनर मित्तर यक्ष मित्र ने, तवं चढ़ाई कोनी ॥१६०।। कन्या के भाई ए जोधा, पठए राव सुमित्रा । तुरत जाय भीलन सौं लरिवा, लागे जुद्ध विचित्रा ॥१६१।। लोहजघ अर श्रीषेण जुद्र, लरे बहुत कवरनिसौं। हारि गये राजा के पुत्रा, जीति सके नहि इनिसौं ॥१६२।। श्रीचंद्रा ले मौन जु बैठो, विनु दरसन जिनराई । अर विनु देखें नगर सोभपुर, भोजन करौं न काई ।।१६३।। लखि के याको विरकत चित्ता, वनपति सुत बहु दूती । तेडी अर तिनपै यो भाषी, याहि करौ रस गूती ।। १६४।। तव वै आई श्रीचंदा ठिग, साम भेद बहु जाने । वोलि महासती सौं पापिनि, तू क्यों चिता आने ।।१६५।।
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जीवंधर स्वामि चरित
४
कारि जु सनांन पहरि सुभ कपरा, धारि विभूषण बाई । फूल माल लै चरचि सुगंधा, लै भोजन सुखदाई ॥१६६।। करहु सुखनि की बात जु मसौं, मिनस्त्र जनम फल एई । भोग बिमुख मति नरभव खोवे, नव जोवन सुखसेई ।।१६७।। जौनि अनेक विष इह दुल्लुभ, ताहू मैं इह रूपा । नांही वर वनराज सारिषौ, पुरुषनि मांहि पनूपा ॥१६८।। करि अंगीकृत वनपति सुत की, चांदिनि ज्यों चंदर की। आदि चक्रिकौ राजभूगि सन. उची भर इंदर का जैसे भूषरग कलप वृक्ष सौं, लपटि रहैं ग्राभरणा। त्यौं धनराज कंवर सौं सुदरि, तन मन एकीकरणा ।।१७०।। लहि करि चिंतामरिंग कौं सुवुधी, कौंन हाथ सौं डारै। इत्यादिक दूतिनि के वचना, कन्या का मन धारै ।।१७।। जब बनराज दिखायो में अति, सुनी तात ए वाते । तव तिह दाट्यो पुत्र कुवुद्धी, करे न अधिकी यात ।।१७२।। अपनी पुत्रिनि भेली रालो, दोनी अधिक दिलासा । इह तो मौन लियां ही बैठी, परमेसुर की दासा ।।१७३।। अव द्विमित्र मित्र प्रादि सहु, भेले व्है करि भाई। सजि वजि सेन लेय के अधिकी, पाये तुरत चलाई ।।१७४।। धेरचो नगर भील को सीघ्रहि, भील हु लरिवा पाया । जब जीवंधर जीव दयाला, मन मैं मता उपाया ||१७५।। नास होयगी बहु जीवनि को, या मैं कछु न भलाई । तव चितयो मन मांहि सुदरसन, जक्ष महा सुख दाई ।।१७६॥ यादि करत ही प्रायो जक्षा, ल्याय कन्यका दीनी । कारिज सिद्धि कियो मिश्रनि की, किसहि न पीरा कोनी ।।१७।। पाप भीत जे प्रांनी ज्ञानी, करि उपाय रण टारें। काहू कौन सतावे कवही, सहज काम सुधारें ॥१७।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-यक्तित्व एवं कृतित्व
काज सिद्धि करि रारि मेटि करि, चले आपने थाना । फुनि वनराज दुष्ट बुद्धि श्रुति, प्रायो लरन अयांनां ।।१७६ ।। तब ताकौं अति नीच पुरिष ललि, पकरयो जक्ष संयाने । सौंप्यो जीपंधर कौं तब तिन, दीयो बंदी स्वांन ।।१८०।। सेना रम्य सरोवर ऊपरि, किये सेन जुत डेरा । भोजम कारण चारण मुनिवर, आये सिव सुख हेरा ।। १८१।। करि वंदन विधि पूरव भोजन, दोयो जोवंधर नें । पंचाचरिज दान परभावे, पाये मुग ततपर नं ॥१८२॥ देखि दांन फल त्यागि चित्तमल, तीनहि जनम प्रवंधा । लखे भील सुत या भवताई, जिते हुते संबंधा ।।१८३|| पुत्र छूडांवन वल ले पायो, हरि विक्रम अति प्रबला । ताहू कौं पकरयो जषि ततखिण, जखि माग जन अबला १८४।। तब वनराज सबनि पें भाष्यों, सुनौं सकल ही सुवुधो । या भवतें पहली तीजै भव, हुतौ बरिणक सुत कुवुधी ।।१५।। सुवरण तेज नाम हो मेरो, जिन मारग न पिछान्यों। सेये सात विसन मैं अति ही, कीयो मन को जान्यों ॥१८६।। मरि करि मारजार हूं हूबो, इक होती जु परेवी । मैं पापी मारन कौं दौरयो, महा दुष्टमति सेवी ।।१८७।। कवहुक कोई मुनिवर स्वामी, पठत हुते जिनवांनी । तामैं चउगति दुख को वरणन, भाषत हे गुणखांनी ।।१८८।। सुनि करि बैर भाव में त्याग्यो, तजि विलाव की देहा । लह्यो भील के कुल मैं जनमा, या सौं धारचो तेहा ।।१८६ ।। सुवरण तेज जनम में मेरी, यासौं हुती सगाई । इह होती जु अनुपमा नामा, मोहि नही परणाई ।।१६०।। तातें नेह भाव ते मोकौं, उपजी हरण कुबुद्धी । सो सब माफ करौ मुझ चूका, तुम हो महा सुबुद्धी ।। १६१।।
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जोधर स्वामि चरित
सुनि करि याके वचन संवनि में, जानी वात प्रमाना। पूरव नेह थकी इनि प्रांनी, और न कारण जाना ।।१२।। सवै क्रोध तजि भये सांत चित, जोर्वधर ततकाला। पुछि सुमित्र वहुरि दिमित्र, छोडे अटवी पाला ।।१६३।। हरिविक्रम वनराज दुहं सौं, क्षमा भाव करि भाई । घर को विदा किये तजि दोषा, जिनमति रीति सिखाई ।। १६४|| सत पुरषनि के धरमिक सौं हित, धरम समान न कोऊ ।
ह्या से गये नगर हेमाभ जु, दुखियनि के दुख खोऊ |1१६५|| दोय तीन दिन रहे तहां फुनि, नगर सोभपुर आये । श्रीचंद्रा नंया कंवर कौं, दई तहां पररणाये ॥१६६॥ अति विभूति सौं भयो विवाहा, जोरी मिली समाना। धन जोवन विद्या गुरण पूरा, दोऊ रूप निधांना [1१६३।।
इति श्री जोवधर-स्वामी-चरित्रे महापुराणानुसारि वालावबोध भाषायां पवमोत्तमा विषापहार, पमोत्तमा विवाह, सहलकट पैस्यालय कपाट स्वयमेबोवघटन, सोमसुदरी विवाह, धनुबेंद प्रवीणता, हेमाभा विवाह, नंदाप मिलन श्रीचंद्रा नंदाश्य पूर्वभव-वर्णन, श्रीचंद्रा हरण, किरातो परिगमन, किरात बंधन, किरात मोचन, नगर सोभपूरे नंदाश्य श्रीचंद्रा विवाह वर्णनो नाम तुतीयोध्यायः ॥३॥
चतुर्थ अध्याय
छंद भजंगीप्रयात
जब होई चूको विवाहो विधी सौं,
तवे सीख मांगी हितू भूपती सौं । महाधीर जीपंधरा लार भाई,
सु हेमाम नग्नं चले सुखदाई ।।१।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
वडी सेन साथे सुपंथा मझारे,
लख्यो एक तालाब डेरा जु बारे । गये लोक पानी भरीवा कितेई,
से दुष्ट भासानि पौर घगई ।।२।। सुनी वात स्वामी जवै चित्त माही,
विचारी निसंदेह मांखी जु नाही । इहां कारणो और होई सुकोई,
तव चितयो जल भोरी जु सोई ।।३।। चित ताहि भायो हितू जक्ष राया,
विडारी महा खेचरी नाम माया । सही खेचरै लेय प्रायो जु पावां,
तवै आप पूछी तिस सुद्ध भावां ।।४।। किस हेत रोक्यो इह तें तलावा,
तवं खेचरो भासई आप भावा । पूर्वभव कयासुनौं भध्य मेरी कथा चित्त लाये,
मारे हि भाग इहां आप पाये ।।५।। हुतौ एक माली धनाग्यो महंता,
पुरे रामनग्ने वसे पुष्पदंता । 'त्रिया' नाम ताकं मुकुसुमभी है,
सुतो जाति भट्टो सु संगाचरी है ।।६।। तहां ही वसे जू धनंधत नामा,
त्रिया नाम नंधी सती सील धामा । सुतो नाम चंद्राभ मेरो सखा सो,
सही जैनधर्म जिनधीस दासो ।।७।।
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जीवंधर स्वामि चरित
तिस तु कदाचित्त धर्म स्वरूपा,
दिखाती हुतौ नाथ कारुण्य रूपा । तब मैं हु स्वामी हुवो धर्म रागी,
तजे जू प्रभक्षा भयो पुण्यभागी ।।८।। करे आयु पूरी मुबो हूं प्रभुजी,
लयो जन्म विद्याघरौं को विभूजी 1 इही खेत्र मां, सुवैताडि वासी,
गयो एकदा सिद्ध कूटें विलासी ।। लखे चारणा दोय साधू महंता,
विनवता होई नमें ज्ञानवंता 1 तिहारे हमारे सुनें भी तहांजी.
तवै देखने तोहि आयो इहांजी ।।१०।। इहै ताल रोक्यो दियो ना प्रवेसा,
तवै रावरौ दर्स पायो नरेला । कहीं मैं तिहारे सुनौं भी विवेकी,
कहे प्रोधिज्ञानी करे चित्त एकी ॥१२॥ सही धातकी खंड दीपो दिप जी,
लखें सोभ जाकी सुराल छिपैजी। जहां पूर्व वैदेह क्षेत्रो विसाला,
तहां पुष्कलावत्य देसो रसाला ।।१२।। वसै पुनरीकि नृप नग्रो सुथांना,
जयंधो नृपो नीतिवांनो सुजांना । जयावत्य रांनी जयनत पूता,
सर्व जैनधर्मी धरै जे विभूता ।।१३।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
गयो एकदा क्रीड. राजपुत्तो,
मनोहार वागै सखा संध जुत्तो । लख्यों हूंसबाला जव चेटकान,
तव त्याय मौंप्यो कुमार तिनाने ।।१४।।
दोहा
करती क्रीड़ा सर विषै, रहती माता पास । चन पावतो तात पें, धरती महा विलास ॥१५॥ तात मात ते चेटका, वृथा विछोह्यो वाल । कौतुक कौं लीयो कंवर, चरण चूच चखि लाल ।।१६।। पोषन को उद्यम कियो, राख्यो नीकी भांति । पै या विनु क्षण एक नहि, तात मात को सांति ||१७|| शोक सहित माता पिता, सवद कर नभ माहि । वारंवार विलाप के, या में संसै नाहि ।।१८।। तत्र चेटका क्रोध करि, मारयो सर ते हंस । पापिनि के परिणाम में, होय न करुणा अंस ।।१६।। भागि गई तव हंसनी, लखि पति को परलोक । मुनि रांनि ए वात सहु, उर में धारयो सोक ।।२०।। चेटक ते अति कोप करि, पुरते दियो निकासि । कंवर थकी हू अति खिजी, जीव दया को रासि ।।२१।। रे रे पुत्र अयान त, कियो निंद्य इह काम ! कमै राखि खल चेटका, हुवौ पाप को धाम ।।२२।। अब या बालक की सही. मा सौं तुरत मिलाय ।। तव हि जयप्रय कंवर नं, दयो ताहि पहुँचाय ।।२३।। पर बहत हि करुणा करी, मात वचन उर धारि। निद्यो निज कौं अति तिर्ने, दई कुसंगति टारि ।।२४।।
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जीवंधर स्वामि चरित
४६
दिवस सोल मैं मात पैं, पहुँच्यो वालक सोई। लह्यो हंसनी चैन जब, निज सुत कौं अवलोय ।।२५।। चातक कौं चउमास ज्यौं, जलधर धारा जोग । करिकै अति तिरपत कर, हरै दाह दुख सोग ।।२६।। त्यौं वालक की मात सौं, जयद्रथ कंवर मिलाय । कियो सुखी सव दुख हरयो, जिन प्राज्ञा उर लाय ।।२७।। चैत्र मास ज्यों फूल कौं, कर वेलि संजोग । भानु उदै अलि कौं जथा, करै कमलिनी जोग ।।२।। त्यौं नृप सुतने हस सुत, धरधो हंसिनी पासि । पर दुख हरण समान नहि, और पुण्य की गमि ।।२६ ।। कैयक दिन घर में रहे, सुख सौं कवर सुजान । कबहु कलहि वैराग को, कारग अति भतिबांन ।। ३० ।। राज भार परिवार तजि, ने सिर परि तप भार । परम समाधे देह तजि, लह्यो सुरग सुख सार ।।३१।। सहस्रार नामा सुरग, सही बारौं होय । अष्टादस सागर तहां, सुख लहि च करि सोय ।।३२॥ भयो धर्म धो अति चतुर, तु मोबंधर नाम । हण्यों हंस चेलांनि ने, करि हिंसा परिणाम ।।३३।। सो काष्टांगारिक भयो, तिह मारचो तुव तात। युद्ध विष जोधा महा, सत्यंधर सुख दात ।।३४।। हुतौ जयंधर भूप जो, सौं सत्यंघर जानि । अर षोडस दिन से जुदी, मात थकी सुत प्रांनि ।।३।। राख्यो ताके पाप तें, षोडस वर्ष वियोग । तोहि भयौ निज मात तें, पाप समान न रोग ।। ३६।। ए विद्याधर के वचन, सुनि जीवंधर जाहि । गन्यों आपनौं मित्रवइ, अति परसंस्यो ताहि ।३।।
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१०
महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
तहां थकी फुनि गमन करि, कैयक दिन के मांहि । पहुचे पुर हेमाभ ए, सुखसौं काल गमांहि ।। ३८|
छंद वेसरी जीवंधर की तलाश में छहों भाइयों का प्रस्थानअब तुम सुनौ और विरतांता, खग पुत्री जीवंधर कांता। मधुरादिक षट भाइनि तासौं, पूछी बात छिपी नहि जासौं ।। ३६।। कहु गंधर्वचसा सुखदाई, कहां गये हमरे द्वै भाई । तू सव जाने विद्या रूपा, पतिव्रता जिनधर्म सुरूपा ।।४।। तव वोली विद्याधर पुत्ती, अति परवीन बहुत गुण जुत्ती । सुजन देस हेमाभ सुनग्रा, बहु नग्रनि मैं सो गनि प्रग्ना ।।४।। तहां विराज दोऊ भाई, अति सुखिया सब कौं सुखदाई । तुम चिता कबहू मति प्रांनौं, मेरे वचन जथारथ मांनो ।।४२।। तव ए छहों परम अनुरागी, चले भ्रात देखन वड़ भागी। मात पिता की आज्ञा लेके, सब ही कौं सुख साता देके ।।३।। मारग मैं दंडक वन माही, प्राय नीसरे संस नांही। देखन कौं तपसिनी प्राई, अद्भुत रूप देखि सुख पाई ।। ४४।। माता विजया से मिलन - इनकौं लखि करि विजया माता, पूछयो कहां जाहु सुखदाता । अर पाये किस दिसतै भाई, तब इन वात कही समुझाई ।।४५।। सुनि करि विजया लहि संतोषा, जानी ए सव ही गुण कोषा। है मेरे सुत को परिवारा, तव इनसौं वोली व्रतधारा ।।४६।। आजि इहां वसि करि तुम जावो, अर भाई कौं इत ही लावो। लखि जोवंधर को सौ रूपा, इन जांनीया अतुल अनूपा ॥४७॥ होइ किधों जीवंधर माता, धर्म धारिणी अघ की घाता । तब तिन कयो करें हम योही, माता तुम पाग्या दी ज्योंही ।।४।।
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जीवंधर स्वामि चरित
मिष्ट वचन करि अति संतोषी, चले इहां तै षट ए सोषी। मारग मांहि लुटेरा आये, तिनसौं ररण करि तुरत भगाये ।।४६ ।। अपनी इछा जात? ते ए, सूरचीर बहु बुद्धि जुते ए । प्राय पहोंचे पुर के पासे, कहीं वात इक और प्रकासे ।।५०।। अति हेमाभ नगर को साथा, लुट्यो भोलनि जांनि अनाथा । राजद्वार मैं लोक पुकारे, तत्र जीवघर अाप पधारे ||५|| जाय भगाय दये वनपाला, वनियनि कौं घायो सव माला । तब करि भील मदति षट भाई, लरे भ्रात सौ अति सुखदाई ।।५२।।
जीवधर से मिलन
लखि कै निजं भाई कौं नीरा, नाम पत्र जुत भेज्या तोरा। तब जान्यो जीवघर एहो, मधुरादिक आये अति नेही ।।५३।। मिले परसपर आठौं भाई, ए द्वे अर वै घट गुणराई । नगरि रामपुर की सहु वातां, जीधर पै करी विख्यातां ।।५४।। कैयक दिन ह्या करि बिसरामां, कबर लेय चले निजधामा । पाये दंडक बनबर वोरा, आठौं धीर हरे पर पीरा ।।५।।
माता से मिलन
तहां लखी विजया गुरगखांनी, अति विलाप जुत सोक निघांनी । सुत सनेह ते अांचल जाके, भरि पाये ऐ करि अति ताके ।। ५.६।। अश्रुपात परिपूरणा नैना, अति दुरवल तन सर बोलत बैना । वहु चिंता जुत है संतप्ता, जटो भूत सिर केस विषिप्ता ।।५७।। नित्य निरंतर उश्न निसासा, तिन करि विवरण अधर उदासा। अति मलीन जाके सब दंता, सर्वाभरण रहित दुखवंता ।।५८।। ज्यौं प्रदुममि की रकमणि माता, त्यों निज सुत कौं इह सुभ गाता । चितवंती निज चित्त मझारा, सुत वियोग को दुख अतिभारा ।।५६ ।।
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महाकवि दौलतराम कामलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
तव ही आय परयो सुत पावा, हाथ जोरि सिर नमि सुभ भावां । दई असीस ताहि तव माता, होहु पुत्र तुम्हरै सुख साता ।।६०।। अति कल्याण लहौं तुम लाला, मेरी प्रांखि तुही गुणपाला । हो उठी जग के सुनसरी, गर्भसंसारग धारी ।।६१।। असे वचन कहे फुनि बोली, चिरजीवो इह तेरी टोली। तुव दरसन करि लह्यो अनंदा, टूटि गये सब ही दुख फंदा १६२।। या विधि पुत्र थकी सुभ बांनी, भासत ही विजया बुधि वानी । एते ही आई सो जक्षी, जाकै माता की अति पक्षी ।।६३॥ न्हान विलेपन सब प्राभरणा, बस्त्रासन भोजन सुख करणा । पहप माल औरहु सुभवस्ता, आठनि कौं दीनी परसस्ता ॥६४॥ कियो साहिमी बछल जाने, साधी जिन मारग विधि ताने । करि सतकार गई निजधामा, धर्मवती अति ही अभिरामा ।।६।। साची मित्रापन है एही, आपद मैं त्याग न सनेही । मात लख्यो इह सुत बड़ भागी, प्रथ्वी को नायक गुणरागी ।।६६।। बुद्धि निधान पराक्रम धारी, अरिगंजन सज्जन सुखकारी । तव याकौं एकांत जु लैक, समझायो प्रति सिक्षा देकै ॥३||
माता द्वारा पूर्व वृतान्त कथन - सस्पंधर तेरी निज ताता, मगर रामपुर को सुखदाता। महाराज राजनि को राजा, सूरवीर सावंत समाजा ।।६८।। ताको जुद्ध विर्षे हति भाई, काष्टांगारिक राज कराई। सो अति नीच तिहारौ सत्रु, तुम तो सब जीवनि के मित्रू ।। ६६ ।। तात तनें थानक को त्यागा, तुम की जोग्य नहीं वड़ भागा । इह सुनि माता को आदेशा, कियो पुत्र परमांन असेसा |७०।। सुनिक तात घातप्रति कोपा, उपज्यो अरिपरि सब सुख लोपा । तो पनि दाव्यो हिरदा माही, काहू सौं प्रगट्यो कळू नाही ॥७१॥
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जीवंधर स्वामि चरित
निज मन मैं धारी लव स्वामी, विनां समै सूरत्व न कामी । सव कारिज को साधन काला, काल पाय व धांन विसाला ॥७२।। तब मात सौं अमृत बांनी, वोले पुत्र महा सुखदानी । तुत्र परसाद सकल ह्व नीकी, तुम चिंता मेटौ निज जीकी ॥७३।1 इह कारिज पूरण व माई, तव नवराज्य तो कनें पाई। तोहि बुलाऊं तव ह्व साता, तू माता नर देही दाता ।।७४।। तव तक ह्यां तिष्ठी सुखरूपा, सोक रहितधरि ज्ञान अनूपा । इह कहि सब सामिग्री मा पें, अर कछुयक परिवार हु ता ।।७५।। राग्वि आप चाले बुधिवंता, नगर राजपुर कौं वलवंता । पहुचे नगर निकटि जब नाथा, मने कियो अपनौं सव साथा ।।७६।।
जीगंधर का राजपुर नगर में प्रवेशमेरो प्रावी गोपिहि राखौ, काहू पासि कछू मति भाखौ । भिन्न भिन्न समझाये लोका, पाप विचक्षन प्रति गुन धोका ।।७।। जक्ष मुद्रिका के परभावा, बरिणक भेष धारयो सुभ भावा । पंसि नगर मैं अानंद रूपा, कोइक देखी हाट अनूपा १७८।। तहां विराजे पुण्य निधांना, भाग्यवंत सावंत सुजाना। लह्यो लाभ जव साह अपारा, तव तिन जांनीए गुरपधारा ।।७६ ।। सागरबत्त नाम है जोई, जाकै ममला नारि जु होई । विमला पुत्री अति मतिवंती, रूपवती सो बहु गुणवंती ।।८।।
विमला के साथ विवाह--- प्राग निमति या विधि भाख्यो, कही सांच संदेह न राख्यो । जो नर हाटि विराज पाई, होय लाभ तारि अधिकाई ।।८।। सो विमला परनै सुभकारी, ए सव बात सेठ उरधारी। देखि कवर कौं जांनी एही, विद्या निधि अति सुन्दर देही ।।१२।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
तब इनकी पुत्री परणाई, दियो दायजो अति अधिकाई । कैयक दिन सुसराकै स्वामी, रहे महा सुखी विसरांमी ।।८३।। जीबंधर परियाजक के भेष मेंएक दिवस परिव्राजक भेषा, धरि करि जाय भूपकौं देषा। दे प्रासीरवाद बडभागी, बोले मोहि भूख बहु लागी ।।८४॥ तात तोहि जाचने प्राये, दै सुभ भोजन भूख नसाये । जब काष्टांगारिक अज्ञाना, करी इनौं की बात प्रमांना ||८५ तब जोवंधर सकुन विचारयो, निश्च अपने उर मै धारयो । मेरौ उद्यम जो फल रूपा, ताको एही फूल अनूपा ।।६।। इह चितवन करि भोजन काजें, बैठे वड प्रासन प्रभु राजें। ल भोजन निकसे जव धीरा, जव वोले मुखतं वरवीरा ।।८७11 बसीकरण चूर्णादिक वस्ता, है मोपं औषध परसस्ता । जिनको फल परतक्ष जु देखो, मेरौ वचन सांच तव लेखी ।। ८८।। जाकी रुचि व ल्यो ए सोई, इन ते मनमथ जाग्रत होई ।।८६ ।। चाही जाहि ताहि बसि कारी, ए मुझ. वचन हिया मैं धारौ ।।१०।। राजद्वार के लोकनि पासे, असी विधि के वचन प्रकासे । सुनि करि हंसे सकल ही लोका, इन नैं मदन सूत्र अवलोका ।।११।। देखो वृद्ध निलज्ज महा ए, भेष धार गनियें जु कहाए । मरण काल अति नीरै आयो, तौ पनि मनमथ मैं मनलायो ।।६।। चूरण अजन गांठि कनारे, बसीकरण मोहण उरधार । अस कहि हंसि करि सब वोले, तपसी तोमैं लखण अतोले ।।१३।। सुनि इक बात हमारी भाई, गुणमाला कन्या अधिकाई । याही पुर में सेठ सुता जो, जोवनवंती रूप जुता जो ॥१४॥ प्रागै इक जीबंधर नामा, गंधोतकट सुत बहु गुण धामा। ताने चूरण और सराह्यो, अर गुणमाला को विसराहो ॥६५॥
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जीवधर स्वामि चरित
तव ते पुरष मात्र थी जाकी, चित्त उदास भयो अबला कौं। काहू कौं परणं नहि सोई. बसी करै तू तो प्रति होई ।।६६|| तेरी परसंसा जग माही, सक ही लें औषध सक नाही । जेती मांगै तेती मोला, दे तोकौं ले वस्तु प्रत्तोला ॥६॥ सुनि करि बनको वांनी भाई, बोले भेष धारण गुणराई । कहा विधी जीवंधर जाने, चूरण बास कछू न पिछाने ।।१८।। तुम्हरे गांव मांहि इक सोई, तह नहि जहां इरेडहि जोई । तवं सब बोले होय सकोपा, तू तो तापस पर गुन लोपा ।।६।। नोच पुरिष को इहै सुभाया, अपने गुन को करें प्रभावा। कहा जश्रेष्ठ वकै विप्रा, लोकौं हम जानें इन लपा ।।१००।। अपनी थुति अर पर की निंदा, न कर तेई जानि जतिंद्रा। तू दुश्रु त उद्धत अति गर्वा, जानै मैं ही जानों सर्वा ।।१०१।। ए सुनि वचन तापसी भाष, गुन ह सो छिपिया नहि राखे । एक महूरत मैं घट दासी, करो सेठ कन्या इह भासी ।।१०२।। वृद्ध ब्राह्मण के भेष में गुणमाला के पास जानागयो तुरत गुनमाला गेहा, धार बूढे बाम्हन को देहा । ताकी दासी लई बुलाई, तासौं यो भाषी द्विजराई ।।१०३।। तेरी स्वामिनि कौं कहु जाये, बूढ़े विप्र वारणे पाये । तव दासी गुणमाला पासे, जाय करी द्विज वात प्रकासे ।।१०४।। स्वेछाचारी वाम्हन आयो, असौ बुद्ध न और लखायो । तव गुणमाला लयो बुलाये, पूछयो विप्र कहां से आये ।।१०।। विप्र कहयो पाछाः पावै, पर ग्रागा को पाव धसंवें । तव सव हसी सहेली ताको सुनि बोली वाम्हन विरधा की ।।१०६।। वाम्हन को हसी मति कोई विरधापन सबही मैं होई । गनिका विरया पन नहि चाहै नव जोवन कौं अतिहि उमाहे ॥१०७।।
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बाम्हन तापस क तौ एही, आभूषण जोर्नी जरदेही । तब वोली गुणमाला वाई, किती दूर जावो द्विजराई ।। १०८ ।। बाम्हन बोल्यो तीरथ तांई, धर्म हेत श्रागां कीं जांई । बाम्हन क लखि सेठ सुतानें, जानो मन मैं बुद्धि जुता
नं ।। १०६ ॥
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इह केवल तन ही करि वृद्धा, मन र वचन देखतां वृद्धा । तब पार्कों भोजन है चोखा, भली भांति करि प्रारण जु पोखा ||११० || दें भोजन बोली गुण वित्ता प्रव तुम जाहु जहां हैं चित्ता । बाम्हन कहयो भली तुम भाषी, भोजन मांहि कमी नहि राखी ।। १११ ।। करि परसंसा उठने लागों, वृद्धा सुरुप धरमा वड भागौ । डिग करि परयो धरि मैं सोई, फुनि लाठी गहि उठियो जोई।। ११२ । कान्या की सच्या परि एही जाय परयो बाम्हन जरदेही । तब सब सखी सहेली कोपी, देषी इन अति लज्या लोपी ।। ११३ ।। सज्या थंकी उठावन सारी, दौरि चितधरि रोस अपारी । वाम्हन को सत्य तुम भासी, में निर्लज्ज राग रस रासी ।। ११४ ।। लज्या तो नारीगरण मांही, सोहै बहुरि पुरिप में नाहीं । जो नर हू में ही लाजा, तौ नहि होइ भौग को काजा ।। ११५ ॥ ए सुनि वृद्ध वाक्य गुरणमाला, जानी इह नहि वृद्ध विसाला । रूप पलटनी विद्याधारी, है इह कोई गुरण निधि भारी ॥ ११६॥ इह विचारि वोली बुधवांना, आये द्विज अपने मिजमांना । कहा दोष सज्या परि एही, पौढ रही खीस प्रति देही ।। ११७ || हमरें सज्या और विछावो, एसज्या एहो ले जावो । यो कहि सारी सखी निवारी, बसे राति ह्यां द्विज तन धारी ।। ११८ ॥ निसी कौं बाम्हन मतौ विचारचो, शुद्ध सुरनि करि राग उच्चारयो । महा मधुर रस जनमन हारी, कांननि को अति आनंदकारी ।। ११६ ॥ सुनि करि सेठ सुता सुख पायो, सौ राग किनी न सुनायो । आगे जीअंधर नैं रागा, गायो हो चित धरि अनुरागा ।। १२० ।।
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जब गंधर्वरता तिन व्याही, वाम्हन हूं गाव विधि याही । उठि के प्रा. सनक गुणमाला, माइन गित जिसका ::१२१ ।। पूछन लागी द्विज पति भाषौ, कौंन सारत्र में परच रात्रौ । वोले विप्र सुनौं मृगनैना, तुमको देखि लयो हम चना ।।१२।। धर्म अर्थ कामादिक सारा, हम अभ्यासे ग्रंथ अपारा । धर्म अर्थ ए वृक्ष सुरूपा, काम शास्त्र फल रूप अनुपरा ।। १२३।। ताको कडू यक कहीं विचारा, सुनौं कान धरि वचन हमारा । पञ्चेन्द्री अर विषय जु पंचा, इनही की इह सकल प्रपंचा ।।१२४।। करकस नरम आदि वसु फर्मा, अर मधुरादिक पट रस सर्सा । कर्तुम स्वाभाविक द्वय गंधा, ताके भेद सुगंध दुगंधा ।।१२५।। चेतन और अचेतन वस्तू, कुइ दुरगंध कोई परसस्तु । रूप पंच विधि है कृश्नादी, स्वर है सप्त भेद षडगादी ।।१२६।। जीव अजीव संभवा जानौ, चौदा दूण विष परवानौं । इष्ट अनिष्ट गर्ने छप्पन्ना, पुण्य जागते इष्ट उप्पन्ना ||१२७।। धर्म थकी ह्व पुण्य निबंधा, अब तुम सुनों धर्म परवंधा । जे अजोग्य विषया अन्याया, तिनको त्याग सुधर्म बताया ।।१२८।। तातें निषध विष तजि दक्षा, सबै न्याय विप सुभ पक्षा । काम शास्त्र के पण्डित तेई, कवहु अजोग्य विष नहि सेई ॥१२६।। सुनि करि सेठ सुता यों भाष, बुधजन सोइ जु असुभ न राषं । हमर जो कछु लखौ प्रजोग्या, सोइ टावो पंडित जोग्या ।।१३०।। देहु जोग्य को तुम उपदेसा, करों आपनी दास बिसेसा । तब पंडित सव कला सिखाई, याकौं बुद्धि दई अधिकाई ।।१३।। एक दिवस सह पुर के लोका, वन विहार की गये असोका । आपहु गुणमाला लें साथा, वन देखन चाले गुणनाथा ।।१३२।। लखि एकांत ठौर रमणीका, सेठ सुता जुत वैठे नीका। तव याकौं निजरूप दिखायो, परै जाहि लखि सुर गरमायो ।। १३३।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
देखि कन्यका संस वंशी, न्यावंत नः पुरण : मौन लेय गैठी सुभ रूपा, कंवर लखी संदेह सुरूपा ॥१३४।। तो सौ चूरण बासादी, गुणमाला की वात जतादी । उपजायो विस्वास विसेषा, बहुरि धरचो विरधा को भेषा ।।१३५।। पहप सेज परि गैठे वृद्धा, कन्यासौं वोले गुण गृद्धा । दावि हमारे पाव जु प्यारी, तू हमसौं कबहू नहि न्यारी ।।१३६।। तत्र वह महा नेह थी पावा, दावन लागी सरल सुभावा । देखि राजपुत्रादिक सारा, अचिरज रूप रहे गुण धारा ॥१३७।। परसंसे मंत्रादिक याके, जस भासे सबने विरधा के । वन तें प्राय कही गुणमाला, मात पितासौं वात रसाला ।।१३८॥ जीवधर आये सुखकारी, तव तिन जांनी मन मैं सारी। दई ताहि परणाय कुमार, जा लखि सुर तिय अचिरज धारै ।।१३६।। ता संजुक्त रहे दिन केई, ससुरा के घरि अति सुख लेई । पुण्य प्रभाव सकल सुख होई, पुण्य समान न जग मैं कोई ।।१४०।।
इति श्री जीवघर-स्वामी-चरित्रे महापुराणानुसारि वालावोष भाषायां विद्याधर मिलन, पूर्व भव निरूपण, हेमामपुर प्रागमन, मधुरादि षट् धातू मिलन, स्वदेश प्रमाण, दंरक बने-विजया मात दर्शन, यक्षी सत्कार, राजपुरे प्रागमन, सागरवत्त पुता विमला विवाह, राजवार गमन, पूर्णावि वर्णन, गुणमाला वशीकरण, गुणमाला विवाह, सुखानुभवन निरापरणो नाम चतुर्थोध्यायः ।।४॥
पंचम अध्यास
दोहा अव ससुरा के घर थकी, चले आपने गेह । नाम विणगिर गंध गज, चढ़ि करि सुदर देह ।।१।।
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जीवंधर स्वामि चरित
त्रात सकल ही संग है, श्रर सेना चतुरंग । जस गांवें जन नगर के, लखि लखि हर अंग || २ ||
जीवंधर गंधtent मिलन --
गंधसकट के भाग धनि, धन्य सुनंदा भाग । जिनकी सुत गुण जुत महा, घरें सकल जनराग || ३ || कीरति सव के मुख की, सुनत सुनत सुकुमार ! पहुँचे निज घरि धर्म धी, हरष सुरूप प्रपार ॥४॥ गंधोतक के पाव लगि लगे सुनंदा पाव 1 अति उच्छा हूवो तबै सुनी नगर के राव ||५||
.
मन में धारयो दुष्टमति, काष्टांगारिक कोप | देखो वारिणज तनज ए करी कारिण सव लोप || ६ ||
प्रति उन्मत्त भयो इहै, डरं न मोतें रंच | मंत्री लखि याको हृदै, बोले तजि परपंच ॥ ७ ॥
इह जीवंधर ग्रति प्रवल, महाभाग पूरव पुण्य प्रभाव तें
याको उदे
मतिवंत ।
अनंत ||८||
अर या घर मैं महा, है गंधवंदता सती, रमा जक्ष सुदरसन सारिखे, महा मित्र बलवांन । कबहू न्यारे होंहि नहि, करं का परवान ।। १० ।। मधुरादिक सातौं सखा, साता करी जांनि । जिन सौं ररण मैं जीतिवां, समरथ को न मांनि ॥ ११॥
परवीन ।
खग पुत्री तुल्य गुणलीन ॥६॥
घर इह डीलां प्रति सुभट है अभेद्य रण मांहि । ता यास जुद्ध की, मन मैं आवै नांहि ॥१२॥ बलवंतनि सौं वैर करि सुखी न हो कोई । इत्यादिक युत्तिनि करी, समझायो खल सोय ।। १३ ।।
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तव चुप व रण तें रह्यो, मंत्रिनि की सुनि वात । कंवर विराज घर विष, रसित सकल उतपात ॥१४॥ कहीं और इक वारता, सुनौं चित्त निज लाय । देस विदेह विवेहपुर, है गोपिन सुराय ।।१५।। रांनी प्रथवी सुदरी, रतनवती' सुभ नाम । पुत्री सती सुरूप अति, बहुत गुरणनि की धाम ।।१६।। करी प्रतज्ञा तिन इहै, चंद्रक वेध प्रवीन । होय ताहि परनौं सही, परनर सकल अलीन ।।१७।। याको परतज्ञा पिता, जांनि विचारी एह । जीवंधर सौ या समै, नही सुभट सुभ देह ।।१८।। धनुरवेद वेत्ता वहै, सकल वेद को जान ।
इह उर धरि कन्या सहित, चाल्यो भूप सुजान ।।१९।। रतनावती का स्वयंबर
गयो राजपुर राजई, ले सामग्नि अनूप । रच्यो स्वयंवर जायकै, अद्भुत सोभा रूप ।।२०।। पठई पत्री सवनिकी, भूचर खेचर जेहि ।
आए पत्री वांचिक, नगर राजपुर तेहि ।।२१।। चंद्रक वेध सथापियो, जहां स्वयंवर साल । कोई वेधि सक्यो नहीं, हुते वहुत भूपाल ।।२२।। देखि सवनिकौं सिथल चित्त, आये सेठ कुमार । जीवंधर जोधा महा, सुदर सुघर अपार ।।२३॥ नमसकार करि सिद्ध कौं, प्रारजिवर्मा ध्याय । जो अपनौं गुर तप निधी, सकल कला को दाय ।।२४।। चाप चढ़ाय लगाय सर, अचल चित्त वरबीर । वेध्यो चंद्रक वेध जो, जीवघर रणधीर ॥२५।।
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जीवघर स्वामि चरित
उदयाचल परि वाल रवि, दिपै जथा तम भेदि । दिप सेठ सुत सवसिर, चंद्रक वेधहि छेदि ।।२६॥ सिंहनाद करि सुभट अति, गाज्यो नंदा पूत । गूजी सब दस ही दिसा, कंपे थिर चर भूत ।।२७। नीक वेध्यो बेध इनि, राखी कसर न कोय । लागे परसंसा करन, भले पुरिख गुण जोय ।।२८।। कंठ कंबर के माल वर, करिके अधिक सनेह । घाली रतनवतो तवे, देख्यो अद्भुत एह ॥२६॥ तव सव सज्जन लोक नें, कीरति कही वखानि । इनको संगम जोग्य है, दोऊ सव गुण खानि ।।३०॥ सरद समै पर हंस तति, जथा जोग्य संबंध । तैसे कवरी कंबर को, भयो जोगि सनमंध ।।३।। जय ह सबही जायगा, पुण्यवतनि को ठीक । यामैं कछु अचिरज नही, इह जांनी तहकीक ।।३।। हुते जिते बुधिवंत नर, किनहि न धारयो रहेस । काष्टांगारिफ प्रादि खल, उपजायो उर दोस ।।३३॥ पहली खम पुत्री वरी, तबकी लीयां दोस ।
रतनवती की रूपलखि, भयो रोस को कोस ।।३४।। जीवंधर द्वारा पत्राचार
हुवो उद्यमी जुद्ध कौ, कन्या हरणे काज । जीवघर लखि विषमताने प्रवीन गुण राज ॥३५।। सत्यंधर भूपाल के, जिते हुते रजपूत । कामदार इत्यादि सह, तिन भेजे दूत ॥३६।। पठई वस्तु अनेक विधि, लिखे पत्र सुभ रूप । समाचार तिनमैं इहै, सरपंधर बड भूप ।।३।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
तिनको सुत मैं हौं सही, विजया उदर मझार । उपज्यो इह निश्चं करो, यामै सक न लगार 11३८।। को इक कर्म प्रबंध त, मोकौं भयो वियोग । लही वृद्धि मैं सेठ घरि, प्राय मिल्यो अव जोग ।।३।। काष्टांगारिक पाप धी, तिण लकरी पर कांस। वहुरि कोइला वेचतो, सिर परि ल्यातो वास ।।४०॥ काल षेप करतो कुधी, था विधि पुरक मांहि । तासौं तुम्हरे भृष् नै, कमी जु राखी नांहि ।।४१ ।। कियो वरावरि आपनी, दियो मंत्रि पद याहि । यानै अवसर पायकै, रण मैं मारयो ताहि ।।४२।। पं पावै जो सांप कौं, तऊ प्रांग ही लेय । सो कवति सांची करी, नरभव को जलदेय ।।४३।। लियो धनी को राज इंह, अव मैं मारौं याहि । जाय रसातल में घुसै, तोव न छोडौं ताहि ।।४४।। मेरौ ई अरि नांहि इह, तुम सबको अरि एह । सेवक मेरे तात के, मोसौं करो सनेह ।।४।। स्वामि धर्मधर सेवका, तिनको मारग एह । हने स्वामि के शत्रु कौं, त्याग अपनी देह ।।४६।। या विधि पत्री वांचिके, सवनि लखी मन माहि । सत्यधर की पूत इह, यामैं संस नाहि ।।४७।।
युद्ध वर्णन
आय मिले तव बहु सुभट, निज निज सेना लेय । चन्यो राव सुत अरि पर, सही नगारा देय ।।४८॥ भयो जुद्ध नाना विधो, मुची सत्रु की सेन। तव वैरी आयो प्रवल, तऊ पाप सकुचेन ।।४६।।
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जीवंबर स्वाभि चरित
नाम बिजं-गिर गंध गज, ता परि चढ़िया आप । शत्रु मान मोडन सदा, धारयां प्रतुल प्रताप ।। ५० ।। असनिवेग इक नाम गज, ता सिरि चढ्यो प्रथांन । काष्टांगारिक नीच नर उद्धत अपजस बांन ॥ ५१ ॥ भयो परसपर जुद्ध प्रति हत्यो चक्र करि सोय । हे चक्र सामानि है, नही सुदरसन होय ।। ५२ । मूबो लखि घरूप र्कों, भागे ताके लोक | तव स्वामी प्रति शांत, मेयो सवकी सोक ।। ५३॥ करी दिलासा सवनिकी, श्रभं घोषणा देय |
सौं प्रतिहले बगल में से४।। कियो विनै विरघांनि को उपजायो संतोष | आये जिन मंदिर जर्व, जीवंधर गुण कोष ।। ५५ ।। करी महा पुजा तवे, प्रभु की मंगल रूप | दिये दोन दीनांनिकों, कीरति भई अनूप ॥ २५६ ॥
राज्याभिषेक --
नर नायक आये बहुत अर प्रायो जमिराय ।
कियो राज अभिषेक तिन दियो तिलक लगि पाय ।। ५.७१ ।
1
परनी रतनवती महां, उछव सौं भूपाल 1
गंधर्ववता करो, पटरानी सुभ चाल ॥ ५८ ॥ नंदायादिक भेजिक, लई वुलाय सुमात । अर रानी परती हुती, ते यांनी सुखदात ।। ५६ ।। सव कटुंब भेला प्रभू, प्रति ऐश्वर्य सुरूप । अंतर वाहिज सत्रु के, जेता अधिक अनूप ||६० ॥ न्याय थकी परजा सकल, पाली परम दयाल |
भोग भोगये इद्र से लीला करी रसाल ॥ ६१ ॥
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल व्यक्तित्व एवं कृतित्व
एक दिवस सुर मलय पवन, कौडा त क्रिपाल । गये हुते वरधर्म मुनि, देखें तहां विसाल ॥। ६२ ।। नमसकार करि साध को सुन्यों तत्व विज्ञान । अणुव्रत ले सम्यक सहित घारयो धर्म सुप्यांन ॥ ६३ ॥ नंदायादिक भ्रात सब भये अणुव्रत धार | सम्यक जुत धरमातमा, असुभ रहित भविकार ।। ६४ ।। श्रावक धर्म वर्णन --
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सम्यक र अणुव्रतर्कों, सुनौं सुरूप सुजान धरी आपने चित्त मैं, लहो सुगति मतिवांन ॥ ६५ ॥
देव जिनेसुर जगत बर, गुर मुनिवर व्रतधार | धर्म दयामय जानिये, सौ सम्यक व्यवहार ।।६६।२
अपनों प्रतम देव है, गुर आतम ही होय । वस्तु सुभाव हि धर्म है, वह निश्च श्रव जोय ॥ ६७ ॥ अनंतानुबंधी महा, क्रोध मान छल लोभ बहुरि तीन मिध्यात ए, सात प्रकति प्रति श्रोभ ।। ६८ ।। इनकी उपसम क्षय वहुरि, अर षय उपसम होइ । तब गर्दै सप्तक त्रिविधि, मूल व्रत को सोय ॥१६६॥
सात उपम्यां उपसमी, क्षयतं क्षायक जांनि । एक उर्द है सातमी, सो वेदक परत्रांनि ॥७० || भेदक हे सम्यक्त के, अब सुनि व्रत के भेद ।
महाव्रत पर अणुव्रता, ब्ररणता द्वं त्रिधि श्रथ छेद || ७१ ॥
हिसा मिथ्या वचन अर, चोरी नारी संग |
परिग्रह त्रिश्ना पंच ए, पाप कुमति के अंग ।। ७२ ।।
सकल पाप को सर वृथा, त्याग महाव्रत जोनि ।
किंचित त्याग अणुव्रता, इह निश्चं परवांनि ॥ ७३ ॥
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जोवंधर स्वामि चरित
महावत मुनि धर्म है, अणुव्रत श्रावक धर्म । श्रावक धर्म ग्यारह विधि, ताकी सुनि अव मर्म ॥७४।। स्याग कुविमान सर्वही, तजे अभक्ष अहार । सम्यक द्रिय निरपरै, पहनी गाडिमा धार ।।७।। वसुमद वसुमल पायतन, षट अर मूढ़त तीन । ए पचीस सम्यक मला, तजे प्रथम परवीन ।।७।। दूजी पडिमा धार फुनि, धरै अगुव्रत पंच । तीन गुण व्रत च्यारि फुनि, सिक्षा ब्रत सुभ संच ।।७।। अस हिंसा परघात वच, परधन अर परनारि । अप्रमाण परिंगह तज्यां, अगुव्रत सुखकारि ॥७८|| दसों दिसा परमारण जो, भोगुपभोग प्रमाण । अनरथ सवही त्यागिवौ, तोन गुण ब्रत जारण 11७६।। तीनों संध्या जिन भजन, पोसह च्यारि प्रमानि । अतिथि विभागर नेम निति, चउ सिक्षा व्रत जानि ।।८०॥ अंतकाल सल्लेखणा, इह व्रत प्रतिमा रीति । सुनि तोजी सामायका, धरि करि उर मैं प्रोति ।।८।। सामायक समये महा, मुनि सम थिरता होय । सो तीजौ श्रावक को, लहै सुगति सुख सोय ॥२॥ षट चउ हूँ घटिका प्रमा, व्है सामायक काल । सोलह बारह बसु पहर, इह पोसह की चाल ।।३।। सामायक की सी दसा, पोसह समये होय । चौथी पडिमा धार सो, श्रावक सुभमति सोय ।।८४॥ सचित त्याग है पंचमी, छट्ठी दिन तिय त्याग । पर निसि कौं भोजन तजन, घार ते बड़ भाग ॥८॥ सदा सर्वथा नारिकी, त्याग सप्तमी जांनि । तजन सकल प्रारंभ कौ, ताहि अष्टमी मांनि ॥८६॥
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं अतित्व
नवमी परिगह त्याग है, मुनि दसमो की चाल । लौकिक वचन न भासई, जीवदया प्रतिपाल ।।७।। एकादसमी , विधि, क्षुल्लक अलि वखानि । वनवासी दोऊ. सुधी, मुनिवत भोजन मानि ॥८॥ क्षुल्लक स्खडित वस्त्र इक, अर कोफीन प्रवांनि । केस मुडावं अरवहै, नहि करपात्र बानि ॥८६॥ करपात्री है अलि सुभ, वस्त्र एक कोपीन । लोच कर के यानि को, रहै धर्म लवलीन ।।८० ॥ क्षुल्लक लौं च्यारचों वरण, धरं व्रत्त सुभ रूप। अलि अर्यका मुनिवरा, तीनहिं बर्स अनूप ।।८१॥ ए एकादस विधि कही, श्रावक की भगवान । तिनमैं दुजी. प्रादरी, जीवंधर गुणवान ॥६॥ भाइनि जुत बारह वरत, सम्यक सहित धरेय । गये प्रापर्ने परि नृपति, नर भव सफल करेय ।।६३॥ सुखसौं वीत काल अति, मृप सबके सुखदाय ।
एक दिवस बन देखिवा, गये गुणनि के राम ॥६॥ बनविहार
वन असोक रमणीक अति, तहां परसपर जुद्ध । देख्यो वंदर वर्ग मैं, त- भये प्रतिवुद्ध ।।५।। देखों देखी जीव जग, करि करि तीव्र कषाय । भमैं सदा “ब वन विधे, धरि धरि नौतन काय ।।६६ कोइक बड़े भागी पुरिष, लहि जिन मारग सार । लिखकै पातम तत्व कौं, उतरैः भन्नजल पार ।।७।। जग बिरकत मत जैन को, सधै न घरकै माहि। मोह जाल है घर विष, या मैं संसें नाहि ।।१८।।
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जीवधर स्वामि चरित
अंधा विनु नहि होय घर, सो हिंसा को मूल । हिंसा श्री जिनधर्म तं, है अति ही प्रतिकूल IIREN इह विचार नृप के भयो, तव ही ता वन मांहि ।
एकः ठौर देखे मुनी, चारण ऋद्धि धरांहि ॥१०॥ संसार से विरक्ति
है प्रशस्त बंकजु महा, मुनि को नाम रसाल । अवधिज्ञान धारक गुरु, जीवदया प्रतिपाल ।।१०१।। तीन प्रदक्षण देय नृप, करि चंदन कर जोरि । म हुते लग मुन जा. गुजि मुख सुनें बहोरि ॥१०२५ जाय धरै जिन पूजि करि, बढ़ी सुद्धता जोर । सुन्या राव सुभ भावने, वीर मोह मद मोर ।।१०३।। वरधमान सनमति प्रभू, महावीर प्रतिवीर । अंतिम तीरथ नाथ जो, तिष्ठे गुण गम्भीर ॥१०४।। वन सुर मलय विर्षे त्रिभू, तब आयो तिह और । जीवधर धरणीवती, वदे त्रिभुवन मौर ॥१०५।। सुनि वांनी जगदीस की, उपज्यो अति वैराग । जगत भोग अर देह तं, तूटी मन को राग ।।१०६।। पटरांनी को पुत्र जो, नाम वसुधर ताहि । सौंपी अाप वसुधरा, लख्यो नीति घर जाहि ।।१०।। है निरमोही सवनितें, करि सर्व परिगह त्याग । आठौं ससुरा प्रादि वहु, राजनि जुत बड़ भाग ॥१८॥ मधुरादिक नंदाग्य जुत, लीयो चारित भार । भये महाव्रत धारमुनि, जीवंधर जगतार ।।१०।। वड पुरनिको रीति इह, तजि करि जग के भोग । करि निरवांछक भाव अति, धारै उत्तम जोग |११०।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-यक्तित्व एवं कृतित्व
विजया माता अर सवै, सासू पाठौं जांनि । ग्रर रांनी पाठौं महा, सब ए मुग की खानि ॥१११।। भई अर्यका त्यागि घर, चंदनवाला पासि । तारै जीव अनेक कौं, एक जीवगुण रासि ॥११२॥ इह जीवंधर मुनि कथा, कहि वोले गणधार । * बुधः स्ती , अंशिक सौं निरधार ।।११३।। तुम पूच्छयो सो मुनि इहै, महा सपोनिधि वीर । सांप्रत है श्रुतकेवली, द्वादसांग घरधीर ।।११४।। म्यारि घातिया घात करि, लहसी केवलज्ञान । होसी अग्नह केवली, जगदीसुर जग जान ।।११५।। भरघमान भगवान के, साहि करिजु विहार । च्यारि अधाति यह हते, पासी भवजल पार ॥११६।। विपुलाचल परवत थकी, जासी जग के सीस । अष्टगुणादि अनतगुण, धारी अविचल ईस ।।११७।। ए. सुधर्म गणधर तने, बचनामृत नृप पीय । श्रेणिक त्रिप्त भयो महा, जनम सुकारथ कीय ।।११८||
छप्प छन्द जे गंधर्वदतादि, अष्टरानी गुन बानी । दुल्लभ और निकौंजु, तेहि परनी सुखदांनी ।। तात घात को शत्रु, दुष्ट अति काष्टांगारी । सो जाने रण मांहि, मारि डारयो दुखकारी ।। राज कियो जु कितेक दिवसां, फुनि परिगह तजिया सर्व । अष्ट कर्म से दुष्ट काटे, सकल विरद जिनकौं फर्व ।।११।। भेदि तिमिर प्रज्ञान, छेदि करि सर्व विभावा । नहि मुकति श्री संग, सोहई सुद्ध सुभावा ।।
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जीवंधर स्वामि चरित
जो जीवंधर राय, पंचकायान से न्याशा जगत सिरोमरिण देव, जगजित जग को प्यारी ।। नमौं ताहि कर जोरि सिरनमि, भकति भाव उरलाय के।
सत्यंधर विजया सुनंदन, सीझ्यो सनमति पाय के 11१२७ ।। कथा का सार
पोडस दिन परमान, हंस को चालक जानें । निज माता से भिन्न, राखियो कुमति प्रयानें ।। पूरव भव के माहि, ताहि त षोडस बर्षा । मा सौं भयो वियोग, मात नहि पायो हर्षा ।। इह उर मैं धरि भव्य जीवा, सुजन विछोहा जिन करी । सकल जीव हैं आप सरिला, इह जिन प्राग्या उर धरौ॥१२१।। भई तात की मृत्यु, जनम जिन लह्यो मसाना । भयो सेठ आगमन, सेठ घरि पल्यो सुजानां ।। जषणी को अपगार, जक्ष से मित्र विवेकी। वन्यो अधिक परताप, शत्रु मारो अविवेकी ।। देव गती है प्रवल अतिही, लखो वात परत ए। जीवंधर को सुनि चरित्ता, धरौ जैन मत पक्ष ए॥१२२।। साध हुवां विन सिद्ध, हुवो नहि जग मैं कोई । सातै साध समांन, प्रांन उत्तम नहि होई ।। गही साध को पंथ, जोहि सिवपुर सुखदाई । पंच प्रकार प्राचार, धर्म दस लक्षण भाई ।। संजम वारह भेद धारौं, तप द्वादश विधि प्राचारो। अट्ठावीस जु मूलगुण हैं, ते नीकी विधि प्रादरी ॥१२३।। उत्तर गुण चौरासि, लाख हैं अानंदकारी । सहन परीसह बीस, दोय अधिका अघहारी ।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल - व्यक्तित्व एवं कृतित्व
मिथ्या मोह मदादि, तिन महें एक न राखौ । सम दम यम अर नेम, ध्यान अमृत रस चाख्यौ || तजी प्रमाद विषाद सारा, नांहि विवाद जु उरधरीं । भवतन भोग विरत चित्ता, दिढ़ वैराग जु श्रनुस ।।१२४ ।। जिन श्राज्ञा उर धारि, धरों रतनत्रय विमला ।
लखो आपनी रूप, शुद्ध किये कुमर्ण अनंत, अव श्रक्षय पद आनंद लहो,
बुद्ध जु अति अमला ॥ घरों परम समाधी । तजि जगत उपाधो ॥ इह जीवंधर चरित पुरन, भास्यों महापुरांन में । श्री सुधर्म गणधर महंता ल्याये याहि वषांन में ।११२५
इति श्री जीवंधर स्वामि चरित्रं समुरगृहात् निजगृहे गमन परमोत्साह, काष्टांगारिक प्रश्न कोप, मंत्रिवचनानुपशांति, रत्नवतो स्वयंवर, चंद्रक वेष शेषन, वरमाला गृहण, काष्टांगारिक र पोद्यम तात भृत्यान्प्रति पत्रिका प्रेषरण, सुभटागम, रखे काष्टांगारिक हुन्न, राज्य लाभ, विजया माता श्रागमन, सर्व कुटुंब मिलन, प्रजापालन सुखानुभवन, सुरमलयोद्याने झोडा हेतु गमन, वरधर्म मुनि दर्शन, भ्रातृ सहित अरण व्रत ग्रहण, अशोक बने कपि युद्धावलोकन, संसार बेह भोग निगता तत्रैव वने एकान्त स्थाने प्रशस्त वंक नामा चारण मुनि दर्शन, पुनर्भब अबरण गृहे गमन, जिन पूजारश्वन, सुरमलयोद्याने श्री वद्धमान स्वामि समवसरणभिमन श्रवण तत्रागमन, ससुर भ्रातृ मातृ भार्यादि सहित दीक्षा गृहरण, केबलोत्पत्तिमोक्ष गमन वनो नाम पंचमोध्यायः ||५|
कवि परिचय
कौन भांति इह ग्रंथ देव भाषा भाषा । भयो सु सुनौं धरि वित्त, इक हर राखा ॥
मध्य लोक कं मांहि, सकल दीपको एह, दीप
सोहए जंबूदीपा | मान श्रबनीषा ||
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जीर्वधर स्वामि चरित
जामैं क्षेत्र जु भरथ है इह, ता माही षट खंड है। पांच मलेछ जु खंड कहिया, इक पारिज परचंड है ।।१।। पारिज खंड मझार, देस कहिये जु अनेका। तिन देसनि के माहि, देस मेवाड़ जु एका ।। उजियापुर ता माहि, राजधानी अति सोहै । जगतसिंह महरांण, पाट सीसोदिन का है ।। मडी धान की नगर माही, महादेव मंदिर कहा। तहां टहलवा पंडितो इक, खेतसीह नामा कहा ।।२।। दौलतराम उकील, पुत्र प्रांनद की होई । ढुढाहड़ पतिराज, तिनों को सेवक सोई ।। वासी वसवा को जु, जाति कहिये जु महाजन । गीत कसिलीवाल, मांहि खंडेल जु वालन ।। कुल श्रावक के जनम पायो, कछुयक थु त परचे जिस । महारांण के निकट कूरम, महाराज भेज्यौ तिस ।।३।। रहै रंग के पास, रांग अति किरपा करई। जाने नीको जाहि, भेदभाव जु नहि घरई ।। सो जिन मंदिर प्राय, वांचई जिन मत ग्रंथा । सुनै विवेकी जीव, सरदहै जिनवर पथा ।। केयक के रुचि बहुत नीकी, मागम अध्यातम तनी। वांचे ग्रंथ कितेक ताने, संली अति सोभित बनी ।।४।। बांच्यो महाँ पुराण, बीस हज्जार सिलोका। जाकै अंति अनूप, बीर चरित जु गुग्ग थोका ।। जाम कथा रसाल, स्वामि जीवंधर केरी । सुनि करि हरणे भव्य, स्तुति कीनी जु धणेरी ।। तवं वोलियो अग्रवाला, वासी कालाडहर को। चतुर चतुर भुज नाम चरची, ग्रंथ पंथ सिव सहरको ।।५।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल - व्यक्तित्व एवं कृतित्व
देव भाष गंभीर, संसकृत विरला जांनें । पंडित करें वर्षान, अलप मति नांहि वर्षांने ॥ जो हृ ग्रंथ अनूप, देस भाषा के मांही । वांचे बहुत हि लोक, या मह संसं नाही ||
सब गिरंथ की वति न आवे तो इह जीवंधर तनी ।
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अवसिमेव करनी सुभाषा, प्रथीराज भी इह भनी || ६ || सुनी चतुर मुख वात, सोहि दौलति उरधारी । सेठ बेलजी सुधर जाति हूंमड हितकारी ॥ सागवाड है वास, श्रवण की लगनि घरी । सव सावरमी लोक धरं श्रद्धा श्रुत केरी ॥
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तिने करि कही फुनि दौलति के मन में बसी । संस्कृत तें भाष कीनी, इहै कथा है नौर सी |१७||
संवत ठार से जु पंच, आषाढ़ सु मासा | तिथि दोईज गुरवार, पक्ष सुकल जु सुभ मासा ।। तीजें पहर सु एह ग्रंथ सुभ पुरण हूवो । श्री जिनधर्म प्रभाव, सकल भव भ्रमतें जूदो ॥ नंदी विरध जगत मांही, जो लग चंद दिवाकरा । तिष्टौ भव्यनि के हिये मैं, नवरस वरान तें भरा ||८||
इति श्री जीवंधरस्वामि चरित्रं सम्पूर्ण सुभं भवतु-कल्याणमस्तु ।।६।।
"भग्न पृष्ठि कटि ग्रीवा वक्रदृष्टिरधोमुखम् । कष्टेन लिखितं शास्त्रं यत्नेम् परिपाल्यताम् ||"
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विवेक विलास
रचना काल : --- - १ शताब्दि
रचना स्थान :- उदयपुर (राजस्थान)
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल - व्यक्तित्व एवं कृतित्व
श्रथ श्री विवेक विलास भाषा दोहा
निज वाम वर्णन -
प्रामि परम (ऋषि) शांत कौं प्रणमि धर्म गुरु देव । करि सारद की सेव || ११|
वरण सुजस सुसील को,
दाय
सील व्रत को नाम है, ब्रह्मचयं सुख जाकरि प्रगटे ब्रह्मपद, भव वन भ्रमण नसाय
ब्रह्म कहावे जीव सहु, ब्रह्म का सिद्ध । ब्रह्म रूप केवल महा, ज्ञान सदा परसिद्ध ||३|| ब्रह्मचर्य सी व्रतां न परम ब्रह्म सौ कोय | नतिन ब्रह्म लवलीन सौ तिरे भवोदधि सोय || ४ || विद्या ब्रह्म विज्ञान सी नहीं जगत में जांनि 1 विज्ञ नहीं ब्रह्मज्ञ से छह निश्चें परवांनि ॥ ५ ॥
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|| २ ||
ब्रह्म वासना सारिखी और न रस की केलि । विषे वासना सारिखी, और न विष की वेलि ||६||
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प्रतम अनुभव सिद्धसी, और न अमृत वेलि । नहीं बोध सौ बलवता, देहय मोह को ठेलि ||७|| अध्यातम चरत्रा समा, चरचा और न कोय | अरचा जिन धरना समा नहीं जगत में होय ||८|| चरचा कारक लोक मैं नहिं गरणधर से धीर । नांहि दूसरे वीर ॥६॥
अरचा कारक इन्द्र से,
लोक न चेतन लोक सौं, निज अवलोकनि जा विषै,
विश्वविलोक निरूप । केवल तत्व स्वरूप ||१०||
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परकासक दुति घार को प्रति ददप्यि जु मान । भाव सोइ निज दीप है, भरयो अनन्त निधान ।।११।।
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विवेक विलास
विश्व प्रदीपक भाव सौ दीप न सुख की खानि ।
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क्षेत्र न कोई स्वक्षेत्र सौ, अक्षय अभय प्रवान || १२ |
खण्डन भाव प्रखण्ड सौ, परमानन्द निवास | स्व प्रदेश सौ देश नहिं जहां अनन्त विलास ||१३|| पुरन अभैपुर सारिखो, जहां काल में नाहि । निराकार निज रूप सौ नृप घर नांहि कहांहि || १४ || पुरपति निज चिद्रूप सौ और न दूजो भूप । पुरपति पदरानी महा, सत्तासीन सुरूप ।।१५।। सत्ति अनतानंत सौ श्रन्तहपुर नहि कोइ । महिमा अतुल पार सौ सखा समूह न जोइ ॥ १६ ॥ सखा न समरस भाव सौ, एकीभाव लखांहि । पासवान परिणाम से, नांहि जगत के मांहि ॥१७॥
निज विशेषता शुद्धता, प्रति अनन्तता कोछ । बहु विस्तीरणता सदा, ता सम सेनन होइ ||१८|| प्रति प्रतापमय भाव जे, महा प्रभाव स्वरूप । उमरावन तिन सारिखे अद्भुत अचल नहि प्रधान निज ज्ञान सी, नहि प्रोहित आनन्द सौ,
अनूप ।। १६ ।।
व्यापक सब में सोइ । धमें मूरती होय ॥ २०॥ नहिं अनन्त वीरज जिसी, सेनापति जयरूप | अगम अगोचर भाव सौ और न दुर्ग अनूप ||२१||
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नहि गम्भीर स्वभाव सी, खाइ प्रति गम्भीर | निश्चल अजित स्वभाव से दुर्गपाल नहि वीर ।। २२ ।। द्वारन श्रातम ध्यान सौ, अध्यातम को सार । निरवति रूप अनूप है जग परव्रति के पार ||२३|| भाव प्रच्छेद्य अभेद्य से, और न कोई कपाट | दरसन बोध चरित्र सौ और न दूजो वाट ||२४||
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं ऋतित्व
भाव अनन्त चतुष्टया, तिसे न चौहट और । व्यापारीन सुभाव से, नहि पुर . में झकझोर ।।२५।। सुरु परिरणानन मारिलो, मापन है वीर । अविनश्वरता भाव सौ, धन अटूट नहि धीर ।।२६॥ गुण परणति पर्याय निज, नाना भाव सुभाव । पर जातिन सम और नहि, दंत न भाव लखाय ।।२७।। भावनि के हि प्रभाव जे, अति प्रभास मय जेहि । तिसे न परजा घर विमल, अति सुख पुरण तेहि ॥२८॥ भरचौ भाव सौ पुर महा, बस जगत के कूट । ईति भीति नहीं पुर विषै, नहीं कपट अर कूट ।।२६।। निज अवकास बराबरी, और न है दो रास । निज उद्यौत विकास सौ राज तेज नहि भास ।।३०।। सुर नर नारिक पसुनि के, सब ही रूप विरूप । विघटि जाहिं क्षण एक में, जामग मरण सरूप ।।३१।। वस्तु अरूप समान को, और न रूप अनुप । निजपुर मांहि अरुप सब, जहां न कोइक रूप ।।३२ ॥ मूरति सूरति याकै महि, जगत जीवकी कोइ । धूरत भाव धरै महा, रागादिक वसि होय ।।३३।। पातम भाव अमूरता, अदभुत सूरतिवंत । राजा परजा एक से, जहां न भेद कहत ॥३४॥ प्रातम राजा गुण प्रजा, और न राजा रति । सस्त्र न भाव प्रचंड सौ, जारि नृप की जैति ।।३५।। प्रबल स्वभाव वरावरी, कोटवाल नहि कोय । चोर न मन इन्द्रीन से, तिन को नाम न होय ।।३६।। चोरी होय न पुर विषे, जहां न कोई चोर । जोरी जारी नाहि कछु, होय न कबहूँ सोर ॥३७||
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विवेक बिलास
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सार भूत निज वस्तु सौ, और न नृप भंडार ।। भंडारी अस्तित्व सौ, पोर न सरदसु धार ।।३।। नहीं धनी सौं दूसरौ, सदा धनी के पामि । सब सामग्री जा कनें, महा सुग्वन की रासि ।।३।। शुध पारणामीक सा, नहीं पारषद कोय । कदे न छोड़े भृप सभा, सदा हजूरी सांय ।।४।। क्षायक सम्यक सारिखा, नहीं महाभड भाव । राज शुद्ध भावानि को कर निकंटिक राब ।।४१।। वाधा रहित स्वभाब' सौं अंग रक्ष नहिं बीर । नित्य निरंतर भाव से, मित्र न कोई धीर ।।४।। श्रेष्ठो श्रेष्ठ सुभाव सौ, नहीं दूसरों और । सोभा पुर की जा थकी, चौहट को सिर मौर ।।४३।। सर्वोत्तम निज भाव सो, नहिं सिंहासन कोइ । तापरि राज राजई, सब को नायक सोइ ।।४४।। पातप हरण स्वभाव से, छत्र न कोई जानि । निर्मल भाव तरंग से चमरन दूजे मानि ॥४५।। चेतनता निज चिह्न से, नहि निसांन परवांनि । विस्व विहारी भाव से, अस्व न और बखांनि ।।४६।। मगन महा गलतान से अति उतकिष्ट स्वभाव । तिसे न मत्त मतंगजा, धरै अतुल प्रभाव ।।४७।। रथ नहि तत्वारथ जिसे, पुरुषारथ तिन मांहि । परमारथ परिपूरणा, या संस नांहि ।।४।। अनुचर अतिसय से नही, विचरें विश्व मझारि । नहि शिवका शिव भाव सी, थिर पर सकल विहार ।।४६ ।। सुख न प्रतिन्द्रिय सारिखो, सो सुख जहां अनन्त । दुस्ल को नाम न दीसई, जहां देव भगवंत ।।५०।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
दुख नहि इन्द्री भोग सौ, ताको तहां न लेस । केवल परमानंदमय, वरते देस असेस ॥५१॥ प्रातम अनुभव अम्रता, तिसौ न अम्रत पान। खान पान नहिं ता समां, इह निश्चे परवान ॥५२॥ भोजन तृप्ति समान नहि, सदा तृप्ति वह देस । स्वरस सुधारस पीयवौ, नहि वसना को लेस ।।५३।। क्षुधा तृषा बाधा नहीं, नहीं काल को जोर । जन्म जरा मरणादि नहिं, नहीं रैनि नहि भोर ।।५४।। रागादिक रजनीचरा, तिनको नहि संचार । मोह पिशाचान पुर विष, रोग न सोग लगार ।।५।। काम लोभ परपंच ठग, तिन को तहां न नाम । बस महा सुख सो सबै, भानंदी अभिराम ॥५६॥ धर्म न वसतु स्वभाव सौं, धर्म रूप पुर सोय । राजा परजा धर्म मय, नांहि अधर्मी कोय ।।५७॥ दान न सकल प्रत्याग सौ, त्यागी सब ही भाव । रागी कोइ न दोसइ, वीतराग है राव ॥५८।। सील न विमल स्वभाव सौ, जो अति उजल रूप। सील रूप राजा प्रजा, नहिं विकार स्वरूप ।।५।। तप नहि बांछा रहित सौ, तहां न बछिया होय । भाव अनन्त अपार है, जहां कुभाव न कोय ।।६०।। निज भावन की रम्यता, बहु मनोज्ञता जोय । ता सम नन्दन वन नहीं, निज उपवन है सोय ।।६१।। कहै अमर वन सूत्र में, ताको नाम मुनीस । रमै अमर वन मैं सदा, चिदानन्द जगदीस ॥६२।। सघन स्वभावनि सारिखों, अम्रत वृक्ष न और । ता वन में ते लहल हैं, रमै राव सिरमौर ।।६३।।
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विवेक विलास
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रही वेलि विस्तरि जहां, शुद्धातम अनुभूति । ता समान नहि सुध लता, केवल भाव विभूति ॥६४।। परम सुभाव पियूष फल, निज रस पूरण जेहि । तिन से नाहि सुधा फला, फलि नु रहे अति तेहि ।।६।। सदा प्रफूलित भाव से, फूलन और सुगन्ध । फूलि रहे महकै महा, राजै राव अवन्ध ॥६६!! अल वेलि फल फूल ए, तिन करि वन अति रम्य । जहां न गम्य विभाव की, वस्तु न एक अरम्य ।।६७१५ माया वेलि न है तहां, जहां न विकलप जाल । क्रोधादिक कंटिक नहीं, निज वन महा रसाल ।।६८।। नाहि शुभाशुभ कर्म से, विष तरु विश्व मझारि। तिन को लेस न है जहां, दुख फल नांहि लगार॥६६।। दुख फल से नहिं विष फला, देहि जगत को पीर। मानफूलि से फूल बिष, तहां न जानौं वीर ॥७०।। सुख सरवर सौ सर जहां, भरचौ सहज रस नीर । तरवर सघन स्वभाव से, तहां विराज धीर 11७१।। केवल कला कलोलनी, बहै निरन्तर शुद्ध । क्रीडा कर महा सुखी, राजे राजा बुध ।।७२।। अथग स्वभाव पयोनिधी, स्वच्छ महा गम्भीर ।। तिसौ न सागर स्त्रीर है, रमै गुरगांबुधि वीर ।।७३।। अति उल्हास विलास मय, आत्तम सक्ति प्रकास । ता सम लीला और नहि, यह भास जिनदास ॥७४।। अचल उच्च थिर भाव सों, क्रीड़ा गिर नहिं कोइ । क्रीड़ा करै कला निधी, जगत सिरोमरिण सोइ ।।७६१ ज्ञान चेतना परणती, निज सक्ती बहुनाम । तासौं कमला बुध कहे और न कमला नाम ।।७७।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
सिद्ध अनन्ता सर्व ही, राज करै या 'रीति । निज निज भाव प्रजा सहित, विलसें सुख जगजीत।।७।। जहां न जन्म जरा मरण, जहां न इष्ट वियोग । रोग न सोग न भोग तन, नहिं अनिष्ट संयोग ।।७।। भूख न प्यास न पाप पुनि, त्रिविध ताप नहिं कोइ । सद्रपा प्रानन्दघन, वस्तु अमूरत होइ ॥८०॥ नारि न पुरषन संड को, नांहि तृषातुर कोय । लोक शिखर निज क्षेत्र में, शुद्ध सिद्ध अबलोय ।।८१॥ रहित नाम बहु नाम जे, रहित रूप अति रूप । ते हमकों निज बोध द्यौ, चिदानन्द चिद्र प ।।२।। लघुता गुरता रहित जे, सदा अगुर लघु जांनि । सिद्ध अनन्ता सर्व सम, तिन से और न मांनि ।।५३॥ ते भगवन्त जिनेश्वरा, तेहि महेश्वर देव । शुद्ध बुद्ध योगीश्वरा, करै सुरासुर सेव ।।४।। सर्व व्यापका बिष्णु ते, भज तिनै सुर राय । लख ज्ञय को ज्ञान में, तातें कृष्ण कहाय ।।८।। सकल वस्तु अवलोकिवौं, रहिवो सब तें भिन्न । वसिवो प्रातम भाव में, कबहूं खेद न खिन्न ।।८६।। सिव कल्याण स्वरूप ते, परम वम्भ परतक्ष । सदा परोखि प्रज्ञान कों, तात कहै अलक्ष ||७|| ईश्वर समरथ सार जे, परमातम परवीन ! मुक्त सर्व गत विमल ते घट घट अन्तरलीन ।।८८।। परम पुरष परबान ते, परम जान भगवान । महादेव महिपाल ते, महाराज गुणवान ।।६।।
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बिवेक विलास
रहित रजोगुण राव जे, रहित तमोगुण भाव । रहत सुभासुभ संत ते, निर्गुण है निरदाव ।।६।। महा महंत अनंत ते, सर्व गुणनि के नाथ । गुण पर्याय स्वभाव गण, सदा घरमा निज साथ ।।६।। रमि जु रहे निज भाव में, तातै तिनको राम । कहिये सूत्र सिधंत में, रहित क्रोध पर काम ।।१२॥ तीन भुबन के चंद ते, तीन भुवन के सूर । तीन भुवन के नाथ ते. गुण अनंत भरपूर ।।३।। जैसें चितामरिण बहुत, सब कौं एक स्वभाव ।
से सिद्ध अनंत ही, समभाव दरसाव ||४|| भये अनंता रिश प्रभु, होमी 'कल नंग सब को मेरी वंदना, सेवं साह महंत ॥६५॥ करै पाप सम दास कौं, बड़े गरीब नवाज । रहित कामना कलपना, भज जिनें मुनिराज ।।१६।। निज दौलति बिलसं सदा, महाप्रभू निजरूप । वस भावपुर में प्रगट, परमानंद स्वरूप ||६|| नाम भावपुर की भया, कहै अभंपुर साध । वसै सासतौ सुख मइ, जहां न कोइ वाघ ।।६।। निश्चै वास स्वभाव मैं, व्यवहारें जगसीस । उपचारै घट घट विर्ष, व्यापक सदी अधीस |९| सब को सादि सभाव है, तातै एकहि ईस । कहिए ग्रंथनि के विषै, चिदानंद जगदीस ।।१०।। है अनन्त सब एकसे, ताते एकहि ध्यान । करै महामुनि भाव सौं, ते पावै निज ज्ञान ।।१०१।। सिद्ध भक्ति इह भाव धरि, पढे सुनै नर नारि । ते निरवेद दसा लहैं, जिन पाशा उर धारि ।।१०।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल- व्यक्तित्व एवं कृतित्व
निश्च देव निजातमा, व्यवहार गुरदेव । तिरं भवोदधि ते नरा, करें निजातम सेव ।। १०३ ।।
जैसे चेतनराव सौं, और न दूजो राव | तैसे व्रत में सील सौ और न कोइ कहाव ||१०४॥
॥ इति निजधाम निरूपणं ॥
श्रागे ठग ग्राम का वर्णन करें है । दोहा
ठग ग्राम वर्शन-
ग्राम ठगनि केलें प्रभू, काठै त्रिभुवन राय । पहुँचावै निजपुर दिषै, ताहि नमू सिर नाय ॥ १०५ ॥ रेजन तू निज नगर में यह ठगनि को गांम | की लग कहिए नाम ।। १०६ ।। सकल ठगति को राव |
ठग मोहादि श्रनन्त है, मोह महा वंचक कुधी, ठगे कर्म ठग संवनि को
मोह राव परभाव ।११०७ ।।
मोह पासि सी है दे फांसी जग जीव के
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नहीं,
फांसी जग में आन ।
हरें मोह गुण प्रान ॥ १०८ ॥ दीरघ निद्रा कोइ | ज्ञान चेतना खोइ ।। १०६ ।।
नहीं मोह निद्रा जिसी, सो सब जग मोह बसि,
मोह प्रिया ममता महा, तिसी न ठगनी जोइ । ठगै सुरिन्द्र नरिन्द्र कौं, महा मोहनी सोइ ॥ ११० ॥ मायाचारी मोह ठग, इसी न जगत मझार । मोह महा मुनीनि कौं, सुर नर कपा विचार ।। १११॥
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विवेक विलास
बडे ठगनि मैं दोय ठग, राग दोष बिड़ रूप । लिनके भुज परताप ते, मोह जगत को भूप ।।११२।। राग समान न राग कर, और सिकारी कोइ । वस करि सुर नर पसुमि, मारै : १६३।। हरे ज्ञान से प्राण जो, हरै ध्यान सौ माल । लीयां कपट पर कालिमा, कर बहुत वेहाल ।।११४।। राग प्रीया जु सरागता, जाहि कहै जग प्रीति । जासौं करि अप्रीति मुनि, हीहि मुक्ति जग जोति ।।११५।। विष प्रीति अनुरागता, अदभुत ठगनी सोइ । ठग चक्र वर त्यान कौ, वचै कहां तक कोई ।।११६।। दोष समान न दुष्टधी, जगत विरोधी जानि । करै दौर त्रय लोक में, दौरी खरी प्रवानि ।।११७।। हर शुद्धता भाव जौ, हरै दया सौ दर्य । महा निरदयी दुरमती, धारं अतुलित गर्व ।।११८।। दोष प्रीया दुर्जन्यता, महा दुष्टता होय । ठग जु असुरिन्द्रादि को, हरि प्रति हरि कौं सोय ११६ ।। काम नाम ठग अति प्रबल, तासम नांहि कुचील । कर फैल बद फैल वहु, हरै जगत को सील ।। १२०॥ कंवर समान जु मोह के, महा पाप को धाम ठग देव दैत्यानि कौं, नर पसु सब की काम ।।१२१।। काम प्रीया रति अति बुरी, भव भरमावे सोय । अनुपम ठगनी है भया, व्रत तप हरणी जोय ॥१२२।। कंटिक कोइ न क्रोध सौ. हरै प्राण तहकीक । हर बुद्धि सौ धन महा, वोल वचन मलीक ।।१२३।। उघडौं हथ मारो इहै, महा मोह उमराव । करता हरता मोह कै, धारै कुवुधि कुभाव ।।१२४।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
ठमै वास देवादि कौं, रुद्रादिक कौं सोय । ठग सुरासुर वर्ग कौं, वचे जहां ते कोय ।।१२।। क्रोध प्रिया हिसा महा, काल रूपरणी जोय । ठग सवनि को सर्वदा, उबर मुनिवर सोय ।।१२६।। नाहि कठोर गुमान सौ, चढि जु रह्यो गिरमान । गनै तुछ सवको सदा, खोस गुन से प्रान ।।१२७॥ . हरै विन धन सर्वथा, कर वहुत विपरीत । ताकै वलि नप मोह खल, होय रह्यो जु अजीत ।।१२८।। श्रांत सम्मान गुमान की, लोह राज दरबार । ठग फनिन्द्र महिन्द्र कौं, यह ठग असि वलधार ॥१२६ ।। मान प्रीया ठगनी बुरी, नाम अहं ता होय । अहंकार लीयां सदा, भयंकार प्रति सोय ११३०।१ ठग जु अहमिद्रादि कौं, ठगै मुनिनि को एह । काइक उवरै सांत धी, धारै सा विदेह ।।१३१॥ कपट समान न कुटिल को, सो नृप को परघांन । प्रति छल वल परपंचमय, पाखंडी परवान ।। १३२॥ ठगै सदा सब को सही, करै जगत कौं बाध । कोइ उबरं साधवा, करै जु निज आराध ।।१३३॥ कपट प्रिया है कालिमा, कुटिलाई को धाम । ठगें नारदा दानि को, बचें मुनी तिह काम ||१३४॥ नहीं लुटेरा लोभ सो, लूटे त्रिभुवन जोहि । सो सेनापति मोह के, अति कोड़ीभड़ होहि ॥१३॥ सुरपति नरपति नागपति, खगपति दलपति जेहि । सर्व लुटावे लोभ , बंड़ लोभ कौं देहि ॥१३६।। लूट सवको सर्वथा, लोभ सर्वदा वीर 1 कोइक लूटे जाहि नहिं, संतोषी मुनिधीर ॥१३७।।
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विवेक विलास
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लोभ प्रीया तृष्णा महा, जगत द्रोहणी सोह । सर्व भक्षणी पापणी, मुनि ठगनी है सोइ ॥१३८।। काइक मुनिवर उमर की जिमणार प्रताप । तज्जै भोग प्रिश्ना सबै, सेब धर्म निपाप ।।१३६ ।। निज प्रतीति हर भरम कर, ठग न मिथ्यात्त समान । सो स्वरूप है मोह को, कुवुधी पाप निधान ।।१४०।। प्रीया मिथ्यात मलीन की, महा अविद्या जानि । टग थावरा जंगमा, जग ठगनी परवानि ।।१४१।। नहीं सोच सौ कष्ट कर, सुख हिरदै संताप । सोच प्रीया चिता अरति, उर जार्य बहुताप ।।१४२।। भकारी है भय महा, मारै चहुँगति माहि । ध्याकुलता है भम प्रोया, जामै अानंद नाहि ।।१४३।। रोग महाबल तन हरग, मरण करण दुखदाय । आधि व्याधि रोग प्रीया, कबहु नहीं सुखदाय ।।१४४।। सोक हरै पानंद कौं, करें सबनि को दीन । सो प्रीया संतप्तता. करै जगत को छीन ।।१४५।। अग्रत और असंजमा, विकथावाद विवाद । मोह राब के रावता, हर्ष विषाद प्रमाद ।११४६।। सव ठग सब पासीगरा, सर्व लुटेस नीच । सब दौरा सब चोर ए, भरे कालिमा कोच ।।१४७।। ऐ सब ही जु पिसाच हैं, भूत राक्षसा एह । दैत्य दानवा दुरमती, एही असुर गनेह ॥१४८।। ए अजगर अष्टापदा, मत मतंग सिंह सर्प । एहि व्याघ्रा है सदा, जीते मुनि नरसिंह ।।१४६ ।। ए भिडि पात्र अनादिका, ए भेरुड वित्रुड । दुष्ट एहि चीला महा, एई मगर प्रचंड ॥१५०।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
ए दावानल दुमइ, ए दुख सागर जांनि । इन दुजा और माति, इह निपने तर प्रांनि ।।१५१।। सनु एहि मोहादिका, ए किरात दुखदाय । एहि पारधी धीवरा, एहि अहेरी राय ।।१५२।। एवा गुर अति दोष भर, महा पाप के रूप । हिंसक निर्दय दुरजना, ठग पुर मांहि विरूप ।।१५३॥ नांहि ठगोरी लोक मैं, विष वासना तुल्य । महा ईरषा आदि वहु, विष करि पुरण कुल्य ॥१५४॥ भोग भावना सारिखी, भुरकी जग सिर डारि । खोंस लेंहि सव ज्ञान धन, डार नरक मझारि ।।१५।। वात बनाय धिजा पते, विष ठमोरी डारि । लै हैं ज्ञान छिपाय धन, तातै जतन' विचारि ॥१५६।। जतन न कोई दूसरी, करी निज पुरी वास । बिलसी निज धन सासतौ, धारौ अतुल विलास ॥१५०।। कैसे पहुँचें निज पुरी, लंघि ठगनि की ग्राम । सो उपाय सुनि चित्त धरि, करहु प्रातमाराम ।।१५८॥ मोह विदारक सम्यका, राग विद्धार विराग। संत भाव है दोष हर, धारै जाहि सभाग॥१५६॥ काम बिडार विवेक है, मार्दव मान निवार । मार्दव कहिये मैंण सौ, नरम भाव अविकार ॥१६०।। क्रोध निवारक है क्षमा, प्रार्जव कपट निधार । आर्जव कहिये विमलता, महा सरलता सार ।।१६१।। लोभ बिडारक लोक में, नहिं संतोष समान । पाप विडारण तप जिसौ, कोइ न दूजौ पान १६२।। १ मूल पाठ चेतन है।
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बिफ बिलाम
मोहादिक दोषीनि के हरण हार सुखदाय ! है अनेक जोधा महा, को लग कहै बनाय ॥१६॥ तिनकों लारै लेय तू, लंधि ठगनि को गाम । निजपुर मांहि असौ महा, जहां न ठग को नाम ॥१६४॥ ठग ग्राम को वर्णना, पढे सुने जो कोय । ठग ग्राम की लंघि के, निजपुर वासी होय ॥१६५।।
निज बोलत विलसै महा, रमै सदा निज मांहि । . जामण मरण कर नहीं, ममता मोह नसाहि ॥१६६।।
॥ इति उग ग्राम वर्णनं ॥
निज वन निरूपण
दोहा निज वन में क्रीडा करै, क्रीडा सिंधु कृपाल । ताहि नमू कर जोरि के, जाहि न व्याप काल ।।१६७।। वन नहिं निज बन सारिखो, है अमरण वन एह । अमरोद्यान कहैं जिस, परमानन्द अछेह ॥१६८।। सही अभवन ए सही, सदा अभैपुर पासि । अति रमणीक मनोहा, सुख अनन्त की रासि ।।१६६।। इह. केली वन हंस को, हिंसा रहित अनूप । रमै सांत रस धारका, परमहंस चिद् प १३१७०।। महिं कोइल संसार में, प्रातम कला समान । रसीया प्रातम केलि के, निज वन वंसिया मानि ।।१७१।। 'ज्ञान अभै वन मारगा, ज्ञानी जीव विहंग । तेहि रमै निज यन विष, क्रीडा कर अभंग ।।१७२।।
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महाकवि मौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतिस्व
नहि सरवर सम भाव से, निज रस पूरित जेह । कमलन भाव अलेप से, सदा प्रफुल्लित तेह ।। १७३।। भमरन भाव रस जसे, भमैं तिनों परि भूरि । इहै रंग बन है भया, सब कुरंग तें दूर ।।१७४।। म्रग नहिं चपल स्वभाव से, ते यामें नहि कोय । दुष्ट भावमय दुष्ट पसु तिनको नाम न होय ।।१७।। मोह दैत्य को बास नहि, नाहि किरात कषाय । असुर दुराचार न जहां, लोभ चोर न रहाय ।।१७६।। नहीं दंभ बल छिद्र ठग, नहीं धूर्त पाखंड । न परद्रोह दौरा कदे, दौर करें परचंड ।।१७७।। पाप रूप परपंच नहि, इन्द्री भूत न कोय । मदन पिसाच रहै नहीं, अद्भुत बन है सोय ।।१७८।।। नहीं एक कंटिक जहां, जहां न विकलप जाल । विष वेलि न मायामयी, सो वन महा विसाल ||१७६ ।। विष वृक्ष न अघ कर्ममय, नाहि कुपक्षि कदाचि । जहां क जीवन एक है, रहे ज्ञान घन रात्रि ॥१८०।। नहिं दुख फल नहिं दोष दल, नांहि विष विषफूल । सो वन सेय सुजाण तू, जो सब सुख को मूल ।।१८१।। रागादिक रजनीचरा, विचरै तहां न कोय । तरवर सघन स्वभाव जे, तिन करि पूरण सोय ।।१८२।। ते स्वभाव पीयूष तरु, सदा अमर फल दाय । यह निज' बन रमणीक है, रमैं जहां निजराय ॥१८३॥ शुद्धातम अनुभूति सी, अम्रत लता न कोय । सदा प्रफुलित भावमय, अति सुख फल है सोय ।।१८४।। भाव भवातप हरण से, और पत्र नहि होय । । तिन करि सोभित तरलता, अदभुत वन है जोय ॥१८॥
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विवेक विलास
निरमलता सी वापिका, अर निज रस से कूप । निज बन तिन करि सोह्इ, अम्रत मइ अनुप ।। १८६।। केवल कला कलोलनी, जामें सरस कलोल । ता सम नाहि कलोलनी, निज वन माहि अडोल ॥१८७।। या सम नंदन बन नहीं, वंदन जोगि विसाल । इह तीरथ निज धाम है, हरे सकल जंजाल ।।१८८।। रमै सदा या बन विषं, तेहि लहै आनंद । या सम:शिक जोरपना, महरि . कौ कंद ॥१६॥ जान संपदा सासती, सो निज दौलति जानि । निज संपति बिलस्यां विनां, वन केलि न परवानि ।।१६०।। इह निज बच वर्णन बुधा, पढं सुनै जो कोय । निज कानन क्रीड़ा करण, कर्म हरगा सो होय ॥१६१।।
॥ इति निज वन निरुपणं संपूर्ण ॥
निज भवन वर्णन
दोहा
भव वन सौ वन नाहि को, गहन विषम अघरूप । जहां न रंचहु रम्यता, दीसै महा विरूप ।।१६२॥ भव वन म्रमग निवारिक, देय अभयपुर बास । वंदौं देव दयाल कौं, करें आप सम दास ।।१३।। भकारी प्रम तम भरचो, है हिंसा को धाम 1 असुरन हिंसक भाव से, बस वहुत तिह ठाम ।।१६४।। दैत्य न दुष्ट स्वभाव से, ते बिचरै धन घोर । चोर न चाहि स्वभाव से, है तिनको अति जोर ।।१६५।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
दत्य सिरोमणि निरदयी, महा मोह छलवान । ता सम को इन दुरजनां, सो वन पति बलवान ।।१६६।। दुराचार सौ दूसरो, असुभ अवर नहि कोय । सो जुगराज महीप के, कहाँ भलाई होय ॥१६७।। राग दोष रजनीचरा, तिसे न राखिस और । तेहि मोह नरपति नख, सुभटनि के सिर मौर ।।१६८।। पाप समान पिसाच नहि, सो नृप के परधान । सपत विसन सेना सपत, सेनापति अज्ञान ।।१६।। नहिं अपराध बराबरी, महा पारधी कोइ । सो प्रोहित भूपाल के, दया कहां ते होय ।।२०।। परे जगत के जीव सहु, मौह पासि के मांहि । पंथ नगर निरवान को, नृप चलिवा दे नाहि ।।२०।। करि सथान भव बन विषे, वैठो मोह भूपाल । काल समो विकराल नहि, सो नृप के कुटवाल ।।२०२।। करै राज कानन विर्ष, कुबुधि कुटिल कुरूप । मोह राव को राज सब, लखिये पाप स्वरूप ।।२०३।। ममता पटरांनी महा, मोह भूप के जांनि । धरै ममत्व स्वभाव सो, कुबुधि भुल परवानि ॥२०४।। पाप ति समान को, और नहीं अन्याव । वरतं तहां अन्याव ही, मोहराव परभाव ॥२०५।। विष प्रक्षन बसु कर्म से, जे अति कंटिक रूप । मरण देहि भव भव विष, छाया रहित विरूप ।।२०६।। तिन करि पूरण भव बना, मन मरकट की केलि । फैलि रही माया तहां, तिसी न विष की बेलि ।।२०७।। शुधातम अनुभुति सी, अम्रत लता न कोइ । महा अगोचर है जहां, मरण हरण है सोई ।।२०८।।
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विषक विलास
सदा सधन अति मगन जे, भाव सुद्ध उपयोग । तिनमै अम्रत तह नहीं, तिनको दुर्लभ जोग ।।२०६।। नाहि कुपत्र कुसूत्र से, तिनही को विसत्तार । नाहि सुपत्र सुसूत्र से, तिनको तृछ विचार ।।२१०।। मानफूलि धनफूलि जो, राजफूल मनफूलि । विर्ष फुलि से विष पहुप, और न जानौं मूलि ।।२११।। फूलि रहे तेइ तहां. दुख फल फल अनंत । दुख फल से नहि विषफला, इह भासै भगवंत ।।२१२१॥ सदा प्रफूलित सहज ही, जे केवल निज भाव । तैसे फूलन सुस्व मइ, तिनको अलप लखाव ॥२१३।। परम भाव अति रस मइ, तिसे सुधा फल नांहि । ते अगम्य भव वन विषै, जिन करि सब दुख जाहि ।।२१४।। शांत भाव सौ मिष्ट जल, अम्रत रूप न कोय । सो भव मै मिलवी कठिन, जा करि तिरपत होय ।२१।। विर्ष बासना सारिखो, और न विष जल बीर । सो भव वन मैं बहुत है, क्षार मलिन जो नीर ॥२१६।। भरघो कपट मय कीच सौ, जारि त्रिषा न जाय । सो पोवं वन जन सबै, मर रोग दुख पाय ॥२१७।। मृग त्रिशरणा नहि भ्रांतिसी, सो अत्यन्त लखाय । इह वन म्रग तिष्णा मई, सब जन सदा भमाय ।।२१।। वांसिनि मैं मोती दुलभ, त्यों भव वन मैं साध । कोइक पइए धर्मधो, केवल तत्व अराध ।१२१६।। गिरन कठोर स्वभाव से, तिनकी भलो न तौर । ते भव दन मै मुख्य हैं, महा कष्ट को ठौर ।। २२०॥ नला न नीच प्रवृत्ति से, रमो तिनो तें पूरि । स्यालन का परभाव से, ते पावन मै भूरि ।।२२१।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
म्रग नहिं मूरिख जीव से, फस फासि के मांहि । करि अनुराग जु राग सौं, प्रथा जीव सी जाहि ॥२२२।। अहंकार ममकार से, नांहि अहेरी कोइ ।
कार जिसमें सः, धंधा सम हैं सोइ ।।२२३॥ जाल न बिकलप जाल से, इह बन जाल स्वरुप । अति जंजाल भरचो सदा, महा भंप विड रूप ॥२२४।। जी बनि के कुल जाति जे, अर नाना विधि बस । तिन सेवां सुन और को, नहि कुभाव से कंस ।।२२५।। भरयो बस पर कंस लें, अस मात्र सुख मांहि । लुट पंथ निरवान को, बहु पंथी बिनसांहि ।।२२६।। सम्यक दरसग सोइ कण, ता बिन पर की ग्रास । घास सोइ तासौं भरयो, भव वन कष्ट निवास ।।२२७॥ नहि कंटिक क्रोधादि से, तिन करि पुरण एह । क्रू र भात्र से सिंध नहि, भव वन तिन को गेह ।।२२८।। दुरनववादी जीव से, मांहि कुपक्षी कोय । या संसार असार मैं, करै सोर अति सोय ।।२२६ ।। नही अजगर अज्ञान सौ. ग्रस जगत नौं जोय । बसै मही भव वन विषै, वचं कहां से कोय ।।२३० ।। मद अष्ठनि से और को, अष्टापद नहि बीर । भव अटवी मैं ते रहै, तिनं नहीं पर पीर ।।२३१।। अति उदमाद प्रमाद सी, मत्त गयन्द न और । सो वनगज भव वन विषे, दुष्टनि को सिर मौर ।।२३२।। रहै सदा उनमत महा, काल स्वरूप विरूप । थिर चरसे नहि वन चरा, बस तहां भय रूप ।।२३३।। पीडै पाप पिसाच अति, दुष्टनि की सरदार | भूतन इन्द्री पच से, तिन को तहां बिहार ॥२३४।।
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विवेक विलास
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छल छिद्रनि से और को, नाहिं छलावा होय । फिरै छलावा बन विष, बचें कहां ते कोय ।।२३५।। भव कांतर असा रहै, अति दुष्टनि को बास । नहि उलूक मिथ्यात सो, ताको तहा विलास 11२३६।। काम लोभ परपंच से, ठग नहि कोइ अोर । सदा ठगै भव वन विषे, करें जगत को चोर ।।२३७।। बटयारी दोरी बुरो, नहि परद्रोह समान । दौर कर परधन हरै, घरै बहुत अभिमान ॥२३८।। बहि पगि साब में, गुर औ न तोर । सिथिल मन्द भाव से, गेंडा जानि न धीर ।।२३६।। भय दायक भावनि से, और नहि भिडि पाव । भव अरण्य भीतरी भया, तिनको सदा लखाव ॥२४०।। बाधाकारी भाव से, नाहि वधेरा कोय । ह्य ग्राहक भावनि से, सूकर और न होय ।।२४१।। अविवेकी भावनि से, महिष अरण्य न झोर । इत्यादिक खल जीव गण, दीस ठौर जु ठौर ।।२४२।। लोक गमार अजाण जे, तिसे न सांभर रोझ । सदा रहै भ्रम भाव मैं, धरै न तप व्रत बोझ ॥२४३1। इत उत डोलत हो फिर, अति हि झकोला खाय । चितवति चंचल रूप जो, निश्चल कबहु न थाय ।।२४४।। ता सम और न लौंगती, भव कांतार मझार । विचेरे भ्रांति भरी सदा, धरै न थिरता सार ॥२४५।। उड़े फिरै चंचल महा, जे जग के परिणाम । तिसे नभे रूडा गरूड़, तिनको भव बन धाम ।।२४६।। परमहंस मुनिराज से, हंस और नहि कोय । तिनकौं भव कानन विषै, दरसन दुरलभ होय ।।२४७।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
नहि सरवर सुख सरसमो, सम रस पूरित नीर । ताके भेदी भव्य जन, विरला जांनी वीर ।।२४८।। नहीं वाय जग बायसी, जगत उड़ावा जोइ । बाजे अति प्रसराल सी, कंदै थिर चर लोय ।।२४६।। काय टापरी वापरी, यापै टिके न कोय । निज पद परबत प्रांसिरौ, पकरै उदर सोय ।।२५० ।। नहि कोपल सारिखी, दावानल विकराल । सर्व चराचर भस्म कर, महा तापमय ज्वाल ।।२५१।। लागि रही भव वन विष, तापें बचिवों नाहि । वुझे शांत रस नीर मैं. सो दुर्लभ पद २१ निज गुर अंबुधि मैं बसै, ताहि न याको ताप। ताः सकल विलाप तजि, सेवो आपनि पाप ।।२५३।। विध पंच इद्रीनि के, कालकूट विष तेहि । विष को मूल भयंकरा, भव कानन है एहि ।।२५४।। नहि लुटेरा काल सौ, लूटै सरवसु जोहि । संक न माने काइ की, हरै प्राण धन सोहि ।।२५५।। रागादिक रजनीचरा, विचरै प्रह निसो वीर । रौके पंचम गति पथा, करै जगत की पीर ।।२५६।। दैति सिरोमणि मोह को, राज महा विपरीत । छोटे को मोटो गिलै, वसं लोक भैभीत ॥२५७।। पर पंचक पाखंड से, और दूसरे नाहि । तिनको अति अधिकार है, मोह राज के माहि ।।२५८।। राज करै पापी जहां, दैत्यनि को सिरदार । कैसे चाल धर्म की, मारग तहां जु सार ।।२५६।। दरसन ज्ञान चरित्र से, और न निज पुर पंथ । या मारग व तत्व कौं, पावें मुनि निरगंथ ।।२६०।।
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विवेक विलास
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मोक्षि मारगी मुनि जिसे, और न जांनो कोय । मोह मान हरि ज्ञान धरि, निज पुर पहुंचे सोय ।।२६१।। संजम तप बैराग व्रत, निरविति विष कषाय । संवर निर्जर सुभट ए, भहारी सुखदाय ।।२६२।। इन सेवौ लावा नही, भत्र भै गनै न मूल। पहुँचावै निरवान ए, कबहु न आँ प्रतिकूल ||२६२।। क्षायक सम्यक केबला, वीरज और अनंत । वर दृग बोध अनंत सुख, हूँ तन भाव कहंत ।।२६४।। शुद्ध पारिणामीक ए, साथी प्रवल प्रचंड 1 इन से साथी और नहि, धारं साथ अखंड ।।२६५।। नहि सेरी जिनवानि सी, दरसिक गुरसे नाहि । नगर नही निरवांन सी, जहां संत ही जाहि ।।२६६।। भव कांतार वहैतरी, पढे सुने जो कोय । सो भव कानन लघि के, निज पुर नायक होय ।।२६७) लहै सासतो बोलतो, फेरि जु भव वन मांहि । उपजे मरण करै नहीं, निज पुर मांहि रहांहि ।।२६८।।
॥ इति भव वन निरूपणं ।।
भाव समुद्र वर्णन--
दोहा चिदानंद चिनमूरती, चेतनराय नरेस । रमैं सदा सुखा सिंधु मैं, नमैं जाहि जोगेस ॥२६६।। ताहि प्रणमि नमि मुनिमहा, प्रणाम सार सिद्धान्त । निज समुझ वर्णन करू, जा सम और न सांत ।।२७०।।
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महाकवि कालसराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
चेतन सागर सारिखौं, और न सागर क्षीर । यह अम्रत सामर महा, हरै दाह दुख पीर ।।२७१।। विमल भाव सौ जगत मैं, होय म निर्मल नीर । भरयौ विमल जल भाव सौं, गुण सागर गंभोर ।।२७२।। लहरिन परमानंद सी, जामै लहरि अनंत । नंदी न निज पररगति जिसी, इह भास भगवेत ।।२७३॥ वहै प्रखंडित धार जे, निज परति रस धार । ते सब निज सागर विषै, मिल महा अबिकार ।।२७४।। रतनन दरसन ज्ञान से, है रतनाकर एह । भरघौ भाव रतनांनि तें, अंबुधि अचल अछेत् ।। २७५।। मुक्त सकल परपंच ते, जे पातम परिणाम | ते मुक्ताफल निरमला, सागर तिनको धाम ।।२७६।। उजल उत्तम भाव से, परम हंस नहि कोय । यह हंसनि की सागरा, अद्भुत अंबुधि होय ।।२७७।। अस्ति सदा सत्ता धरै, वस्तु रूप अतिसार । चेतनता प्रानंदता, ए निज भाव अपार ॥२७८।। भाष मइ सागर यहै, भाव समुद्र कहाय । सुख सागर रस सागरा, नाम अनंत धराय ।।२७६ ।। सुख नहि विषयादिक विर्ष, सुख प्रातम रस सार । मन इंद्री बरजित महा, अविनासी अविकार ।। २८०।। सुख समुद्र है सासतो, निज गुण रूप अरूप । लौकिक गुण से रहित जौ, गुरण सागर सद् प ।।२८१।। नाहि मगन भावानिसे, वन उपवन जग मांहि । ते सब या तीर हैं, यामै संसै नांहि ॥२८२।। अम्रत वेलि न लोक मैं, निज अनुभूति समान । सोइ फलि रहि जलधि तटि, अमरण फलर समान ॥२८३।।
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निवेक मिन्नास
जड सुभाय जलचर नहीं, चेतन सागर मांहि । मोह मांन मन मदन छल, मगर न एक रहांहि ।।२८४।। मृत्यु कारणं दुष्टते, इन से दुष्ट न और । रस सागर रतनागरा, नहीं तिनो की ठौर ।।२८५।। घरै पक्ष मिथ्यात की, दया भाव ते दूर । तेहि कुपक्षी नहिं तहां, सागर है सुख पूर ॥२८६।। जीभ लोलपा मांछला, निठुर काश्रिवा जेहि । वृथा विवादी मींडका, सागर मैं नहिं तेहि ।।२८७।। तुछ भाव जे झींगरा, कोट कालिमा रूप । जल सर्पा जग भावजे, सागर मैं नवि रूप ॥२८८।। जग जंजाल अनेक जे, ते जल देवत जांनि । तिनको तहां न ठाम है, यह निश्च परवांनि ।।२८६ ।। मलिन भाव हो काग जल, जलनिधि में नहि कोय । मद मछर माछर नहीं, अदभुन मागर सोय ॥२६०।। पर पीड़ा कर क्षुद्र जे, परिणामा जग मांहि । तेहि डांसरा दुष्ट घो, रस सागर मैं नाहि ।।२६१।। विषय वासना सारिखी, नहिं वासना कोय । निज सागर मैं सो नहीं, सुख सागर हैं सोय ॥२६॥ विष तरु राग विरोध से. मा पासी विष बेलि । नहि अमृत सागर नरे, सागर रस को रेलि ॥२६३।। कृपण भाव कोड़ी नहीं, नाहि मिथ्याती संख । द्विविधा सीप नहीं जहां, निज सागर मधि वीभ ।।२६४।। विषम पवन जग वायसी, और न कोई असार । सो वा नहि जलधि मैं, उदधि अथाह अपार ।। २६५।। वडवानल बांछा जिसी, नहीं विश्व के मांहि । सो नहि बिमल पयोधि में, खल नहि कोइ रहांहि ।।२६६।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
कस हंसन निज केलि से, जिनको सदा निवास । लहि सरिम समभाव से, तिनको सदा विलास १२६७। राज हंस रिषराय से, और न जानौं वीर । क्रीड़ा करें सदा तहां, जहां सहज रस नोर ।।२।। प्रबर विहंगम मारगा, हाँहि सुभाव विहंग । तेहि सुपक्षी जलधि मैं, लीला करें अभंग ॥२६६ ।। हिसा भाव नहीं जहां, है हंसन की केलि । सीत न ताप न रैनि दिन, जल निधि रस की रेलि ।।३०० ।। क्षार भाव से क्षार जल, जलधि थकी अति दूर । सो रतनागर सागरा, प्रा पानंत भरपर ।।३०१॥ नहि विभाव वितर जहां, असुभ असुर महि कोय । मायाचार न चोर छल, अनुपम सागर सोय ।।३०२।। पापाचार स्वरूप खल, परिणांमा सिंघादि । सागर तीर न पाइए, मद परिणाम गजादि ।।३०३।।
कायर चंचल भाव मय, एक ने कोई मृगादि । सागर तीर न देखिये, दोष रूप देत्यादि ।। ३०४।। लोभ लुटेरा नहिं जहां, लूटि सके महि कोय । दुखदायक दुरभाब नहि, सुखसागर है सोय ।। ३०५।। क्रीड़ा भाव सुभाव ही, क्रीड़ा नात्र अनूप । क्रीड़ा कर पयोधि में, परमातम निज रूप ।।३०६।। नाम अनंत पयोध के, महिमा अगम अपार । भाव नगर के निकट ही, भाव उदधि अविकार ।।३०७।। प्रातम भाव हि नगर है, प्रातम भाव पयोधि । प्रातम राम ही राव है, यह निज घट मैं सोधि ।।३०८।।
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विवेक विलास
और न भाच प्रपंच करू, केवल चेतन भाव । यह निज सागर वर्णनां, उर धारै मुनि राव ।।३०६।।
॥ इति भाव समुद्र वर्णनं ॥
दोहा
भव समुद्र वर्णन
या संसार रामार में, श्री भगवान प्रभार। तेहि उधार घुग निधी, करें भवोदधि पार ||३१०।। नहि संसार समुद्र सौं, सागर और विरूप । यह विष सागर दुख मइ, महा भयंकर रूप ॥३११।। भोग कामना कालपना, भर्म वासना तेह । अति कुवासना सौं भरचौ, भव सागर है एह ।।३१२।। दुख सागर सद्रप इह, है अत्यंत असार । क्षार महा विष जलमइ, ते भब पारावार ॥३१३।। विर्ष सारिखो जग विषै, और न है विष नीर । भव भव उपजावें मरण, देय सदा दुःख पीर ।।३१४।। भाव कालिमा सारिखौ, कीच न जा में कोय । कोच कालिमा सौं भरचो, भव सागर है सोय ॥३१५।। मल नहि मोह ममत्व सौं, यह मल सागर पूर । छल सागर छल सौं भरयो, खल सागर सुख दूर।।३१६।। भोग भावना अति तृषा, उपजावै संताप । विष नीर सौं नहिं बुझे, विरथा विर्ष विलाप ॥३१७।।
आतम अनुभव सारिखौ, और सुधारस नांहि । सो अति दुर्लभ है भया, भव सागर के मांहि ।।३१८।।
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१०
____महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
लहरि न लोभ तरंग सी, ते भव मांहि अनंत । विष तरंगनि सौं भरयो, दुख दोषनि को कंत ।।३१६।। नंदी न पासा सारिसी, पाकुलता जल पूर । मिल सकल भव सिंधु में, रहै जीव अति ऋ र ॥३२०॥ भवरणन भ्रम सौ और को, उहै भवरण भ्रम रूप । भव समुद्र विड़ रूप अति, कहै महामुनि भूप ।।३२१।। याकै तटि तरवर विषा, विषम भाव अघ रूप । तिसे कुत्रक्षन और को, कंटिक रूप कुरूप ।।३२२।। बाधा सी विष वेलि नहि, विकलप से नहि जाल । ते भव सागर के नष, दीखे अति विकराल ॥३२३11 बन उपबन दुख फल भरे, भव सागर के तीर । माया ममता मूरछा, बन देवी है बीर ।।३२४।। अमृत तरु सम भाव जे, ते सागर तटि नाहि । अमरग फल को नाम नहि, मरण सदा भव मांहि ।। ३२५।। अमृत वेलि न विश्व मैं, निज अनुभूति समांन । सौ भव सागर सौं सदा, है अति दूर निधान ॥३२६।। संस विभ्रम मोहमय, धारै असुर अपार । अति अथाह गम्भीर है, फैकट फे न असार ।। ३२७॥ आदि न अंत न मध्य है, भव सागर को पीर । कोइक उधर धीर नर, तिरं भवोदधि नीर ।।३२८।। मीनन लम्पट त्रपल से, तिनको अति विस्तार। मीन ध्वज से धीवरन, पाय सुरूप अपार ॥३२६॥ धारश्यां विकलप जाल जे, भाव महा विकराल । पकरें चपल मन मीमक्रौं, करें बहुत वेहाल ॥३३० ।। नहि दादर दुरबुद्धि से, वकवादी चल भाव । तिनको तहां निवासि हैयह भासे मुनिराव ॥३३१॥
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विवेक बिलास
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निष्ठुर भाव कठोर जे, तेहि काछिवा जांनि । भरयो जलचरादिक थकी, "जल निधि मांनि ॥३३॥ अति पालस परमाद से, सूसि और नहिं कोय । कर्म बंध पर वंध से, नहिं तांतूणि जु होय ॥३३३।। मगर मछ नहि काल सौ, गिल जगत कौं जोय । भव सागर मैं सो रहै, वचै कहां ते कोय ।।३३४। महा नून प्रति तुछ वति, हीन दीन भव भाव । तेहि भोंगरा जानिये, तिनको बहुत लखाव ।।३३५।। कीट न विष कषाय से, महा मलिन दुख दाय । काई कर्म कलंक सम, और न कोई कहाय ।।३३६।। कुड कलंक कलेस मय, भव सागर भय सिंधु । कोइक उधरे साधवा, रहित सकल परवंध 11३३७।। मांछर मछर भाव जे, डांसर दुसह सुभाष । सागर तीर अपार हैं, यह दुख को दरियाव ।। ३३८।। थलचर जलचर नभचरा, घिरचर जग के जीव । भरचो सदा सव भूत तें, जामैं बहुत कुजीव ॥३३६।। जामण मरण करें सदा, दुख देखें मति हीन । कोइक मुनिवर पार ह्व, निज प्राप्तम लवलीन ।। ३४०।। त्रिविधि ताप संताप तुल, बड़वानल नहि कोय । सोही भवानल भव विष, सदा प्रज्वलित होय ।।३४१।। जैसे जल को सोसइ, वडवानल जल मांहि । तैसे इह जीवन जला, सोसै संस नाहि ।।३४२।। इह नाही रतनाकर।', दोषाकर दुख रूप ।। खानि महा मद्यानि की, मकरा कर विडरूप ।।३४३।। दुरनय पक्षी सारखे, नाहि कुपक्षी कोय । करें तेहि पति कुसवदा, सदा सोर अति होय ।।३४४।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
रहित ज्ञान धन जड़ता, जे मिथ्या परिणाम । तिन से संख न और को, भव जल तिनको धाम ||३४५।।
संखोल्यो सागर पहै, महा संख अति भंग । उतरै पार पुनीत नर, जे निसंक नहि कंष ।।३४६।।
कृपरण ति सम लोक मैं, कौड़ी और न कोय । भरयौं भवोदधि तिन थकी, नहीं रम्य है सोय ।।३४७।। कौडधौ सागर है सही, नहीं कौड़ी को एह । गुण माणिक के पारखी, तजें या थकी नेह ।।३४८।। सीपन द्विविध ब्रती है द्विदिपा की स्वनि। सीपोल्यो सागर यहै, रमि बाजे गिन जांनि ।।३४६ ।। कागन कोइ कुभाव से, है तिनको हयां केलि । बुग नहि ठग भावानि से, तिनकी रेलि जु पेलि ।।३५० ।। जड़ स्वभाव जडतामई, वरजित सम्यक ज्ञान । नहि तिनसे जल देवता, रोक पथ निरवान ।। ३ ५.१।। रागादिक अति राक्षसी, दुष्ट भाव दैत्यादि । पाप स्वरूप पिसाच वहु, वितर है विषयादि ।। ३५२।। ते संसार समुद्र में, बसें सदा विकराल । कसे प्रोहण चलि सकें, बहै वाय अंसराल ॥३५३।। बाय न मिथ्या वायसी, जा करि जग उड़ि जाय । गिर नहीं थिरता भाव से, जे निश्चल उहाय ॥३५४।। नांहि कुगर्वत लोक मैं, कठिन भाव से कोय । कर्कस कटु कषाय घर, निष्टुर निर घृण होय ॥३५५।। तें भवसागर के विडं, नाव विहारक वीर । अवरहु विघन वहीत हैं, यह सागर गंभीर ।। ३५६।।
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विवेक विलास
प्रोहण लूट जल विर्षे, सव को सरवसु लेय । जल दौरा लालच महा, जग को बंद करेय ॥३५७।। तसकर त्रिष्णा भाव जे, चोरें अह निसि माल । माखन झार विरागी, हरे जगतः जाला ।१३५८।। अभख भक्षका हिंसका, तेहि सिंघ व्याघ्रादि । अति दोषी विष का भरचा, जेहि जानि सर्पादि ।।३५६।। सदा भवोदधि के तट, मद परिणाम मजादि । विचरे कायर चंचला, भाव सुसा मृग आदि ।।३६०॥ वाधक भाव कुभावजे, तेहि व्याध अति होय । अपराधी परिणाम जे, तेहि पारधी जोय ।।३६१ ।। मूल महा दुख को सदा, भव समुद्र भय रूप । जामैं रंच न रम्यता, दीसं बहुत विरूप ।।३६२।। है अवह अघ गेह यह, लंघे याहि अनेह । तजे गेह देहादिस्यौं, मोह मुनिद विदेह ।।३६३।। रतनन निज गुण रतन से, दरसन ज्ञान स्वरूप । सत्ता चेतनता महा, प्रानंदादि अनूप ॥३६४!! ते अगम्य अति दुर्लभा, जिन करि रोर नसाय । रौरन रस अनरस समा, इह निहश्चै ठहराय ।। ३६५।। नहीं रतन की बात ह्यां, कौडिन को न्यौपार । संख सीप बहुती सदा, संखनि को सरदार ।।३६६।। निज मणि प्रापति अति कठिन, कोइक पावे धीर । सो नर है भब सिंधु में, तजै तुरत भव नीर ।।३६७।। विमल भाव परकास मय, निरमल ज्योति सरूप । ते मुक्ताफल जानिये, वस्तू अरूप अनूप ।।३६८।। तिनकौ दरसन दुर्लभा, भव सागर के मांहि । उज्जल उत्तम भाव जे, हंस न यहां रमांहि ।।३६६ ।।
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१०४
महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
नाव न मुनि प्रति सारिखी, विरकत भाव निधान । मंडित मूलोत्तर गुणनि, पहुँचावै निरबारग ।। ३७०।। नाम नांव ही को महा, भाषे लोक जिहाज । जति व्रत रूप जिहाज मैं, राजै श्री मुनिराज ।।३७१।। न्द्रिद्ररण दूषण ग्रहण से, ते न नाव के कोय । इह अछिद्र नौका महा, भव जल तारक होय ।।३७२।। संग रहित संजम मई, जब बार्ज सुध वाय । जति प्रतरूप जिहाज तव, भवसागर तिरिजाय ।। १७३।। खेलिया न गुरु समः, "जनके कारण । अाप तरै तारे रखी, रहित विषाद विवाद ।।३७४।। श्री भगवान सुजान से, और न सारथवाह । भवसागर भय रूप में, तेइ करें निबाह ।।३७५।। नित्य स्वरूप विलास सौं, वरदवान नहि वीर । निज चेतन धन ले मुनि, पहुँचे निजपुर धीर ॥३७६!! धर्म नाव गुर खेवटया, सारथवाह जु देव । यह वरणन व्यवहार है, निश्चै प्रातम एव ।। ३७७।। प्रातम भाव अनूप जो, ता सम और न दीप ! भव सागर के पार है, दिपं सदा दैदीप ॥३७८।। ताहि कहैं निरबांन अर, मोक्ष हु कहै मुनिंद । कहै अभैपुर भावपुर, सिवपुर कहैं अतींद ।।३७६।। ए निजपुर के नाम सब, फवै जाहि सब वोय । नग्र निरूपम निर्मला, है निरलेप अछोय ।।३८०।। बस दीप सब के सिर, जहां न जम को जोर। . चोर न जोर न जार कौं, होय न कबहू सोर ।।३८१॥ दौलति रूप अनूप सो, दीप दोष तें दूर । संपति ज्ञान विभूति जो, हैं तात भरपूर ॥३८२।।
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विवेक विलास
निजपुर वासी होय के
लहैं भावोदधि तैं सदा
भव समुद्र भव वन इहै. अंध कूप विरूप इह
भाव समुद्र विलास 1 दूर रहें सुबराम ।।३८३ || एहि भाव नल रूप | तिरें महामुनि भूप ।। ३८४ ।।
धीर । नीर || ३८५||
भव समुद्र वर्णन भया, उर बारे जो सो न परै भवसिंधु मैं, तिरं तुरत भव
॥ इति भव समुद्र वन ॥
ज्ञान निरूपण -
दोहा
अचल अटल प्रति विमल है, जगदीस्वर जस रासि । ताहि प्रामि नमि सूत्र की, श्री गुरु गुण परकासि ।। ३८६ ।। भाष सुधिर सुभावमय, गिरवर अमल सुभाव । कीड़ानिधि कीड़ा करे, जा परि वेतन राव ||३८७ || अचल सुधिर सुभाव से, क्रीड़ा गिर नहि कोय | रतनाचल] रम्याचला, ताहां न कंटिक जोय || ३८८ || प्रति उतकिष्टे उत्तमा, उच्च सवनितं जेहि । अचल भाव ते अचल हैं, और न प्रचल गनेहि ||३८६||
2
रतन न निज नुरण रतन से ग्रस्ति स्वभाव अनत । चेतनता आदिक महा, थिर गिर मांहि रहंत ।। ३६०|| परम पुनीत पदार्थ जे है तिनको यह थान | जहां मगन भावानि से, सघन वृक्ष
रसवान ।।३६१।।
भरो सदा रस बस्तु ते
जहां कुपक्षी एक नहि,
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अम्रत रूप अनूप । चंचल भाव स्त्ररूप ॥३६२॥
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल - व्यक्तित्व एवं कृतित्व
उज्जल निर्मल भाव से, परमहंस नहि और । इहै ज्ञानगिर धर्मगिर है हंसनि की ठौर ॥३३॥
निज वारा कल्लोलनी, व अखंडित धार ।
ता सम एतदिनि और नहि. जाकी पार न बार ।। ३६४ ।।
नाहि ॥ ३६५॥
सो उतरे या गिर की सुख सागर के मांहि । सदा समावै सासतो, यामैं सं गिर परि समरस सरचरा, गिर निज पुर पासि । सदा ज्ञान अनुभुतिमय, वेलि रही परकासि ॥ ३६६ ॥
सदा प्रफुल्लित भावमय फूल रहे प्रति फूलि ।
महा सुधारस भावफल, फले हरे भ्रम भूलि ॥। ३६७ ।।
1
को अर्गानिका मागनी, लोभ मोह मय आणि देखत ही भावाला, तुरत जाहि तब भागि ३६८।। ज्ञानानि ध्यानागनी, घूम रहित परकास । तेज प्रगति प्रज्वलित है, जा करि भर्म न भास ॥ ३६६ ॥ घूम न कर्म कलंकसौ, ताकी तहां न नाम । नही वाय चल भाव मय, यह परवत निज धाम दुष्ट कठोर कुभावजे पाहण हि वखाए । यह कीड़ा गिर थिर गिरा, रमणाचल कहवाय ॥। ४०१ । १ या गिर मैं नहि पाहणा, कंकर कोइ न होय । क्षुद्र रंक भावानि से, कंकर और न जाए ।।४०२ ।।
व व परि सुसंगता, तिसी न सुन्दर काय | है रतननि को पर्वता पहि मां सोय ||४०३॥ प्रति हि कृपणता नान्हपन, जाचकता जग मांहि । . तिसी न नांन्ही कांकरी, ते या गिर परि नाहि ||४०४ ।। सठ पशु नहि कामीनि से. ते गिर परी न लगार । दुष्ट पसु न पिसुनानी से, तिनको नहि संचार ||४०५ ||
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विवेक विलास
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पसू न कहावें पापिया, गहै दोष पर जेहि । पिसुन न पेखें पर्वता, धिरता रूपक देहि ।।४०६।। गिर परि हिसा नाम नहि, नहि हिंसा परिणाम । यह पहार निज धाम है, रमैं प्रातमा राम || ४०७॥ खल नर खल तिर खल असुर, लखि न सके गिरराज । दिव्य भाव निज तेहि सुर, तिनके तहां समाज ।।४०८।। फुलि रहे भावा कमल, अमल अलेप स्वरूप । समरस सरवर के विर्ष, थिर गिर परि सद्प ।।४०६ ।। निज रस बेदक भावजे, तेहि भमर भ्रम दूरि । ते रमणाचल उपरै, रमैं सदा भूरपूरि ॥४१०|| ग्रातम अनुभव केलिसी, और न कोइल कोइ । सो गिर ऊपरि है धनी, अति सुखदायक सोय ।।४११।। माया जाल न है तहां, जहां न विकलप जाल । विष तरु अघ कर्मन जा, पर्वत वहुत विसाल ।।४१२।। विप वेलि न ममता तहां, समता अतुल अपार । जे विषफल दुख दोष भय, गिर परि ते न लगार ।४१३।। नहीं काल अजगर जहां, और न अबकर कोइ । है मुखकर इह पर्वता, निजपुर निकट हि होय ।।४१४।। नहि कटिक क्रोधादिका, हि मन मरकाट केलि । मोर प्रमोद स्वभाव से, तिन की रेल जु पेलि ।।४१५।। गुफा ज्ञान मय ध्यान मय, तिन करि सोभित एह । सिखर सुधा भावानि से, धारं अनल अछेह ।।४१६।। या पर्वत की तलहटी, शुभाचार शुभ रूप । अशुभ दैत्य दूर रहैं, थिर गिर अमल अनूप ।।४१७।। महा मुनिंद्र गिरंद्र परि. राज शांत स्वरूप । रहै राज हंसा सदा, प्रातम राम अनूप ।।४१८।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
सुख की बात अनन्त है, दुख की एकहु नाहि । यह सुख सिखरी सर्वथा, नहिं भव सागर मांहि ॥४१६।। इहै भाव गिर भूप गिर, भाव नगर के पासि । विः मनपुर थिर गिरा, हि व वन में भासि ।।४२०।। इह निज क्रीड़ा गिर कथा, उर मैं धार संत । सो क्रीड़ा. गिर : उपरै, क्रीड़ा करै अनंत ।।४२१।। क्रीड़ा नाम न और को, क्रीड़ा निज अनुभूति । जो निज सत्ता मैं रमैं, बिलसै ज्ञान विभूति ।।४२२।। वस्तु प्रमूरति चेतना, है अनूपम अविकार । आपहि निज गिर निजपुरा, आपहि सिंधु अपार ।।४२३।। आपहि निज सर निजवना, प्रापहि है रसकुप । निज विभूति वापी विष, केलि कर चिद्र प ।।४२४।।
।। इति ज्ञान निरूपण ।।
दोहा गर्व गिरि वर्णन---
मोह न मान न मनमथा, मन न वचन नहिं देहि । गेह न नेह न राग रिस, राज गव अछेह ।। ४२५।। ताहि प्रामिन भारती, अनेकांत अविकार । भाषौं मान मही धरा, नमि मुनि संजमधार ।।४२६।। नहीं मान गिर सारिखो, और विष गिर कोय । महानीच यह गर्भ गिर, नीचन को घर होय ।।४२७।। नर्दय दुष्ट स्वभाव से, और न खल निरजंच । या परवत परि बहु रहैं, जिनकै दया न रंच ।।४२८।।
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विवेक विलास
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ऋ र दिष्टि कोपाधिका, तेहि केसरी आदि । जानह भाव विकार मय, विष भरिया सरपादि ।।४२६ ।। उड़ते हैं विभाब मैं, धरहि कुपक्षः कुभाव । तेहि कुपक्षी हिंसका, तिनको तहां प्रभाव ।।४३०।। कायर चपल सुभाव जे, बन पसु तेहि मृगादि । विचरै गिर परि भै भरे, भावहि विषय त्रिगादि ।।४३१।। पातिक से नहि पारधी, प्रति परपंच स्वरूप । ते परवत परि अह निसी, फिरें महा विड़रूप ।।४३२।। कठिनि कठोर स्वभाव से, और न पाथर जोय । है पाथर को पर्वता, रतन कहां ते होय ।।४३३।। कुटिल कुत्ति कुभाव से, कंकर कोइ न और । प्राणिनि की पीड़ा करें, यह गिर तिनकी और ।।४३४।। औरन कौं नीचे गर्ने, इहै नीच यति होय । क्षुद्र अति ने कांकरी, नान्ही निश्च जोय ।।४३५।। पाथर कांकर कांकरो, तिनसौं भरयो पहार । महाकष्ट को थान इह, तू मत्ति करै विहार ।।४३६।। है कंटिक क्रोधादिका, मद गिर मांहि अगर । सदा विपक्षी हयां रहैं, मिथ्यात्वादि विकार ।। ४३७।। सोर विपक्षनि की सदा, सोर पसुनि को वोर । जोर कुजीवनि को तहां, जहां न अमृत नीर ।।४३८।। नहिं अविद्या सारिखी, विषवल्ली विपरूप । सो गिर परि विस्तरि रही. दुखदायक दुख रूप ।।४३६ ।। जाल न माया जाल सौं, यह गिर जाल स्वरूप । भरयो पाल जंजाल कौं, विकलप प विरूप ।।४४०।1 विष तरवर नवि भाव से, धरै अनेक विकार । यह विष वृक्ष मइ सदा, गरव पहार असार ||४४१।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
है विषफल नरकादि जे, यह गिर विषफल रासि । सुभ को लेस न है इहां, नहिं गुण मणिया पासि ।।४४२।। विषै फूलि धन फूलि से, और न विष के फूल । फूलि रहे तरु तिन थकी, तहां जाय मति भूल ।।४४३।। सदा कुपत्र परे इहां, महा अपात्र स्वरूप । मिथ्या सूत्र कुवाय तै, उड़े फिरै जड़ रूप ।।४४४।। नहि अध्यातम तन्त्र से, अमृत तरु गिर मांहि । नहि अध्यातम ति सी, अमृत वायु लखांहि ।।४४५।। नांहि मानगिर के विर्ष, सदा प्रफुल्लित भाव ।। नांहि सुधाफल परमफल, यह गिर विषम लखाब ।।४४६।। नांहि शुद्धता सारिखी. गिर परि अमृत बेलि | विमल भान हंसानि की, तहां न कबहू केलि ।।४४७।। नहिं अमृत सरवर जहां, समरस भाव सुरूप । भरे शांत रस नीर तें, दाह हरण सद्प ॥४४८।। भाव अलेय प्रशय से, तहां सरोज न कोय । सर दिनु होय सरोज क्यौं, यह निश्चै अवलोय ।। ४४६।। भावरसज्ञ से विशसे, भमर न भमैं कदाचि । काहै मद गिर ऊपरै, रहे मूठ जन राचि ।।४५०।। नहीं मगनता भाव मथ, या परवत परि मोर । नहि कोइल कलकंठ यां, अमृत धुनि मन चोर ।। ४५१।। या गिर ते नहि नीसरे, अमृत सरिता सार । ज्ञानामृत धारामइ, प्रानदी अविकार ॥४५२।। या गिर तें आसा नदी, बांछा रूप बिसाल । निकल ममता पूरती, मानो परतषि काल ||४५३।।। इहा भरे दुख सरवरा, विष जल ते विकराल । विचरें चोर निरंतरा, मन इंद्री असराल ।।४५४।।
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विवेक विलास
ठग न धूर्त भावानि से, इहै ठगनि को थान । पर बाधक अपराध मय, वस व्याध बलवान ।।४५५।। असुर न असुभाचार से, दुराचार के राय। यह असुरनि की प्राश्रया, असुराचल कहवाय ।।४५६ ।।
दैत्य दानवा दुष्ट जन, दगादार सौ काहि । , परदुख दायक दुरित घर, रहैं वहत गिर मांहि ।।४५७।।
नहि पिसाच पापानि से, भूत न भर्म समान । वितर नहि विपरीत से, तिनको घर गिर मान ।।४५८।। इह भूतनि कौ पर्वता, है दैत्यनि की केलि । सदा पिसाचनि को पुरा, रहे निसाचर खेलि ।।४५६ ।। रागादिक रजनीचरा, परबत के सिरदार । मोहासुर असुरेस को, जिनकी भुज पर भार ।।४६७।। मदगिर मैं माया गुफा, कर मूर्छा भाव । द्रोह सिखर संसै मइ, तहां धरै मति पांव ॥४६१।। महा वधिक वाधा करा, पशू धार का क्रूर । विचरै दुर्जन भाव अति, यह गिर सुख तें दूर ।।४६२।। यहै पापगिर तापगिर, कवहन क्रीड़ा जोगि। वसे रौंद्र भावादिका, पसु नर असुर प्रजोगि ॥४६३।। मंगलकारी मूलि नहि, सर्व अमंगल भाव । यहै विधन गिर विषम गिर, धारै वहुत विभाव ।। ४६४।। काम अगनि क्रोधागनी, लोभानल विकराल । दोष अगनि दुख अनि अति, काल अगनि असराल ।।४६५।। मोह अगनि सब मैं सरस, जा करि जगत जलाय । यनसी अगनि न लोक मैं, भव भव ताप कराय ।।४६६।। सप्ताएं एइ सही, विनु समरस न बुझाय । सो समरस नहि गिर विष, सदा अगनि भवकाय ।।४६७।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल व्यक्तित्व एवं कृतित्व
यनसी नांहि दवानला, नहिं वडवानल होय । नहि बज्रानल विश्व में नहिं प्रलयानल कोय ||४६८६ | मोहादिक मोटी अगनि, सदा प्रज्वलित रूप । यह गर्व गिर अगनि मय, दाह रूप विड़ रूप ||४६६ ।। भ्रांति सम्मान न वाय को, वाजं जहां असार । कहिए भंझा जाहि कौं, धारे महा विकार |४७० || नहि वन उपवन सुखमई, इहां न रस को नाम । इहें मान श्रज्ञानमय, नहीं ज्ञान को काम ||४७ १ || संधि मान गिर मुनिवरा, लेय भाव भड़ लार ।
I
पहुँचे निजपुर धीर धी, जहां
एक विकार | !
यह मान गिर दोष गिर, भव वन
मांहि अनादि ।
विरसादि || ४७३ ।।
सिवपुर की दूरी सदा, जहां बसें मानाचल की तलहटी, समल सुभाव समस्त । मानाचल के आसिरी, होय ज्ञान रवि अस्त || ४७४ || वन गर्व पहार को, पढ़ें सुन जो कोय | सो मदगिर परि नहि च वढे ज्ञान सुख होय ॥। ४७५ | | ॥ इति गर्व गिर वनं ॥
निज गंगा वर्णन --
F
दोहा
गुण समुद्र गुरणनायको, सतजन सेवें जाहि । सो सर्वेसुर सनमति, नमस्कार करि ताहि || ४७६ || निज सरिता वर्णन करू, जामें स्वरस प्रवाह जाहि लखें सब दुख मटे, उपजें अतुल उछाह ||४७७ ||
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विवेक विलास
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नित्य निरंतर निर्मला, निज परराति रस धार | वहै अखंडित धार जो, ता सम नदी न सार ।।४७८।। केवल कला कलोलनी, सदा सहज रस पूर । रमैं जा विर्ष राग हर, निज रसिया भ्रम दूर ।। ४७६।। नहि तरंगनि रंग जसी, उठे तरंग अपार । नहीं अंत तटिनि तनौं, यह तटिनी अविकार ।।४८०।। तट अनेकता एकत्ता, ए द्वय अदभुत रूप । भरी शांत रस नीर तें, नदी अनूप सिवरूप ।।४८१।। पंकन पाप समांन को, या मैं पंक न लेस । हरै संताप सह, सरिता राहत कलेस ।।४६२।। रंक भाव जे झोंगरा, नांहि नदी मैं कोय । डांसर मास्टर विकलपा तिनको नाम न होय ।।४८३।। जड़ता भाव जु जलचरा, ते न कदाचित जानि । जल देवत जग भावजे, कबहु तहां न मानि ।।४८४।। मगरम छ नहि मोह सौं, महा पाप को धाम । सो न पाइए ता विष, रमैं निजातम राम ।।४८५।। मिथ्या मारग पक्ष धर, तेहि कुपक्षी क्रूर । तिनते रहित महानदी, सर्व दोष तें दूर ।।४८६।। है निकलंक निराकुला, अमृत रूप अवाध । निज गंगा तातौं कहैं, निज रस रसिया साध ।।४८७।। कर्म कलंक समान को, और न होय कलक । कर्म भर्म हहैं मदी, सेवे साधु निसंक 1॥४८८|| कंकर भाव कठोर जे. कृमि कुभावना रूप । ते न कदे धार नदी, अमृत रूप अनूप ।।४८६।। लोलुपता मय मीन जे, कूरम करकस भाव । दुरबादी दादर भया, सरिता मैं न लखाव ॥४६०।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल - व्यक्तित्व एवं कृतित्व
रारिता तटि तरवर सघन, मगन भावमय होय । विषतरु रूप न भाव खल, कंटिक एक न कोय ||४६१||
समता रूप लता महा, जिसी न ग्रमृत वेलि । सो तटनी तटि लहलहैं, है हंसनि की केलि १४६२७
शुद्ध स्वभावमई महा परम हंस मुनिराय । राजें न तटिनी की तटा भव आलाप बुझाय ॥४६३॥
माया वेलिन विषमइ, नहीं कलपना जाल । नांहि कलिमा कीट प्रर से रूप सिवाल || ४६४ ॥
उटै परम द्रह मांहि तें मिले महोदधि मांहि । इह प्रमूर्ति गंगा भया, चेतन पुरुष लहांहि ||४६५||
नांहि रजोगुण रूप रज, नांहि तमो गुण मेल ।
नदी निकट नहि नीच नर, नांहि कोइ बद फैल ||४६६||
नदी अनादि अनंत इह, छेह न जाकी होय । वहै भाव की भूमि में, बिरला वृर्भ कोय ॥४७॥
सरिता सत्ता रूप यह प्रति कल्लोल स्वरूप केलि और चिप की, एक ने जहां विरूप ॥४६८।।
महा रतन की खांनि इह महा मुखनि की खांनि । गुण मानिक की रामि इह रस रूप परवानि ॥४६॥
हरै जनम मरणादि भय, हरे पाप संताप |
हरे रोग रागादि सहु, यह तीरथ निपाप ।।२००११ याहि गगन गंगा कहें, निज रस रसिया धीर । मगन होहि जे या विष, ते न लहँ भत्र पीर ।। ५०१३। निरमल नभ सम रूप निज, तामें करें बिहार | तेहि विहंगम दुर्लभा सरिता तीर असार ।। ५०२|| कमल समान कलंक विन, विमल भाव जे होय । तेइ सरिता मैं रमै, अदभूत सरिता सोय ॥ ५०३ ।।
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वियेक विलास
नांहि प्रपंच स्वरूप ठग, मायाचार न चोर । लोभ लुटेरा नहिं जहां, नहीं काहू को जोर ।।५०४।। मांन मनोभव मन महा, मैं वासी भव मांहि । ते तटिनी तटि दुरमती, कयहूं दौरें नाहि १५०५।। प्रासा रूप जु प्रामुरी, असुभ असुर जे कोय । वांछा रूप जु वितरी, वितर विषय जु होय ।।४.०६।। रसना रक्ति जु राक्षसी, रक्ष सरोज जुधूत । भ्रांति तो नी, गर्म लपी भूत ॥५० ।। दुरजनता जो देत्यनी, दत्य दंभ दोषादि । पातक नति पिसाचनी, फुनि पिसाच पिसुनादि ।।५.०८॥ एनहि निज सरिता नषै, सरिता निज पुर पास । इनि पापिनि को सर्वथा, भव वन माही वास ।।५०६ ।। ऋ र भाव जे केसरी, व्याघ्र विभाव स्वरुप । व्याधि रुप जे व्याघ खल, हिंसक महा विरुप ।।५१०।। अर अपराधी पारधी, अति निरदय परिणाम । विष दर्प सादि फुनि तिनको तहां न काम ।।५११।। फुलि रहे तनि तहौं, भाब प्रफुल्लित फूल। ममैं विचक्षश भाव अलि, रसिक भाव के मूल ।।५१२।। है निज धाम नदी महा, रमैं प्रातमाराम । सुधा रूप सरिता यहै, संतनि को विधाम ॥५१३।। गुण अणंत मरिणको महा, अमि मालिनी खानि । परम स्वरूप पयोधि मैं, करै प्रवेस प्रयानि ।।५१४।। निज अनुभूति अनूपमा, अमर बौलति होय । निज अनुभूति लख्या बिना, सरिता केलि न कोय ॥५१५।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल - व्यक्तित्व एवं कृतित्व
निज समीप गंगा सदा व अखंडित धार ।
"
करें सनान जुता तिष, सो पावै भव पार ।। ५१६७
॥ इति निज गंगा मिरूप
दोहा
आशा वैतरणी विप नदी वन
आसा नाहि घरे प्रभू, सत्र वांछा ते दूर बंदौ परमानंद जो, गुरण अनंत भरपूर ||५.१७ | विष कलोलनी विश्व मैं नहि बांछा सी कोय ।
,
विष नहि विषै विकार सौ भव भव दुख दे सोय ।।५१८ || प्रासासी न तरंगनी, त्रिषा सीन तरंग । भवरण न संसं सारिखो, नहि तिरिब को ढंग ।।५१६।।
भरी चा विष नीर तें, नहीं ताप हर एह । कपट कीच कालिम मइ, भवि जन करें न नेह ।। ५२०॥ विकलप संकलपाति से, और नहीं दुख रूप । सो द्वय तट धारे सदा, आसानंदी विरुप ।। ५२१||
विष वन विषम विभाव से, और नहीं जग मांहि । सो याकै तटि दीसइ, जिनमे छाया नांहि ३५२२॥
विष वेलिन ममता जिसी, सो आसा कँ तीर ।
फलै सदा दुख बिषफला, जहां न अमृत नीर ।। ५२३|| राग दोष की खानि 1
प्रारण हरा परबानि ।। ५२४ ।।
भ्रांति रूप जगवाय | इह भासें मुनिराय ।।५२५३३
उपजावै जड़ता इहै, क्षार महा दुरगंध है, वाजें जहा विरुष प्रति सोइ उड़ाई जगत कौं,
"
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विवेक विलास
निकस गिर अभिलाष ते, पासा तदिनि एह । पइस सागर सोच मैं, धारै अति संदेह ।।५२६।। वहै सदा भव वन विर्षे, आसा अति असराल । रोके सिवपुर को यथा, नदी महा विकराल ||५२७।। मोखहू की पासा महा, मोख मोह दे नाहि । कसे भव भोगानि की, पासा दोष हरांहि ।।५२८।। प्रासा आकुलता भरी, वांछा विकलप रुप । त्रिश्ना ताप मई महा, तजें सदा मुनि भूप ॥५२६ ।। तुछ प्रति झींगर जहां, भाव लोलपी मीन, मोडक वाचाली तहां, तथा वर्क मति हीन ॥५३०।। भाव कठोर जुकाछिबा, कृमि कुभाव मय मांनि । कीट कालिमा सौं भरी, पासा नंदी प्रवानि ।।५३१।। काम क्रोध लोभादि से, और न धीवर नीच। ते बारे भ्रम जाल खल, पासा तटनी बीच ।। ५३२।। मृत्यु समान ना लोक मैं, महा मगर नहि कोइ । विचरै पासा मैं सदा, निगलै सबकी सोइ ।।५३३।। तिमर सारिखे तिम नहीं, तिनको तहां निवास । जड़ सुभाव जलचर घने, करें मास मैं वास ।। ५३४|| नांहि अविद्या सारिवी, जलदेवी खल भाव । वसे पास मैं सासती, धारें अतुल कुभाव ।।५३५।। मैं वासी नहि मोह सौं, मारे मारग मोष । दौरे दुष्ट सदा जहां, हरै प्रारण धन कोष ।।५३६॥ नाहि विभावनि से भया, जग मैं वितर कोय । वसै आस मैं सासती, इह निश्च अवलोय ।। ५३७।। पर बस्तुनि के ग्राहका, अभिलाषी परिणाम | तिन से चोर न वंचका, पासा तिनको धाम ||५३८।।
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महाकवि दौलतराम कासलोदाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
कुपख धारका कुसवदा. जेहि कुपक्षी ऋर । ते नाव साल की हैं, या भान ते दूर १५३६।। हिंसक कुटिल कुभाव जे, ते सिंघादिक जीव । सदा पास ताटनी तटें, विवर महा कुजीव ।।५४०।। सर्पन कंदादि से, तिनको तहां निवास । सदा कुवस्तुनि सौं भरी, यह तरंगणि पास ।।५४१।। मल नहि राग विरोध से, आसा अतिमल पुर । बिमल भाव हंसा महा, ते तटिनी से दूर ।।५४२।। आसा तटि मुनिवर महा, रहैं न कवहू धीर । अति अपराधी पारधी, बिचरें दुर्जन कीर ।।५४३!! वैतरणी हुँ न या समा, आसा नदी असार । उत्तर कोइक साधवा, महानती अरणगार || ५४४।। अध्यातम विद्या जिसी, और न उत्तम नाव । पार उत्तारं सो सही, वायु विराग प्रभाब ।।५४५।। बैठन हारे नाव के, सम्यक दृष्टि धीर । तिन से तेरू और नहिं, ते उतरें भव नीर ।।५४६।। प्रासा मैं बूडे घनें, डैगें जु अनंत । पार उतारै मुनिबरा, कोइक संजमवंत ॥५४७।। गुण नहि दरसन ज्ञान से, तिन करि जकरी नाव । रहित परिग्रह भार तें, उतरै गरु प्रभाव ॥५४८।। तिरि बासा मुनिवर महा, त्यागि जगत जंजाल । वसं निराकुल होय कं, निजपुर में ततकाल ।।५४६ ।। निजपुर सौ नहि कोइ पुर, जहां काल भय नांहि । गुण अनंत निज पुर विषे, सुख अनंत जा मांहि ।।५५०।। इह प्रासा कल्लोननी, संकट रूप सिवाल । कंटिक विर्ष कषाय से, वहुत कलपना जाल ||५५१।।
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विवेक दिलास
सहां जाय मति मित्र तू, तजि पासा को तीर । विष सरिता प्रासा जिसी, और न जानौ वीर ।।५५२।। इह पासा वर्णन भया, जे धार उर मांहि । ते वूडै नहि पास मैं, सुख संतोष लहाहि ।।५५३।। निज दौलति अविनश्वग, सत्ता रूप अनुप 1 बिलसै चेतनपुर विष, चिदानंद चिद्रूप ।।५५४।।
॥ इति प्रासा वैतरणी विष नदी वर्णनं ।।
दोहा
भाव सरोवर वर्णन ..
सुख सरवर मैं जो रमैं, दमैं दोष दुख देव । नमैं नाग नरनाथ मुनि, करै सुरासुर सेव ॥५५५।। ताहि प्रमि नमि भारती, भाषित भगवंत भूप । करि प्रणाम गुरु देव कौं, भाषौं निज सररूप ।।५५६।। सरवर समरस सौ नही, भरयो सहज रस नीर । तरवर सघन स्वभाव से, तहां विराज धीर |१५५७।। अति सोभित सुख सरवरा, हरै दाह दुख दोस । पालि जु सत्ता सारिखी, अचल अटल निरदोस ।।५५८|| इह सर सत्ता मांहि हैं, उठ लहरि अानंद । वस्तु न दूजी जा विर्षे, केवल परमानंद ।।५५६ ।। कीच न कर्म कलंक सौ, नहि कलंक को काम । या सम अम्रत सर नहीं, यह सरवर निज धाम ॥५६०।। नीर जु निर्मल भाव सौ, जा करि तृषा बुझाय । मह सरवर सूकं नहीं, रस भरपूर रहाय ॥५६१।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल व्यक्तित्व एवं कृतित्व
भाव अलेप अप से, अदभुत अंबुज होय ।
सदा प्रफुल्लित र ति तिन से कमलन कोय ॥५६२ ॥
+
निज लक्षण मय लक्षमी, भाव सरोजनि मांहि ।
वसे सदा सुख सासती जा सम कमला नांहि ||५.६३ ॥ सुख नहि निर-विकलप समो, प्रातम अनुभव रूप । बुधि न वस्तु अनूप ।। ५६४ ।।
जहां न इंद्री मन बचन,
केवल
अनुभव केलि सी,
और न अम्रत बेलि ।
परम भाव फल फलि रही, निज सर तदि रस रेलि ॥ ५६५॥
प्रति रस रसिया जेहि ।
केलि करें निति तेहि ।। ५६६ ।।
·
भमर जु भाव रसज्ञ से भाव प्रलेप सरोज परि, हंस न उजल भाव से, स्वपर विवेकी वीर । यह हंसनि को सरवरा, हिंसा हर गंभीर ।। ५६७ ॥
परमहंस मुनिराज जे, अंस न धरें कलंकः । ते या क्रीड़ा करें, निस वासर निहसंक ||५६८ ||
सार भाव से सारिसा, तजें न इह सर कोइ । चकवा चेतन भाव से कबहु न विरही होय ।। ५६६ ।। जहां निसा नहि भ्रांति मय, चकवी को न वियोग |
1
नहि चकवी निज शक्ति सो रहे सदा संजोग ।। ५७० ||
F
ज्ञान भान भासिजु रह्यो, जाकी अस्त न होय ।
यह अदभुत सरवर भया, वरण सकै नहि कोय ||५७१ ।। गुण रतननि की रासि यहै, रहित रजोगुण रेत । संतान को सुख देत ।।५७२ ।। यह सर दूर अनादि । जहां नहीं रागादि ॥ ५७३ || सर्व कुपक्ष वितीत । है पवित्र पीयूष सर, रमै पुरिष जगजीत || ५७४ ||
वर्जित तामस तापसहु, इन्द्री सुख दुख तं सदा, भाव प्रतिद्री प्रति घरें, निज पक्षनि को धाम इह
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विवेक विलास
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रहित शुभाशुभ शुद्ध सर, भाव प्रबुद्ध स्वरूप । महा मोह ममरन नहीं, तहां न एक चिरून II काइ काम किरोध मय, सर को फरसि सकेन । सर्व विभाव विकारमय, वितरः एक रहै न ॥५७६।। जाचक भाव समान नहि, नन भाव जग माहि । तेइ झींगर जानिय, तिनको नाम हु नाहि ।।५७७।। दादर वृथा विवाद जे, मछी बकल स्वभाव । कदरज भाव जु काछिवा, सर मैं नाहि लखाव ।।५७।। कीट कलपना जाल जे, डासर दुष्ट कुभाव । मांछर मछर भाव जे, तिनकौं तहां प्रभाव ।।५७६।। नानाविध वर्णादिका, जड़ता भाव अनेक । से जलचर नहि ता विष, भात्र असुद्ध न एक ।।५८०।। विषं विकार बिनोदमय, विष व्रक्षन सर तीर । विष वेलिन विभ्रांतता, भाव विषमता वीर ।।५८१।। मायाजाल न है जहां, ममता मोह सुरूप । पाप वासना रहित सर, श्राप स्वरूप अरूप ।।५८२।। जहां न भय को नाम है, अभै सरोवर एह । अभं नगर के निकट ही, परमानन्द अछेत् ।।५८३।। दुराचार दुरभाव जे, दुरबिकलप दुखदाय । दुरित रूप ते दानबा, तहां धरै नहिं पाय ११५८४।। असु प्रारणनि को नाम है, हरै प्राण पर जेहि । असुर असुचि अति हिंसका, भाव न सर मैं तेहि ।।५८५।। विर्ष रागरत राखि सा, रसनां लंपट भाव । रमणीरत रजनीचरा, तिनको तहा अभाव ।।५८६।। यंद्रो भोगमयी भवा, भात्र भूत भ्रम रूप । ते न कदे सरवर लखें, जहां छाह नहि धूप ।।५८७।।
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१२२
महाकवि दौलतराम कासलीवाल व्यक्तित्व एवं कृतित्व
श्रासा नाम जु ग्रासुरी, सर को नाम न लेय परनिंदा जु पिसाचनी, पावन तहां धरेय ||१८८३ अमल न कोई मिथ्यात सौ, जहां न मिथ्या भाव 1 जोग सदा श्रानंद कौं, सम्यकज्ञान प्रभाव ||५६६ ॥
वंचक नांहि प्रपंच से, चोर न चित से कोय 1
ठग नहि छल पाखंड से सब तैं बजित सोय ।। ५६०।
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नाहि विपरजै भाव से बटपारे विपरीत । मारें मारग मोक्ष को, धारें सदा नीत ।। ५६१।। तिनको नांही वसाय हैं, राजे चेतनराय । लुटि सकेँ नहि लोक कौं. लोभ लुटेरा प्राय ।।५६२ ।। दौरा दौरि सके नहीं, दंभ दोष दुख आदि ।
चार अपराध मय, जहां न जल कागादि ॥ ५६३|| भाव विराधक कुटिल प्रति प्रारति रौद्र कुध्यान । बुगतेही गनि ठग महा, जहां नहीं छलवान ।। ५६४ || प्रविधि जोगि अति नहि, निज तडाग तटि कोइ । शुद्ध बुद्ध आनंदमय सिद्धनि को सर सोय ।। ५६५ ।। त्रिविध तापहर पापहर, हरण सकल संताप | इह निज सर सुखधाम है. रमैं आप निपाप ।। ५६६ ।। परम मनोहर सर सदा, रतन सरोवर एह । राज सरोवर है महा कीड़ा जोगि अछेह ||५६७ || स्वरस स्वसंवेदन समो, नहीं और रस स्वाद । अमर अनूपम सर इहै, जहां न हर्ष विषाद ।। ५६८ || मरें न काहू काल ही, निज सरवर रस पीव ।
रहें मगन निज भाव में, सदा सरवदा जीव ||५६६ ॥ भाव नगर के निकट ही, भाव सरोवर होय रम्य महा रमणीक प्रति, सुंदर सरवर सोय ।। ६०० ||
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विवेक बिलास
शुद्ध
सरोज निवासिनी, निज सत्ता अनुभूति |
करें केलि सुखसर विषै केवलज्ञान विभूति ||६०१ ||
.
इह समरस सर वर्गांना, पढ़ें सुने जो कोय !
सो अविनासी पद लहै, निज शैलति पति होय ।। ६०२ ।।
॥ इति श्री भाव सरोवर वर्णनं ।।
विभावसर वर्णन -
दोहा
चेतन भावमइ सदा, सर्व भाव बितीत जो,
चिदानंद विद्रूप |
ज्ञानानंद स्वरूप ||६०३३॥
सीतल विमल अनंत गति, धर्म धुरंधर देव | शांतभाव सब कर्महर करें सुरासुर सेव ।। ६०४ ।। जाकी भगति प्रभाव सौं, उपजे आतम बोध | लखं आप मैं आपकों, करें करम को रोध ।। ६०५ ।।
का विकलप सर थकी, निर विकलप रस पाय | टारं मनमथ मोह मल, सौ त्रिभुवन की राय ||६०६।। ताके चरण सरोज नमि, प्ररणमि सार सिद्धांत | विकलप सर वर्णन करू, तजें जाहि मुनि शांत ।। ६०७ ।। विसर विकलप सर समो, नहि संसार मकार | महाविषम सर मलिन सर, जामें रंच न सार ।। ६०८ ।। अति संकल पर विकलपा, तेइ विष जल वीर | भर सदा विष नीर तैं, विषतरु तार्क तीर ।। ६० ।। विपतरु विषै कषाय से, और न जानों कोइ । सर्व विभाव विकार मय,
सदा मरण दे सोइ ||६१०||
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल - व्यक्तित्व एवं कृतिरब
पाप 'पालितें वंधियों, इहै ताप सर आप । महा विकट सर भर्म सर, देय सदा संताप ।।६११ ||
सर
एह ।
करें न यास नेह ।। ६१२ ।।
तें पूर ।
नहीं दाहहर दोसहर, नहीं रम्य हंसन शुद्ध स्वभाव से कीचन काम कलंक सौ, यह पंक अकात जल निज अनुभवा, सदा या अम्रत वृक्ष न बोध से, फलै विमल फल भाव । ते विकलप सर तीर नहि, यह निश्चै ठहराव ।। ६१४ ।। निज प्रवृत्ति भव निरब्रती, ता सम सुधा न बेलि ।
थकी दूर ।।६१३।।
सो विष सरवर तट नही, जामैं रस की रेलि ।। ६१५ । ।
अशुभ कर्म से वृक्ष विष, विषै बुद्धि विष वेलि । तिनकी विकलप सर निकट, दीखे रेलि जू पेलि ।। ६१६ ।।
जल कागन जड़ भाव से, तिनको तहां निवास । बुग नहि पाखंडीनि से, तिनकी सदा बिलास || ६१७ ।।
बुद्धि वियोगी बहिरमुख, वहिरातम भव भाव | तेइ चकवा ता विषै विरह रूप दरसाव ।। ६१८ ।। निसि न अविद्या सारखी, तिमर रूप दरसाय | तामें चकवी चेतना, कबहु लखी नहि जाय ।।६१६ ।। जगत वासना सारिखी, और न कोई कुवास | फैलि रही विषसर विषै रोग सोग परकास ।।६२० || मल नहि राग विरोध से, इह मलसर लपूर । खलसर अखिल विभाव से, सुंदरता सों दूर ।। ६२१ ।। मिथ्या मारग पक्षधर हिंसक दुष्ट सुभाव । तेहि कुपक्षी कुसवदा, तिनको सदा प्रभाव ।। ६२२।। मीन नदी न स्वभाव से, प्रति मलीन मतिहीन
ते विचरैं विषसर विषै, अति चंचल अघलीन || ६२३ ॥
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विवेक विलास
प्रथा व वितथा लपें, लोभी लंपट भाव । तिन से भेक न और को, धरै बिवेक अभाव ।।६२४।। दादर डेडर भेक ए, हैं मी हक के नाम । यह मींडक की सरवरा, काल नाग की धाम ।। ६२५।। मुह मीठी बात करें, पीछे अति ही कठोर । तेहि काछिवा सर विर्ष, जहां असुभ को जोर ।।६२६।। नन्हिीं मन नान्ही दसा, कृपण सदा परिणाम । तेइ झीगर जानिये, मलसर तिन को घाम ।। ६२७।। धीवर कुकरम भाव जे, चाल अधरम चाल । ते बिचरें विषमर नखे, धार बिकलप जाल ।।६२८।। मगर न होइ मही विष, महा मोह सौ कोइ । सुर मारक नर सिर को, निगल पापी सोई 11६२६ ।। वसै सदा बिषसर विष, रूप महा विकराल । अवरह जलचर भावखल, जामें अति असराल ॥६३०।। सोर कुपक्षनि को सदा, सारिस जुगल न कोय। सारिस दरसन ज्ञान से, और न जग में होय 1६३१।। दुखदाइ दोषीक जे, दया रहित परिणाम | दैत्य दानवा ते महा, खलसर तिनकों धाम ।।६३२३॥ दुष्ट व्रतो दुरजन दसा, दुरगति दाइ रोति । तेहि देश्यनी बहु बस, मलसर मैं विपरीति ।।६३३ ।। असूचि असूभ अम्रतमयी, अरि समान अघ भाव । असुर असंजम रूप जे, तिनकौं तहां प्रभाव ॥६३४॥ प्रत्रुलत अविवेकता, पासा प्रारति रूप। वस अविद्या आसुरी, विषसर विष विरूप ।।६३५।। रमें राग धरि भोग मैं, जग अनुरागी भाव । रस अनरस ले राखिसा, तिनको तहां बसाव ।।६३६॥
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महामवि दौलतराम कारालीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
रति अरति अति राषिसी, रसना लोलप रीति । सर्व कुरीति लीयां वसै, विष सर मैं बिपरीति ।। ६३७।। भय विभ्रममय भाव जे, तेहि भूत भ्रमजाल । यह भूतिन को सरवरा, रहैं भूत विकराल ।।६३८।। भोग भावना भूतनी, 'प्राति स वा भ्रमैं सदा भ्रमसर विर्षे, भयकारी बिडरूप ॥६३६ ।। परदारा परधन हरा, परद्रोही परिणाम ! ते पिसाच पापी कर, विषसर मैं विश्राम ।।६४०।। पराधीनता पापिनी, मिथ्या परगति रुप । पापन्नति पिसचिनी, भवजल मैं भय रूप ।।६४१।। सर्व विभाव विकार जे, विर्ष विनोद असेस । ते वितर विषसर विष, वैरी बसें विसेस.॥६४२।। प्रति अन्नत्तनिकी सदा, निरवति धरै न सोइ। वै बितरी बलवती, मल सरवर मै होइ ।।६४३ दुराराध्य दुरनीति धर, दुरजय दुसह सुभाव । ते दौरा दौरे सदा, अति दोषादि कुभाव ।।६४४।। अति प्रपंचमय बंचक्रा, माया मदन मनादि । पूति सरोवर तीर हो, वचे विश्व अनादि ।।६४५।। भात्र चलाचल चपल गति, त्रिश्ना रूप विरूप । ते तसकर कुतड़ाग तहि, चोरी करें कुरूप ।।६४६।। लोभादिक लंपट महा, तेहि लुटेरा वीर । लुटें सर्वहि लोक कौ, कोइक उवरै धौर [१६४७॥ वटपारे कुत्रिसन महा, जूबां मद मांसादि । वेस्या परधन हरणाता, परदारा हिंसादि ॥६४८।। रोक पथ निरवान कौं, रहैं पापसर पालि । तिन करि जग के जीव ए, सकै नहीं संभालि ।। ६४६।।
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विवेक विलास
१२.
ठग नहि जग के भाय से, ठग ज्ञान सा माल । बसे सदा छलसर निकट, करै वहुत बेहाल ।।६५०।। अति ठगनी भव भावना, ठग सुरासुर सोय । कोइक उवरै साधवा, संजम जिन होय ॥६५१ ।। प्रभस्त्र भक्षका हिसका, करै कुसोल बिहार । तिन से अपराधी नहीं, ते सर तीर अपार ।।६५२१।
यह सरवर नहि केलिको, कबहू रमन न जोगि । . तहा जाय मतिमत्र तू, सवही बात अजोगि १६५३।।
है पिसाच सर पिसुन सर, विकट सरोवर बीर । कीट सरोवर क्षार सर, करें महादुख पोर ।।६५४।। कीट न कलुष स्वभाव से, यहै कलुषता पूर । रहैं पारधी पातकी, जे शुभ ते अति दूर ।।६५५।। तामस सौ नहि तिमर है, राजस सम रज नाहि । यह राजस तामस मइ, सब दुख याके मांहि ।।६५६।। कमल न भाव अलेप से, तिनको सदा प्रभाव । कटिक नांहि कषाय से, तिनको महा प्रभाव ।। ६५७।। कंकर क्षुद्र स्वभाव जे. दीखै तेहि विसेस । नहीं रतनन की बात ह्यां, लखिए असुभ असेस ।।६५८।। भमर न भावर संज्ञ से, तिनको नाम हु नांहि । दृष्ट भाव डांसर घने, रंच न सुख सर मांहि ।।६५६ ।। मछर भावहि मांछरा, माखी मंलिन सुभाव । कृमि कुभाव रूपी महा, सर मैं बहुत लखाव ।।६६०।। भव वन मैं विकराल इह, भ्रमसर भयकर होय । है विभाव-सर विषम-सर, विषसर इसौ न कोय ।।६६१।। शुद्ध निजातम भात्र तें, भिन्न जेहि भव भाव । राग दोष मोहादि रिपु, ते कहिये जु विभाव ।।६६२।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
सदा विभाव तडाग तटि, थावर जंगम जीव । लूटे जाहिं अनेक जन , कूटे जाहिं कुजीद ॥६६३।। कोइक मुनिवर उवरै, जिनवर की जन होय । सर बिभाद सो विमलर, और जर जोन :६६४ा इह विकलप सर बर्णना, उर धार जो धीर । सो विकलप सर लंधि के, निरविकालप है वीर ।।६६५।। निज स्वभाव सत्ता महा, सो निज दौलति होय । और न संपति सासती, यह निश्चै अवलोय ।।६६६।।
।। इति विभाव सर वर्णन ।।
दोहा अध्यात्म वापिका वर्णन--
देव दयानिधि देव जो, दिव्य दृष्टि भगवान । दरसावै निजसंपदा, सो सरवज्ञ सुजान ।।६६७।। वंदनीक सब लोक गुर, सकल लोक को ईस । रमैं निजातम भाव मैं, नमू ताहि नमि सीस ।।६६८।। नही ब्रह्म विद्या जिसी, बापी अमृत रूप । वापी मै पापी नहीं, मोह पिसाच विरूप १६६६।। अध्यातम सौ लोक मैं, अमृत और न कोय । अध्यातम ये वापिका, त्रिविध तापहर होय ।। ६७० ।। नहीं सिंवाल संसै जहां, पाप पंक नहि लेस । नहि व्याकुलता भाव कृमि, मेट सकल कलेस ।।६७१।। भरी शांत रस नीर ते, परमानंद स्वरूप । हरै दाह दुख दोष सव, रमै तहां चिद्र प ॥६७२।।
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विवेक विलास
नहि विभाव व्यंतर नहा, भर्म भूत नदि होय । रागादिक राक्षस महा, तिनको नाम न जोय ।। ६७३।। नहीं अविद्या बासना, सम कुवासना कोय । सो न जा विषे है सही, सम रस निर्मल तोय ।।६७४।। दुख को लेस न है जहां, निज सुख पूरण सोई । नाहि कलपना जालमय, काई कलमष कोई ।। ६७५।। उज्जल निरमल भाव से. परम हंस नहि और । केलि करें ताम सदा, जा सम और न और ॥६७६।। जहां सिवारण प्रमाण से, अप्रमारण प्रति रम्य । अचल प्रखंड अनूपमा, नहिं अजाण की गम्य ॥६७७।। जोर न इद्री चोर को, सोर न कहू सुनात्र ।
गनि सके परपंच ठग, शुद्ध राव परभाब ।६७८।। भागे वेचक तसकरा, वापी को सुनि नाम । रतन वापिका इह सही, गुण रतननि को धाम ।। ६७६ ।। बटपारे न विकार से, काम लोभ से दीर । तिनही न सूझ वापिका, रमै महामुनि धीर ।। ६८० ।। फुलि रहे भावा कमल, अमल अलेप स्वभाव । रमण भाव रूपी भमर, भमैं सदा निरदान ।।६८१५॥ ताकै तटि तरवर मुधा, भाव प्रद्धेदि अभेदि । सीतल सघन सुवास अति, डारे दाह उछेदि ।।६८२॥ समता रूप सुधा लता, धरै विमलता जोय । फूलि रही अति फलि रही, सदा लहलहै सोय ।।६८३।। परम भाव अम्रत फला, भाव प्रफुल्लित फूल । पल्लब भाव प्रकासमय, पत्र तापहर मूल ।।६८४॥ वेलि वृक्ष पीयूषमय, वापी तीर विसाल । माया बेलि न विषमइ, एकन विकलप जाल ।।६८॥
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल - व्यक्तित्व एवं कृतित्व
नांहि कुपक्षी कुसवदा, विष वृक्षन विषयादि । नहि कंटिक क्रोधादिका, नहि निसिचर मदनादि ॥६६६॥
हैं अतता एकता, ए द्वय तट भोग भुजंग नहीं जहां, श्रातम सुख मलिन भाव मछली नहीं, भेक न भ्रांति स्वरूप । जहां कर्म कूरम नहीं वस्तु न एक विरूप ||६८८ || कालिम कीट नहीं जहां, नहीं काल कौ जोर । अभै नगर के निकट हैं, जहां न कबहू सोर ||६६६ ||
रमणीक ।
तहकीक ।। ६८७||
नहि दुर्जनता भाव मय, डांसर मांदर मूर क्षुद्र भाव भोंगर नहीं, वापी सब दुख दूर ||६६०|| दंभ भाव हि जहां कि । सारिस दरसन ज्ञान जुग, केलि करें विनु सोक ।। ६६१ ।। कागन भाव कलंक मय, राग रोग नहि होय शुद्ध स्वभाव मइ इहै, नांहि शुभाशुभ दोय | १६६२ ॥ ३
sa अध्यातम वावरी, तामै करै सनान । सो भव दाह निवारिक, पाव पद निरवान ||६६३ ||
॥ इति संपूर्ण ॥
दोहा
बसे बुद्धि के पार जो, हरं कुबुद्धि कुभाव । वीतराग सरवज्ञ जो, तीन भुवन को राव ।। ६६४ ।। प्रभू ताहि प्रमोद करि, प्रण मैं जाहि सुरेस । नमें नाग नर सुर असुर, विद्याधर राजेस ।। ६६५।।
विषय वापी वर्णन
—
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विवेक विलास
बुधि बावरी जीव की, विर्ष कषाय स्वरूप । तिसी न विष की बावरी, और महा दुख रूप ।। ६६६।। विष नहि विष विकार सौं, भव भव मरण प्रदाय। इह विष वापी पाम है, पापी मोह रहाय ।६६७।। विष बासना सारिखी, नहि कुवासना जोय। अति कुवासना सौं भरी, धर्म नासना होय । ६६८।। कर्दम कर्म कलंक सौ, कहें न कोविद कोय। । इह कर्दम की वापिका, जहां न अम्रत तोय ।। ६६६॥ मल नहि मिथ्या भाव सौ, ता करि पूरण सोय । अहंकार ममकार के, धरै विकट तट दोय ।।७०० ।। भरी जाल जंवाल सौ, मरी समान विरूप । खरी बुरी दोषाकरी, विष वापी बिडरूप ।।७०१।। जहां सिवाण अपाण से, विषम महा दुखदाय । क्रमि कुभाव अति कुलमले, जाहि लखें तरसाय ।।७०२।। नहि सिंबाल संदेह सौं, भाष संजम धार । भरा सदा संदेह सौं, सुख नहिं जहां लगार ।।७०३।। वाचाली वादी विकल, दुरवुधी दुरभाव । से दादर कुसवद करें, धरै कुकर्म कुभाव ।। ७०४।। रसना लंपट चपल गति, हीन दीन अघलीन। मीन तेहि विचरै तहां, काल कीर अघलीन ।।७०५॥ कठिन कठोर सुभाव ही, कहे कालिवा जीव ।। कीट कलंक भरी सदा, जामैं बहुत कुजीव ।।७०६।। नून भाव अति रकता, तेहि झींगरा जानि । माछर मछर भाव बहु, डासर खल ता मानि ||७०७|| शांत भाब सौ बिमल जल, और न जगत मझार । सो वापी मै नांहि कहू, तापहरण रसधार ।।७०८।।
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१३२
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल - व्यक्तित्व एवं कृतिस्व
विष वेलिन ममता समा, वापी तीर विसेस | सुधा मयामयी, वाही तहां न लेस || ७०६ ॥
सघन भात्र निज मगनता, तेहि सुधा तरु वीर । ते वापी के तीर नहि, अघ विषतरु अति तीर ॥७१० ॥ दोष दैत्य को धाम है। रहूँ भूत भ्रमरूप । ठगै कामरति भूप ।। ३११ । ।
छ छलावा छलम इ.
पापी वापी वीचि ।
मोह निसाचर नृप जहां रागादिक रजनीचरा, अधिकारी अति नीच ।। ७१२ ।। पाप पिसाच रहै जहां जौ धारे परद्रोह | खारें चोर चहू दिसा, राजै राजा मोह ।।७१३ ।।
धन तृष्णा परिणाम से, तसकर और न कोय । तिन हो को यह यान है, कहां भलाइ होय ।। ७१४।। नहि मनोजता मूरि ।
इह क्रीड़ा वापी नहीं,
करें वास बंचक इहां सदा
अमंगल भूरि ।। ७१५।।
·
मैं दंभ
प्रपंच समान ।
J
वंचक और न विस्व पाखंडादि अनेक खल, छल वल भरे गुमान | १७१६ | उगे जांहि इन्द्रादिका ठगे जांहि चक्रेस | टगे जांहि नागिंद्र सुर, ठगे जाहि असुरेस || ७१७॥ लोभ लुटेरा जूटइ धर्मरूप घनसार । क्रोधादिक कंटिक बनें वापी बहुत असार १७१६॥ विषे वासना बितरी, धरै विकार अनेक | रति ठगनी परपंच करि, खोसे रतन विबेक ॥७१६|| वापी भववन में इहे पापी अंतक सांप |
बर्से सदा सुर नर असुर, पसु निकरे संतान ।। ७२० || st गलकटा बावरी, जाने सब संसार ।
रहे निरदयी दुर्जना, क्रूर कुभाव अपार ॥१७२१||
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विवेव विलास
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हिमक पिसुन पसूचना, मिथ्याती मतिहीन । परधन परदारा हरा, लोभी लंपट दोन ।।७२२।। तेइ करें प्रवेस ह्यां, रहै सनमती दूर। कबहु करै मति क्रीड़ तू, यहै कलपना पूर ।।७२३।। निर्मल भावन हंस ह्यां, युग ठग भाव अनेक । दरसन ज्ञान स्वभाव से, सारिस जुमल न एक ।।७२४।। रमैं विष अनुराग से, काग कालिमा रूप । विकल विवेक बितीत खल, पापी पाप स्वरूप ।।७२५॥ पापात्रारी पारधी, श्रीवर अघ परिणाम । मारे तिर नर सुर असुर, थिर चर आठौं जाम ।।७२६।। निज पुर सौं दूरी इहै, वापी अति बिकराल । वहु वूडै बहु मरि पचें, दुख देखें असराल ।।७२७।। त्यागि कषाय कलंक सब, तजि विषयनि सौ प्रीति । गही पंथ निजपुर तनौं, दहौं दोष दुख रीति ।१७२८।। जीति काल कंटिक भया, मारि मोह रिपु राव । रहो मोक्षपुर मैं सदा, प्रगट करौ निज भाव १७२६।। मिथ्यामति अति मूढ़ता, रूप बापिका तोर। कदे रमै न विचक्षणा, व0 विष रस वीर ।।७३०।। लहि निज संपति सासती, ज्ञानानंद स्वरूप । करें केलि निजपुर विर्षे, तजि भव वन भ्रम रूप ।।७३१।। अध्यातम अम्रत भरी, वापी निरव्रति जोय । करें सनान तहा सुधी, लहैं विमलता सोय ।।७३२।। इहै मूढ़ता वाबरी, विष प्रवत्ति स्वरूप । नहि सनान कौं जोग्य हैं, मलिन विकट विष रूप ।।७३३।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
विष वापी वर्णन यहै, पढ़े सुने जो कोइ । सो न परै वापी विषै, घट घट व्यापी होय ।।७३४।।
।। इति विषय बापी वर्णनं ।।
, दोहा रस कूप वर्णन--
ज्ञांन कहै सब भाव को, सब सुख दायक देव । नायक है रस कूप कौ, करै सुरासुर सेव ॥७३५।। रस न कूप न निज रूप सौं, परम सुधारस पूर | है अरूप अनि रूप जो, मकल दोष तें दूर ।।७३६।। नाहिं सुधारस ज्ञान सौ, अमरण करण अनुप । हरै भ्रांति अति शांतिकर, ताप हरण गुण भुप ।।७३७।। अवर नाम रस कूप को, रतन कूपहू होय । रोर अवोध मिथ्यात हर, राग रोग सुर सोइ ।।७३८१॥ अदभुत गुण मणि सौ भरयों, इह मरिण कूप महत । रमवा जोगि निरंतरा, र, मुनीसुर संत ।।७३६।। अमृत कूपनि कूप इह, निज भावन की केलि। कर शुद्ध भवि जीव कौं, देय दोध को ठेलि ।।१४०।। याके तटि अति सघन वन, चिदघन आनंद रूप । इहै कूप निजपुर निकट, जहां राव चिद् प ।।७४१।। कपट कीच नहि या विष, रहै न मोह पिसाच । इद्री भूत न पाइए, मांनि वारता सांच ॥७४२।। जहां नाहि चितामयी, कृमि कीटादिक कोइ । मीन दीनता भावमय, तिनको नाम न जोय ।।७४३।।
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विवेक विलास
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नहि अविवेक स्वभाव मय, मींडक चपल विरूप । नहीं विषं की वासना, अति कुवासना रूप 1।७४४।। पर निंदक परपूठि जे, निष्ठुर दुष्ट स्वभाव । तेहि काछवा जानिये, तिनको नांहि लखाव ।।७४५।। "मथ्या मारा पक्ष प्रा नेदि पक्षी कुर। ते न करें संचार ह्यां, हिंसक भाव न मूर ।।७४६।। दुर्जन भाव न दोष मय, दुख को नाम हु नांहि । सुख की बात अपार हैं, रमण कूप के मांहि ।।७४७।। नहीं सर्प कंदर्प ह्या, चोरन चाहि स्वभाव । छल परपंच न वचका, विपरीती न विभाव ।।७४८।। दृष्टि न पसरै देव्य की, दैत्य न काल समान । एक न कंटिक पाइए, क्रोध न लोभ न मान ।।७४६।। रमैं प्रातमा राम निज, सत्ता रमा समेत । केलि कूप है इह महा, संतनि को सुख देत ।।७५०।। लखि बौलति अबिनस्वरा, परम भाव फल वेलि । निज बोलसि ल स्त्रियां विना, नही होय रस केलि ।।७५१।। इह वर्णन रस कूप को, पहें सुनै जो कोय । सो निकस भव कूप तें, निज रस रसिया होय ॥७५२॥
॥ इति रस कूप वर्णनं ।।
दोहा
भव कुप वर्णन -
प्रभु निकासि भव कूप तें, पहुचावं निज थान । प्ररणमै जाहि पुरंदरा, चक्रेसर निधिवांन ॥७५३।।
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महाकवि दौलतगम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
विप कूपन भवकूप सौ, यह दुख कूप विरूप। अंध कूप यासौं कहैं, महा मुनिनि के भूप ॥७५४।। जिसी अविद्या वासना, तिसी कुवास न कोय । भरचौ महा दुरगंध सौं, विषम कूप है सोय ।।७५५।। विष नहि विर्षे विनोद सौं, मरण अनंत प्रदाय । यह विष पुरण दुखमइ, जाहि लखें सुधि जाय ॥७५६।। नहिं पियूष संसार मैं, अनुभव सौं अविकार । इहां न अमृत वारता, विकलप जाल अपार ।।७५७।। कीचन कोइ कुभाव सौ, भरची कीच ते कूप । लोभ पिसार रहै जहां, गोह:सुः है विभ्रम भूत घनै तहां, दोष दैत्य को थान। रागादिक रजनीचरा, बिचरं पाप निधान ।।७५६।। नागन पिसुन सुभाव से, तिनकौं तहां निवास । चोरन चित अभिलाष से, हरै धरम धनरास ॥७६०॥ ठग नहि छल परपंच से, तिन ही की ह्यां केलि । फूलि रही अति विषमइ. विष बासना वेलि ।।७६१।। याके तटि विष वृक्ष वहु, विषै विकार विरूप । छाय रहे कंटिक मइ, माया जाल कुरूप ॥७६२।। ठगे जाहि सुर असुर नर, कोइक उवैर धीर । ज्ञान विराग प्रसाद तें, जा ढिग संजम धीर ।।७६३।। पापी जन पाखंड से, और दूसरे नाहि । ते लूटे परगट इहाँ, रंच न संक घरांहि ॥७६४।। वदपारे क्रोधादि से, मार सुग्न पुर बाट ।
ते डार दुख कूप मैं, तिनकै क्रूर कुठाठ ।।७६५।। । नहि विसास घाती प्रवर, मदन सारिखी कोय । ...
रंचक भोग दिखाय खल, दे अनंत दुख सोय ।।७६६।।
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विवेक विलास
नहि सिवाल संसार मैं संसय सोच समान ।
भरौ श्राल जंजाल सौ मलिन कूप मलबांन ॥ ७६७ ।।
"
चितवृति चंचल प्रति मलिन, कृमि समूह है सोय ।
भर पूरित क्रमि तें सदा, तिमर कूप यह होय ।।७६८।२
नहि देवर पास से
फिरे कुभाव । मीन जीभ लंपट जिसे, और न चपल सुभाव । ७६६ ।।
नहि कठोरता भाव से कोइ काछिया प्रौर। तिनों की ठौर ७७०
अंधकूप भवकूप इह सदा
केवल बीच स्वरूप | अम्रत बेलि अनूप ।। ७७१ ।। तेहि काग लग जांनि । नाहि सुपक्षी मांनि । ७७२ ।। सकल प्रभुचि की बात |
नही कोइ सुचि वात ह्यां
काल समान न जालधर, करं जीव को प्रात ॥७७३ ॥
नाहि सुधारु या निकट, नांहि ज्ञान अनूभूति है,
मायाचारी मन मलिन, तिनही की कोड़ा इहां
परे जीव भवकूप में, को काउन समरत्थ 1 का श्री भगवंत ही दयावंत बड़ हत्थ ।। ७७४ ।।
ढारन नय परमार सौ नहि निश्च सी नेज । निक्स उद्यमवंत ही, जिनके रच न जेज || ७७५ || अंधकूप विरूप यह है पाताल जु कूप | विकसितहां तें तुरंत ही होय अभंपुर भूप ।। ७७६ ।। निज मैं करें निवास ।
फेरि न श्रा भव विषं लोक सिखर राजे सदा निज बॉलति निज गुणमइ सत्ता रूप विभूति ।
धारे अतुल विलास ।। ७७७ ।।
सो बिलसँ प्रति सासती अविनासी अनुभूति ॥ ७७८६ ॥
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१३,
महाकवि दौलतराम कासावास-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
अंध कूप वर्णन यहै, पढे सुने जो कोय। सो नर है भवकूप मैं, निज निधि नायक होय ।।७७६ ।।
॥ इति भव फूप वर्णन ।।
-- दोहा
अन्तरात्मा ज्ञान राज वर्णन--
अंतर गति ज्ञाता गुरू, अंतरजामी देव । अंतर प्रातमा ध्यावही, करै सुरासुर सेव ॥७०।। ताके चरण सरोज नामि, पण मि महा मुनिराय । नमि परमागम गुरण कहू, ज्ञानिनि के सुखदाय ।।७८१ ।। भ्रमत भ्रमत भव वन विष, कोइक चेतन राब । चेत स्वतह स्वभाव ही, कं श्री गुर परभाव ।।७८२।। तजि अज्ञान अनादि को, ग्रंथि अविद्या भेन्दि । अनि सरधा सरबज्ञ की, संस भर्म उछेदि ।।७८३।। छाडि भूमि मिथ्यात की, क्रोध लोभ छुलमान । मारि चौकरी प्रथम ही, ले सम्यक गुनथान ।।७४।। तथा देसवत देस ले, दोय चौकरी डारि । अप्रमस थानक तथा, तीन चौकरी मारि ।।७८५॥ सम्यकपुर को प्रादि ले, क्षीणकषाय प्रजंत । अंतरातमा राजई. राज करै मतिवंत ।।७८६।। ता सम भूपन और को, समझवार रिझवार । गो गिक्स भत्र कप तें, पावै पद अविकार ।।७८७।। पदरानी परचीन है. नाम सुबुद्धि अनूप । ग सम्यक अति निश्चला, मंत्री ज्ञान स्वरूप ।।७८८।।
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विवेक विलास
गुर विवेक प्रोहित धरम, दरसन चारित दोय । सब उमरावनि के सिरे, अति कोडीभड होय ।।७६६ ।। निज स्वभाव उमराब बहु, निज निधि है भंडार । है बीरज सेनापती, भंडारी स्वविचार ।।६।। संजम तप आदिक सुभट, गुगासेना अति साथ । द्वारपाल संवर महा, ध्यान खड़ग नृप हाथ ।।७६१।। व्रत बगतर सील सर, धीरज धनुष महीप । धा नपथ मार ने, नौ जननी : अरणाचार हर नीतिधर, शुभाचार कुटवाल । मूलोत्तर गुण है प्रजा, सावधान भूपाल ।। ७६३|| पावन पुण्य स्वभाव से, पासवान परवीन । टारे पाप सुभाव कौं, सदा स्वामि आधीन |७६४।। मित्र महा वैराग से, हितकारी नप पासि । मदति भगति भगवंत की, दे सब सुख अघ नासि ।।७६५।। नृप के अदभुत अनुपमा, सामग्री समतादि । हारे जाते मोह रिपु, डरै राग दोषादि ।१७६६ ।। अवतपुर पर देसव्रत, इन माही गढ़ रारि । परमत पुर प्रागं प्रगट, लेय मोह को मारि ।।७६७।। कैसे मारे मोह कौं, सो तुम सुनहु उपाय । अप्रमाद पूर मैं हरण, सूर नारक तिर प्राय ।।७६८|| भाव अपूरव करणपुर, तहां हत हास्यादि । अनिवर्तापुर में हों, वेद तीन संदादि |७६६ ।। पाछ मूषिम क्रोध अर, मान कपट रिपु काटि । सांपराय सूषिम धरा, लेय मोह दल ठाठि ।।८००।। सूषिम क्रोध पछारि के, पूरी पारै मोह । भंग होहि भूपाल पैं, राकिस रागर द्रोह ।।८०१।।
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१४०
महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
क्षीण कषाय जती यती, क्षीण मोह मुनिराज । हत विघन की वेगिदे, सज सिद्धि के साज ।।८०२।। दरसन ज्ञानावरण की. परकति सबै विनासि । साधक भाव समेटि ले, केवल भाब प्रकासि ।।८०३।। घाति कम कौं घाति के, ह्व कैवल्य स्वरूप । अंतरातमा यह यकी, ह्र परमातम रूप ।।८०४।। जैसे राजा नीति करि, महाराज ह्र वीर । तैसे अंतर प्रातमा, ह्र परमातम धीर ।।८०५।। जाने लोक अलोक सहु, एक समै मैं सोइ । भानं संमें भविन के, केवल ज्ञानी होय ।।१०६।। ज्यौं नरिन्द्र राजेंद्र ह, धारि पराक्रम धीर । त्यौं जोगिन्द्र जिनेन्द्र हातम बल करि वीर ।।८।। पायु प्रमाण सरीर मैं, तिष्टे सरर्वाग देव । जीवन मुक्त दसा धरै, करें सुरासुर सेव ।।८।। करि दरसन मुनि सवद की, उत्तम कुल नर देह । कैयक तप प्रत धारि के, मुनिवर होहि विदेह ।।८०६।। कैयक मानव तिर तथा, शरि अणुबत सार। स्वर्ग पाय नर होय फिरि, तप करि ह भव पार ।।८१०।। कैयक सुर अथवा असुर, गहि करि सम्यक ज्ञान । करि पूरण थिति होय नर, पाव पद निरवान ।। ८११।। स्वर्ग निवागो देवजे, ते सुर नाम वखानि । मध्यलोक पाताल के, देव असुर परवानि ।।८१२१॥ देव जोनि के भेद हैं, देव दैत्य द्वय रूप । स्वर्ग निवासी बहुमुखी, दीरध आयु सुरूप ॥८१३॥ मंद कषायी हर्ष अति, अलप विषाद विवाद । मन्त्र वातनि मैं अति निपुन धारै अलप प्रमाद ।। ८१४।।
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त्रिनेक विलास
असु अलप सुख अलप थिति. तीव्र कपार प्रचंड । अति विपाद अतिवाद हैं. अलप बुधि अति दंड ।।१५।। सुर नर असुर विद्याधरा, पंचेन्द्रो पसु जेहि। मभचर बनचर ग्रामचर, निकट भव्य मुलटेहि ।। = १६॥ होहि क्रुतारथ सवद सुनि, करि दरमन बहुजीव । कैयक तदभव पार है, मनुज मुनिंद सुजीव ।।१७।। कंयक जनमांतर तिरे, पावै निजपुर वाम । सुखदाई संसार मैं, केवल ज्ञान प्रकार 1।८१८।। तारण तरण दयानिधि, जीवन मुक्त मुनिद । प्राप मात्र ही गात्र मैं, बमें देव जोगेन्द्र ।।१६।। इन्द चन्द असुरिंद प्रेर, रवि नरिंद नागिंद । हरिविन्द अहमिद खग, रटें जतिद गोरगद ।।५२०१६ आयु लार ही गोष कौं, नाम रूप को नासि । वादर मुषिम गात्र हरि, वेदनि कर्म विनास ॥२१॥ कर्म भर्म हरि शुद्ध व वसं भावपुर माहि । सो विदेह मुक्तो प्रभू, कहिये संसै नाहि ॥८२२।। ज्ञान रूप चिद्रप सो, ह अनूप जग भूप । फेरि न जनमैं जगत में, ई अविनासी ला1८२३॥ शूल देह पर सूषिमा, बहुरि न धार धीर । व अनंत स्वरूप निज, चिनमुरति असरीर ।।८२५॥ जगत सिरोमरिग भावपति, लोक सिखरि सद् प । निज सुरूप मै नित्य ही, करें निवास अरूप । ८२५।। अंतर प्रातम राम की, कथा प्रबोध प्रकास । पढे मुनै अर सरदहै, सो पावै सिव वास ।।८२६॥
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१४२
महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
निज दौलति अनुभूति है, ताहि विलसवे काज । छाई राज विभूति सब, सो पंडित सिरताज ॥८२७।।
।। इति प्रतराप्तमा ज्ञान राज वर्णनं ।।
दोहा वहिरात्मा दशा वर्णन
विहिर मुख वहिरात्मा, लखें न जाको रूप। अंतरातमा अति रहैं, सो परमातम भूत ।।२८।। करि बदन ताके चरण, लेय सरगा सिद्धांत । भाषौं वहिरातम दसा, दोस रूप एकांत ।।८२६।। मूढ़ महा वहिरातमा, धरै द्रिष्टि बहिरंग । गर्ने प्रापने कर्म जड़, गर्ने अपनी अंग ।।८३०॥ ता सम सठ नृप और नहि, करै राज वेडंग । बारावाट कुठाट सन्न, सदा कुबुद्धी संग ।।८३१॥ पराधीन बरतै महा, नहीं राव की जोर । राव मोह के फंद मैं, परयो सहै दुख घोर ।। ५३२।। राजथान नहि निश्चला, भटक भव बन मांहि । सुर नर नारक पसु पुरा, थोरे दिन रह वाहि ।।१३।। का कर्म महोप कौं, देह वेगतै वेगि । सदां भोगवै भूप दुख, नही राज वल तेगि ।।८३४।। ते गन ज्ञान ज्योतिसी, सो नहि नृप के हाथ । कायर कुटिल सुभाव सहु, ते भूपति के साथ ।। ८३५।। काची गढी न कायसी, विना धक विनसाय । बस तामहै भैमयी, अलप काल रहवाय ।।८३६।।
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विवेक विलास
मोह वसाय अनादि को, भमैं भूपाल प्रयाग । इक छोड़े इक पुर गहै, मोह प्राण परमाग ।।८३७।। कुबुद्धि सारिखी और नहि, जग मैं काइ कु नारि । सो पटरानी रान के, बैठी राज विंगारि ।। ८३८।। घर खोवा धरणी इहै, कलह कारणी जोय । पापारंभ प्ररूपरगी, कहां भलाई होय १८३६।। भयो कुमति के भूप सि, नहीं वृद्धि को लाम । परचौ राव परमाद मैं, नहीं धरम सौं राग ।।८४०।। महा मोह निद्रा जिसी, निद्रा और न नीच । सो सठ भूपति सदा, मोह नींद के बीच ।।८४१।। धूमैं नृप बेसुधि भयौ, मोह वारुरपी पीय । परयौं भर्म की पासि मैं, पिरथीपति टुक जीय ।।८४२।। कुबुधि सुता है मोह की, जाइ ममता मात । चाहै मोह प्रकास ही. अति अघ सौं न उरात ।१८४३।। नहि प्रताप पति को चहै, निहिपति को विस्वास । सरै भूप कुबुद्धि लें. धरै मोह की ग्रास ।१८४४।। है कुभाव मंत्री कुटिल, मोह मिलाऊ जोइ । नृप कोउ दोन बांछइ, स्वामि दरोही सोइ ।।८४५।। विषयनि के अनुराग मैं, राख्यौ राय लगाय । ग्मैं सदा सव कुमति वसि, सुधि बुधि बिसराय ।।८४६।। नहि कुभाव' सौकलि विर्ष, और कुमंत्री कोय । चौर को पूठी रखा, कहां भलाई होय ।।८४७।। घोरन नहीं इंद्रीन से, है तिनही को जोर ।। ने कुभाब के वलि सदा, करै कर्म अति घोर ।1८४८|| चौरें अहि निसि नृपति घर, डर नहि राखें मूलि । रंच न दीखे गुण रतन, देखो नृप की भूलि ।।८४६।।
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१४४
महाकवि दौलतराम कासलीवाल - व्यक्तित्व एवं कृतित्व
भंडनतिर ऋषियो, तीन भुवन मैं जार। कुबुद्धि कुभावनि दात्रियों दे भव भोग असार ||८५०१
राव रह्यौ रंक प्रति गुन धन दिन नहि चैन ।
P
भटू भूपति विपति में परची वृथा वसि मैन ॥ ८५, १३
भूलि रह्यौ नृप आपकौं, होय रह्यो मतिहीन | भाव सुभट सव बुद्धि डिंग, बैठे वोध अधीन १८५२०
मुबुद्धि र जु विवेक धरि, बैठी परम उदास । राव बात वृ नहीं, करें कुबुद्धि विलास ।। ८५३|| आतम भाव भटानि को, नहि नृप के संचार । मोहराव के राव तनि, दाबि लीयौ दरवार ।।८५४ ।। मोह राव को है सही, सेवक सदा कुभाव । कुबुद्धि पुत्रिका मोह की, चाहे मोह प्रभाव ६५५ भेद न समझे मूलि ही भौढ़
करें विसास
मोह तिमर करि अध नृप, भयो कुबुद्धि को दास ।।८५६१६
निज परगति पर्याय निज, नृप परजा सुखदाय । बसें सुबुद्धि वसाय ॥५७॥ सकल विपरजं भाव |
forest वासन कुमति पैं सर्व विभाव विवाद खल,
अखिल पर्याया सदा वसें कुबुद्धि प्रभाव ।। ६५८ | जीवक्षेत्र में जड़ मयी, रहें कुभाव अनेक ।
कैसे प्राय सधैं महा, सुबुद्धि सुभाव विवेक ||
है मिथ्यात महीप गुर, मोह प्रकृति मति होन ।
पाप धरै प्रोहत पदा, जो जग
माहि मलीन ||८६० ।।
रह्यौ रंक |
कुबुधि कुभाव प्रभाव करि राव पटरानी राजे महा, राज बिगार या असुभ महीप पैं, शुद्ध भाव की बात हू,
शुभ की देय जहाँ कीयां
निसंक ।।८६१ ।।
विहारि । रारि ||६६२ ।।
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प्रवेश नि:स
कायर कृपण कुत्रील जो, भाव भूप के ताहि । सेनापति पदवी धरघां, कैसे राज जमेहि ॥६६३।। द्वारपाल दराबर मै, परमादी परिणाम । रौके नहि अपराध के, रोक विधि को नाम ।।८६४।। दुराचार कुटवाल है, सेठ महासठ भाव । वहुरि महा अन्याय से, जहां मीर उमराव ।।८६५।। कुविसन सेना है जहां, वसती जहां विभाव । है फैलाव कुभाव को, राब कर नहि न्याव ।।८६६।। भोग भावना भर्म मैं, भूपही दोयो भमाय । करै कामदारौ कुमन, सुमनहु सके न आय ।।८६७।। छल प्रपंच पास्त्रण्ड अर, पिसुन धूर्त खल भाव । पेसगार ए कुमनके, चोहै कुबुद्धि कुभाव ।।८६८१५ फैलि रहे वद फैल सहु, मैल भरे तहकीक । खेल मचि रह्यो पुर विषै, बोलें वचन अलीक १८६६ ।। अपने अपने स्वारथी, नही स्वामि की पीर। राज दावि लीयो अरयां, सुभटन नृप के तीर ।।८७०।। ज्ञानावर्ग जु कम खल, मित्र मोह को एह । ज्ञाना शक्ति दावै सवै, दे दुख दोष अछेह ।।८७१ ।। दरसन आवरणी कर्म, द्रिा अवरोध करेय । भाब भनि की भूप को, दरसन होन न देय ॥८७२।। कर्म वेदनी वलवता, महा मोह के जोर । कर असाता जीबकौं, करवावै अति सौर ||८७३।। कबहुक साता देय के तुरत खोसि ही लेय । सुखन अतिंद्री होन दे, भव भव कष्ट करेय ।।७४।। लाग्यौ काल अनादि की, नृप को मोह पिसाच । थावर जंगम जोनि मै, करवावं बहु नाच ।।८७५।।
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१४६
महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतिरक्ष
एक ठौर रहनें न दे, मोहासुर प्रसुरेस । बहु सुर नर पसु करै, कबहुक नारक भेस ।। ७६ ।। आयु नाम है कर्म इक, सहचर मोह नरेस । जीव अमर सो अलप थिति, करि राख्यो राजेस ||८७७|| नाम कर्म नामा करम, नाना देह धराय भरमा नरनाथ को हुकम मोह को पाय८७८ || गोत्र कर्म प्रति भर्म जो जीवहि मोह बसाय 1 ऊंच नीच गोत्रादि मैं, लघु दीर्घ करवाय।८७६ ।। अंतराय दुखदाय प्रति, मोहरा परसाद | जीवराय को जगत में करे अनेक विधन करे आनंद मैं, मगन होन नहि देय ।
विषाद ||८०||
क्रोध मान माया मदन, अरति जुगपसा मोह के जान देहि निज श्राम नहि, नरक निगोदादिक दुख, श्रम कीटादिक जोनि मैं काराग्रह मैं नृप परचौ छुटि सकै नहि वंधते, खेच्या विषै कषाय को टिक न सकै गढ़ बांधिक, चउरासी लन जोनि में निजपुर प्रतम भाव जे भयकातार असार मैं, भरमैं काल अनंतानंत में, बहु सुर पद होय |
विसतें बुरे जु कर्म बसु, भव भव प्राण हरेय ||१|| लोभ हासि रति सोक । सुभट रहे हैं रोकि ||२|| राखे जगत मझार । देहि अनंत अपार ||३|| जामरण मरण कराय । दुख देखे अधिकाय ॥२८८४ ॥ रहे बहौत बेहाल | भटकत फिर भूपाल ||६६५|| लरि न सकेँ वलहीन । भ्रमण करे अति दीन ॥ ६६६ || नहा सकै नहि जाय ।
भोंदूराय ||६८७||
सुर भवते मात्र जनम, अति दुर्लभ है सोय ॥८८॥
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विवेक विलास
१४७
ऐकेंद्रीय बिकलत्रय, पसु नारक दुख रूप । जन्म अनंत निगोदि मैं, धरै मोह बसि भूप ॥८८६ ।। कवहुक कोइक जीवकी, भ्रांति दूर द जाय । जाने निज विरतांत सो, ठांने मोख उपाय ||१०|| पूरण भाग प्रभाव तें, सतगुर दरसन होय ।
करै बीनती तब यहै, सुनै दयाकरि मोय ।।८६१) जीवो वाचा--
स्वामिन इह संसार है, अति प्रसार भ्रमजार । भरमू कोह वति, लहूं वजन पार ।।६।। कैसे पहुंचू निजपुरा, भ्रमण मिटै किम नाथ । मोह पासि तुटै कवं, अवलोकू निज साथ ||८६३।। सो उपाय भाषौ प्रभु, तुम हो करुणा सिंधु । लुटि सके नहि मोह खल, टूटि जाय सव बंध ।।८६४||
।। इति बहिरारमा दशा वर्णनं ॥
।। श्री गुरु वाचा।।
दोहा
श्री गुरु बाचा--
तू अनादि वंध्यौ भया, भ्रम करि भव के माहि । निज स्वरूप निज भाव भड़, ते अवलोके नाहि ।।८६५।। सुबुधि महाराणी शुभा, पतिवरता परवीन । ताकी तोहि न सुधि कडू, ता विन तू अति दीन ।।८९६।। है प्रवोध मंत्री महा, ताको ताहि न भेद । यक छिन मैं सो साहसी, कर करम दल छेद ।।८६७।।
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१४८
महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
भाव अनंत महाभडा, मोह विदारण सूर । कुबुधि कुभाव प्रभाव से, रहै तो थकी दूर ।।८६८।। 4 सर्व विदक पें, जहां सुबुधि प्रबोध । सेरे पुर मैं सर्वही, वसं बिभाव अबोध ।।८६६ पटरानी तेरै दुरी, कुबुध कलंक निवास ।
रौ कुभाव प्रधान है, धरै मोह की प्रास ।।६०७।। बैठी सुवृधि अनादि की, घर विवेक के वीर । तेरे सुभ चिंतक सवै, है विवेक के तीर ||६७१।। करै राज बेग तु, निजपुर को सुघि नाहि । अविवेकी अज्ञान तू, होय रह्यो भव मांहि ॥६०२। छाडि कुवुधि को संग अब, मेल्हि मोह के याहि । निज वसि करि मन चपल कौं, ठाट कुभाव उठाहि ॥६०३॥ वसती काढ़ि विभाव की, काम क्रोध कौं ठेलि । नोरि मोह की पासि अब, तज कुवुद्धि की केलि ॥६०४।। सम्यक गढ़ मैं वास करि, लेहु सुबुधि बुलाय । करहु तरि मंत्री कुमन, ज्ञान मंत्रि ठहाय ।।६०५|| करि विवेक कौं राजगुर, पापहि तुरंत उथापि । प्रोहित पद दं धर्म कौं, शुद्ध स्वभाव सथापि ।।६०६।। सेनापति तप संजमा, भड़ कर अपने भाव । निज प्रभाव उमराव करि, इह उपाय है राव ।।६०७।। शुभाचार कुटबाल करि, दुराचार सहु मेटि । दरसन रूप उघारि दग, चारित सज्जन भेटि ।।६०८।। हर प्रभाव विभाव को, मोह राव की कांरिण । मति राखौ महिपाल तुम, गुर प्राज्ञा उर प्राणि ।।६०६।।
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विवेक बिलास
१४६
एक न राखौ मोह को, मन तन कौ परसंग। निज स्वभाव सना कर, करहु करम दल भंग ॥६१०।।
राज करहु निजपुर विष, अटल अचल सुख रूप । जहां न बस है मोह को, नही काल सौ भूप ।१९११।। राज बिगारा दूर करि, राज सुधारा लेहु । यह उपाय करि राय तू, ममता भाव हरेहु 11६१२।। काया काची है गटी, जहां काल को जोर । रहनौं जामै मोह बसि, बली काम से चोर ॥६१३।। तजि काया गढ़ सर्व ही, सूषिम और सथूल । करि निवास निजपुर विषं, यहै बात सुख मूल ।।६१४|| सुनी सुगुर की वारता, उर धारी भबि जीव । बुद्धि प्रद्रोध प्रभाव करि, त्यागे भाव अजीब 11९१५॥ कियौ राज कटिक रहित, फेरि न विनर्स राज । इहै वात जे उर धरै, करें निजातम काज ।।६१६।। गुर प्राज्ञा धार नही, तजै न कुबुद्धि कुभाव । ते अभव्य जन जांनिये, तथा दूर भवि राव ।।१७।। बहिरातमता त्यागि के, अंतरातमा होय । सो परमातम पद ल हैं, इह निश्चं अबलोय ॥६१८॥1 वहिरातम कौ वर्णना, जोहि सुनें धरि कान । सो बहिरातमता तजे, पावै प्रातम ज्ञान ॥१६॥ निज लखिमी लखियां विना, है वहिरातम वीर । दौसाति निज अनुभूति लखि, तिरं भवोदधि नोर ।।२०।। त्याग जोगि पर वस्तु जे, हेय कहावं तेहि । लेन जोगि निज भाव जे, उपादेय हैं एहि ॥२१॥
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१५०
महाकवि दौलतराम कासलीवाल- व्यक्तित्व एवं कृतित्व
हेय उपादेयंनि को, जो विचार अविकार | सो विवेक भासें बुधा, ता सम और न सार ।।२२।। पढ़ सुनें अर सरदहैं, इह जु विवेक बिलास | सो अविवेक निवारिक पार्श्व निजपुर वास ॥६२३ ।। निजपुरी हि कोई पुरा यहां काल भय नाह कर्मन भर्मन कलपना सुख अनंत जा मांहि ।। ६२४ ।।
इति श्री विवेक विलास संपूरणं । लिखी सबाह बंपुर में मिली पोस सुदि ३ श्री सपतवार संवत १८२७ ।। बाचे जीने श्री स्वद बंधनां ॥ श्री ॥
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अध्यात्म बारहखड़ी
रचना काल :-सं० १७९८ फागुण सुवी २
रचना स्थान :-उदयपुर (राजस्थान)
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१५२
महाकवि दौलतराम कासलीवाल व्यक्तित्व एवं कृतित्व
ॐ नमः सिद्ध भ्यो नमः । ॐ नमः परमात्मने । अथ भक्त्यक्षर मालिका वावनी स्तवन । "अध्यात्म मारहखड़ी'- लख्यते ।।
श्लोक
मंगलाचरण--
वंदे मोक्षाधिपं देवं, मोक्षमार्गप्रकाशकं । भुक्तिमुक्तिप्रदातार, भेत्तारं कर्मभूभृतां ।।१।। गौतमादिमुनीन्वंदे, वंदे तत्वप्ररूपणां । बंदे समाधितंत्र च, त्रयीमूलं तु नाटक ।।२।। मुरूमानंदरूपंच, देवं देवेन्द्रकीतितं । वंदे सवात्मरक्षाव्य', ज्ञान ब्रह्म करूपिरणं ।।३।। भक्त्यक्षरमयीमाला, ज्ञानतंरेगा ग्रंथिता । प्रभो ना गुशास्तोत्र, पुष्पं सौरभ्यशालिभि: ।।४।। मुनयो भ्रमरा यंत्र, यांति तृप्तिं महाशया । नत्वा जिनांघ्रि पद्म च, अर्पयामि शिवाप्तये ।।५।।
दहा
वंदो आदि अनादिकौं, जो युगादि जगदीश । कर्म दलन प्रभु जगपति, परमेश्वर चिदघीस ।।६।। बंदी केवलभाव कौं, केवल चिनमय ज्योति । जाके परसत परम सुख, ऋद्धि सिद्धि सब होति ॥७॥ केवल रूप अनूप की, हरिहर विधि रविकत । कहिये श्रुति सिद्धांत मैं, सो श्रीपति अरहत ॥८॥ शक्ति व्यक्ति धर मुक्तिकर, सदा ज्ञप्तिधर संत । वीतराग सरवज्ञ जो, सो गणपति भगवंत ।।६।।
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अध्यात्म बारहखड़ी
१५३
और न दूजो देवता. और न दूजो पंथ । शिव विरंचि जगनाथ है, जो जिनवर ग्रंथ ।।१०।। बर्दा केवल राम की, रमि जु रह्यो सब माहि । ग्रंसी ठोर न देखिये, जहा देव वह नाहि ।।१।। व्यागि रह्यो सब लोक मैं, पर अलोक हू मांहि । लोक शिखर राज प्रभू, साधु लखें निज पाहि ।।११।। सब बामें वह सबनि मै, वह है सब से भिन्न । याने सब ही भिन्न हैं, वह भिन्नोच अभिन्न ||१२|| बंधनहर हर नाम धर, यम करि नामक सिंह । वह जु हरी नरहरि धुरी, भवनासक नरसिंह ।।१३।। कल्यागातम शिब जिको. विधिकारी विधि नाम । द्वादशांग मूत्र जु रच, सहि विरंचि मु राम ।।१४।। रचे तत्व सिष्टी सवं. विरचै अतत नितं जु । बहै विरंचि न दूसरी, सही वम शिवमैं जु ।।१५।। शिव जु मुक्ति को नाम है, सिव कल्याण जु होय । शिव शंकर जिन देव है, और न दूजो कोय ।। १६|| कर्ता प्रातम भाव कौ, कर्ता शिव को सोय । हर्ता सर्व विभाव को, निवस जो शिवलोय ।।१५।। रतनत्रय को जोग है, नातं जोगी जोय । अतुल अनंते गुगनि को, भोगन हारी होय ।।१८।। जोगी भोगी हरि सही, और न जोगी जोग। पोर न भोगी भोग हैं, करि जु न जिन संजोग ।।१६।। सर्वधांम मैं रमि रह्यो, रहै जु एक ठाम । रम्य सकल मै रमण जी, रमैं अखिल मै राम ।।२०।। सर्वग व्यापक विष्णु जो, सर्वजो जिन ईश । जयकारी जिन नाम है, जो महेश जगदीश ।।२१।।
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१५४ महाकवि दौलतराम कासलीवाल - व्यक्तित्व एवं कृतित्
गणनायक गणिनाथ जौ, शक्ति मूल शक्तीश जो
शक्ति अनंत मुनिंद । शक्ति रूप जिनचंद ||२२|| वीरज शक्ति अनंत । अमित शक्ति भगवंत ।। २३ ।।
ज्ञान शक्ति द्रिग शक्ति जो सुख शक्ती युत जिन प्रभू
अंतर बाहिर तमहरन, भानुपती जिनदेव 1 वुद्धि प्रदायक कुछ जो, सुगत सहित सुखदेव || २४||
सुमति सुगति दातार जो जिन गुरु देव दयाल | नागर नित्य विसाल जो, थिर चर को प्रतिपाल ||२५||
गणपति पति जु समूह को, गणाधर पूज्य जिनिंद । नायक सबको है प्रभू, रहित जु नायक इंद ॥। २६ ।। नाम विनायक और नहि, वहे विनायक देव ।
सरसुति जाके मुख विर्ष करीहो ताकी सेव ||२७||
J
क्षेत्र जु कहिये विधी, स्वपर क्षेत्र विनु भमं । असंख्यात परदेस जो, सो निज क्षेत्र सु मर्म ||२८||
पर क्षेत्र जु पर द्रव्य है, लोकालोक प्रकास | लोक जु कहिये पुंजधर, सकल द्रव्य परकास ।।२६।। हैजुअलोक सु एकलो, जा मैं श्रवर जु नाहि । स्वपर क्षेत्र पालक प्रभू, क्षेत्रह पालक हांहि ॥ ३० ॥ क्षेत्र जु कहिये देह को, ताकी पालक जीव । जीव तर पति जिनवरा, क्षेत्रपाल पति पीव ॥३१॥ क्षेत्रज्ञो क्षेत्राधिपो, क्षेत्रपाल जिनदेव | और न दूजो देव को, एक देव द वा गुणधाम को, जो ज्ञानामृत पूर । प्रति करों सिर नायकें, करि मेरे अघ चूर ||३३|| सेऊ' देव दयाल को, कर्म हनत अतिशूर ।
प्रति भेव ॥ ३२ ॥
द्रव्य कर्म्म नोक पर भाव कम्मं हैं दूर ||३४||
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अध्यात्म बारहखड़ी .
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नाम त कौं, करै जु पातम सेव । श्रेयातम जगदेव जौं, देव देव जिन देव ।।३५।। अतुल गुणातम गुरगमई, पर गुण रहति जु देव । निरगुण कहिए जो प्रभू, गुण अनंत निज वेव ।। ३६।। करौं अराधन नाथ की, जो अनंत द्युतिरूप । प्रगरिंगत शशि सूरिज विभा, नख सम नांहि अनूप ।।३७।। गुण पर्यय स्वाभाव भो, सर्व विभाव वित्तीत । अनत कला असम जु प्रभा, जगनाथो जगजीत ।।३।। आप एक लौ सर्वधर, एकानेक स्वरूप । अनेकांत पागम प्रगट, अनुभव रसको कृप ।। ६ ।। वहिरंगा कमला तजे, अमला कमला पासि । सो कमलापति देव है, काटे जग की पासि ।।४०।। कमला नाम न बोर है, कमला निज अनुभूति । हुदै कमल राजे सदा, प्रातम सक्ति प्रभूति ।।४।। कमला निज अनुभूति है, वस जु जिनके माहि । चरण कमल तजि जाय नहि, रहै सदा प्रभु पांहि ॥४२।। नांहि प्रदेश जु भिन्न हैं, कमला प्रर प्रभूके जु । द्रव्यर परगति भेद नहि, एक रूप अधिके जु ।।४।। अल तरंग दुविधा नहीं, भानु रश्मि नहि भेद । तैसें कमला हरि विष, श्रुति गावै जुअभेद ।।४४।। वह कमलाधर जिन प्रभू, बस सदा मन मांहि । मैं मूरख अलगौ रहूँ मो सम मूरिष नाहि ।।४५।। वाही के परसाद ते, खोलू मिथ्या ग्रंथि । तब वास्यौं बिछुरू' नही, घ्याऊ व निरम्र थि ॥४६॥ रहूं सदा मै हरि कनें, तजी न हरि को संग । जिन रंगै रत्ता रहूं, जिके द्विविधा संग ।। ४७।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
नमो नमो वा देव कौं, द्रध्य भाव मन लाय । सबही ते न्यारो रही, सेऊ बाके पाय ।।४८।।
छंद नाराच
तू कर्मनाग केहरी, तुही जुहै नृ-केहरी । प्रकृत्य भाव दूरगो, तुही जु देव है हरी।। प्रभू जु केबलात्म को, सही जिनो हो हरी । गुण अनंत नायकी, तु ही गणेश है धुरी ।।४।। तुही जिनेश सांकरो, सुखकरो प्रजापती । तुही हिरण्यगर्भ को, अगर्भ को धरापती ।। महा स्वशक्ति पूरको, तुही जिनो रमापती । रमाजु नाम मां गह, शाल रूप है दी: :: ::* तुही विशेष चा विशेष, शक्ति ते अनंत है । मुचिद्विलाम ज्ञानक्ति, दृश्य शक्तिकंत है ।। अबाप्त रोम महाजु सत्व, तू जु है तमंहरो । विधिकरो दिनकरो, शिबंकरो रमावरो ॥५१॥ सुयोगिनाथ नायको, भक्हरो मृधाहो । सुधातरो उमावरो, जपं जुता हिमाधगे ।। सुनायको विनायको, सही स्त्रयोगदायको । अकाय को अमाय को, सदा सुबुद्ध नायको ।।५।। निजधरो परकरो, परंहरो यतीस्वरो । शिवोभ वोधवो सदा, शिवो सही रमाधरो ।। तु ही जिनेंददेव, और दूसरी जु भेदनां ।
सही जु शक्ति व्यक्ति रूप, पाप पुण्य छेदनां ।। ५३।। ४ - छंद संख्या ५१ मूल प्रति में नहीं है ।। x छन तो है, पर संस्या ५४ नहीं है।
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अध्यात्म बारहखड़ी
तु ही मुनीश वृद्धि दो, स्व ऋद्धि दो निरंतरी । अनंतभाव व्यक्ति दो, प्रयुद्ध है क्षमंकरो ॥ अरूप को विसुद्ध जौ । निकृप को प्रसिद्ध जौ ।। ५४ ।।
अनादि ब्रह्मरूप को, महाधि लछिमूल जो
क्षमापरो परापरो, परंपरो हितंकरो मितंकरी, दयाकरो महादेव तू नही विभु प्रभु महाप्रभू स्वभू अभू जगीसही ॥ ५५॥
दीदी
नराधिपो सुराधिपो अनादि काल के जु क
तु ही जुनहि बाल है, अनेक एक ज्ञान रूप,
वरंकरो 1
कृपाकरो ||
तुही तुही तुही सही, न तो समोन्य दूजही । जिहां तिहां लटें जु साधु, एक तोहि पूजही || तुही यती अन को, अगर्व को पवर्ग की । अव को सुसर्व को, मुनीश ध्येय सर्ग को ।। ५६ ।।
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1
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फरणाधिपो तुझं भजे ।
दासतें परे भजे ॥
न वृद्ध है युवा न है । ईश तू निधान है ॥५७॥
जिनोत्तमो जिनोत्तमो, जनोत्तमो जगोत्तमो । वरोत्तमो बुधोत्तमो नरोत्तमो निजोत्तमो ॥ परोत्तमो पुरोत्तमो धुरोत्तमो गुरोत्तमो । सुरोत्तमो सतोत्तमो सितोत्तमो हितोत्तमो २५६८ ।।
संजोग को अजोग को, सबोध को अबोध को । स्वसोध को निरोध को ||
अरोग को प्रसोग को,
अलोक को सलोक को,
अथोक को सथोक को । अनोध को प्रमोघ को, विवोध को अरोध को ॥५६॥
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महाकवि दौलत राम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
नही जु सून्य बादि को, जिनो अनादि आदि को । तुही जु स्यादवादि को, अनंतभेद है इको ।। सदा जु सप्तभंग भास को, अनंत भास को। प्रभास है प्रकास है, अनाम है विभास को ।।६।। प्रणाथि को जु प्राथिको, जिनंद लंवहाथ को। सदा जू सर्वसाथ को, बिलोकनाथ नाथ को ।। सही जू तीरथंकरो, तिथंकरो शिवंकरी । तुही सुबुद्धिदाय को, अपाय को अकिकरो ।।६।।
प्रणाथि को कहता प्रणापि जे निरगंय साधु स्यां को पति छ प्रश्वा प्रापही बहिरंगा कमलास्यौं अलिप्त सर्व परिग्रह रहित नगन दिगंबर छ अथवा प्रणाथि जे गरीब लोक त्याको प्रतिपाल छ अथवा प्रणापि जे निगोदावि यावर जीव ज्यांक इंत्री प्राणाविक की प्रापि मोडी त्यांको बमाल छ अथवा प्रणाथि जो प्रस्नोकाकास जहां जीवावि पदार्थ नही शून्य रूप प्रमंती छ । तीई को शायक मतरजामी छ ।। प्रर प्राथिको कहतां प्रास्तिका धरणी जो ऋद्धिधारी मुनि त्यो को नाथ छ अथवा साप ही अन्वत ऋद्धि सिद्धि समृद्धि को भरधौ छ । अनंत लक्ष्मी को नाथ छ अथवा प्राथि का धणी इद्र चक्रवां विक त्यांको नाम छ । अथवा सभाग्या धनवंत लोक स्योको प्रभू छ मथवा इंडियाविक की प्राथि जांफ प्रसा मेथे इद्री प्राषिक जंगम जोब त्याको रक्षक दयापाल ॐ अथवा प्राथि मो लोकाकास जहाँ जीवावि परारय पाशे तोको धनी छ लोक को स्वामो छ ।
प्रभु जु केबलीस जो, अनादिकाल ज्ञायको । सुरेश यस्य पायको, तुही जिनो अमाय को ।। सही निजक्य दायको, तुही अंनंत ज्ञायको । जु सादि औ अनादि रूप, तू जु तत्व नायको ।।६२।। पुराण है, पुनीत है, सहीं सुयोगि गम्य है । बीतीत है प्रतीत है, सही सुलोक रम्य है ।। चिदात्म है सुखात्म है, अनंतभाव स्वात्म है । • भवांत है अद्यांत है, तमांत है निजात्म है ।।३।।
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प्रध्यात्म वारहखड़ी
महा जु विष्णु व्यापको, अध्यापको अलिप्त जो। तु ही स्त्रयोग है समाधि, रूपदेव तृप्त जो ॥ निरीह को अनीहको, प्रतीह को अवीह को । निरीश्वरो अनीश्वरो, अतीश्वरो नसीह को ।।४।। तु ही जु राम नाम है, सही विराम काम को। तु ही जु सर्वधाम है, सही सु एक धाम को ।। तुही अनंत ग्राम है, सही सु एक ग्राम को। न ही जु काम क्रोध रूप, राम है प्रकाम को ॥६५॥ सुसिद्ध तू प्रसिद्ध तू, विरूद्ध की विनाश तू। सही जु अर्हदेव है; सदा स्वचक्षु भासतू' ।। सुसूरि तू प्रभूरि तू, सदाजू तू अध्यापको । सु साधु तू अबाध तू, अलोक लोक मापको ।।६६।। असाध को असाध्य तू, सही जू योग साध्य है । अराधि तू उपाधिना, तूही मुनी अवाध्य है ।। तुही जु नां अराधको, सबै तुझे अराधहीं । कभी जुनां विघातको, महा जु साधु साधहीं ॥६॥ प्रजापती सुगोपती, सदा च गोरखोयती । तुही अनंतज्ञान दो, सुदत्त है धरपती ॥ सु पौरषो अपार तू, महास्व परिषेश तू । मन्नै प्रकृत्य चूर को, अरूप को जिनेश तू ।।६८॥ अमरतो अधूरतो, असूरतो निरंतको । महा अनंत अमूरतो, सर्व विभाव अंतको ।। स्वरूपदी अरूपदो, स्वभावदो विभाश्वरो । अरंजको निरंशको, अनंतभा प्रभाश्वरो ||६६ ।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
सदासुभाब कारको, विभावता विदूरगो । महा अभाव भावको, प्रभाव भाव चूरगो ॥ महा सभाग भाग्यदो, सुशांत भाव पोषको । स्वभाव भुक्ति भोगको, सदा विमुक्त मोषको ।।७०।। अद्वैतभाव मुक्त जो, सद्वैत भाव मुक्त जो । अनेक एक बंध रूप, है अमें घुक्त जो ।। निरावृतो चसाकृतो, विशेष भेव देव जो । रमापती जिनाधिपो, शिवाधिपो अभेव जो ।।७१।। रमाधवो उमाधवो, भजे जु जाहि साधवो । शचीधवो धराधवो, जुपै जु जाहि राधवो । सदा सुवुद्धि राधिका, पती मुनीश ईश जो । सवै कुवुद्धि खडकी, महाव्रती अतीश जो ।।७२।।
इष्याक वंशतारको, सु सोमवंश तारको । महाकुरू जु वंशतार, नाथ उग्रपारको ।। सुविप्र वर्ण तारगो, मुक्षात्र वंश धारगो। सुवैश्य वंश तारणो, यो उधार कारणो ।।७३।। तुही जु शूद्र तारणो, न पुस ढोर तारणो । सुरा सुराच नारकी, जु नारि भी उधारणो । सही जु जन्म अंतिर, उधारि है विनात्रयो । जिके सु सम्यका प्रभू, तुझं जु ध्याय है जयी ॥४॥ सुनाभि जो उधार को, सुचक्रनाथ तारको । अनादि जोग धारको, सुकर्म भूमि कारको ।। अनंतसौखि सारको, जुगादि नाथ साथको । सही जु आदिनाथ है, तुही अनादि नाथको ।।५।।
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अध्यात्म बारहखड़ी
महायती अजीत जो, असंभबो च शंभयो । सदाभिनंदनो जिनो, मतीशनाथ नभवो ।। सुपद्मनाभ पद्म जो, निपद्मनाथ नाथसो । सही सुपास है प्रभु, रहै जु पामि साथ सो !७७१३ सुचंद्रनाथ चंद्रधार, चंद्रकोटि ज्योतिसो । अनंतज्योति धार जो, अनंतसूर छोति सो ॥ सुपुष्प तुल्य दंत यस्य, पुष्पदंत कंत भो । सुशीतलो श्रियंकरो, श्रियांसनाथ संतसो ।।८।। सदा जु वास वसूज वासुपूज्य देव जो । सुनिर्मलो अनंत जो, सुधर्मनाथ सेव जो ।। सही सु सांतिनाथ है, प्रशांत सर्वकारको । वही जू कथवादि जीव, रक्ष को उधार को ।।७।।
जु कुथवादि जीवनाथ, कुथनाथ देव सो । अरो अजो रजोहरो, हमैं जु देऊ सेव सो ।। सुमल्लनाथ मल्लिनाथ मोहमल्ल मार जो । अमतजीत देव जो, सुव्रतनाथ सार जो । ८०॥ मुनीश ब्रत्तदायको, जिनो मुनीसुव्रत को । नमैं सुरासुरीतरा, नमीशनां प्रवत्त को ।। नहीं च कृष्ण भाव सो, सदा जु कृष्णरूप सो। सही जु कृष्ण ध्येय है, सु नेमिनाथ भूप सो।।८।। ययुलेशनाथ जो, सु यादवो उधार वो । शिवा जु देवि तार को, समुद्रजीत पार को 11 प्रभो गीरीश नायको, सुराज संविडार को। सु बालब्रह्मचारको, सुराजलं उधार को ।।८२॥
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१६२
महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
सदा ज पासनाथ जो, रहै न जीक नाथ जो। सही जु वीरनाथ जो, महासुवीरनाथ जो ।। सदा जु बर्द्धमान जो, सही सुवर्द्धमान सो। मति करो गतिकरो, जु सन्मती अमान सो।।३।। प्रतीब वीर धौरवीर, है प्रभु सुनौर जो । बस सदा जु पाप मैं, हरै जु सर्व वीर जो ।। ज पासि है अपासि है, प्रभु जु सर्वनाथ सो। अनंत है जु एक रूप, तीर्थनाथ नाथ सो ॥४॥ इत्यादि है अनंत नाम, एक वीतराग जो । अनादि है अनंतधाम, बाहिस्यौं जु लाग जो।। महाविदेह क्षेत्र प्रादि, एकसौ जु सतरी । त्रिपंच कर्मभूमि माहि, जे विभू महत्तरी ।।५।। जिके जु अर्द्ध सिद्ध साधु, केवली निरंजना। मरणाधिपा श्रुताधिपा, जिनाधिपा अरंजना ।। सुरंजना सर्व जु लोक, भारती जिनोद्भवा । मु. जु देऊ शुद्ध तत्त्व, ईश्वरी मुखोदभवा ।।८६।।
दोहा सरस्वती स्तुति
सरवग के मुखते भई, सदा सारदा देवि । वह ईश्वरी भारतो, सुर नर मुनिजन सेवि ।।७।। अक्षर जो शरि है नही, अनिधन अवितप देव ।। सोई अक्षर बावनी, प्रकट कर अभिलेख ।।८।। तेतीसौं विजन जिके, सुर चौदा सव होय । जिह्वा मूली पुलतजो, गज कुभा कृति जाय ।।८६ ।।
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अध्यात्म बारहखड़ी
१६३
अनुस्वारो जु विसर्ग है, ए सव बावन अक । ग्रा इ ई श्री लगे, चौदा सुर जु निशंक II ।। क का आदि हकारलौं, विजन है लेतीस । अं अनुस्वारो जानियें, अः विसर्ग धर ईश ।।६१।। पुलतज कहिये उच्चसुर, वह जु त्रि मात्रा जांनि । गज कुभा वृति गुरनितें, जिह्वा मूलि प्रत्रांनि ६२।। द्वापंचाशत अक्षरा. बहुरि जिके बीजांक । संयोगी द्वित अक्षरा, सबकी प्रगट शिवांक ||६३।। सब अक्षर के आदि ही, रार्ज प्ररणव स्वरूप । ॐकार अपार प्रभु. प्रापं पाप अनूप ।।१४।। सो अक्षर नहीं और है, अक्षर रूप सु पाप । ताते ॐ पाप है, हरें सकल संताप ॥६५।। देव शास्त्र गुरु की कृपा, तात प्रानन्द पूत । भाषे अक्षर बांबनी, नमि जिन मनि जिन मून ||६६||
मागें चउवह स्वर अनुसार विसर्ग । एषोऽसाक्षर स्याम मुख्य प्रकार, प्रकार बिना ककारादि सर्व प्रक्षर खोडा छ। फ असो शब्द उचार कोजे । तब भइसौ सुर-ककार में उपरे । सर्व अक्षरां को जीवजोग प्रकार छ । तातें प्रथम ही प्रकार को व्याख्यान करै छ । सा एकाक्षरी नाममाला में प्र नाम हरिहर को कहो सो हरिहर जिन भगवान ही को नाम छ । पापां न हर । तास्यों हर सारा का तीस्यों हरियम कूजर ने भयकारी । सिंह समान तीस्यों । हरि सर्व कर्म में जोते। लिस्यों जिन सो ए नाम एक श्री जी का छ।
श्लोक
अनादिनिधनं वंदे, जिनं हरिहाभिधं । अलक्षं लक्षणोपेतं, अमरामरमीश्वरं ।।१।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
सोरठा
अकाराक्षर वर्णनअक्क कहिये श्रुति माहि,
हरिहर की इह नाम है । तो बिनु, अवर सुनाहि,
हरिहर जिनवर देव तू ॥१॥ छंद बेसरी
अणोरणीया महतो महिता,
तू अद्भुत प्रातम गुण सहिता । तू मानन तिनदेव अभीता,
भव संतान अनंत विजीता ॥२॥ प्रर्द्ध मात्र तेरै नहि शत्रू,
अर्द्ध जु नारीश्वर जग मित्रु । सेरे कंटिक अर्द्धन पइए,
तु अर्द्ध जु नारीश्वर कहिये ।।३।। *अमल चक्षु तु क्षायक दिष्टी,
अनत चक्षु टू ईश्वर सिष्टी । अमित पराक्रम धारी राया,
अतुल सुखातम रूप अकाया ।।४।। अचल प्रकाश अनंत सुलोकी,
लोकालोक विलोकक थोकी । अतुल लब्धि को तही ईशा,
तू जु अयोनी संभव धीशा ।।५।। • अनत कहतां न्यारी सर्व प्रपंच सौ न्यारी हुदै. क्षायक द्रिष्टि जिसकी ॥ पमित कहता जिस की मरजाद अनंतो छ ।।
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अनत दर्शन अन्जु ला
तेरी समता
अध्यात्म बारहखड़ी
अनत सुभोगुपभोग महाभा ।
तू ही सांमी,
तो सौ और न अंतरजामी ||६||
अजड अतिंद्रिय ज्ञान अनंता,
तू जु विकल्प प्रवाह नंतर 1
संकल्पा पर सकल विकल्पा,
तू जु अतेंद्री
मेरे मेटि जु देव प्रकल्पा ||७||
अकषाई तूं परम पुनीता,
तू जु अलेसी देव प्रतीता 1
सुख जु प्रतिंद्रिय देहु जु मोकौं,
घोकौं द्रव्य भाव करि तोकों ॥८॥
अमलातम तू विमल रूपी,
अनहारी तू तृप्त स्वरूपी । देव प्रजोगी,
तू जु प्रवेदी वेदक लोगी ॥६॥
अजरातम तू अजरण सांईं,
तू जु श्रमृत्यु प्रकाल गुसाई । शेषा,
तू जु असेष वित्तीत
तू अचलातम जन्मन भेषा ॥ १० ॥
तू जु अचिंत्यातम प्रति धामी,
चितऊ कैसें तो को स्वामी ।
अलं अलं पुरण
प्रत्यर्थी,
तेरे नांही एक अनर्था ।।११।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
तू हि अनर्थी अर्थ न एका,
तू हि ज अर्थी अर्थ अनेका । जड़ रूपी अर्थनि तें न्यारा,
चेतन अर्थ तु ही जग प्यारा ।।१२।। सकल अर्थ ए जग के झूठे,
तेरै अथियती जगरूटे । अदभुत देव तुम्हारी प्रभुता,
तुम अधियोगी भरित सुविभुता ।। तू जु ग्रनस्वर रूप जिनंदा,
तू अजर्य अजीरण इदा । तू जु अनंत दीप्ति भगवंता,
तू जु अग्नरणी श्री अरहता ।।१३।। अर्हन तू अरूजा अचल स्थिति,
तू प्रक्षोभ विदारक भवथिति । अच्युत भू पामोहु उधारी,
दीनानाथ जु विरद उजारों । असंभूषनु है नाम जु तेरा,
मेरा हू करि देव निवेरा । तू अरिणष्ट अति सूक्षम विमला,
तू अति निर्मल चिदघन अमला ।।१४॥ अनुभव नाथ अधिक तू प्यारा,
तु अशेष कलमष ते न्यारा । मोकौं दै निज अनुभव स्वामी,
निज अनुभूति निवास स्वामी ।।१५।।
१ १३वां तथा १४वां छन्द चार पंक्तियों का है ।
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अध्यात्म बारहखड़ी
प्रतिसंगी तू है जु असंगा,
यतिसंगी तू है जु अरंगा ।
रंगनाथ तू है अती रंगी,
तू अमुरतातम
लोकनाथ तू कथक त्रिभंगी ।। १६ ।।
तू अधर्मेधक प्रगति स्वरूपा,
तु अति धर्मी त्रिभुवन भूषा 1 प्रति ज्ञानी,
तू जु अनंत अति गतिमानी ।। १७ ।।
अमृतोदभव प्रमृत प्रतम, तू
तू अशोक
घनशोक
अशोक ध्वज अति जगदातम । वितीता.
शोक संताप हरी मम जीता ॥
तू अगष्य गणतो तुझ नाही,
अभिनंदन
तू श्रचित्य वैभव समांही ॥ १८ ॥ अभिनंदनक देवा.
तू जु अपरमेयातम भेवा ।
तू सु अरिजय फुनि जु अभीष्टा,
तू जु असंस्कृत सच जग द्रष्टा ।। १६ ।।
तू अप्राकृत अवधि जु वासी,
मेरी काटि देव जम पासी ।
तू जु अनाश्वा अशन वितीता,
तू जु अनत्य अत्य जीता ||२०||
तू जु अव्ययो नाश न तेरा,
व्यय प्रत्यय नाम जु मरगेरा ।
त अधिकधि गुरु जु मुनीशा,
तू न प्रघातम देव श्रीशा ।। २१ ।।
१ १८जां छन्द तीन पंक्तियों का है ।
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१६८
महाकवि दौलतराम कासलीवाल व्यक्तित्व एवं कृतित्व
अक्षय तू व अनर ग्राहक,
तू जु अगम्य अध्यातम गम्या.
तू मोत्र शुभ वाच जु स्वामी,
तू
तू
अविशेष प्रवितर्क प्रवाहक ।
मोघ जु नाम कहै सु वृथा को,
अमोघ
अमोष
श्रक्षप्तो तू परम ज् रम्या ||२२||
तू ज्
मोघन तू जु कदापि प्रकामी
तू कबहूं न वृथा वितथा कौ ।। २३ ।।
शाशन
जगनाथा,
तू अमोघ भाषक जिननाथा ।
प्रज्ञादायक है,
तू जू जिनंदा सब लायक है ||२४||
अतींद्रिक
उपमाराया,
तू अधिपति पर अधिश्रया ।
तू अचित्य चिंतक जगदीशा,
तेरी आज्ञा सबकं सीसा ||२५||
अधिदैवत तू अप्रतिघाता,
प्रतिध प्रति जगत विख्याता ।
तू अमुग्ध प्रति मुग्ध जु लोका,
तेरी सेव न जांनहि वोका ।। २६ ।।
श्रमित सुज्योति श्री भगवंता,
तू जू अमोमुह ग्रोज अनंता । श्रप्रतिष्टा,
तेरी सर्वग ख्यात प्रतिष्टा ||२७|
तू जु अधिष्टानं
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अध्यात्म बारहखड़ी
आखला
अभयंकर तू उद्यतद्योती,
अखिलातम तू अखिल प्रज्योती । तु अपरधी अनत सु सक्ती,
कैसे करिहौं तेरी भक्ति ।।२।। न जु अनिद्रासू जोगेसा,
तू जु अतंद्रा प्रतिभेसा । त् जु अनामय आमय त्यक्ता,
व्यक्त अध्यक्त सृव्यक्ता व्यक्ता ।।२६।।
अनुभवगम्य मृगम्य अनूपा.
अलभ अकथ्य अवाच्न अरूपा । अजर अछेद्य अभेछ अतीसा,
अमर अलभ्य सूलब्ध यतीशा ।।३०॥
अचर प्रचितित न जु अशब्दा,
अति भवदाह वुझावन अब्दा । तु जु अनिदित वंदित देवा,
परम अनंदी अकाल अभेवा ।।३।।
अतिदुल्लभ अतिवल्लभ स्वामी,
अतिपावन अतिभावन नामी । अति मु दयाल अनुत्तर सांई,
____ अति सु कृपाल अपात गुसाई ॥३२॥ अतिधर्मी अभिवंद्य जिनिंदा,
अतिज्ञानी अजरामर इदा । अतिमी अथकंद निकंदा,
अतिध्यानी अघचुर मनिंदा ।।३३।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्य
ग्रतिदांनी अति सुदरनाथा,
प्रत्युत्तर पर अलिगुण साथा । तू जु अलक्ष अचक्ष अवर्णा,
द जु अनल अपन मारणः ३४।। अतिगति अपरस प्रतिपति तू ही,
तू अति चक्षु अवाल प्रभू ही । तू जु अनवर अंवर स्वामी,
अक्षीत तु अति अभिरामी ।।३।। तू जु अजीत अभीत अकल्ला ,
तू जु अतीत प्रतीत अटल्ला । तू ज अमूरित मूरति जना,
तू अति सूति अदभुत वैना ।। ३६।। अति धीरज तू अतुल अचल्ला,
अमरण अमृत अवश अखिल्ला । अरज अजो अजरो च अमल्ला,
तू जु अवस्यादेय असला ॥३७।। अरस अगंध जु रूप न तेरें,
अफरस तू हि जु शब्द न प्रेरै । प्रग अभयो जु अविक्त गुसांई,
अक्रिय रूपी अमन असांई ।।३।। अभिप्राय सु जाक नहीं कोऊ,
अभिप्राय जु ज्ञायक इकः होऊ । अपर अपार अजड़ अरनाथा,
प्रकर अवक्त वि ऋतिवडहाथा ।।६।।
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अध्यात्म बारहखड़ी
१७१
तू अविकार अनंजन स्वामी,
ल अनगार प्ररंजन सामी । अति अधिकार जु एक तुही है,
गति गति ज्ञायक नायक तूहि मही है ।।४०॥ अवधिगम्य च साय हमारा,
सर्वाधिक्य सुरूप तुम्हारा । अक्षातीत अक्ष बितीतं,
अमरवीतं परमप्रतीतं ।।४।।
अक्षर त अक्षर ते न्यारा,
अक्षर भामत जगत उधारा । अति दुषहर अचहर अभिनंदी,
अति भरपुरण एन निकदी ॥४२॥ त् जु कर्तृ म देव अनादी,
अतिभव कंदन एक अवादी । अकलित अखिलित तू जु अनुत्तम, *
त अतिभार अभार जगुत्तम ॥४३।। प्रत्युत्तर तू नाथ प्रत्युत्तम,
सुखतर उत्तर तू जु जिनुतम । अभयकर अतिधरण अनंता,
अजित जिनेश्वर श्रीभगवंता ॥४४।। अतनु विदार अनंगस्वरूपा,
अतनु जु कहिये काम अरूपा । अनघ प्रचार अहित हत तू है,
प्रचर प्रचार अभंग प्रभू है ।।५।। * अनुत्तम कहता महा उत्तम सारा उत्तम जिह पाई छ ।
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१७२
महाकवि दौलतराम कासलीवाल व्यक्तित्व एवं कृतित्व
सांई, ब्रह्म स्वरूपी देव गुसांई ।
तू जु श्रनंग विवर्जित
असत वितजित शील जु तूही, दयावजित जगतप्रभूही
अनृतवर्जी
अदतन लेवा तू जु अकिंचन,
तू जु
अदितिर्जी
तु जु अहिंसाप्रेर अगरजी
अमरेश्वर
श्रहिसाराय श्रमाया, हिसावर्जिन धम्मं वताया
अतत मत सहित जु नाथा,
तू जु अलोक निवार निरंजन ॥४७॥1
पूजित जिनदेवा,
अदत निकंदा तू बहाया ||४६||
चतुर निकायक
।। ४६ ।।
F
अहमिद्रनि करि तू ज् पुजाना,
तू अमरेंद्र इंद्र भगवांनां अहिपति अधिपति सुरपति जेते,
* प्रतिहित अमहत
पति गोपनि धारहि सेवा |
पायक तेरे,
पती हरि तिमर जु मेरे || ४६ |
तव दासन के दास जु तेते ॥५०॥
* इसमें अंतिम पंक्ति नहीं है ।
अहिपति तू
भगत अतिगति प्रतिद्धति जति तू ॥५१॥
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अध्मात्म बारहखड़ी
अधिपति त हि जु ओर न कोई,
अवितथ अविगत अवहित होई । अखलित प्रचलित भाव जु तेरा,
तू जिनवर जतिवर सब केरा ।।५२।। तू अरिहंता अहं जु मिता,
तू गं अमंता श्रीधरहता। अर्हत तू जु अविद्याहारी,
अर्क अनंत समोद्यति धारी ॥५३।। तू जू अनंत सुदर्शी ईशा,
त असपर्शी एक अधीशा । अर्द्ध सु चक्री बंद्य तुही है,
तू जु त्रिखंडी नाथ सही है ॥५४।। अखिल जु चक्री बंदहि तोकौं,
चक्रपती पति दै शिब मोकौं । अखिल सु मंडलिका नृप से,
अनगारा मुनि तोहि जु लेवे ।।५५ । अणुनत धर श्रावक जे स्वामो,
तोहि जु पूजहि तू गुण ग्रामी । अबरत समकित धर थुत तू ही,
अमरासुर पूजित जगदूही ॥५६।। असुरसुरा सब तोहि जु ध्यावे,
अफ्छर गगसुर धरि गुरण गांवे । तू अभिध्येय विकासक देवा,
तू अभिधान प्रकास अछेवा ।।५।।
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१७४
महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
तू अभिधाता अतिगणपाता,
तू जु प्रमाता नाथ अधाता । अतिगुण-पूरा प्रतिसयधारी,
अतिभवदूरा निकट विहारी ।।५८|| अमराणी इक तोकौं बंद,
इक भव घरि वह कर्म निकंदे । अमरेस्वर अमरांणी दोऊ,
शची सुधर्मा तो मय होऊ ।। ५६ ।। प्रब्रह्मनिन अधिक जिदा.
ब्रह्मचर्य धर तु जू मुनिंदा । अवला निदक तू जु प्रभूजी,
अवल विलोकइ तू जु विभुजी ।। ६०।। तू जु अगृद्ध सुगृद्धि न तेरै,
अति जु अकिंचन रच न प्रेरें। परम अकिंचन प्रकट करेवा,
अदुरित रूप जु अदुरित देवा ॥६१।। अवला-तजक अलपट झांनी,
अवला अधमपुरी परवांनी । अदयावजित श्रीपति स्वामी,
अदया नर्कपुरी पदगांमी ॥६२॥ अधम पुरुष अदया कौं लागें,
___ त्यागि अहिंसा पाहि पागें । ते सठ लहाह न शिवपुर वासा,
दुरगति भोग लहैं अघदासा ॥६३।।
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अदया अदतन
परम
तू जु
तू जु अशील तरण अवहाला,
प्रबला जाकै,
अनृत अब्रह्म गद्धि न ताकै ।
अकिंचन है भगवानां,
दु जति होला
ऩ
अात्म बारहखड़ी
अन
"अवला संग न जसुधन शनां ।। ६४ ।।
अतुल बली
अभिलाष
शील स्वरूप अरूप हीला
एद न तेरै,
निरूपक
तू जु अकिंचन मूल गुसाई,
शील
तजु प्रजंघा वज्ञ सुजंघा,
अकेला
कर्म दहंता,
तू जु अचेला एक अनंता ।
एनन
तू जु अलंध्य असंधि सांई ॥ ६६ ॥
प्रेरं ।। ६५ ।।
तू जु अलंघा किनहिन लंघा । विवजित ज्ञांनी,
अंतरहित अंतरगति जांनी १६७॥
अतिभार ध
अनंत सुखी प्रतिभोग करैया ।
उपभोग प्रपूरण स्त्रांमी,
अति तिक्षाहर क्षम इक तूही,
त् जु प्रयोगी जोग अकासी ||६८ ||
तजु प्रदंत्रि दंभ न जाऊँ,
तू जु अमांना अजित प्रभूहो।
तू जु अचंती कपट न तार्क ॥ ६६ ॥
१.७५
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१७६
महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
तू जुः अमार्दव नासक एका,
तू जु अनार्जव छंड अनेका । तू जु अदूज दुजि न तेर,
अकपट अकपाट सु प्रभु तेरे ।।७।। तु जु अनृट प्रकंट गुसाई,
अनृतवजित धर्म कराई । नाहि अलीक सशाशन तेरी,
अतितिक्षा जिनहित जु घरगेरौ ।।७१।। जपं अनार्जव नाश प्रवीनां,
तोहिन पावहि मार्दव हीनां । अनिधन भाव जु तो तें लहिये,
असत अतत माया से रहिये ॥७२॥ तू जु अशीच प्रहार सु सूचा,
पूज अधातु अगात सु ऊचा । तू जु अजात न जातक काको,
तू जु प्रभूप प्रभु सुरमाकों ।।७३।। तू जु अनूप अनंद स्वरुपा,
दूरि नही तू दुरि अरूपा । तुं जु असंयमहर यमघारी,
यम हारी तू संयमहारी ।।७४।। संयम कारण तू अविकारी,
अति संयमधरनाथ अपारी । तू विभूयम भर निय स्वरूपा,
अनियमहारी तप जु प्ररूपा ॥७५।।
||७४।।
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अध्यात्म बारहखड़ी
प्रित तपकर प्रति तपश्रर स्वामी,
अति तप अनशन आदिक प्रगटी,
अति तप विनिंदक प्रति तप भाया,
अनशन रूप अभूष
जी,
भास कहै जू विभूजी ।। ७७ ।।
श्रवमोदर्य
अति तपभर श्रति तपहर नामी ।
श्रदन नहीं तेरं कबहू
अनशन
तू प्रतिरस
प्रति तप-ज्वर रोगादिक विघटा ।। ७६ ।।
नू विविक्त
अति वृतिपरिसंख्या क्षायक तू.
अति हि
प्रसंसक नू है, तप तेजस्वी तु जु प्रभू है ।
प्रति रसनायक सव नावक तू ॥७८॥
पर रसपरित्यागी,
अतिरित शय नाशन तप भागी ।
देवा
अंकाया ।
शय्यासन
तू जु अकायक लेश प्रभेवा ॥७६॥
कायकौं क्लेश देनां,
संकलेस
छह विध वाहिर
भाव
तप तू भाषे,
विधि अंतर तप हू राखे ||८०||
तू अपवित्र जु भावन राखें,
नविलेनां ।
तेरे प्रायश्चित नहि होई,
तू जु पावित्रा तम रस चाखे ।
१.७७
पाप लगै नहि तोहि जु कोई ||८१||
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१७८
महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
अभ्यंतर तपों का वर्णनतू प्रायश्चित तप दायक है,
तू जु जिनिदा मुनिनायक है । अविनय रूप जु धर्म म तेरा,
विनयप्रकासी तू जु घणेरा ।।२।। तू अबिनय सुनि कंदक ईशा,
विनयमूल जसु धर्म अघीशा । तेरो बिनय जु सबको करई,
वे नयभासक तू भवहरई ८३।। अतिथिनि की प्रादेशक तू ही,
अतिथिनि को पति एक प्रभू ही । तू जु अवैया बत्त करेवा,
अबरनि की इह तप जु कहेवा ११५४।। अतुलित संयमभर अतिरंगी,
अनघ अचंभी अकलितरंगी । अति थुति योज्ञ जु जे मुनिराया,
बहजु अपूजक तिन करि ध्याया ।।८।। अरति विहंडी रतिपति दंडी,
अवगुरण छडी अविनय खंडी । अति स्वाध्यायी जे मुनिराजा,
तिन करि ध्येय सदा जिन राजा ।।६।। अति पूरगा वह पाप जिनंदा,
अति श्रुतधारक प्रति श्रुत इद्रा । अति श्रुतपूरमा श्रुति जु उलंघा,
केवल रूपी देव प्रलंघा ||७||
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श्रव्यात्म बारहखड़ी
अति व्युतसर्ग उदेश कराई,
अतिशय ज्यांनी अतिशय ज्ञानी,
प्रतित्यागी
अध्ययनो ध्यानो इक तेरी,
अत्या किचन
आप
अपवर्गा
अति व्युतसरगी मूल गुसांई ।
सर्वसमूहा
अनुपम शुक्ल प्रपूरण ध्यांनी ॥८८॥
अकिचन
ध्यान रूप तु पति सब केरी । प्रतिभागी
देवा,
अति त्यागोत्तम आप करेबर 11८६॥
मूलविभू है,
धर्मराज तू एक
सर्वसु जायें,
इह अदभूत गति देख कु ता ||६||
प्रभू है
कहिये जो मुक्ती,
तू मुक्तीश देहु मुझ भक्ती ।
सर्वमई तू.
सर्व रिद्धिधर कर्म्मजयी जू ॥ ६१ ॥
अतिहि सपूला है जु निरंजन,
सिद्धि वृद्धि भरवह जु यक्चिन । ब्रह्मचर्य तं लभ्य जु सोई,
ब्रह्ममई मूरति जु सुहोई ॥६२॥
अतनु विदार जु आपकारा,
काम जु दाइक काम प्रहारा ।
तू जु अध्यातम सार अनादी,
१७
अध्यातम देव कई अवादी ।। ६३ ।।
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१८०
महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
अति भव चूरण अति जगनाथा,
मयराजिती अजित जितहाथा । तू जु अध्यातम मूल प्रसिद्धा,
अविरुध अनिरुध अनुभब मिद्धा ।।१४।। अखिल मुनायक देव अनाथा,
अखिल सुदायक आप असाथा । अखिल सुज्ञायक अाप प्रलेखा,
अखिल सुध्यापक आप अभेषा ।।५।। अखिल सुकारक कारक नाही,
अखिल सुधारक अखिल जु पाही । अखिल सुतारक अखिलाचारा,
असुचि विडारा अतिगति भारा ।। ६.६।। अनघ अधारा अतनु प्रहारा,
अति जगसारा भुबन उजारा । अकलक लो इक नाथ अभू है,
अवधि जु कंद अनंद प्रभू है ।।१७।। अनत अपार करम गण हरिया,
अखिलप्रकाम अतुल गुरंग भरिया। तु जु अशक्य विवर्णन सांई,
शक्ति नाहि को वर्ण कराई ।।८।। अलख निरूपक एक तुही जो,
तू जु अवाच्य अनिर्णय ही जो । तू जु अकथ्य पमपण सांई,
अलभ सुमहिमा जगत गुसांई ।।१६।।
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अखिलाकारा
प्रति
अध्यात्म बारहखड़ी
श्रगम प्रतिष्टा नाथ अपारा,
खिलाधारा,
अखिल स्वरूपा अखिल सुभारा ।
अखिल जु भूपा अखिल जुपारा ॥१००॥
सुखकारा श्रमरकर,
अनवरत जु
अखिल सुसेवित स्वामि अधारा !
नत सु ज्योतिस्वर मुनि प्यारा,
श्रनत सुरश्मी तिमिर प्रहारा ॥ १०१ ॥
अनुभव मूरति तू जु कृपाला,
निज अनुभूति स्वरूप दयाला ।
तेरी परणति गुण अनुभूती,
तेरी शक्ति जु व्यक्ति प्रसूती ॥ १०२ ॥
निरंतर तू ही, व्यापि रह्यो सरवत्र समूहो ।
अनिशं नाम तिहारी स्वामी,
जपि ते नर होहि प्रकांमी ॥ १०३॥
अविरतिनाशक वृत्ति स्वरूपा,
अविरत प्रवृत्त रहित अनूपा ।
अत त्यागि तोहि जं ध्यावें,
ते जगजीवन तो मोहि श्रावें ।। १०४ ||
असि श्राऊसा मंत्र
सु तेरा,
कर्मकलंक हरी सब मेरा ।
श्रसि ग्राऊसा जिन जन जपिया,
माया मोह महा तिन क्षपिया ॥ १०५ ॥
१८१
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१८२
महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
प्रति गति देव अगति गात देवा,
अतिपति नाथ न जानू खेवा । अतिजुग ईस अतुल जग घेवा,
अतिजित जीत न सकिह सेवा ॥१०६॥
अति जति स्वामि अलंकृत रामां,
अक्षर रूप अनक्षर नामां । अति मुनिपाल अतुल सुखधामां,
अति अघटाल अनंदित कामां ।।१०७।।
अति रति त्यागक अति गुरगनाथा,
प्रतिहित स्वामी अखिल सुख साथा। अति मतिधीश अनत बड़हाथा,
___ अकरम अकरण रूप असाथा |1१०८
अनुभव रूप अधिक सुखकारी,
अभय जु मूल परम रसधारी । अति दुखहरण सु माम तिहारा,
अतिभव दूरि करो जु हमारा |॥१०६।। अति सुखिया अति श्रीयुत राया,
अनुभव मात्र जु आगम गाया । अचल अमेखि प्रदेश जु ईशा,
वोध प्रमारग सदा जु अधीशा ।। ११०।। अदभुत गति तेरी जु गुसाई,
तू जु अजान अकारक सांई । तू जु अकर्ता कर्ता कर्मी,
तू जु अभुक्ता भोगक धर्मी ॥१११।।
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प्रध्यात्म बारहखड़ी
अधिक सुखासुख रूप विराजा,
अति प्रानंदमई भव पाजा । अतिशीली अतिभाव जगीसा,
अतिशर्मी शिवमूल अनीशा ।। ११२॥ अति धननाथ अनादि अनंता,
अच्युत अगणित श्रीभगवंता । अमित जगत दुखहरण दयाला,
अभिल इमा परमेव कृपासा ॥११३।।
अतिशय सागर अखिल जु पीवा,
अनुपद्रित अति शिवसुख दीवा । अति पापिष्ट जु जे नर स्वामी,
तोहि न पूज हितू जु विरामी ।।११४॥ अवनीपति पूजित वडभागा,
अजस निवारक देव विरागा। तू हि अनंतमती सुजिनिंदा,
तुहि अनंतगती मु मुनिदा ।।११।। अष्ट अंग समकित के तूही,
भाषै जिनवर गुण जु समूही। अष्ट अंग के धारक जे हैं,
ते सबतें ही ख्यात किये हैं ।। ११६।। अंजन और अनंतमती जो,
राव उदायन कर्म हत्ती जो। रेवती रागी जिनवर भक्ता,
फुनि जु जिनेंद्र भक्त जिन रक्ता ।।११७॥
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१८४
महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्क
बारिषेण श्री विष्णुकुमारा,
वज्र कुमार महामुनि प्यारा । ए अष्टातम अंग स्वरूपा,
तू सबको शिबदायक भूपा ।।११८।। इनमैं कैयक तदभव तारे,
कैयक जन्मांतर जु उधारे । जब तारं जब तू ही तारै,
तो बिनु औरन कर्म निवारै ।।११६ ।। अष्टाह्निका महात्म्यंअष्टम दीप नाम नंदीश्वर,
ता महि तोहि जु पूजहि सब सुर । वर्ष एक मैं तीन जु वारा,
कार्तिक फागुण सुचिव सुवारा ।।१२०।। अमल पक्ष मैं जीन अठाई,
अंतिमु बसु दिन पूज कराई । अष्ट मि सौं ले पूनिम ताई,
निति निति पूज करें अधिकाई ।।१२१।। अप्ट दिवस को बत ते भास्यो,
अप्ट गुणनि परि ब्रिटकार राख्यो । सिद्ध चक्र है नाम जु याको,
या करि पइए पति कमला को ।।१२२।।। सम्यक्त्वादि अष्ट महा जे,
गुणी प्रभू तो मांहि लहाजे । तिनको इह व्रत अठ दिन करहीं,
ते शिव गति अव सुरगति वरहीं ।।१२।।
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अध्यात्म बारहखड़ी
१८१
अष्टाह्निक तुव गुण व्रतस्वामी,
तू अष्टातम ऊरध धांमी । अष्टानिक प्रत करि जव ध्याये,
कोडीभड को कोढ़ गुमाये ।।१२४॥ अति ताकी पतिवरना वाला,
कोडीभड नरपति श्रीपाला । जलनिधि मैं कोडीभह तारे,
फेरि भबोदधि ते जु उधारे ।।१२५।। अखिल ऋद्धि भड को तुम दीनी,
इह तुम्हरी महिमा जग चीनी । अष्ट चक्रवति ही तारे,
अष्ट हली ते ही जु उघारे ॥१९६।। चौ चक्री इकदल तारंगो,
पाप समांन करी धारैगो । प्रष्ट भेद लोकांतिक देवा,
तुव जपि पावेंगे भव छेवा ॥१२७।। अठ विधि लोकांतिक को आयू,
अष्टहि सागरतं हि बतायू 1 अठ विधि ऋद्धि लहैं तुव भक्ता,
तु जु अष्ट विधि कर्म विमुक्ता ।।१२८।। अठ विधि योग प्रकाशक ईसा,
अठ विधि पूजा जोगि अधोशा । अष्ट प्रकारी पूज कर जे,
तेरी जिनवर अष्ट हरे जे । प्रष्ट हरी हमरे हरि देवा,
अष्ट गुणादे हो जु अछेवा ।।१२६॥
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१८६
महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
अवगम भूषित देव अकाया,
अष्ट' धरा को तू इक राया। अष्ट सुसम्यक दर्शन ईशा,
अष्ट जू सम्यक ज्ञान अधीशा। तेरहि विधि चारित्र जु होई,
सब को भासक तू जिन सोई । त्रयी रूप है तू जु अभेदा,
एक रूप तू सर्व सुवेदा ।।१३०।। अष्ट सिद्धि अर नव निधि द्वार,
तेरै कु भी पर जुगु दारं । तू वसु ऋद्धि मूल जग स्वामी,
तू वसुधा महि अदभुत धामी ।।१३१।। प्रविधि प्रबचन माता जे हैं,
पंच समिति अय गुप्ति गने हैं। अष्ट शुद्धि धारक मुनि भक्ता,
तु जु अष्ट विधि कर्म विमुक्ता ।।१३२।।
अष्टम गुण थानक तं श्रेणी,
उपशम क्षपक रूप सुख देनी । उपशय वारे द्वं इक भवलें,
क्षपक विहारे तद्भव शिवले ।।१३३।। अष्टम गुण नीचे नहि शुक्ला,
दह तेरौ उपदेश जु अकला। घीयो गुरण सौं सप्तम ताई,
__ धर्म ध्यान नहीं होई जु साई ।।१३४।।
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श्रध्यात्म बारहखड़ी
अष्टम सौल चउदम लौ फुनि,
पहिली शुक्ल जु ग्यारम लौं,
तेरम चोदम
शुक्ल ध्यान ही धारहि वर मुनि ।
दूजो शुक्ल सु वारम को ई ॥१३५॥
तीजी शुक्ल सयोग अवस्था,
भगवत रूपा,
परम शुक्लमय त्रिभुवन भूपा ।
अष्टम
सिद्धि दशा में ध्यान न कोई,
धारण ध्येय ध्यान निज होई । धरम शुक्ल शिव के दायक,
अष्टापद
चौथो शुक्ल प्रयोग व्यवस्था ॥१३६॥।
इह तुम्हनें उपदेश जु दीनो,
प्रारति रुद्र कुजन्म भ्रमायक ।। १३७ ।।
मोकों देहु धर्म अरु शुक्ला,
सो सम्यक्ती जीवनि चीनों ।
आरति रुद्र निवारी विकला ॥१३८॥
वरपति अंतरजामी,
अष्टम धर दाय अभिरामी ।
है तेरे थांना,
तू अष्टकपति शिव ततिरानां १३६ ।।
प्रष्टापद तें भूषित कीयो,
अष्टापद तें शिवपुर लोयो ।
अष्टापद कैलास जु गिर है,
ताकी पति तु ऋषभ सुथिर है || १४०॥
१८७
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१५८
महाकवि दौलतराम कासलीवास व्यक्तित्व एवं कृतित्व
अष्टापद व्याघ्रादिक दुष्टा,
तुझ दासनि परि ते नहि रुष्टा । अप्टापद कंचन हूँ कहिये,
कंचन त्यागि जु तोहि जु गहिये ।।१४१।। राष्टमि चश को वृत देवा.
तू ही जग मैं मगर करेवा । तू अष्टांग दंडवत योझा,
अष्टक स्वामि अहद अरोझा ।।१४२।। अठमल सम्यक के तू नास,
तु अध्यातम रूप विकास । नेकत सर्व स्वरूप तुम्हारा,
अतिमित दोष हरी जु हमारा ।।१४३।। प्रष्ट भेद है वितर देवा,
तिन मैं इद्रादिक वसु भात्रा । योतिष सुर जे पंच प्रकारा,
एउ शादिक अठ धारा ।।१४४।। भवनपती दश भेद कुमारा,
सुर्ग निवासी दोय प्रकारा । सुर्गपती अर भक्तपती जे,
तिनमैं इद्रादिक दश लीजै ।।१४५।।
पायससित लोक जु पाला,
योतिष वितर ते ए ठाला । भव नर सुर्ग मांहि दश भेदा,
तेईसौं अहमिद अभेदा ।।१४६।।
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अध्यात्म बारहखड़ी
सव देवन्ति कौ तु ही देवा,
अठ विधि तेरे एकन दी,
तू
नियमाशन प्रारपायामा,
यम
सव करि पूजित एक प्रभेवा ।
प्रठविधि अविधि विधि पीसे ।। १४७॥
प्रत्याहार सुधारण नामा 1
ध्यान समाधि जु अष्ट प्रकारा,
श्रष्टादश
तुज्जु प्रकास रहित विकारा ।। १४८ ।।
सहस अठारह शील अधीशा
मोकु शोल रूप करि ईसा ।
तू जु अनंत गुणातम ज्ञांनी,
धौलेसी किरिया परवानी ॥ १४६ ॥
जे
कोटाकोटी,
सागर भोगधरा जब लोटी ।
तब प्रगटे श्री ऋषभ जु देवा,
कर्मभूमि विधि प्रगट करेवा ।। १५०१६
दश क्षेत्र में कलप जु हौंही,
ठास दोय बीस इतनी
ठारा भोग दोय है कर्म्मा,
वसि जु कोडाकोडि स्वधर्म्मा ।। १५१ ।।
अवसर्पिणी उतसपिणी दस दस,
सागर वीस जु कोडा कोडिस । घरगे,
लोक लोकपति यो जु रहेंगे ।। १५२ ।।
काल अनंत भये
१८६
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१६०
महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
पंच भरत ऐरावत पंचा, .
इनमैं हू भू सुख दुख संचा। दश क्षेत्रनि मैं रीति न एका,
और ठौर है एक विवेका ।।१५३।। सर्व जु भेद कहै जिन तू ही,
तू अमितातम कलप समूही । अष्टादस नहि दोष जु तेरै,
ए वड दोष लगे सव केरै ।।१५४।। गुण रूपो तू परम प्रधानां,
सर्व दोषहर मोख विधानां । अष्टादश कोटी जु तुरंगा,
त्यागहि चक्री होय इकंगा ॥१५५।। तेरह रंग रागि निज रंगा,
भंग भूति तजि होहि अभंगा । सहस अठाइह राँणी जाक,
देव विद्याधर अनुचर ताकं ।।१५६।। सो रावण विषयनि मैं पागौ,
जगत भूति तजि सोहिन लागौ । तदभव मुक्त भयो नहिं ताते, .
अधमपुरी लहि पाई धातै ।। १५७।। तो महि पागि होयगौ मुक्ता,
जब ध्यागौं ह्र जु विरक्ता। अष्टाविसति मूल जु सुगुणा,
तिनके धारक मुनिवर निपुणा ॥१५८।।
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मध्मारम बारहखड़ी
१६१
सर्व मुनीश्वर तेरे दामा,
दास उधारक तू जु उदासा । अठबीसा है मोह प्रकारा,
ते सब चूरि किये ते भारा ।।१५६।।
गुण यंत्र जु मैं ते सव पीसे,
असो तू जु अधीस जगीसे । लाव अठवीसा देवल तेरै,
पूर्ज सुर्ग सुऋद्धि घणेरे ।।१६०।। अष्टविसति हैं जु अपिंडा,
प्रकती भेद जु चउदह पिंडा । चौदह के व सठि भेदा,
एवं मिलि द्वैत्रिणवं वेदा ॥१६१ ।।
नाम कर्म के ए जु विकारा,
ज्ञानावरण सुपंच प्रकारा । दर्शन प्रावरणी नव भेदा,
अतराय फुनि पंच विवेदा ॥१६२।। द्वै मोहो है अष्टावासी,
तीन मिथ्यात कषाय पचीसी । वेदनि कर्म जु दोय गनेसी,
प्राऊ चौंविधि तू जु हनेसी ॥१६३।। गोत्र कर्म है नीचर ऊचा,
दोय प्रकार जु सूच असूचा । अष्ट कर्म ए दायक भैहे.
कवहू तो महि नाथ न में हैं ॥१६४।।
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१९२
महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
अष्टनि के से पर अटताली,
ते सव भेव हरे भ्रमजाली । तू जिन कर्म हरो हर अवसा,
वशकीये ते त्रिभुवन स्ववशा ।।१६५॥ जीव समास जु हैं गुन्नीसा,
पूर्णोतर गुनिये अढ़तीसा । सवको रक्षक तू जु जिनेश्वर,
सब भेदनि ते रहित शिवेश्वर ।।१६६॥ अठतीसाँ पनि एक अधिक हूं.
कल परकल पातीत भेद द्वै । सब ऊरध लोकहि के ऊपरि,
तेरो वास जु है सवक सिरि ॥१६७।। नाहि वासना तो मै कोऊ,
वासदेन हारौ इक होऊ 1 अठतालीसौं काव्य जु तेरी,
भक्तामर की ऋद्धि घनेरी ॥१६७।। ते निवसौ मेरे घटि देवा,
मानतुग दुख दूरि करेवा । एक ऊन अडतालीसाजे,
धातिक प्रति अति मलिन महाजे ॥१६८।। ते सव नासहि तेरे भक्ता,
तू सौ अर अठताल विमुक्ता। चौवीसौं माता मरताता,
ए अठताल हो थकी ख्याता ।।१६६॥
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अध्यात्म बारहखड़ी
१९३
अट्ठावन के आधे स्वामी,
गुणतीसौं रतनश्रय नामी । ते सब भेद हेतु किरपा कारि.
फुनि अभेद रूपो करि भवहरि ।।१७०।। एक घाटि करिये जु अठांवन,
जीव समास जु हसत्तावन । जीव रक्षगा तेरौ पंथा,
तू योगीश्वर हित जु गंथा ।।१७१।। * एक अधिक अढ़सठि सौ उपरि,
ए निश्च पावै शिव भवतरि । कैयक तदभव कैयक जन्म,
पावें तुव पर हतो तन्मैं ॥१७२।। अळसाठि वर्ष जु ऊपरि एका,
गुणहत्तरी जीवी जु विवेका । एकादशमौं रुद्र ज स्वामी,
पारवती प्राणेश्वर नामी ॥१७३।।
तोहि ध्याय हासी तो सरिषा,
तू तीर्थकर पूरण पुरिषा । अढसठि के प्राधे चौतीसा,
येहैं अतिशय तो करि ईशा ॥१७४।।
* १६६ जीब-मोक्षका अधिकारी छ ...२४ तीर्थ कर, २४ पिना
२४ माता, २४ कामदेव, ६ वासुदेव, ६ प्रतिवासुदेव, १ नारद, ६ बलभद्र, ११ रुद्र, १४ कुसकर १२ चकी
[ मूल प्रति की टीका |
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૨૪
महाकवि दौलतराम कासलीवाल - व्यक्तित्व एवं कृतिस्व
अठसटि तीरथ भौतिक व्हावें,
तो विनु शिव पुर पंथ न पावें । ग्रहतरि के आधे देवा,
गुणतालीस नाहि जु जाचों,
अस्सो
ऊरध लोक सु प्रथम कहेवा ||१७५ ॥
षोडस षोडस एकक सुरगिर,
ऐसी करतो मैं हरि राव । मंदिर तेरे स्वामी, पंचमेरू में हैं अभिरामी || १७६ ।।
के अस्सी के इक्यासी जो,
अठवासी
धारहि तेरे सोध सदाथिर ।
प्रकति श्रघाती तेरम ठाणे,
तू सब भेद भाव परमारौं । असी करो मोसौं जिनराय,
पंच
के चउरासी पच्यासी जो ॥१७७ ।।
तेरी निजदासा प्रभू ह्न कै
नई नई नहि धारों काय ।।१७८ ||
आ तुव पुरि जग जल देके । आवे देवा,
चड चालीसा टारि विभेवा ||१७६ ॥
मद मूढत्व अनायत
नाजे,
संकादिक श्रर भय बिसनाजे ।
श्रतीचारा प्रभु टारे,
वीसी है दु अघसारे ॥। १८० ||
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अध्यात्म बारहखड़ी
ए समकित के शत्रु जु पापा,
मोर्त सकल निवारि सु श्रापा ।
अठ्यासी तें तीन घटं जब,
प्रकति पच्यासी निवल महासव ।। १८१॥
सठि नासि जु केवल पार्क,
पच्यासी तजि तो महि आवै ।
जीव समास अठचारणव सेती,
छूटि करिसी प्रकति सुरेती ।। १८२ ॥
है प्रठ्यांरराव जीव समासा,
जग बासिनि के भेद निरासा ।
तू ही ख्यात करें जिन स्वामी,
सवकौ पालक अंतरजांमी ।। १८३ ।।
पंच जु थावर चउदह भेदा,
तिन मैं च्यारि सु अष्ट विवेदा ।
पृथ्वी जल अर अनि जु वायू,
सूक्षम दादर अष्ट गिना ।। १८४ ।।
नित्येतर सूक्षम अर चादर,
प्रत्येक मिले पट यावर ।
अष्ट सुषट मिलि चउदश भेदा,
पूरण इतर प्रलब्ध जु वेदा ।।१८५।।
चउदह क तिगुणें जब करंही,
द्वं बीसी द्वे अधिके घरहीं । सुर है नारक गनियें,
पूरण इतर गर्ने चउ भनिये ।। १८६ ।।
PEX
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
विकलत्रय पूरण अर इतरा,
फूनि जु अलब्ध मिलें नव नितरा । मनुज तणे नव भेद सुनी अब,
षट पर तीन मिले हनव सब ।।१८७|| * कुभोग भलेछ अ खंडा,
पर्यापित प्रो इतर जु मंडा । अरिजखंड मांहि द्वै भेदा,
गर्भज सन्मूर्छन जिन वेदा ।।१८।। गर्भज होय सुदोय प्रकारा,
पूरण इतर सही निरधारा । सन्मूर्छन अलवधही होई,
षद द्वै इक मिलि तब विधि सोई ।।१६।।
पंचद्री पसु हैं चउतीसा,
तिनके भेद कहे जु जतीसा । कर्मभूमि के समनां अमनां,
गर्भज जलचर थलचर गगनां ।।.६०||
पर्यापत प्रो. इतर गनौं ए.
द्वादश सूत्र प्रमाण मृनौ ए । फुनि सन्भूर्छन समनां अमना,
जलचर थलचर नभचर गमनां ।।१६१।।
सुरण इतर अनद्य मिल जब,
दश पाठ गिर्ने जु भेद सब । भोगह भोगभूमि के समनां,
नभचर भलचर = द्वै गमनां ।।१६२।।
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अध्यात्म बारहवडी
११७
अलबध गर्भज मैं नाही,
जलचर नाहि जु भोग घरांही । वास सारा द्वै ? सव ए,
चउतीसा पसुहे है अव ए ||१६३ ।। बयालीसा नत्र चौतीसा,
पच्यासो तिरयंच गतीसा । नव मनुजा हूँ मर हूँ नारक.
इन सब भेदनि ते तु फारक ।।१६।।
अठ अधिका निवै तू भाष,
सर्व समासा तू ही राखे । पच्यासी नव चउ जव मिलहीं,
दै कम इकशत जब सब रहहीं ।।१६५॥ ए बस थावर भेद सबै ही,
भये होहिगें हैं जु अवैही । जिनवर तू सन को प्रतिपालक,
श्री भगवंत सकल दुख टालक ||१९६१
इन भेदनि लें मोहि निकास,
शुद्ध रूप कर प्रभु अविनाम । इनकी रक्षक करि हरि मौकों,
इनते रहित करहु तुझ धोकौं ।।१७।।
सोरठा
ठाग बाग च्यार ए, चउतीस जु भेद पशु । नौ विकलत्रय धार, बयालीस जु भावरा ।।१६८।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
नौ मनुजा ह्र देव, हूँ नारक ए व्याणवै । इन में तेरी सेव, करहि तिके ही श्लाध्य जी ।। १६६।। ए सव ही अति खेद, जगत निवासी अति दुस्खी । जो जन ह निरवेद, खेद रहित हू शिव लहै ।।२०।। जीव रषिक जो साध, सो पावै जगदीस कौं । करही जीव जु वाघ, वह लिई संसार मैं' ।।२०१।।
छंद सरी
अष्टोत्तर शत हैं मगि काजे,
माला के तुव गुरण गरिण काजै । तिण करि तोहि जपें जे जीवा,
ते ताकौं पावे जग पोत्रा ॥२०॥ पण तीसाक्षर षोडश अंका,
षट अर पंचाक्षर चतुरंका । द्वै पर इक अक्षर के नामा,
तेरे जाप जपें सुख धामा ॥२०३।। अष्टोत्तर शत पाप निवारे,
तोहि भले ते आप उधार । ते अष्टोत्तर अघ हैं कैसे,
जीव विष कर्दम हैं जैसे ॥२०४।। सरंभो च समारंभी जी, .
प्रारंभो है अघ खंभोजी । ए त्रय पापा मन बच काय,
__नव भेदा ह गुरु समझायें ॥२०५।।
१ इसका नाम वेक्षरी में दिया है ।
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अध्यात्म बारहखड़ी
नव कौं कृत कारित अनुमति,
च कषाय तें गुणिये ते सव
करिति गुल करें तो ठीक।
अधहारी
ए सव पापा दूरि पुलावें,
अष्टोत्तर शत ह्न अघ ए तब || २०६३।
जब गुरण मणिका कोय फिरावें ।
तू
श्रमृतधारी,
अमृत रूपो पतित उधारी ॥२०७॥
वरष
हरिसौं र ठतार जु
मेरे
केवलदे बंदो पद
ग्रष्टतरणों सौ अर अठताला,
पंत्र शरीर गर्ने ए तेही,
हमरे घातक टारि विशाला ॥२०८ ||
द्वारि जु हमरे सौ श्ररठांजन,
पंद्रह गर्ने अधिक दश एहो ।
अपन वास देहु मन भावन ॥ २०३ ॥
अढाईसँ जव बीते,
तेरे |
पारसनाथ पछें जु अतीते ।
तब प्रगटे श्री जिनवर बीरा,
बर्द्धमान अति गुणह गंभीरा ।। २१ ।।
तिन सव रीति बसी ही भाषी,
जैसी तेवीसनि
चौवीसम अंतिम जिनस्वामी,
राखी ।
सनमति नाथ जु अंतरजामी ॥२११
१६६
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२००
महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
अर्क विमान जु योजन अठसै,
मनुज लोकथी उपरि निवस | सनि माल है सर सी.
ससि सूरिज सब तोहि नमसी ॥२१२।। ससि अर अर्क जु तेरै बसि है,
तू त्रिभुवन पति सन्त्र को ममि है। तारागृह नक्षत्रादिक जे,
तेरे दास जु शकादिक जे ।।२१३।। योतिगको इंद्र जु है चंदा,
अर्क प्रतिदी अहि करंदा । सातसंकरे अर निवैगनि,
योजनतारा मंडल जो फुनि ।।२१४।। मनुज लोक थी इह जु विचारा,
नव सत योजन योतिष धारा । योतिष को मंडल दससी परि,
योजन तारागण ते ऊपरि ॥२१५।। सर्व ज्योतिसी तेरे दासा,
ज्योतिरूप तु परम उदासा । अष्टाधिक दश सत शुभलक्षण,
तेरे कहिये तू जू अलक्षगा ।।२१६।।
अष्टोत्तर शत लक्षण स्वामी,
नवसै विजन जे अभिरामी। ते सव धारहि तेरी वपु जो,
तू परमातम शिवपद पथजो 1॥२१५।।
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अयुत लक्ष कोट्यादिक गिनती
अध्यात्म बारहखड़ी
ग्रमित अनंत असंख जु एका.
अमर भारती
उदधि प्रसंख असंखि जु दीपा,
संख्या नांहि सुत्त जु प्रनेका १२१८ ||
अस्सी च अधिका लख, जौंनी,
ग्रहिता रे
तिन को दीपक तू अवमीपा ।
चारुदत्त
अगणित जीवा तें जु उधारे,
मेरी मेटि जु करन मौनी ॥ २१६ ॥
अहिकों ग्रहिपति को पद दीर्या
अगणित कम तं जु पछारे ।
ग्रहि पतनी पदमावति कौनी,
अर्गानि जरत जिह नाम सुनीयो ।। २२० ।।
दोऊनें प्रति भक्ति जु चीनी । अजहूं सुरकारे,
तोसी तू ही अमर अधारे ||२२||
दोयो तुब नांमी,
अज पायो सुरलोक सुधामी
जीवक सेठ सुनायो मंत्रा, नमोकार नामा
मरल सुन्यौं स्वाने चितधारी,
शिवतत्रा ||२२२॥
अघ रहित भयो शुभकारी ।
प्रति पापातम सार जु मेया,
तोतें सुर पद सुख बहुलेया ।। २२३ ।।
२०६
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२०२
महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
अति असपरस जु चंडालादिक,
तो तं शिव पायो धरि भव इक । अर रिण निवासी जे मुनिराया,
अवनी तज ते मुक्ति पठाया ।।२२४।।
अभयातम तू देव अभेवा,
__ अभय कुमार कियो जु अछेवा । अचिंतनाथ जु अर्चा तुम्हारी,
काचे ते गा पा समती ॥२२५।। अमरपुरी सुख भोगि बहुत जुग,
नर 8 अमरण हौंहि रहित रुग । अष्ट जिती ध्वनि तुम्हरी जिनपति,
जे घ्यावे निजि मनि तजि सब छति ।। २२६।। ते निज निश्चय पाय स्वरसरति,
पहुंचे लोक शिखर तजि जगतति । अब्जोपमक्रम देव तुम्हारे,
अलि सम सुर नर मुनिवर कारे ।।२२७।। तजि अभिमान जपं जे जग जन,
ते अवनीघर पावहि पद जिन । अनुचर होय जु सेवहि तोही,
त्यागि अहंकृत भाव विमोही ।।२२।। अनुचर तारक एक तुही है,
तू अपवर्ग जु दायक ही है। एक अनुझित भाव सु भू है,
तु जु अहंकृत रहित प्रभू है ॥२२६ ।।
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अध्यात्म वारहखड़ी
२०३
अर्जन पांडव तें जु उधारयी,
द्रपद सुता की सब दुख टारयो । धर्मपूत पर भीम उधारे,
नकुल सु सहदेवा निजकारे ।।२३०।। अनिरुध कुमर प्रद्युमन पूता,
पूत पिता ते कोने पूता । अवधिनाथ तूं अनधि स्वामी,
अनरल भूप सुधारका नामी ।।१।। अनरन रावसु रधुपति दादा,
तुव भजि मुक्त भयो तजि कादा । अतिबल खगपति महबल ताता,
तुव भजि सिद्ध भयो अति पाता ।।२३२।।
अपर प्रकंपन राव उधारा,
मेघेस्वर कौतून तास । राव अकंपन कासीराया,
श्रीसुलोचना तात कहाया ।।२३३॥ मेघेस्वर धनापुर की पत्ति,
पति सुलोचना को शिब सुखति । नाथ स अर सोम जु वंमा,
तें जु उधारे तू जु निरंशा ॥२३४।। तव परसाद भये राजा,
तब परभाव किये निज काजा। अर्कपति तू अर्क उधारा,
तू अर्केन्द्र अर्क गरग तारा ॥२३५।।
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२०४
महाकवि दौलतराम कासलीवाल व्यक्तित्व एवं कृतित्व
अकीर्ति को मुक्ति जु दीनी,
अर भरतेस थको भलकानी ।
दिक्षा लेत जु भरथ उभारधी,
अग्रज चक्री पार उतारयो ||२३६/०
अग्रेश्वर त सबकै आखें
सुर नर मुनिजन तुव पद लागे । अप्रधान नू ग्राम प्रधानां
सकल सुज्ञायक श्री भगवानां ।। २३७॥ अ कहिये जग मैं हरिहर को,
ते ध्यांचे केवल पदरकौं । हरि नारायण हर जो रुद्रा
इनकी भेद न जानहि क्षुद्रा ||२३||
हरि हर मुनिवर जिनकों घ्यावें,
जिन विनु जग जन जन्म गुमावे | अन्य नारि सम मिथ्या परपति,
जो मै धारी सठमति दुखतति ॥ २३६ ॥ ॥
सो मेसे मेटी जग नाथा.
तिज परगति को देहु जु साथा । पर पररणति तें में दुख पायौं,
आप विसारि सु जन्म मायाँ ।। २४०॥
अमित अपार जीव तें तारे,
ते मोपें किम जाहि सम्हारे । पै गुर की सुनि वांणी स्वामी,
कैयक भाषे भाष नामी || २४१ ।।
* भावार्थ- हरि कहतां वासुदेव श्रथवा हरि कहता इंद्र पर हर को रूद्र सो सारा केवल व्यवस्था में घ्यावें छं । [ मूल प्रति की टीका |
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अध्यात्म बारहखड़ी
२०५
अग्निभूति अर वायु जु भति,
सालिग्राम ग्राम में मोती । 'पहिली मुनि सौं वाद अ कीनी.
पाछै तेरो धर्म जु चीनौं ॥२४२।। ते दोऊ लें स्वर्ग पठाये,
बनके अशुभ समस्त उठाये । 'अग्निभूति तै सप्तम भव मैं,
कृष्ण पुत्र व पाये तुव मैं ॥२४॥ अग्निभूति को जीव जु मदनां,
भयो प्रद्युम्न मदन जु कदनां । वायुभूति भौ शंबु कुमारा,
दोऊ तुव भजि उतरे 'पारा ।।२४४।। प्रवर विष ह्व ते हूँ भैया,
कोसांवी नगरी जु वसया । जेठी बन मै अनि जु भूती,
बहुरौ सहमति वायु जु भूति ।।१५।। 'पले तोकौं तन मति ध्यायो,
जिन मारग को गुण ब्रहु गायो । तात तेरै शिवपुर प्रायौ.
सुमित्र गुर को मन भार्या ।।२४६।३ दूज तोकौं ध्यायो नाही,
भयो गुरद्रोही जग माही । कोड़ी है मूवो सो पापी,
भयो गदही अति संतापी ॥२४७९
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२०६
महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व ,
सूरी व फुनि कुकरी हवो,
महादुखी हूं वह जन भूवो । भयो अंध चिडाली देहा,
जिन तुमसौं कोनों नहि नेहा ।।२४८।। ह्र चिडाली तुब गुन भायो,
अगनिभूति की सवद सुहायौ । नागश्री नामा द्विज पुत्री,
भई धर्म रुचि अति हि पवित्री ।।२४६ ।। सुरमित्र के सुनि जिन वैना,
तुम ध्याये त्रिभुवन पति जैना। तुम परसाद षोडशम सुर्गा,
तिन पायो प्रभु बहु सुग्व दुर्गा ।।२५०।। फुनि सुकुमारी सेठ ह्व स्वामी,
तुमकौं ध्याय भयो बहु नामी । अति उपसर्ग जीति वह ध्यांनी,
गयो जु सरवारथसिद्धि ज्ञानी ।।२५१।। इक भव धरि वह तो मैं मिलि हैं,
तेरो दास न जग मैं रुलि है। तेरे दास अनंतह उधरे,
तोकौं पाय बहुत जन उबरे ||२५२।। अमरपती है लेरौ दासा,
__ इक भव धरि पाने शिव वासा। वसु विधि लोकांतिक सुर ऋषि जे,
इक भव धरि पानै ऋषि गति जे ॥२५३।।
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अध्यात्म बारहखड़ी
अहमिद्रनि तही धारेगौ,
नव पचानुत्तर तारंगी । अमराणी जु शची है देवा,
भव अंतरि पाच' भव छेवा ।।२५४ । दाहिण याका लोक जु पाला,
तुव अपि पाव पद जु विशाला। प्रसन पान खादिमनहि तेरै,
क्षुधा त्रिषा नहि तोहि जु धेरै ।।२५५ ।। अस्त्रादिक अर भूषन कोई,
वस्त्रादिक तेरे नहि होई । अदन भक्ष को नाम जु कहियें,
तेरै असन वसन नहि चहिये ॥२५६ ।। अहमेवादिक तो मैं नाही,
तू जु अहंकृत रहित महाही । अहंकार अरमान न तेरे,
दूरि करौ लागे प्रभु मेरै ॥२५७।।
दोहा
अहंकार मय इह जगत, याको त्याग सुमोष । इह तुम्हरौ उपदेश है, उत्तम गुणगण कोष ।।२५.८॥ त्यागि अहंकृति जिन तुझे, भ्यायो दीन दयाल । तिनि पायो तू गुणमई, निगुण परम कृपाल ॥२५६ ।। कुमर अशोक : रोहणी, तेरे भक्त अनन्य। ते अशोक धरत किय, अति सुखिया अति धन्य ।।२६०।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्वा
अरजन पुत जू, अधमनां, नाव अभिमनां जास । सो तेरे परसाद तो पायो अमर विलास ।।२६१।। अकलंक को निकलंक द्वे, भाई जिनमत दास । तिनकी तुम राखी कला, कियो वोधमत नाम ।।२६२।। कुमर अभैरुचि अभमती, भाई बहन सुजांन । ते तुम कीनं प्रापुन, धरे पंथ निरवान ।।२६३।। अद्भुत लोसी को नहीं, जग दातार जगेस । मोहू दीजै मोस्त्र मग, मुनि विनती सुजिनेस ।।२६४।। तू अनादि अनिधन प्रभु, तू अविक्त अतिविक्त । अहमिद्रनि कर अच्यं तू, तू अतिंद्र जग तिक्त ।।२६५।।* तू अमर्त दर्शी प्रभू, अर अगाध भववार । अतिगाहन तू गहन हर, मोहू पार उतार ।।२६६॥ तु अलक्ष लखिया विभू, तू अगम्य गम को जु । जे अगम्य गम काज ना, अत्र होलक तिन की जु ।।२६७।। जे अभक्ष भक्षक जना, निनको निदाकार । जे प्रतत्व रोचक नरा, तिनको नाहि उधार ॥२६८।। अहो अहिस्य स्वरूप जी, परम अहिसा कार । सदा अहिंसक देव जौ, कर सकल उपगार ।।२६६।। अहो रात्रि मुनिबर जपें, जाौं ते निज रूप । पावै अल्प काल में, वह मुनि पति जग भूप ।।२७०।। अह्नि विष भोजन करें, पिवहि नरजनी नीर । अहिन विष मैथुन तजं, तुव मत रल गृहि धीर ।।२७१।।
* प्रति में २६६ संख्या नहीं है, पर हमने कमशः संन्या दी है। इसी कारण
आगे ३०० की संख्या में एक छंद कम रह गया है ।
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अध्यात्म बारहखड़ी
२०१
अह्नि दिवस को नाम है, तु ही जिनवर अह्नि। कर्म काठ जाल न परो, जो इक दीसे वह्नि ॥२०२॥
छंद वैसरी
५ तत्व अनेहा अविहित स्वामी,
अचल अखंडित अलित धामी। अगणित द्रव्य अरूपी जोई,
___अचर अमूरति अमर जु होई ।।२७।। अतुल प्रदेशी एक प्रदेशी,
प्रचुरातम जड़ रूप अलेशी । अणु भरिताखिल लोक निवासी,
काल द्रव्य जो अकल अभासी ।२७४।। समवरती जो है जु असंखा,
वर्तन लक्षन अलख अकंखा । द्रव्य सुगुरण पर्याय समूहा,
वह जु अनामी सर्व जु दहा ।।२७५।। काल चक्र परणति है ताकी,
पर्यय रूप कदापि न थाको । तामैं ही भरमत हौं नाथा,
दीनानाथ गहीं मुझ हाथा ।।२७६।। - . .. .. .. -.- .-- ... -. - ... . . . १ अनेहा कहता काल [मूल प्रति की टीका) २ व्यवहार परगति काल की समय घड़ी प्रहर दिन रात्रि इत्यादि
छ अर निश्च परणति षटगुणी हानि वृद्धि छ [मुल प्रति की टीका)
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२१.
महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
कालचक्र ते मोहि उबारे,
अपनी वासदेहु गुण भारे । तो विनु काल न किहिन जीते,
कालनाथ तु काल अतीते ॥२७७।। १ अणु खंधा नहि तो मैं कोऊ,
चेतन तू जु अमूरति होऊ ॥२७८।। अणु द्रव्यं खंधा पर्याया,
फरसादिक गुण वीस बताया । ते गुराग मो तै टारि जु स्वामी,
निज गुरग दें व्यारचौं अभिरामी ॥२७६।। केवलदर्शन केवलज्ञाना,
केवलवीरज साँस्य प्रधाना । २ इनहि आदि द अमित जुदै हो.
अपनों करि अपुन पुर लैहो ।।२८०।। सणु कालागु अर पुगलाणु',
दुहु को ज्ञायक तू जु प्रमाणु । मिलन शक्ति नै रहित जु एका,
दूजी मिलत जु शक्ति अनेका ।।२८१।। अमर हि शिव तोते हो,
अमरासुर नर तुव मुख जोवे । देव सकल कहिवे के अमरा,
अमर सही तू कवहू न मरा ॥२८२।। १ इस छन्द की संख्या का चरण १ पंक्ति का ही है । २ प्रनि में पुन: संख्या १ मे शुरू की गई है; पर हमने इन छन्दों
की सख्या लगातार क्रमाः ही रखी है, जबकि कई स्थलों पर संस्या में ऐसा अवरोध पाया है गया । लगता है प्रतिलिपकार ने पुनः हमको सुधारा नहीं है।
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अध्यात्म बारहखड़ी
अनत सु अधिकाधिक्य तुही जो,
अनत सुदिन करते जसही जो। अमत निशाकर जीत नियंता,
अनत होकर रम्मि जयंता ।।
।
अतत विजित ईश अकेला,
असुधि विजित धीश अचेला । वस्तु अशुद्ध न तों मैं पड़ए,
केवल शुद्ध रूप नू गइए ॥२८४!
नाहि अनातम भाव जु तोमैं,
हरह अनरतम भाव जु मो में । तो बिनु आतम भाव न लहिये,
तजे अनातम तोहि जु गहिये ॥२५५।।
अस्ति करंता अस्ति धरता,
तु अस्तित्व स्वरूप अनंता । तू अनाप्त भावनि ते न्यारा,
तोहि अनाप्त न पांबहि प्यारा २८६।।
अस्ति जु काय पंच हैं स्वामी,
तिनको भासक तू जु अनामी ।। अस्ति निरूपा अस्ति अधारा,
अस्तिर नास्ति स्वरूप अपारा । २८७।।
अस्ति नास्तिको प्रगट जु ईशा,
अस्ति नास्ति धर है जगदीशा । अमित प्रदेशी गुण जु अनंता,
गुरण पर्याय स्वभाव धरता ॥२८८।।
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२१५
महाकवि दौलतराम कासलीवाल - व्यक्तित्व एवं व्यक्तित्व
अखिल प्रदेशी सिद्धि स्वरूपा,
अतिसय थूल असाध्य अनूपा ।
तु ग्रप्राकृत देह जु स्वांमी,
तु जु अवाध्य अराध्य अरांमी ||२८||
तु जु अभक्त सुभक्त न काकी,
तू सुं प्रभु तारक भगता को
तू जु अनाकृति प्रकृति रहिता,
अचन्नातम
अकृत अकृति बोध जुसहिता ||२०||
तू जु अरुधा
अचर अचंपा,
बोथ भवकी तू जुषा ।
"
अखिलातम अकुलातम स्वामी,
अकलातम अमलातम नांमी ।। २६१ ।।
अजडातम
अमितातम
भूपा,
अमितीस अनूपा ।
प्रगती गती दायक तू ईशा,
असित भाव वर्जित जगदीसा || २६२॥
संता पावे
अन्न औषधी शास्त्र जु श्रभया,
ए चउदांन कहै तु विभया । अन्न पान निरदूषण लेक, तोहि जु
ध्यांवें निज मन देकं ।। २६३ ।। तत तेरा,
तू निरदूषण भूषण मेरा
अन्न बीए पर जलहि जुछारणा,
इह् तेरी मत है जु प्रवाणां ।। २६४ ||
१
क म
१ अकपट से १ [ मूल टीका ]
२ प्रगति गति मोक्ष को नाम के जहां सौ फेरि गति नहीं ।
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२१३
अध्माम बारहखही अन्न जला विनु और जिकेही,
__ जिह्वा स्वाद जु होइ तिकेही। ते नही स्वार्दै तेरे भक्ता,
अन्न वारि ले तो महि रक्ता ।।२६५।। 'अणु भोजन ले तोहि जु ध्यावे,
सर्व स्वाद जै दूरि वहांनै । ते निज स्वाद लहैं निज भक्ता,
जिन रस चाखि जु विषय विरता ।।२६६।।
छंद पाधरी
अरिविंद चक्षु परिविंद पाय,
अरिविंद हस्त अति गंध काय 1 'अरिविंद वदन जगजीत देव,
मधुकर मुनि सुर नर असुर भेव 1२६७॥ अतिनंदानंद अनंद देव,
अति अकथ अपूरब असम टेव । अतिनाथ जु देव अनंत नाम,
__ अतिसाथ जु एक अनंत धांम ।।२६८ ।। अतिहाथ अछेव अवेव वेद,
अरगुमति अमती किम योज्ञ सेव । अतिहित जु अनंत अनंत ज्ञान,
___अतिमित जु अनंतानंत मान ||२६६॥x ०० पन्ना पूर्ण होने में हमारे क्रम में १ संख्या कम पड़ती है। वह पद्य संख्या मूल प्रति में २६६ सं. वाली नहीं है । इस प्रकार हमने अपने क्रम में प्रवरोध नहीं किया है ।
x
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२१४
महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तिन्त्र एवं कृतित्व अति अतुल अनंतानंत रूप,
अति अमल अलिप्त जु लोक भूप । मति श्रुति अवधी अर तुरिय ज्ञान,
धारी मुनि नहि सकहि मान ।।३००।। अनुमति की कौंन जु वात देव,
इक नाम अधार जु देव देव । इह विनति जु धारहु दीनबंधु,
लेहो निज पुरि अर हरहु बंध ।। ३०१।।
छंद भुजंग प्रयात अनंतद्धि सिद्धि तुही देव देवा,
अचिद्धि वृद्धि तुही नंत भेवा । अमेद्धि पूरं असंख्येय स्वामी,
अनंदित्व भाव तुही सर्वजांमी ।।३०२।। सर्वस्य अग्नो तुही अग्रनाथा,
तुही अग्रिमो अग्रजाता असाथा । तुही अग्र अग्नेश्वरो ईशराया,
तुही पर्म तत्वं अरूपी अकाया ।।३० ३॥ अलेषो अभेषो अलेशो अशेशो,
अहेयो अमेयो अदेही अदेसी । अर्डको अटको अनंको अबको,
___ असको अरंको अकंपो अपंको ।।३०४।। अगाधो अवाधो अनंगो अमंगो,
अनामो अकामो अरंगो असंगो। अपापो अपुन्यो अनेको अछेपो,
अनाथो अजोगो अभोगो अलेपो ।।३०५।।
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अध्यात्म बारहखड़ी
२१५ अरोगो असोगो अगंधो अवंधो,
प्रमोधो ग्रचित्यो प्रकोपो अनंद्यो। अदीनो ' अनीनो अछीनो अहीनो,
अरीसो अनीशो अलीनो निलीनो १३०६।। अलिगो अदंभो प्रमोहो प्रदोही,
अधीशो अतीशो अछोहो अकोहो । अखंडो प्रडंडो अफंदो अछंदो,
अरूढो अमूडो अनंदो अमंदो ॥३०७।। अनादी अनंतो अबेदो अभेदो,
अबादी शसंतो अरामो अखेदो । ग्रदोषो असोषो विमोषो अकोषो,
सानोषो न सोषो प्रदोलो गोलो !!३०८।।
सोरठा तु जु अफरसो देव, अरसो अरजो विरज तू 1 तू जु अदद अछेव, अतिलीनी अतिधर्म तू ।।३०६ ।।
छप्पय छंद अतिरामो अभिराम तू जु अतिदान अनंता । अतिधामो अतिशुद्ध तु जु अतिबुद्ध प्रसंता ।। अतिशतो अतिनाम तू जु अतिगुढ सुरूवा। अतिरूढो अवदात वू जु अतिरंग अगूढ़ा ।। अत्युदार अनगार तू अत्युधार जगदेव है ।
अत्युदात अतिचंग तू जु अनंत अछेव है ।।३१०।। १ अनीनो कहतां जिको कोइ धनी नहीं, आप ही धनी छ ।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व अतितातो अतित्रात तु जु अतिवीर प्रवीरा । प्रतिपातो अतिसार तु जु अतिचार अनीरा ॥ अतिधीरो अतिमिन तू जु अतिस्वामि अनादी । प्रतिरूपो अतिभूप तू जु अतिपुत प्रवादी ।। अधिकारी अतिरम्य तु अति सु पुन्य अवधूत है। अभिचारो अतिशूर तू अति चूर जु अतिभूत है ।। २११।। अतिपति तू अति ऊच तू जु अतिसौच अनंदा। अतिपूरा प्रतिबुद्धि तू जु अतिदूर अफंदा ।। तू अमरामर देव ज्योति मय तेरो रूपा । सर्वज्योति जितदेव तू जु अतिछति जिनभूपा॥ दो सौ तू ही देव है और न देव कदापि को। तू पूरण परमात्मा भगवानो जु उदापि को ।।३१२।५ तू जु अहिंसा शक्त त्यक्त अदया सन्न तूही । तु अनत परिहार करण सब गुण जु समही ।। सब परि तू जु दयाल नाहि कर मनि परि जैनां । अमृत तुल्य महान नाथ तुव अदभुत वैनां ।। अदत प्रत्यक्त जु तू सही अग्रह्म तिक्त सुग्रह्म तू । अबध अबाध अकिंचनो परमेश्वर पर ब्रह्म त ।। ३१३।। अपरद्रव्य को त्याग वस्तु ते तेरे स्वामी । अनृतमाया जाल तासु को लेशन कामी ।। अमला कमला पासि पासि रूपा नहि कमला । बहिरंगा ने दूर तू जु अंतर लछि विमला ।। त श्री व्यक्त अभीत है, अलभ प्रभाव अगृद्धि तू । अबध निरूपो गुण मई, ऋद्धि वृद्धि धर सिद्धि तू ।।३१४।। तू जु अरोर प्ररोग तू जु श्रीयुक्त अनंता । तू श्रीवान जिनेस रहित अबला अरहता ।।
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अध्यात्म बारहाडी
अनुभूती जो लछि पोर को लछि जु नाही । तू अनुभूति स्वरूप वह जु तोही के माही । व्रतरूपो समधार तू अक्रिय भाव वितीत है। क्रिया रहित तू प्रक्रियी कूटस्था जगजीत है ॥३१५।। तू अघ छेदक देव तू जु है अतत विहंडी। असत विहंडक तू जु पूज अभिनंद प्रखंडी।। अति ब्रह्मश्वर ईश धोश तू है जु अरूपी । परगट रूप दयाल एक तु ही जु अनूपी ।। अति यतिभूपो अतिशयी अतिशय रूप अनूप है। अतिगति रूपो अतिधृती अतिचंद्र जु अतिभूप है ।। ३१६१ अरति बितीते तू जु पूज - अनय वितीता। तू जू अपुण्य बितोत पुण्य पापनि ते बीता ।। रहित अनीति मुनीति तत्वनि नीत जु तूही। तु अपराध वितीत जीत नू कर्म समूही ।। सदा जु अरीति अनीति ते अधरम ते न्यारौ तु ही। तु जु अनाशामय जिती अमविजीत कहै सही । ३१७ ।। प्रमति कुमति नहि संगि, संगि तेरं निज बोधा। अगति उधारक देव तु जु निजरत अति सोधा ।। अतिक्रम वितिक्रम मांहि नाहि तेरै अति चाग । अरगाचार को लेश नांहि तेरै जु लगारा ।। तू अति चारु मनोज्ञ है अनुचरगण तेरे नहीं। अनुक्रम क्रम नदि पाइए, नांहि अनारज तो मही ।। ३१८।। अशुभ वित्तीतसु तू जु पूज तु असुधि विजोता । मोहतगी जु अनीक एक तं ही सब जीता ।। तेरे नांहि अनीकनंत गुण ते जु अनीका । नीका ते जु दयाल नांहि को तिन समनीका ।।
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३१५
महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व कहैं अनीक जु फोज को नीक अनीक जु गरानिकी। तू अनीकधर गुगामईशा पूरहि भुमिनि को ।।३६६। सुप्त अनीक जु धार इद्र है लेरो दासा । पट् सेमाघर चऋिदास को होय जु दासा ।। अवर सकल नृप च्यारि धारंही सेना स्वामी । तु सवको पति ईश एक बद्ध भूप अनामी ।। तो समसेना तो कने, अवर छोर दीव नहीं । तू अनीकपति एकाली अमित अनीक जु तोमहीं ।।३२०।। तू जु अलीक न होय तोहि नहि लहहि अलीका । अन्नत त्यक्त दयाल तू जु है नाथ सुनीका ।। अतिशयवंत अनंत तू जु जिन अति मुनिनाथा। अनुचित वीत अभीत एक तू अमित जु साथा ।। अतिरित भूपो अतिप्रती अतिविरतो अवनीप तू । अकरम देव अतिहितू एक एव जगदीप तु ।।३२१।।
अतिसय सागरनाथ सकल अन्याय अतीता । तू जु अमंनि अमंत्र मंत्रमय तू जु अजीता ।। नाहि अमात्य जू कोह होय तेरै दरवारा। दुर्गकोट को नांहि अाप दीर्ष इक भारा ।। तो सौ रावल तू सही अजड अकर चिनमय प्रभू । एक रावलौ रावरौ और नाहि रावलक भू ॥३२२।।
अभिजित जतिपति तू जु पूज अति नगन स्वरूपा। अतिशम्मतिम देव तू जु अतिशय बडभूपा ॥ अतिशय तंत्र जु एक अवर नहि तो विनु अतिशय । तू प्रतिभूति विशालनाथ तूं रहित सकल भय ।।
१ अमात्य कहता परधान । मूल प्रति की टोका ।
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१
२
३
४
अध्यात्म बारहखड़ी
विहित मिथ्यामत सबै विहित शिवागम सार तू । जिन आगम भासक विभो अस्ति नास्ति नयधार तू ।।३२३||
तू प्रतिभूमि क्षमा जु क्षांतिधर एक तुही जो । तू अप तुल्य' दयाल पापमल नाशक हो जो ॥ तपति हरण अति श्रमल जीव सम तू जग जीवन । अनलः समो भगवान दहन कर कर्म महावन ॥
सिमो विनु संग तु महावली हुत भुज सखा । वात वलय आधार जो लोक सुकल दायक सुखा ॥ ३२४ ॥
तु अभतुल्य * अलिप्त तू जु श्रभमांन अमांनो | नभ है तेरे मांहि तू जु नभ मांहि वषांनो || अनुपम मांनो तू जु पूज तु अचलपती जित | अकल समानो नाथ अकुल सम तू जु जगत हित ।। नोकिसी सौ पूज तू अखिल सरीस हे प्रभू । ज्ञेयाकार श्रनंन जो ज्ञान भाव तेरे विभू || ३२५।।
अर्को प्रतिभास मोह तिमर जुको हता। ममता रजनी मेटि बोध दिवस सु प्रगटता ॥ भव्य कमल प्रतिफुल्ल करण जो पथ चलावं । वि विनोद मिटाय नादि सुते जु जगावे ॥ जीव जु चकवो मति प्रिया विषम विरविनको हरे | भवि उलूकानहि लखें. अर्क अमित द्यति तू धरै ।।३२६ ।।
1
प्रति जु अनंत प्रताप ताप नहि तेरे सबड़ी । मिथ्या भवजु राहु तोहि बेठे नहि कबही ॥
१६
जल तुल्य निर्मल शीतल छं
अनल श्रमनि कौ नांम छ ।
अनिल पोन को नम है ।
ग्रभ कहता आकाश |
१ अप कहजे जीव ऋहजे जल का नांम चं | मूल प्रति की टोका]
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"
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२२०
महाकवि दौलतराम कासलीवाल - व्यक्तित्व एवं कृतित्व वाकी नांव जु भित्र तू जु है साचौ मिश्रा । ग्र नहीं तो तुल्य तू जु अति रश्मि विचित्रा || अह्नि करा अवगम मई, ग्रहो ग्रहोकर अरुण तु । ग्रज भाव कर देव है. सेत न स्यांम न अरुण तू ३१३२७ ||
सुप्रनि को नाम तू जु" असुभृत् गरणनाथा । अतुल प्रमाण जु ईश, असम सम तू जु अनाथा ॥ परिणत चदर सूर नांहि नख ति सम तेरे |
मानो अभिमान तजु हरि साहिब मेरे ॥ प्रवधिन प्रबिधिन तो विष, प्रतिविधि मूल जु तू जिना । अतिगति ध्यान निदान तू अतुलित शमकर तु दिना १३२८ ।।
सोरठा
प्रति अतिगति तु देव, गति गति को ज्ञायक प्रभु ।
सुखदायक है सेव, अन्य न चाहें अनंत प्रभू ।। ३२६ ।।
छप्पय
जो जु अविद्या कंद तासु को है जु निकंदा | अनुपम काय सु तू ज् पूजि तू अखिल अनंदा ॥ प्रति सुगम कहै तू जु देव तु प्रभव विहारी । प्रभव भषक जे जीव तोहि पांवें न उधारी ॥ अगम गमक जे पापिया तोहि न पायें नाथ जी । अगम गमक फुनि जोगिया तजहि न तेरी साथ जी ||३३०||
१ अभूत कहता प्राणी जीव त्यांका गरण समूह त्यांकी नाथ है ।
[मूल प्रति की टीका ]
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अध्यात्म वारहखड़ी
तू अबिज्ञेय प्रछेय नाहि परमादसु तो मैं । तू अप्रमत्त जिनिंद नित्य निवस प्रभु मोमैं 11 मैं परमादी मूड नाहि लखीयो पद तेरौ । अविषय अतिशय रूप तू जु रि तिमिर जु मेरौ ।। जा करि तोहि लखों प्रभू, वहै दृष्टि द साक्ष्यां। नाम अपार जू जासु के सो तू जगत गुसाइयां ।। ३३१।। अतिठामो अतिग्राम तू जु अतिधाम अनामा । अतिहित मंत सू संत नांहि तेरै धन धामा ।। अस्वादिक तुरग सेन तजि सोहि पाने । ध्यावे तन मन लाय होंहि प्रभु पति विटपाजे ।। अष्टम घर लहि सामती सिद्ध भाव पांवहि तिके । सर्व त्याग तोहि ज भजै, है तो सम जिन बन जिके ॥३३२॥
तू जू अगोचर नाथ एक गोचर केवल में । न जु अनालस भाव नित्य निवस देवल मैं ।। अलंकार नहि कोय होय तेरं न अभूषन । भूख न प्यास न कोय नांहि को वसन न दूषन ।। तू देवल मैं सिद्धलोक मैं है सही । घटि घटि अंतर सांइयां वसै अनाशक्तो तुही ।।३३३।।
. सोरठा
प्रज्ञानवदिक भाव नाहि जुतु तो मैं पाइए । ज्ञानमूल जगराव, तू अनंत भाव जु धरै ।।३३४।। तू जु प्रदर्शन नाहि, सदा सुदर्शन है प्रभू । दरशन' तेरै माहि, केवल एक अनंत धी ।। ३३५।।
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२२२
महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
छंद वेसरी
अति तू भूषा अति निरदूषन,
__ अतिहि तृप्त प्रभु प्यास म भूषन । अति नीरै प्रभु मानहु दूरन,
अति जड चूरन अति सुख पूरन ।।३३६।। + अति जग पारग प्रति शिव मारग,
अति सु उधारक घर जिन मारग* ॥१३३७।। अति भू मोचक अतिगुण रोचक,
अति दुखरोधक अतनु असोचक । अति भू दायक, अतिगुणः लायक,
अतिमुनि नाधक अतिरस भायक ।। ३३८।। प्रतिक्षम क्षमकर अतियम यमघर,
अतिशम दमकर अतिजप तपवर । अति भू क्षमपर अति यतनाकर,
अति र उपरमकर प्रति समताधर ।।३३६।। अति भू पोषक अतनु बिसोषक,
प्रतिजन मोषक अतिहित घोषक । अवगुण दारक समकित कारक,
अतनु प्रभारक अमन प्रचारक ॥३४०।। अतिनर अतिभर प्रतिकर, .
अतिवर अतिपर प्रतिचर अतितर । अतिचिर अतिथिर अतिगिर, अतिगुर,
अतिधर अतिहर अतिरि जिनवर ।।३४१।। + शिव मारग कहता-मोक्ष मारग, कल्याण मारग, [मुल प्रति की टीका * यह पद्य दो पक्तियों का है। X उपरम कहता वैराग्य । ।
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अध्यात्म बारहखड़ी
अतिसुख सागर प्रतिमुर आगर,
अतिनर नागर प्रतिजन जागर |
प्रति सु उजागर प्रभुरतनाकर,
सुर नर चाकर तू जिन ठाकुर || ३४२||
अतिभव ज्ञायक अनुभव दायक,
प्रतियुग चायक प्रतिसुर पायक
अतिभव नाशक अभय प्रकाशक,
अतिगति भासक प्रभव विकासक ।। ३४३ ॥
प्रतिश्रुनि कारक प्रतिमुनि तारक,
प्रतिमुनि धारक प्रतिमुनि पारक । प्रति ग्रायकर अति बावकधर,
अति समकित घर समकित धरकर ।। ३४४ ।।
अतिभव भयहर प्रतिशिव सुखकर,
प्रति परमेश्वर अति भूतेसुर । प्रति सुग हर गति अति जु त्रिजगपति,
२२३
प्रतिछति भतिजति अतिमिति प्रतिगति ।। ३४५
सोरठा
तू अनुकूल सदैव प्रतिकूल नहि स्वापि । दुजे ङ्ख तोस देव, अनुकूला ते भव तिरें ।। ३४६ ।। अवग्रह ईहा आदि भेद जिंके मतिज्ञान के । सुभाषैजु अनादि, तीन सतक भर तीस छह || ३४७ || अमन प्रतिद्धी तू जु. इंद्री और अनिद्रिया 1 तो महि नाही पूज, नाम अनिद्री मन तरणीं ॥ ३४८ ॥ १
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२२४
महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
अजर अजन्मा देव, न जु अकर्मा राजई। दै भव भव निज सेव, तू सु अभा है प्रभु ।।३४६Py छु ल प्रकर्मा देद कर्म हौर तेरै नहीं । तू सव मर्म सुबेव, तु जु अचओ चर्म विनु ।। ३५०।। तू जु अश्रम्मा नाथ, श्रम खेद जु तो मैं नहीं । भ्रमहर सुख तुत्र साथ, तू जु अवर्मा वर्म बिनु । १३५११ वर्म जु बगलर नाम, मम विना वगतर किस । तेरे प्रावै काम, तु जु स्वशर्मा राम है ।।३५२।। सबको रक्षक नाथ, तातें सवको बम तू । मरमी तु बड़हाथ, मर्म न छेदै कोय को ।। ३५३।।
-...--
सवैया तेईसा तू जु अमातृ अपितृक देव सदा जु अपुत्रक है जु अलौकिक । तू जु प्रबंधु अबंधननाथ प्रवाधक एक महाजू अत्रौकिक ।। तू जु असाधक साध्य स्वरूप प्रदंभिक ईश जिनेश अरोपिक । तू जु अराधक तार अराध्य अनंध अखंध असंध अगौफिक ।।३१४।"
तू जू प्रबंधक अदंक नाहि, अनिदित नंदित है जू अरंजित । तु जु अनिगित इगित नाहि, अनंकित नाथ सदाजु अजित ।। तू जू असंकित है जु अवंकित. देव प्रलंधित नित्य अगंजित । तू जू अचंभिक है जू अमंदित, ईस अखंडित सब अचंजित ।।३५५।।
तू जु अनिदक पूज अवेदक, नित्य अफंदक है जु अबदक । नू जु अखंडक वोध अमंदक. पाप निकंदक है जु अछदक ।। तू जु अहंडक हैं जु अदंडक नाथ अछेडक नित्य अकंटक । पुस न नारि सुरो नवि मानव, ढोर न नारक तू जु अषंढक ।। ३५६।।
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अध्यात्म बारहखड़ी
२२५
तू जु अडंकित है जु अपित देव अझपित नित्य अलंपित । तू जु अदंडित है जु अकिंचित नाय अबंचित वोध विभित ।। तू जु अक्रषित है जु असंखित ईश अविचित राय अपित । तू जु अभवृत स्वामि अखंहित एक अजवित धीश निशेकित ।। ३५७।। तु जु अलुटक तात प्रबंचक है जु अभंडक नित्य अभंजक । देव अचित क ईश अनंतक नाथ अरंजक भूप अडकः ।। पूज अभंजित स्वामि असंगित है जु महाध्रिप एक अमंधक। संघ उधारक आप अकारक पार उतारक सूत्र अलंधक ।।३५८।। दोष अमंडित है गुण मंजित नित्य असंचित ई अरंजन । नाथ अटंकित तात अरंगित स्वामि अजित पाप निरंजन ।। नांहि विकार विभाव जु जामहि एक अनेक स्वरूप अकिंचन । नादि नार का नाममा सहभ , अजन ।।३५६ ।।
छंच अरिल्ल लप्पो जाय नहि नाथ, तू जु अलपित सही । अलप बहुत नहि तृ जु तू जु द्रु है वहीं ।। अत्युज्जल तू देव, अभिक्षमी है विभौ। प्रत्युत्कर जगदीस, अतीयमी है प्रभो ॥३६०।।
अतितेजस प्रतिसीत अतिदमी अतिगुरु । अति ठाकुर अतिजीत, अतिसमी अति धुरू ।। अतिसाहिव अधिकार, उपरमी लू सही । अति सागर बिधि रूप, अति जती है तुही ।। ३६१६ अतिलायक अरणगार, अग्रगाशे तु नहीं । तुही प्रागरौ देव, गुणनिको है सही ।। अतिनागर निज रूप, गुणागर सांईयां । अतिजोगी जगजीत, अलेष गुसांइयां ।।३६२५॥
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२२६ महाकवि दौलतराम कासलीवाल व्यक्तित्व एवं कृतिस्व
ज्ञान की । ध्यान को ॥
प्रति जागर तू देव उजागर सोवं नाहि कदापि प्रभू है अटल भाव धर एक अचल ग्रमल भाव जगदीस, मलिन
भाव जु सदा ।
नांही कदा ॥ ३६३।।
तू जु अनंग विभाव, दार तु जु असंग स्वभाव सुधारक त ज् अचित्य प्रभाव पशु है तू अहिंस स्वरूप नाहि को
कोई
सहै ।
घीश है |
सासना ! नासिता ।। ३६४ ।।
ईश है ।
तु जु अशुद्ध विभाव नाशनो सदा प्रभेद स्वभाव भासनो धीस है नाहि अभव्य स्वभाव, भव्य भाव जु नही ।
नू शुद्धत स्वभाव परिणामिक सही ।। ३६५।।
चौपई
तुहि प्रलंधि भाव भूषो जु, तु हि अपावन जन दूषो जु ।
तू ज् अमूरत भाव सुपषो तू जु अधूरत भावा सषो ।। ३६६ ।।
·
लूजु अगोध भाव दंडोजु, तू जु अनित्य भाव षंडोजु |
तू जत्व विकासी देव तू अचलत्व प्रकास प्रभेत्र || ३६७।।
तु जुग्रलोक भाव को जांन,
तु जु अत्रित्यभात्र करि भरो, तुजु अलक्ष भाव हैं वरो । अवलोकन कर गुणवान ।। ३६८ ।। अखिल भाव भावक तू नाथ लोकाकास प्रमाण प्रनाथ तू जु अमोहत्वादि प्रधान, अस्तित्वादिक गुणह निधांन ॥ ३६६ ।।
तू जु अलोभत्वादि प्रभार तुजु प्रथमगति तारनहार । तु जु अधोगति हारी हरो, तू अरिच विदारी से || ३७०||
तुजु प्रशुभ गणटारक ईश, तू जु यशीलें होलक धीश । तू प्रयत्न विधाटक देव, अकर रोग बर्जित प्रतिभेत्र || ३७१ । । अखिल भोग डारक जोगीस, अखिल जोग टारक भोगीस मन बच काय तर जे जोग, तिन से रहित अमित सुख भोग || ३७२ ।।
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अध्यात्म बारहखड़ी
२२७
अखिल ब्रत उपदेशक गुरो, अणुव्रत उपदेशकहू धुरो। अखिल भूति दशिक भगवान, निखिल भूति त्यागिक धनवान ॥ ३७३।। प्रतुल भाव फरसी मुनि भेस, अचल भाव दरसी जगतेश । अमल भाव सरसीरुह सूर, सदा जु अविचल भाव सुपूर ।। ३७४।। अटल सु देबो अमल जु काय, अकल स्त्रज्योती अतुल जु राय । अज स्वरूपी विमल प्रभाव, अकर प्रकारक अकरा राव ।। ३७५।। अकरम और नसंपर दान, परदर विनु कौले सनमान । तू निज अपादांन जगदीस, अधिकरणो भगवंत अधीश ।१३७६।। पर षट्कारक ती मैं नाहि, निज घटकारक तेरे माहि । तू कर्त्ता कम्र्मा निज क्रिया, संप्रदान न है विनु त्रिया । ३.७७।। तू निज शक्ति अपादानो जु, तु आधारो अधिकरणो ज । अकरदाय तू अपर जु नाथ, अमलनाथ तू श्री जगनाथ ।। ३७८।। अमर छाय तू नहि मुरझाय, अमित छाय तू है जु अछाय । अमर ज्येय तू अमित प्रभाव, असमकाय तू रहित विभाव ।।३।। अतुल देव देवनि के देव, तेरी तुलना कोई न देव । अखिल भाय तू अनत जु नाथ, जगत राय तू मुनिगमा साथ 11३८०।। अखिल मात तू अखिल जुयात, अखिल तात जू अरिवल जुपात । असम धीर तू अखिल जु गात, तु जु अरूपी देव अजात ।। ३८१।।
छंद त्रोटक तू ही जु अनुद्धत देव अरं,
तू हि जु अनुज्झित भावचिरं । तू ही अनया सो ईश परं,
तू ही अद्वितीयो धीरधुरं ।। ३८२११ तू ही सु अनाकाशो जु वरं,
तू ही जु अवैर करो विचर ।
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२२.
महाकवि दानतराम कासलाबाल-ब्यक्तित्व एवं कृतित्व तू ही जु ग्रनावासो विहरं,
आवाम वितीतो नाथ पुरं ।।३८३।। तू ही जु अनुत्कंठी विथर,
तू ही जु अनाभासो अजरं । ईशा जु अनाबिल है अपरं
धीशो अनाद्रित है अकरं ॥३८४।। देवो जु अनाकुल भात्र थिर,
कम्ममिय भैषज रूपसुरं । नाथो छु अनाशक्तात्म गुर,
पूज्यो सु अमातम विभावहरं ।।३८५।। न ही जु अबाधित सूत्रकरे,
तू ही जु प्रसाधितसाध्यतरं । तु हो जु अनुवै गो अजुरं,
तू ही जु अनौपम्यो अदुरं ॥३८६।। अक्षय गुणरासी पति नगर,
प्रत्ययनासो जिनपति सुगरे । तेरी अवधारण योगिरा,
तू ही जु अपूरव रूप घिरा ।। सर्दै जु अगोचर भाव जिके,
तू ही गोचर कर नाथ तिके ।।३८७।। पावै जु पनालग साध तुम,
___ गाँवै जु अनागस संघ तुम । तू ही जु अपित देवप्रभू,
तृ ही जु अक्षोभित लोकवि ।। तू ही प्रतिभासी धीश जिना,
तू ही अतिभारी ईश दिना । तू ही अतिभारी मान जयो,
तू ही जु अचूको जान मयो ।। ३८८।। तू ही जु अविभचारी सुमुनी,
तू ही अधिचारी नाथ दुनी । स्वामी जु अभूलो एक तुही,
भलो सव जग जन औठ सही ।।३६०।।
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पालदाराही
२३३
छंद त्रिभंगी
जब लग्गि अत्तिद्रिय बोध निरिद्रिय,
इंद्रिय निद्रिय रहित जिना । जीवो नहि पावत तोहि सुतावत,
अखिलन पावत रूप दिना ।। तु ही जु अवाच्यो मुनिहि जु जाच्यो,
कितहु न राच्यो सर्वगुरु । तू अम्बिल सुवाच्यो नाथ अजाच्यो,
निजरस राच्यो देवघुरु ॥३६५1 जो साधु अतंद्रा बसहिजु कंद्रा,
मत जिनचंद्रा दिढनु धरै। ते जपहि जु तोही,
ह निरमोही छोडि सवोही ध्यान करें। तु है अनुभूती रूप बिभूती,
नांहि प्रसुती न धरै । अतिरिक्त विभावो शुद्ध स्वभावो,
अमित प्रभावो कालहरे ।।३६२।।
तु है अकलंक को ईशचिदं,
को नित्य अपंको देवहरी । तु असमजु नाथो है अति साथो.
अति बडहाथो रहित अरी ।। तू ही अपरा पर है जु मुधाहर,
पूज सुधाकर लोकपती । प्रभूजी अतिपात्रो है अति छात्रो,
ज्ञानहि मात्रो शुद्ध जतो ।।३१३॥
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्या
तू अति भूतेस्वर है जु महेश्वर,
देव जिनेश्वर अतुल मणो । नु अगद वितो मात्र मानो...
अतिगति दानो तत्व मुणो ।' तू ही जु अरूपी अनत जु रूपी,
परम अनूपी बोधकरो । तू पात्र जु रहितो पात्र विमहितो,
निजरस सहितो कर्महरी ॥३६४।। तु है अतिचारी जिन अविचारी,
अतिगति भारी धर्मपरो । है जू अविलीनो नाथ अदीनो,
नाहि अधीनो सिद्ध करो। देवो अति चेता मुक्ति सुनेता,
है जु प्रणेता चित्तहरो । अति ही मदहारी साधु सुधारी,
अमृतधारी मृत्य हरो॥३६५।। सू अति शम घारी अगरवतारी,
अति भवहारी शिव जु बसे। तू है अतिपारी अति अविकारी,
भव्य उधारी जिन विथरो ।। तू अतिरित माया अतिरित काया,
___ अतिरित जाया क्षेत्र घरो । तू है प्रतिक्षेत्री सर्व सुवेत्री,
__ मोह विजेत्री जगत गुरो ।।३६६।। तू प्रभु अवधूतौ अतिहि जु पूतो,
है अभूतो भूत महः ।
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प्रध्यात्म वारहखड़ी
२३१
तू है अतिकामो पुनि जु अकांमो.
राम विरामो नाम सहा ।। 'अतिकर्म ज़ नाशा अति जु अनाशा,
रहित जु पासा संतधगे । जीवनि को पालक दोष जु टालक,
काम हारक सर्व सुरो
३६७४।
दोहा
तू ज अनातंको प्रभू, है जु अनावे सोहु । पूजि अनादेशो तुदी, व्यापि रह्यो जगि जोहु ।। ३६८।। तेर्ग निर्माता नहीं, रचिता जग मैं कोय । 'अनिर्मातृ भगवान न, अनिर्वाच्य को होय || ३६६ अनि भूतीश्वर असम तू. कर पात्रा जु महंत । तोहि जपं निज मात्र सु. 'विनु गात्रो भगवंत ॥४००।। प्रतिजेता अतिभूप तू, अतिधर्मी अतिधर्म । अति जु भर्भ रहितो तुही, अति शर्मी विनु कर्म ।।४० १.।।
कवित्त
'तू अतिकम जु टारक स्वामी,
शुभकर्मा नहि अशुभ जु कोय + प्रतिपुण्यो शुद्धत्व मात्र है,
तोमो देव जु तूही होय ।
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२३२
महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
तू अनघेशनाथ अतिछात्रो,
अतिरिक्तो छाननितें सोय । तू अलपेशमा अति गात्रो,
__ अत्यंतो अत्यर्थ न दोय ॥४०॥
तू अतिनाथ अतित जु पात्रो,
अति र हितू अत्यंत जु भात । अतिभृता तेरै निस्वामी,
अतिचेतन तू अमित सुतात ।। अति जुनंत भेदधर तू ही,
आप अभेदो है अनिपात । सू सामान्य विशेषातम है,
एकानेक जु द अजात ।।४०३।।
जो अतिक्रांति विश्रांति दयाला,
अरिहंता अतिशांत मुनीश । सुरनर मुनिबर खग तिरको मन,
हरे न चौरो अति जगदीश ।। सांच झूठ जे जगत प्रपंचा,
जाने सव अररहित जुरीस । जीव रसिक जो नासक कर्मा,
निरग्रंथो अति कमलाधोश 11४०४।।
इह अदभूत गति देखहु ता,
सो अध्यात्म धारसु सार । अध्यातमि को तारक देव,
असुधारिनि को है प्रतिपार ।।
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अध्यात्म बारहखड़ी
अश्व जु स्पंदन हस्ति सुपाय, कदेव हार को बातार
सब सेना से रहित जु स्वामी, सेनाधर
प्रतिसे जगके दासन मांगै,
सेवें दरबार ॥ ४०५१३
दे अतिशय चउतीस जु मोहि ।
अष्ट जु प्रातिहारह हो,
केवल दे विनऊ कहा तोहि ॥ निश्चै,
तू अतिशय तन चिदघन होहि ।
देहु अनंतचतुष्टय
अतिशय प्रतिहार नहि देतो,
अनंत चतुष्टय दं प्रभु सोहि ॥ ४०६ ॥
हूं जु ग्रजांण जांन तु करई,
निज संपति दे श्री भगवान | अभविन पावै तेरों पुर जो,
तू भवितार कहे प्रति जांन ॥
लु प्रतिध्येय
तू जु अभीरु भीरू न पाव,
अभिध्येयो तु है प्रभिधान । अहमेवादिक तो मैं नांही,
तू अभिधाता अनुपम भांत ।।४०७ ।।
सु तू प्रतिज्ञेयो, अप्रमेय तू है प्रतिभेय ।
अदभुत सार जु तू शिव सारो,
अतिशय सागर है जु श्रय ॥
२३३
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२३४
महाकवि दौलतराम कासलीवाल-क्तिव एवं कृतित्व
तो सौ अतिशय धरण जुतूही,
और न दोसै जग में ज्ञेय । मेरी इह विनती सुनि देवा, ।
देह अभै पद निज मैं लेय ।।४०८।”
दोहा अति थारौं अाधार तू, अनत वसः जगदेव । अदभुत अध्यालम विमल, तु ही. प्रकास अछेव ।।४०६।।
त्रिभंगी छंद
अथ अतिप्यास की बालअतिमतिकारा अतिश्र तिसाग,
__ अवधि अधारा अतिधारा । है अति सुख सारा अमन प्रचारा,
अवगम* -वारा धर प्यारा ।। है अति विचरइया अति बिहर इया.
अति विथरइया अतिसारा । हैं लक्षण गारा अतिशय कारा,
अतिसमवारा अतिप्यारा ।।४५३ अति ही वित भरिया अतित्रित धरिया,
अति गाँत हलिया अतिहारा । है अत्युच्चंडा अति सुस्ख पिडा,
अति विहंडा अति प्यारा ॥ अनगम कहता ज्ञान
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२३५
अध्यात्म बारहखड़ी प्रभु अतिगति कहिया अतिरति रहिया,
अति गणधरिया अतिसारा । है अतिगुरण धुग्यिा अतिभव तरिया,
अतियम हरिया प्रतिप्यारा ॥११॥
अरति जु हरिया रंग सुकरिया,
संघ उधरिया प्रतिकारा । गुण संग न तजिया संग जु तजिया,
मुनिगण भजिया क्षम वारा । जिन अति गति पिडा आप अपिंडा,
प्रवत छंडा अनिफारा । है अतनु सु दंडा ब्रत नहि खंडा,
उपर मयंडा जनप्याग ।।४१२।।
है अनघ अधारा प्रमग प्रहारा,
अगम अपारा अघटारा। है तथ्य सु धारा अस्तिथ धारा,
अविधि विडारा अतिप्यारा ॥ अति परगुरण रहिता अति निज सहिता,
सुरनर महिता प्रतिपारा । है अतिरस रसिया, अति गुण लसिया,
अवगम वसिया अतिध्यारा ।।४१३।।
अति अतिथि अधारा बितथ विदारा,
पस्य सुधारा अतिमारा । है अतत विडारा अव्रत डारा,
अतिन्नत वारा प्रतिप्यारा ।।
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२३.६
महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
अकलित अविरूपा अचलित भूपा,
अतुल अनूपा अतिबारा । है अनुभव कारा अतिभव हारा,
अकथ अपारा जिन प्यारा ।।४१४।। अति अतिशय मंडा अनुशय छंडा,
सौख्य करंडा अविकारा । है अनुभव पिंडा अतिशय खडा,
अतिगति खंडा अतिप्यारा ।। है प्रागति खंडा अविगत पिंडा,
अतिहित मंडा अविधारा । है अति अधदंडा अति जु प्रचंडा,
कर्मविहंडा अतिप्यारा १४१५।। है अविरति हारा विरति विहारा,
अतनु प्रहारा अरणगारा । है भूति विथारा अस्खलित धारा,
अप्रमतबारा अतिप्यारा ॥ है अमित बिथारा सार सुसारा,
अति जगपारा अतिचारा । है अतिक्रम दारा मल जु विडारा,
अदरस हारा अतिप्यारा ॥४१६५ है अकर अकारा प्रजर जरारा,
अमर करारा अविचारा । है, अतिगुगण गारा अठमद डारा,
अविनयटारा अति प्यारा ।। है अतिसुख वारा अकुलित द्वारा,
अतिशम धारा प्रतिगारा ।
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प्रध्यात्म बारहखड़ी
२3:3
अठदश जु हजारा शील प्रकारा,
अनतीचारा बर प्यारा ।।४१७।। है अति तिक्षारी प्रतिक्षिम धारी,
__ अलख जगारी अतिभारी । है क्षण क्षण धारा आप सम्हाग,
जान अपारा घर प्याग। है अतिमद मारा अमद सुधारा,
अतिसै बारा जगतारा । है अतिसंबनी नाथ अवेगी,
आपुन एगी अतिभारा ॥४१८॥ है गति प्रति धारा रहित जु भारा,
अति निज लारा परहारा । है अति जस भारा अति गति प्यारा,
कृपरण विडारा अगभारा 1 है अकृपरण धाग त्याग सुधारा,
__शक्ति पारा तप धारा ।।४१६ ।। है अतितप वारा अतप पसारा,
अतितप कारा अरणगारा ॥ है तप ज्वर हारा तप जप प्यारा,
अति तप चारा अतिप्यारा । है अतिनप चंडा अतप सुदंडा,
शक्ति अखंडा अति धारा ।। है नहि असमाधा साधु समाधा,
नित्य अबाधा हर प्यारा ।।४२०।। है त्याग अखंडा ता जु प्रचंडा,
आप प्रचंडा व्रतकारा ।
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२३८
महाकवि दौलतराम कासलीवाल- व्यक्तित्व एवं कृतित्व
दस भेद जु धारा साधु उधारा,
वह अविकारा उरहारा
प्रति यावत्ता कहइ सुव्रत्ता. रहइ निरत्ता हरिहारा
है अकपट गारा कपट प्रहाग. विश्व विहारा
है प्रतिभव हंता प्रति अरिहंता, प्रभु अरहंताक्षर प्रति अनुभवकारा परिगह डारा, सर्व अधारा गुगुर है आरिज तारा भगत उधारा. प्रति आवारा जग है अनुभव बारा वह प्रति प्यारा, अगमि प्रचारा
है अति ति धारा बहुश्र ुत प्यारा, अति आधारा है अवितथ कारा अतत विडारा,
अपहारा
है वह अति प्यारा मुनि जु उधारा, अवसि प्रचारा
है अब्रह्म धुका सीलनि पा
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धारा }
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गारा I
है प्रवचनसारा प्रवचन वारा,
प्रति श्रतिपारा धर तारा ए अवसि जुकररणा निति प्रति चरणा,
।। ४२१ ।।
प्यारा ।।
अभिचारा ||४२२।०
अमत जुहारा प्रतिधारा [I
गरणतारा ।
धरतारा
कहद अवरणा मुनि प्यारा ||४२३ ||
|
रत्न प्ररूपा रजहारा ।।
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अध्यात्म बारहखड़ी
हे अपथ विहारा भारग सारा, अप्रतिहारा हरि
है अमद सुकरिया शक्ति सुभरिया, प्रतिक्षम घरिया
है वत्सल भावा रहित विभावा,
प्रभु अनुभव दाया अतिशय काया,
वह जिन रावा हर प्यारा ।
है प्रतिहित भारा प्रतिधृति धारा, अनुभव वारा प्रति
हे प्रांत सति पाग असत प्रहारा,
प्रतिशमि भाया अतिवारा ।।
है भवजल तारा प्रतिमल कारा,
है प्रति सुविचारा अशुचि निवारा,
प्रतिमल द्वारा प्रतिसारा ॥ ४२५ ।।
है अमत प्रहारा श्रमति प्रहारा,
अनुभव द्वारा अति प्यारा ।
अनुभव वारा प्रति है अभियम धारा संयम पारा, इंद्रिय द्वारा व्रत
प्यारा
रक्ति प्रहारा भोगत जारा,
1
अधरम हारा भव- रा 11
अनुभव वारा प्रति
व्रतधारा ॥४२४ ॥
है अगम अपारा अकरम चारा,
कारा
अक
है अवरण धारा अमरण कारा,
धर्म अधारा
प्यारा ।
प्यारा ।
गारा ।। ४२६ ।।
प्यारा ।
श्रगिवारा ||
धन धारा ।
२३६
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२४०
महाकवि दौलतराम कासलीवाल व्यक्तित्व एवं व्यक्तित्व
है धर्म अकिंचन पाप निकंचन,
दोष न रंचन धृति धारा ।।४२७।। है अतिछति बारा अधिकारा,
ब्रह्म विहारा अविकारा । है विश्व विथारा विश्व अधारा,
अनुभव वारा अति प्यारा ॥ है अति भवकूला अति रस झूला,
अनुभव मूला अजरारा । है अतिशय भूपा अनुभव रूपा,
अति गृणधारा प्रति प्यारा ।।४२८॥
है अतिधन नामा अति धनधामा,
अति अभिरामा प्रतिकारा ५ है मुनिमन हारा अति दुखटारा,
___ अनुभव वारा अति प्यारा ।। है प्रतिहित धारा अहित प्रहारा,
__ दोऊ टारा जिन प्यारा । है देव अरागा बीतसुरागा,
अतिवद्ध भागा जग प्यारा ।।४२६।।
सवैया ३१ असि मसि कृषि और वानिज को लेस कोऊ, नांहि तेरै पुर मैं न शिल्पि पशु पालना । पठन न पाठन है शिष्य गुर भेव नाहि स्वामि और सेवक को भेद न निहालनां ।।
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अध्यात्म बारहखड़ी
तू तो जिन एक रूप दोय रूप भाव तेरौ । तेरी पुर शुद्ध रूप जहां वस कालनां । मोह नाहि द्रोह नाहि नाहि जु विभाव कोऊ । जहां तु बिराजै देव सबै भ्रम जालनां ॥४३० ॥ असि धारी तू जु नाहि, खग्ग नांहि तेरे हाथ खग्ग धारा सम जिन, भारंग प्रकाश तू ! शस्त्र वस्त्र नांहि तेरै, अस्त्रको न नाम कोऊ दूष न भूषन, जो भूख को विनाश तु । अस्पादिक भेद जे सु जीविका उपाय नाथ कर्म भूमि, लागत जो आदि ही विभासत् ।
सुधारी प्रांगण पावें मोष तोहि जपि मोक्ष की जु दाता एक दीखे स्व विलाश तु ॥ ४३१॥
अरुण प्रकास होय ताकेँ पहली जु नाथ, उठि भव्य जीव तेरौ नाम उर मैं धरं । मध्यकाल सायंकाल अरध निसाजु मांहि, तोही सौं लगाय चित्त कांम क्रोध को हरै | अनंदन बांबरातू अनडन तोस और, सुर नर मुनिजन तो हो क्यों जप्यो करें | तूही एक ज्ञान रूप चेतना निधान देव | तो ह्रीं की जु ध्याथ साधु बेगि भौ दधी तरं ॥। ४३२ ।।
सोरठा
मेरे टारि जु देव, अनिरक्षा अनिगुप्तमय | अकस्मात दे सेव, अमरण अमृत देहु मुझ ।।४३३ ।। तू जु अकार स्वरूप, सर्वाक्षर मय देव तू | ब्रह्मरूप जग भूप, दौलति करण जुनु सही ।। ४३४ ।।
ર
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२४२
अध्यात्म बारहखड़ी अस्मिन् भवधि माहि, रागादिक जे क्षार जल । तो विनु दुजो नाहि, अमी देन हारै प्रभु ॥४३५।। अमी जु अमृत नाम. न जु अमी और सु नही । अमी सांधबो राम, तोहि त्यागि ओर न जपें ।।४३६।। अर्थ अमी को एह, विद्यमान को नाम है। अमी सुधा हु कहेह, तो सौ नाहि अंमी जु को ।।४३७।। अवग्रह ईहा और, फुनि अवाय जु धारणा । मतिज्ञान के दौर, तीन शतक छत्तीम जे ||४३८।। तिनको भाषक एक, केवल रूपी देव तु । तेरो इह जु विवेक, जड चेतन न्यारे करै ।।४३६ ।। तू हि अनुत्सेको जु, उत्सेको गर्व जु सही। तू गर्वारि जिनो जु, मांनी तोहि म पांवही ।।४४० ।। नाम रहित को ठीक, कहैं अपेत जुप्रय मैं । तू जु अपेत विलोक, सत्य उपेतो तू सही ।।४।।
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भौपाल वारिन
रचनाकाल :- सं० १८२२ फागुण सुदी ११
रचना स्थान :- जयपुर (राजस्थान)
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व अथ श्रीपाल चरित्र भाषा लिख्यते
दोहा तीर्थङ्कर चोबीस जिन, धर्म राज के ईस । गुरण अनन्त मंडित प्रभु, नमत सक्र सत सीस ।।१।। सकल विधन हर मर्म कर, सिद्धचक्र अतिसार । ताकू बदु भाव सू, छोडि जगत भ्रमजाल ॥२।।
. चौपई बंदु त्रिविध गुरु गुरण खान, राग रहित मानी अधिकान । सप्तम गुण ठाणे मुनि गये, चढ़ि के खिपक श्रेणी सिध भये ।।३।। श्री जिन कमल थकी धुनि त्रिरी, गणधर देव प्रगट विसतरी। तीन जगत कू अति सुखकार, सारद बंदु भवधि तार ।।४।। श्री जिन शुत गुफ नमि पाय, सिद्धचक्र नमिहूं हित लाय । जा परसाद श्रीपाल नरेस, कहूं चरित्र महासुभ भेष ।।५।। जंब भरत प्रारज उर पान, मगध देस स्वरथल सम जान । राजग्रही तामें पुर सही, श्रेणीक भूप सम्यकधर कही ।।६।। नारि चेलणा ता घर सती, सम्यक आदि गुणांकर जुती । ताके अभयकुवर सुत नाम, सो अतिरूप बुद्धि को धाम ।।७।। ऐसे राज करे नरराय, इक दिन सभा ठये सुख पाय । एते पायो इक वनपाल, करी वीनती अति गुणमाल |||| भो नृप भाग तिहारे सही, वर्धमान जिन पाये कही । समोसरण विपुलाचल पाय, तिप्ले हरि मुर जं जं लाय ||६|| इम सुरिग राय महासुख लेय, सिंघपीठ ने जनरयो जाय । मात पंड ता पोड़ी जाय, अपनो सीस नमायो राय ।।१०
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श्रीपाल चरित्र
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पट भूषण माली कूदीये, प्रष्ट द्रव्य अपने कर लीये । पुर में आनन्द भेरी दिवाय, नगर लोक अरु बंधु मिलवाय ||११|| बहु सबद उछाह जय लाय, पहुंचे समोसरन में प्राय । तीन प्रदत्यरणा दे नर ईस, गये मांहि निज नायो सीस ।।१२।। अष्ट दरब ते पूजे राय, फिर बहु भक्ति करी अधिकाय । गोतमादि गणधर कु नयो, मनख थान फिर बैठत भयो ।।१३।। तब जिनवर की बारगी खिरी, दिव्य ध्वनि अतिसै करि भरी । पुन्य पाप मुनि श्रावक धर्म, तत्वादिक के भाखे मर्म ॥१४॥ देव मनख तिर्यच बहु जान, देस देस नर को भी वानि । दिव्य ध्वनि प्रतिसें करि खिरी, भिन भिन जीत्र समझि चित धरी ।।१५।। जो संसै ता जीव उर होय, ताको ज्वाब परनमे सोग । अधभुत रचना जिन को बानि, श्रेणिक देखि हरष अति मानि ।।१६॥ फिरि श्रेणिक जिनक सीस नाय, ऐसे बिनती करी सुभाय । सीधचक्र पूजा करि सोय, को फल किन भनि पायो जोय ।।१७।। ताकी कथा सुनन को चाव, भाखो देव दया रस भाव । तब जिन ध्वनि विन प्रक्षर खिरी, अर्थ गंभीर सकल रस भरी ॥१५॥ सुणि गोतम गणधर मुनि ईस, भाखे कथन नवों निज सीस । उर थिर पान निसुनो सब कथा, भास्त्रत गरणी भई विधि यथा ।।१६।। जंबु दीप नाभि सम मेर, ताकी दक्षण दिसा भ्रतहेर । तामें षट खंड पंच अनार्ज, आरज एक तहां सुस्त्र कार्ज ।।२०।। मालत्र देस उजेणी ग्राम, तहां जिनवर के अति सुभ धाम । भोजन तहां मुनी नित करे, धर्म ध्यान 'जुत जन अनुमरे ।।२१।। सब जिन भक्त वारणी जिन भने, खान पान धन आदिक घने । परस परे सब हो जिन हिते, पुर कटुंब सुखी गुण किते ।।२।। पुर में दीन नरा नहि कोय, सब ही जीव पुन्याधिप सोय । सब जन कोमल सज्जन भाय, मानों भोग भूमि जन प्राय ।।२३।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
इत्यादि रज- नत्र पुग्ली, को त्रलोय जीव नहीं दुस्खी । ऐसो नग्र उजेणी धाम, प्रजापाल राय को नाम ॥२४॥ नारी मौभागसुन्दर जान, कन्या दोय भई गुणखान । स्वरसुन्दर जेठी को नाम, मेणासुन्दरी मुगा की धाम ।।२।। रूप जेसो सुर कन्या एव, साहस बुधी धर्म नित सेव । दोऊ सुता बु... 'सुखकार, तब भगने । मेली सार ॥२६॥ जोसी सिवसम इक दुज जानि, वाल्या भरो बड़ी इस थान । स्व प्रतिवेद भणी बहु सही, मिथ्या नागम पढि मद भई ।।२७।। मेरणासुदरि होटी सुता, महा बडभागीर गुगा जुता । येक दिन जिन बंदन कू गई, त्रिभवन तिलक चताले सई ।।२८।। तहा जिन पूजे हरष वाय, फिरि बंदे जिन धर्म मुनिराय । नय निज सीस ठई मुनि पास, धर्म सुण्यो सब सुख को रास ।। २६॥ लये अणूबत कन्या सही, फिरि मुनि ते इम वीनती ठई । भौं प्रभु धर्म जिनेस्वर सार, मोहि पढाबो सुख करतार ।।३०।। मुनि दिग कन्या पढे सुभाष, जिन मन रहसि जतीवत वाय । प्रथमानु आदिक चव जोग, कन्या भरणी महा सुख भोग ।।३१।। धर्म अधर्म रूप लखि लियो, जान्यो तत्व भेद जिन चयो। देव धर्म गुरु दिढता लाय, सम्यक् जुत अणुव्रत धराय ।।३२।। या जग संग उच्च ते सही, क्या क्या गुरण उपजे नहीं कही । नीच संगतें दूषण कोय, कोन कोन उपजे नहीं सोय ।।३३।। या विधि कन्या दोऊ सार, नाना कला पढी सुखकार । इक दिन बड़ी सुता कू सही, वंछित वर जांचो नृप कही ।।३४।। कन्या तब भाखो सुनि तात, अहिछत नग्न राय सुभ गात । वरदामन नाम है सही तासू व्याह करू' इम कही ।।३।। तब राजा बहु ठानि उछाह, कियो बडी कन्या को ब्याह । मेणासुदरी इक दिन सही, पूजे जिन गंदोदक लही ।।३६।।
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श्रीपाल चरित्र
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तात पास लाई तब सुता, गंधोदक सिर लायो पिता । धारी सनेह सुता सु कहीं, मांगो वर मनवंछित कही ।।३।। तब यह कन्या सील की खानि. तात थको इम वचन जु ठानि । अहो तात गारी किम देय, मन वंछित वर वेस्या लेय ।।३।। अथवा नारि कुसीली होय, सो वंछित वर मांगे जोय । बत शील कुल अची नार, सो बर कबहू न जाचे धार ||६| मात पिता ताकू परणाय, सोही वर यह नीति कहाय 1 पीछे मुभ अरु असुभ सु जोय, कर्म उदसाहै सौ होय ।।४।। सुख दुख होय भाग तें सही, ताकू मेट सके नहीं कोइ । ताते पिता सला तुम होय, ताही कु, पररणाबो जोय ।। ८१ ।। तात वचन सुन मन कोपियो, मेरो बचन सुता खंडियो । थाप्यो कर्म प्रापनो जानि, सो अब देहु महा दुख थान ।।४।। महानिद कोढी धनहीन, जानि दलिद्री सुरती दोन । ऐसो वर लखि ब्याहू सही, गाखी गन काहू नहि कही ।।४३।। इक दिन राय गयो बन थान, क्रीडा करत फिरत हित मान । ताही वन श्रीपाल नरेस, प्रा निकसे पलटनों तन भेय ।।४४।। महा कोड तोके तन माहि. लार सात से सेबक थाहि । सोभी सर्व वोट करि सही, वास दुर गंध भार तन कही ।।४।। छत्र चमर सिंघासरण लार, राज बजु ज बन्यो सत्र सार। ये तन वास दुरगंध अपार (महान), फैल रही सब बन के थान ।। ४६ ।। ऐसे श्रीपाल लखे राय, प्रजापाल जु हरप उपाय । मंत्रिन सू राजा इम कही, यह मेरणासुन्दर वर सही ।।४।। याक राखो जागा बनाय, तब मंत्री बहु मनै कराय। राय न मानी काहू बात, कीमो हठ मूरख हपान ||४|| राय हुकम तो बन में जानि, जागां बगाई लवि मुभ थानि । राय जाय कन्या सू' कही, तो वर कोढी अान्यो मही ॥ ४६।।
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२४८ महाकवि दौलतराम कासलीवाल - व्यक्तित्व एवं कृतित्व
मन लाय ॥ ५४ ॥ १
कन्या कही सुनो मो पिता, सुभ अरु असुभ कर्म ते हृता । जो जो सुख होनो सो होय, ताकू मेट सकै नहि कोय ||५०॥ ऐसे धीर वौर वचन दियो, सब जन सुनि के अचरज लयो । सब जन कन्या की युति करे, कन्या धन्य धन्य सब उचरे || ५१ ॥ कोढी पति पायो है सही, तो भी मन चिंता न लही अंतेपुर सब ही नर नारि, हा हा मुख ते वचन उचारि ॥५२॥ मन मिलि विनती करवाहि भो नृप कोढी कून विवाहि । मेणासुन्दर रूप जिहाज, कोढी कू न देहि महाराज || ५३ || राय हठी मानी नहि कोय, मंत्री फिर बचन भाखी सोध । कोढी कू न कन्या दे राय, तू बुधिवान देखि मूरख राय व इम कही भो मंत्री यह नृप है सही । छत्र चमर सिंघासन जोय, राज चहन देखत है सोय ।। ५५१ यह वर जोग्या सुता कू सही, मैं परखाऊ' निस्चे कही । वरज्यो सति कछु समझ्यो नाहि, इम कहि सत्र के वचन नसाय | ५६ ।। प्राय विवाह तरणी विधि करो, कन्या रूप दसा अति धरी । वर जुत प्राय पिता के पास, नमस्कार कीनो गुण रास ॥ ५७ ॥ तब नृप मैंरगासुन्दरी जोय, रूप थकी रति सी अब लोय । देख्यो बर कोहि तनहीन, मन पछतावो पति आप निचो आपन कु सही मैं मति हीरा यहु कहा वही । शोध की मन नांहि विचार, कोढी कहा कहा बर नार ।।५।। जानि पुद्धि में कूप मभार, डारि दई कन्या गुरण सार | मोसो ही नहीं सठ कोय फिरि मन राजा निमचे जोय ||६० ॥ कन्या कही सत्य सो बात, कर्म करे सो होय विख्यात । मै तो निमत मात्र करतार, कारज होय कर्म अनुसार ॥ ६१ ॥ पुन्ध पाप मो जीव के होय, ताकू मेट सके नहि कोय | यह अब मो मन निश्च भयो, इम लखि राय सोच तजि दियो ।। ६२ ।।
लखि कीन || १८ ||
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পীল স্বপ্ন
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प्रजापाल धारि मन तोष, निज उर को छोड्यो सव दोष । धनथाल महल उतंग बनाय, मॉडत कनक रतन जडवाय ॥६३।। तहां रहै श्रीपाल नरेस, मणासुन्दरि नारि सुभेस । दासी दास नगर बहु दये, ढोल्यो महल और घर ढये ।।६४।। तिन में सब कोढी थिति करे, पूरन कर्ग किये फल भरे । अब वह मेणासुन्दरि नारि, भक्ति करे पति की चित धारि ।।६।। अंतिम पाट:
मैणा सुन्दरि अजिका, तजी समाधि ले काय । छेदि नारि के लिंग कू, सु स्वर्ग हरिथाय ।।७४५।। तीन ज्ञान राजत सदा, महा रिद्ध जुन थान । आयु पर्यंत सुख भोगि के, चय नर व सिव जान ।।७४६।।
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चोपई और अजिका थी बहु सोय, जे सब स्वर्गथान में जोय । कोउ छेदि लिंग स्वर जान, देवी कूष उपजी प्रान ।।७४७॥ प्रथम स्वर्ग षोडषलों सही, देवी देव अजिका भई। या विधि श्रीपाल नर राय, धर्म प्रभाब थकी सुखपाय ।।७४८।। सुर नर गति सुख भोगि अपार, फेरि सकल दुख कोने छारि । सुर नर खग पूजित पद होय, सिद्ध सथान पहुँचे सोय ।। ७४६ ।।
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सोरठा ऐसो जानि हित मान, भानि प्रमाद दसा सही । अष्टानिक विधि जानि, शक्ति सधा करनो सही ।।७५७।। जो सम दृष्टी होय नंदीश्वर द्रत कु फर। सो सुरनर खग होय, शिव थानक सुख सू लहै ।।७५१।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
दोहा
यह चरित्र श्रीपाल को, पूरन भयो सुजान । याकू लखि धरम उर विष, निश दिन राखि सचान ।।७५२।। धर्म सकल सुखदाय है, ताते भवि उर आन । पाप बुद्धि दुखदा सही, छाडन की बुद्धि ठान ।।७५३।। संवत अष्टादश शत जान, ऊपर बीस दोय फिर पान । फागुण सुदि इग्यार निस मांहि, कियो समापत उर हुलसाहि ॥७५४।।
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दोहा
सोमसेन अनुसार ले दौलतराम सुखदाय । यह भाषा पूरण करी सकल संघ सुखदाय ।।७५.५।।
इति श्रीपास चरित्र संपूर्णः। लिखता पंजित पन्नालालजी की परतभनय परतापगढ मध्ये । धान मंडी में श्री ऋषभदेवजी के मंदिर श्री रिखमनाथ चताले श्रीरस्तु कल्याणमस्तु संभवतु । वार बोतवार ने संवत १९२१ पोस सुची पंचमी ।।
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घदम-पुराण भाषा
रचनाकान :-सं० १९२३ माघ मुदी ।
रचना स्थान :-जयपुर (राजस्पान)
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
मंगलाचरण :
दोहा चिदानंद चतन्य के, गुण अनन्त उरधार । भाषा पद्मपुराण की, भाषू श्रुति अनुसार ॥१॥ पंच परमपद पद प्ररामि, प्रणमि जिनेश्वर वानि । नमि जिन प्रतिमा जिनभवन, जिन मारग उर आनि ।।२।। ऋषभ पाजत संभन प्रणाम, नामे अभिनन्दनदेव । सुमति जु पद्म सुपापर्व नमि, करि चन्दाप्रभु सेव ।।३।। पुष्पदंत शीलल प्रमि, श्रीश्रेयांस को ध्याय । वासुपूज्य विमलेश नमि, नमि अनंतके पाय ।।४।।
धर्म शांति जिन कुन्थु नमि, और मल्लि यश गाय । :: मुनिसुव्रत नमि नेमि नमि, ममि पारसके पाय ।।५।। बर्द्ध मान वरवीर नमि, सुरगुरुवर मुनि वंद । सकल जिनंद मुनिंद नमि, जैनधमं अभिनन्द ।।६।। निर्वाणादि अतीत जिन, ममों माथ चौबीस । । महापद्म परमुख प्रभू, चौबीसों जगदीश ॥७॥ होंगे तिनको दिकर, द्वादशांग उरलाय । सीमंधर आदिक नमू, दश दुने जिनराय ।।८।। विरहमान भगवान ये, क्षेत्र विदेह मझारि । पूजें जिनको सुरपती, नागपती निरधार ।।६।। द्वीप अढाईके विर्षे, भये जिनेन्द्र अनंत । होगे केवलज्ञानमय, नाथ अनन्तानन्त ।।१०।। सबको वंदन कर सदा, गणधर मुनिवर धाय । क्षेवलि श्र तिकेलि. नमू, प्राचारज उवझाय ।।११।।
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पद्म-पुराण-भाषा
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बंदू शुद्ध स्वभावको, घर सिद्धनको ध्यान । संतनको परणामकर, नमि दृग व्रत निज ज्ञान ।।१२।।
शिवपुर दायक सुगुरु नमि, सिद्धलोक यश गाय । केवल दर्शन ज्ञानको, पूजू मन वच काय ।।१३।। यथाख्यात चारित्र अरु, क्षपक रिण गुगा ध्याय । धर्म शुक्ल निज ध्यान को, वंस भाव लगाय ।।१४॥ उपशम वेदक क्षायिका, सम्यग्दर्शन सार । कर वंदन समभावको. पूजू पंचाचार ।।१५।। मूलोत्तर गुगण मृनिनके. पंच महाव्रत आदि । पंच समिति और गुप्तत्रय, ये शिवमूल अनादि ॥१६॥ अनित्य प्रादिक भावना, सेज चित्त लगाय । अध्यातम अागम नमू, शांति भाव उरलाय ॥१७॥ अनुप्रेक्षा द्वादश महा, चितवें श्रीजिनराय । तिनकी स्तुति करि भावसों, षोडशकारण घ्याय ।।१८।। दशलक्षणमय धर्मकी, धर मरधा मनमांहि । जीवदया सत शील तप, जिनकर पाप नसाहि ॥१६॥ तीर्थकर भगवान के पूजू पंच कल्यागा । और केबलनिको नमू, केवल अरु निर्वागा ॥२०॥ श्रीजिन तीरथ क्षेत्र नमि, प्ररणमि उभय विधि धर्म । थुतिकर चहुँ विधि संघकी, तनकर मिथ्या भर्म 1॥२१॥ वंदू गौतम स्वामिके, चरण कमल सुखदाय । चंदू धर्म मुनीन्द्रको, जम्बूकेलि ध्याय ॥२२।। भद्रबाहुको कर प्रणमि, भद्रभाव उरलाय । बंदि समाधि सुवंषको, ज्ञानतने गुण गाय ।।२३।।
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महः कवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
ग्रंथों का स्मरण
महा धबल अर जयधवल, तथा धवल जिन ग्रन्थ । बंदू तन मन बचन कर, जे शिवपुरके पंथ ।।२४।। पटपाहुड नाटक जु त्रय, तत्वारथ सूत्रादि । तिनको बंदू भाव कर, हरै दोष रागादि ।।२५।। गोमटसार अगाधि श्रुत, लब्धिसार जगसार । क्षपणसार भवतार है, योगसार रसधार ॥२६॥ ज्ञानार्णव है ज्ञानमय, नमू ध्यान का मूल । पद्मनंदि पच्चीसिका, करे कर्म उन्मूल ।।२७।। यत्नाचार विचार नमि, नमू श्रावकाचार । द्रव्यसंग्रह नयचक्र फुनि, नम् शांति रसधार ।।२८।।
आदिपुराणादिकः सबै, जैन पुराण बखान । बंदू मन बन काय कर, दायक पद निर्वाण ।।२८।। तत्वसार अाराधना-, सार महारस धार ।
परमातम परकाशको, पूजू बारम्बार ।।३०।। पूर्वाचार्यों का स्मरण :
बंदू विशाखाचार्यवर, अनुभव के गुण गाय । कुन्दकुन्द पद धोक दे, कहं कथा सुखदाय ।।३१।। तुमुदचंद्र अकलंक नमि, नेमिचंद्र गुरा ध्याय । पात्रकेशरी को प्रणामि, समंतभद्र यशगाय ।।३१।। अमृतचंद्र यतिचंद्र को, उमास्वामि को बंद । पूज्यपाद को कर प्रणमि, पूजादिक अभिनंद ।।३३।। ब्रह्मचर्यन्वत बंदिके, दानादिक उर लाय । श्रीयोगीन्द्र मुनीन्द्रको, बदू मन बच काय ।।३४।। वंदू मुनि शुभचंद्रको, देवसेनको पूज। करि वंदन जिनसेन को, जिनके सम नहि दूज ॥३५॥
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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पपुराण निधान को, हाथ जोड़ि सिरनाय | ताकी भाषा बचनिका, भाषू मब मुखदाय ।। ३६ ।। पद्म नाम बलभद्रका, रामचन्द्र बलभद्र । भये पाठवें धार नर, धारक श्री जिनमुद्र ।।३७।। ता पीछे मुनिसुव्रतके, प्रगटे अति गुरणधाम । सुरनरवंदित धर्यमय, दशरथ के सुत राम ।। ३८।। शिवगामी नामी महा, ज्ञानी करुणावंत । न्यायवंत बलवंत अति, कर्म हरग जयवंत ।। ३ ।। जिनके लक्ष्मण बीर हरि, महाबली गुगणवंत । भ्रातभक्त अनुरक्त अति. जैनधर्म यशवंत ।।४।। चन्द्र सूर्य से वीर ये, हरें सदा परपीर | कथा तिनोंको शुभ महा, भाषी गौतम धीर ।।४।। सुनी सबै श्रेणिक नृपति, धर सरधा मन माहि । सो भाषी रविषेपाने, यामें मंशय नाहि ।।४२।। महासती सीता शुभा, गमचंद्र को नारि । भरत शत्रुघ्न अनुज हैं. यही बात उर धारि ॥४३।। तद्भव शिवगामी भरत, अरु लब-बकुश पूत । मुक्त भये मुनिवरत धरि, नमैं तिने पुरहत ।।४।। रामचन्द्रको करि प्रणामि, नमि विषेण ऋषीश । रामकथा भावू यथा, नमि जिन श्रुति मुनिईश ||४५।।
[प्रजमा और पवनंजय कुमार का मिलाप ] प्रथानंतर' पवनंजयकुमार ने अंजनागन्दरी को पररग कर ऐमी त जी जो कनई बात न बूझ, सो यह सुन्दरी पति के असंभाषणतं पर कृपादृष्टि कर न
१ पोग्स पर्ब ।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
देखवेत परम दुःख करती भई । रात्रि में भी निद्रा न लेय, निरंतर प्रथुपात ही झरा करे, शरीर मलिन होय गया, पतिसों अति स्नेह, धनी का नाम प्रति सुहावै, पवन जावं सो भी अति प्रिय लाग, पति का रूप तो विवाह की वेदी में अवलोकन किया हुता ताका मन में ध्यान करबो कर भर निश्चल लोचन सर्व चेष्टा रहित बैठी रहै | अंतरंग ध्यान में पति का रूप निरूपण करि बाह्य भी दर्शन किया चाहै सो न होय । तदि शोककरि बैठी रहै, चित्रपटविषं पति का चित्राम् लिखने का मन कर, सहिम र कार कानगर पई, दुर्बल होय गया है समस्त अंग जाका, होले होय कर गिर पड़े हैं प्राभूपण जाके, दीर्घ उष्ण जे उच्छवासनिकरि मुरमाय गए हैं कपोल जाके, अंग में वस्त्र के भी भार करि खेद को घरती संतो, अपने अशुभ कर्मों को निंदती, माता-पितानि को बारंबार याद करती संती, शून्य भया है हृदय जाका, दुःख कर क्षीण शरीर, मूछी माय जाय, चेष्टा रहित होय जाय, अनुपात करि रुक गया है कठ जाका, दुःख कर निकसे हैं वचन जाक, विह्वल भई संती देव कहिए वोंपाजित कर्म ताहि उलाहना देय चन्द्रमा को किरण हू करि जाको प्रति दाह उपज पर मंदिर विर्ष ममन करती मूर्छा साय गिर पई अर विकल्प की मारी ऐसा वित्तार कर अपने मन ही में पति सों बतलावं कि हे नाथ ! तिहारे मनोज्ञ अग मेरे हृदय में निरंतर तिष्ठ हैं, मोहि आताप क्यों करे हैं घर में प्रापका कछु अपराध नहीं किया, निःकारण मेरे पर कोप क्यों करो, अब प्रसन्न होवो, मैं तिहारी भक्त हूँ, मेरे चित्त के विषाद को हरी। जैसे अंतरंग दर्शन देवो हो, तर बहिरंग देवो । यह मैं हाथ जोड़ विनती करू हूँ। जैसे मूर्य बिना दिन की शोभा नाही पर चन्द्रमा बिना रात्रि की शोभा नाही प्रा. दया क्षमा शील संतोषादि गुण बिना विद्या शोभे नाही, तसे लिहारी कृपा बिना मेरी शोमा नाही, या भांति चित्तविष बस जो पतिताहि उलाहना देय | पर बड़े मोतियों समान नेत्रनित श्रासुवान की बूद भारे, महा कोमल सेज पर अनेक सामग्री सखीजन करै परन्तु याहि कह न सुहाव, वक्रारूद्ध समान मन में उपज्या है वियोग में भ्रम जाकों, स्नानादि संस्कार रहित कभी भी केश समार गूथे नाही. केण भी रूखे पड़ गये, सर्व त्रिया में जड़ मानों गृथ्वी का ही रूप होय रहीं है । पर निरंतर प्रांसुवनि के प्रवाह मानों जलरूप ही होय रही है । हृदय के दाह के योगतै मानों अग्निरूप ही होय रही है। अर निश्चलचित्त के योगत मानों वायुरूप ही होय रही है अर शुन्यता के योगतै मानों मगनम ही होय रही है । मोह के योगत प्राच्छादित होय रह्या है जान जाका, भूमि परार दिया हैं सर्व अंग जाने, बैठ न सके पर तिष्ट तो उठ न सके अर उठ तो देही को थाम न सके सो सखीजन का हाथ पकड़ि विहार कर सो पग झिग
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पद्य-पुराण-भाषा
जाय अर चतुर जे सीजन तिनसों बोलने की इच्छा कर परंतु बोल न यकै पर हंसनी कबूतरी आदि गृह पक्षी तिनमों कोड़ा किया चाहै पर कर न सके । यह बिचारी सबों से न्यारी बैठी रहे, पति में लग रहा है मन पर नेव जाका, निःकारण पतित अपमान पाया सो एका दिन एक चरस बराबर जाय । यह याकी अवस्था देरिस सकल परिवार माकुल भया सब ही चितवते भए कि ऐता दुःख याहि बिना कारण क्यों भया है। यह कोई पूर्वोपार्जित पाप कर्म का उदय है । पिछले जन्म में याने काहू के सुख विष अंतराय किया है, सो याक भी सुख का अंतराय भया । वायुकुमार तो निमितमात्र है । यह बरी भोरी निर्दोष याहि परणकरि क्वों तजी, ऐसी दुलहन सहित देवनि समान भोग क्यों न करें । याने पिता के घर कभी रंचमाष हूं दुःख न देस्या सो यह कर्मानुभव कर दुःख के भारकों प्राप्त भई । याको सस्त्रीजन विचारे हैं कि क्या उपाय कर, हम नीति हमारे नाना-साय - 1 नाही, ई 4 मुर्म की चाल है, अब ऐसा दिन कब होयगा, वह शुभ मुहत शुभ वेला कव होयगी जो वह प्रीतम या प्रिया कों समीप लेय बैठेगा पर कृपा दृष्टि कर देखेगा, मिष्ट वचन बोलेगा, यह सब के अभिलाषा लग रही है।
अथानंतर राजा चरण नाकं रावण मों विरोध पड़या, वरुपा महा गर्यवान रावण की सेवा न करे, सो गवण ने दूत भेज्या । दूत जाय वरुणमा कहता भया । दूत घनी की शक्ति कर महाक्रांति को घर है। ग्रहो विद्याधराधिपते वरुण ! सर्व का स्वामी जो गवण ताने यह प्राज्ञा करी है जो प्राप मोहि प्रणाम करो अथवा युद्ध की तैयारी करो। तब वरुण ने हँसकर कही, हो दून ! कौन है रावण, कहाँ रहे है जो मोहि दया है । सो मैं इंद्र नाही हैं जो वृथा गवित लोकनिद्य हुता, मैं वैश्रवणा नाही, यम नाहीं, मैं सहस्ररश्मि नाही, मैं ममत नाहीं रावण के देवाधिष्ठित रस्नोकरि महा गर्व उपज्या है, वाकी सामर्थ्य है तो प्रावो, मैं वाहि गवरहित करूगा पर तेरी मृत्यु नजीक है जो हमसों ऐसी दात कहै है। तब दूत जायकर रावण सों सर्व वृनांत कहता भया । रावण ने कोप कर समुद्र-तुल्य सेना सहित जाय वरुणा का नगर घेवा पर यह प्रतिज्ञा करी जी मैं पाहि देवाधिष्ठित रत्न विना ही वश करूमा, मारू अथवा बांधू ।
तब वरुण के पुत्र राजीव पुण्डरीकादिक क्रोधायमान होय रावरण के कटकपर आए । राजपकी सेना के अर इनके बड़ा युद्ध भया, परस्पर शस्वनि के समूह छेद डारे ! हाथी हाथियों से, घोड़े घोड़ों से, भट
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
भटोंसे महायुद्ध करते भए । बड़े-बड़े सामंत डमि सिकरि नाल नेत्र हैं जिनके वे महाभयानक शब्द करते भए । बड़ी देर तक संग्राम मया । सो चरुणा की सेना रावण की सेनासौं फैकुइक पीछे हटी । तब अपनी सेना को हटी देव वरुता राक्षसनिको पेनापर याप चल करि पाया, कालग्नि-समान भयानक | तब रावण दुनिवार वरुण को रणभूमि विर्ष सन्मुष पावता देखकर आप युद्ध करने को उद्यमी भया । बरुणके पर रावणकं प्रापन विष युद्ध होने लगा पर वरुणके पुत्र खरदूपरणसों युद्ध करते भाए । कैसे हैं वरुागके पुष ? महाभटोंके प्रलय करनहारे घर अनेक माते हाथियों के कु भस्थल विदारनहारे । सो रावण, क्रोधकरि दी है मन जाका, महाऋर जो भृकुटि तिनकरि भयानक है मुख जाका, कुटिल हैं केश जाके, जब लगि धनुष के बारण तान वरुणपर चलावै तब लग वरुण के पुत्रों ने रावण के बहनेऊ रदूषरण को पकड़ लिया ।
तब रावण मन में विचारी जो हम वासों युद्ध कर पर खरदूषण का मरण होय तो उचित नाहीं, तात सग्राम मनं क्रिया । जे बुद्धिमान हैं ते मयविर्षे चूक नाहीं । तब मत्रियोंने मंधकर सब देशोंक राजा बुलाए । शीघ्रगामी पुरुष भेजे । सबनिकों लिम्बा, बड़ी सेनासहित शीघ्र ही अामा । अर राजा प्रसाद पर भी पत्र लेग्स मनुष्य प्राया सो राजा प्रसाद ने स्वामीकी भक्तिकारि रावणके सेवकनिका बहुत सन्मान किया और उठकर बहत प्रादरसों पत्र माथे चढाया अर यांच्या । सो पविष या भाति लिखा था कि पातालपुर के समीप कल्याण रूप स्थानक में तिष्ठता महाक्षेमरूप विद्याधरों के अधिपतियोंका पति मुमालीका पुत्र जो रत्नश्रया, ताका पुत्र राक्षसवंशरूप प्राकागविर्षे चद्रमा ऐसा जो रावरण सो अादित्यनगर के राजा प्रसादकों प्राज्ञा कर है। कैसा है प्रसाद ? काल्याणरूप है, म्यायका देता है, देश-काल-विधान का शायक है. हमारा बहुत बल्लभ है । प्रथम तो तिहारे शरीरको कुशल पूछ है, बहुरि यह समाचार है कि हम को सर्व खेचर भूचर प्रणाम कर हैं, हाथोंकी अंगुली तिनके नखकी ज्योति कर ज्योतिरूप किए हैं निज शिरके केश जिनने, पर एक प्रति दुर्बुद्धि वरुण पाताल नगरमें निवास करै है सो पानातै परामुख होय लड़ने को उद्यमो भया है । हृदयकों व्यथाकारी विद्याधरों के समूहरि युक्त है। समुद्र के मध्य द्वीपको पायकर वह दुरात्मा गर्वको प्राप्त भया है, सो हम ताके ऊपर चढ़कर पाए हैं, बड़ा युद्ध भया । वरुण के पुत्रों ने खरदूषण को जीवसा पकझ्या है
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पप-पुराण-भाषा
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सो मंत्रियों ने मंत्र करि खदूषण के मरणकी शंकाते युद्ध रोक दिया, रात खरदूषण को जुड़ावना पर वरुण को जीतना सो तुम अवश्य शीघ्र आइयो, ढील मत करियो । तुम सरिखे पुरुष मतंब्यमें न चूके, अब सब विचार तिहारे प्रायवे पर है। यद्यपि मूर्म तंज पुज है तथापि अरुण सरिया सारथी चाहिए । तब राजा प्रह्लाद पत्रके ममाचार जानि मत्रियोंसों मंत्र कर रादा के समीप चननेकों उद्यमी भगा । तब प्रल्लाद को चलता सुनकर पवन जयकुमार ने हाथ जोडि गोड नितं धरती स्पर्श नमस्कार विनती करी। हे नाथ ! मुफ पुरके होते मते तुमको गमनयुक्त नाहीं, पिता जो पुत्र को पालं है सो पुत्रका यही धर्म है कि पिताकी मेवा कर तो जानिए पुत्र भया ही नाहीं । तःत पाए कूच न कर, माहि प्राज्ञा करै । तब पिता कहते भये, हे पुत्र ! तुम चुमार हा, अब तक तुमने कोई युद्ध देधा नाही, त.ते तुम यहां रहो, मैं जाऊगा । तव पवन जयकुमार कनकाचल के तट समान जो वक्षस्थल ताहि ऊंचाकर तेज के धरणहारे वचन कहता भया है तात ! मरी शक्ति का लक्षण तुमने देख्या नाही, जगत के दा हवे में अग्नि के स्फुलिने का क्या वीर्य परखना । तुम्हारी प्राज्ञारूप प्राशिषाकर पवित्र भया है मस्तक मेग, ऐसा जो मैं इन्द्रको भी जीननेकों समर्थ है, यामें सदेह नाहीं । ऐमा कहकर गिताकों नमस्कार कर महा हपं संयुक्त उटकरि स्नान भोजनादि शरीरकी क्रिया करी अर आदर सहित जे कुल में वृक्ष हैं निम्होंने प्रसोस दीना । पाव सहित अग्हंत सिद्ध को नमस्कारपरि परम कांति को धरता संता महा मंगलरूप पितासों विदा होवेकों प्राया सो पिताने पर माताने मंगल के भयत प्रामू न का, आशीर्वाद दिया । हे पुट ! तेरी विजय होव, छाती सों लगाय मस्तक चुम्या ।
पधनंजय कुमार श्री भगवान का ध्यान घर माता पिता को प्रगाम करि जे परिवार के लोग पायनि प तिनको बहुत यं बंधाम सबसों अति स्नेह कर विदा भए । पहले अपना दाहिना पात्र आम धर चले । फुरफ है दाहिनी मुजा जिनकी पर पूर्ण कल ग जिनके मुख पर लान पल्लव तिनपर प्रथम ही इष्टि पड़ी । अर थंभसों लगी हुई द्वार खड़ी जो प्रजना सुन्दरी ग्रांसुनिवरि भोज रहे हैं नेत्र जाके, तांबूलादिरहित घुसरे होय रहे है अधर झाके, मानों घभाविष उकेरी पुतली ही है। कुमार की दृष्टि सुन्दरी पर पड़ी सो क्षणमा अविष दृष्टि संकोच कोकारि बोले । हे दुरीक्षणे कहिए दुःखकारी है दर्गन जाका, या स्थानकत जावी, तेरी दृष्टि उल्कापात समान है, सो मैं महार न सकू 1 ग्रहो बड़े कूल की पुत्री युलवंती ! तिनमें वह ढीठपणा कि मने किए भी निलंज कमी रहे। पति के अतिक्रूर बचन सुने तो भी याहि अति प्रिय लाग जैस
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२६.
महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्य
घने दिन के तिसाए पपैये कों मेष की बूद प्यारी लाग, सो पति के वचन मनकरि अमृत समान पीवतो भई, हाथ जोड़ि चरणारविंद वी ओर दृष्टि धरि गदगद वारणीकर डिगते डिगते वचन नीठि नीठि कहती भई-हे नाथ ! जब तुम यहां विराजते हुते, तब में वियोगिनी ही हुती; परन्तु अाप निकट हैं सो अाशाकरि प्राण कष्टतं टिक रहे हैं, अव प्राप दूर पधारं हैं मैं कैसे जीऊगी। मैं तिहारै वचनरूप यमृत के ठायस्वादने की अति प्रातुर, तुम परदेश को गमन करते समय स्नेहत दयालु चित्त होयकर बस्ती के पशु पक्षियों को भी दिलासा करी, मनुष्पों की तो कहा बास ? सबको अमृत समान वचन कहे, मेरा चित्त तिहारे चरणारविंद विषै है, मैं तिहारी अप्राप्तिकार अति दुःसी, औरनिकी श्रीमुखत एती दिलासा करी, मेरी औरनिफे मुखतही विलासा कराई होती। जब मोहि प्रापन सजी तब जगत मे शरण नाहीं, मरण ही है। तब कुमार ने मुख संकोचकर कोपसों कही, मर | तब यह सत्ती वेद-खिन्न होय धरती पर गिर पड़ी । पवनकुमार यासों कुमयाही विर्ष चाले। बड़ी ऋद्धि सहित हाथी पर असवार होय सामंतों सहित पयान किया। पहले ही दिनविर्ष मानसरोवर जाय डेरे भए, पुष्ट हैं वाहन जिनके, सो विद्यापरिनी की सेना देवों की सेना समान अाकाश उतरती सती प्रति शोभायमान भासती भई । कैसी है सेना? नाना प्रकार के जे वाहन पर पास्त्र तेई हैं आभूषण जाके । अपने २ वाहनों के यथायोग्य यत्न कराए, स्नान कराए, खानपान का यत्न कराया।
__ अथानंतर विद्या के प्रभावतं मनोहर एक बहुलणा महल बनाया, चौड़ा और ऊंया सो आग मित्र सहिल महल कपर विराजे ? संग्राम का उपज्या है अति हर्ष जिनके, झरोखनि की जाली के छिद्रकरि सरोवर के तट के वृक्षनिकों देखते हुते, शीतल मंद सुगंध पवनकारि वृक्ष मद मंद हालते छुते पर सरोवरवि लहर उठती हुनो, सरोवर के जीव कदुवा, मीन, मगर पर अनेक प्रकार के जलचर गर्व के धरण हारे सिनकी मुजानिकरि किलोल होय रही हैं । उज्जवल स्फटिकमरिण समान निर्मल जल है जामें नाना प्रकार के कमल फूल रहे हैं, हंस, कारंड, क्रौंच, सारस इत्यादि पक्षी सुन्दर शरद कर रहे हैं जिनके सुनने ते मन पर कर्ण हर्ष पा– अर भ्रमर गुजार कर रहे हैं। तहां एक चकवी, चकवे बिना अकेली वियोगरूप अग्नित तप्तायमान प्रति आकुल, माना प्रकार चेष्टा की करगाहारी, अस्ताचल की और सूर्य गया सो वा तरफ लग रहे हैं नेत्र जाके पर कमलिनी के पत्रनिके रिश्रद्रों विर्षे बारंबार देख है, पस्त्रिनिकों हलावती उट है पर पड़ है।
. पर मृणाल कहिए कमल को नाल का तार ताका स्वाद विष-सभान देन है, अपना प्रतिबिम्ब जलविौ देख करि जाने है कि यह मेरा प्रीतम है,
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पद्म-पुराण-भाषा
सो ताहि बुलाये है सो प्रतिबिंद कहा यावं । तदि अप्राप्तिः परम शोक को प्राप्त भई है। कटक प्रार्य उत्तर्मा है सो नाना देशनिके मनुष्यों के शब्द पर हाथी घोड़ा आदि नाना प्रकार के पशुवनि के शब्द सुनकर अपने वल्लभ कया की पाशा कर भ्रम है चित्त, जाफा, अश्रुपात सहित हैं लोचन जाके, तट के वृक्ष पर चदि चढिकरि दर्शों दिशा की और देखें है, प्रीतम को न देखकरि प्रति शीघ्र ही भूमिपर प्राय पड़े है, पांख हलाय कमलिनी को जो रज शरीर के लागी है सो दूर कर है सो पवनकुमार ने बनीवर तक दृष्टि धारि चकबी की दशा देखी, दयाकर भीज गया है चित्त नाका, चित्त में ऐसा विचार है कि प्रीतम के वियोग करि यह शोक रूप अग्निविर्षे बलं है।
यह मनोश मानसरोवर पर चंद्रमा की चादनी चंदन-समान शीतल सो या वियोगिनी चकमी को दावानल समान है, पति विना याकों कोमल पस्लव भी खड्ग समान भास है। चन्द्रमा की किरण भी बज के समान भास है, स्वर्ग हू नरकरूप होय आचर है। ऐसा चितवरकर याका मन प्रिया विर्ष गया । पर या मानसरोवर पर ही विवाह भया हुता सो वे विवाह के स्थानक दृष्टि में पड़े सो याको अति शोक के कारण भा. मर्म के भेदनहारे दामह करीत समान लागे। चित्तविष विचारता भया-हाय ! हाय ! मैं करचित्त पापी, वह निर्दोष वृथा तजी, एक रात्रि का वियोग चकवी ने सहार सके तो बाईस-वर्ष का वियोग वह महासुन्दरी कस राहार ? कदुक वचन वाकी सस्तीने कहे हुते, वाने तो न कहे हुने, मैं पराए दोषकरि काहे को ताका परित्याग किया । धिक्कार है मो सारिखे मूर्ख को, जो विना विचार काम करें ।
__ ऐसे निष्कपट प्रासगी को विना कारण दुःख अवस्था कगे, मैं पापचित्त हैं, वन समान है हृदय मेरा जो मैंने एते वर्ष ऐसी प्रामावल्लभा को वियोग दिया, अब क्या करू', पितासों विदा होगकर घरत निकस्या हूं, मैं पाछा जाक, बड़ा संकट पङ्या, जो मैं वासौं मिले बिना संग्राम में जाऊ तो वह जीव नाहीं पर वाकै प्रभास भये मेरा भी प्रभाव होगया. जगत विष जीसव्य समान कोई पदार्थ नाहीं तात सर्व संदेह का निवारणहारा मेरा परम मित्र प्रहस्त विद्यमान है वासिवं भेद पूछू । बह सर्वप्रीति की रीति में प्रवीण है । जे विचार कर कार्य करें हैं, ते प्राणी सुख पावें हैं ऐसा पवनकुमार कों विचार उपज्या सो प्रहस्त मित्र ताके सुखवि सुखी दुखविर्षे दुखी याको चितावान देख पूछता भया कि हे मित्र ! तुम रावण की मदद करने को वरुण सारिसे योधासों लड़ने को जावो हो, सो अति प्रसन्नता चाहियें तब कार्य की सिद्धि होय । आज तिहारा बदन रूप कमल क्यों मुरभाया दीख है, लज्जा को
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्त्र
र जबरि मोहि नहो, तुमको चितावान देख कर मरे व्याकुल भाग गया है। ता गवनंजय ने कहा-हे मित्र ! यह वार्ता काहू सो कनी नाहीं। परन्तु हु। म स रहस्य के भाजन हो तोमु अरार नाहीं । यह बात कहते परम मा उपरी है । तत्र प्रहस्त करल भये गा तिहार वित्त विर्ष होय सो कलो, जी तुम आज्ञा करो सो बात और कोई न जानेगा, जसे ताते लोहे पर पड़ी जनकी बूद विनाय जाय, प्रकट न दोस्र, तरी मोहि कहीं बान प्रकट न होय ।
तव पनगार बोले-ह भित्र ! सुनो-मैं कदापि अंजना-सुन्दरीसा प्रीति न करा गो गावं मेरा मन प्रति व्याकुल है, मेरी ऋता देखो ऐते वर्ष परगणे भार सो अब तक वियोग रह्या, निाकारण मप्रीति भई, सदा बस शोककी गरी रही । अपमान करते रहे पर चलते समय द्वार की विरह रूप दाहसों
। गया है मुर रूप कगल जाका, सर्व लावण्य संपदा रहित मैन देखी, अब ता. ही नत्र गोल कागल समान मेरे हृदयको वागावत् भेर्दै है, ता ऐसा गायकर जारि ग बासों मिलाग हाच । है सजन ! जो मिला न हो यगा ना हम दोनों का ही मरमा होमगा । तव प्रहस्त क्षगाएक विचारकार बोले-तुम माता पितामों प्राज्ञा मांग शत्रु के जीत ते को निकसे ही, ताल पीछे चलना उचित नाहीं पर अब तक कदापि प्रजना-सादी याद करी नाहीं पर यहां बुलायें तीनमा उपजे है तातं मोप्य चलना र गोप्य ही आवना, वहां रहना नाहीं । उनका अवलोकन कर सुख सभापता वारि यानंद का शीन ही भाबना । तत्र अापका वित्त निश्चल होगा । परम उत्तमहरूप चलना, शत्रु के जीनने का निश्चय किया गो यही उपाय है। राय मुद्गर नामा सेनापति को कटक रक्षा सोपरि मेरुकी बंदनाका मिसवारि प्रहस्त मित्र सहित गुप्त ही सुगंधादि सामग्री लय वारि अाकाशके मागंसों चाले । सूर्य भी अस्त होप गया अर सांगा प्रकाश भी गया, निशा प्रगट भई अजनासुन्दरी के महल पर जाय पहुंचे । पनन शुमार तो बाहिर खड़े रहे, प्रहमन खवर देवकों गीतर गए, दीप पा मंद प्रकाश था, अंगना कहती भई कौन है ? वसंतमाला निकर ही सोनी हुनी, मा जगाई, वह अब श्रातीवि निपुण उठकर अजनाका भय निवाररग परत भई । प्रहम्तने नमस्कारपारि जव पवनंजय के प्रागमनका वृत्तान्त वह्या तब तुन्दरी प्राणनाथ का रामागम स्वप्न नमान जान्या, प्रहस्त की गदर वाणी कार कहती भई हे प्रहस्त ! मैं पुण्य हीन' पतिकी कृपायरि वजित, गर ऐसा हो पाप कर्मका उदय आया, तू हमसों कहा हसं हैं, पतिसा जिसका निरादर होय वाकी कान अयशा न करें ? मैं अभागिनी दुम्न अवस्थाकों प्राप्त भई, वहांत सुख अवस्था हाथ । तब प्रहस्त ने हाथ जोड़ नमरकारकारि
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पम-पुराण-भाषा
२१३
विनती करी-हे कल्याणरूपिणि । हे पतिव्रते! हमारा अपराध क्षमा करो, अब सब अशुभ कर्म मए । तिहारे प्रेमरू गुणा का प्रेर्गा तेरा प्रारानाथ आया । तेरेसे प्रति प्रसन्न भया तिनकी प्रसन्नताकरि कहा कहा मानंद न होय, जैसे चंद्रमाके योगवारि रात्रिकी अति मनोज्ञता होय ।
__तब अंजनासुन्दरी क्षण एक नीची होय रही पर वसंतमाला प्रहस्तसों कही-हे भद्र ! मेघ बरस जव ही भला, तात प्राणनाथ इनके महल पधारे मो इनका बड़ा भाग्य पर हमारा पुण्यरूप वृक्ष फल्या । यह वात होय रही हुती ताही समय पानंदके अश्रुपातकरि व्याप्त होए गग हैं नेष जिनके सो कुमार पधारे ही, मानों करुणारुप सम्बी ही प्रोलमकों प्रिया के दिग ले माई। तब भयभीत हिरणी के नेत्र-समान सुन्दर हैं नेत्र जाके ऐसी प्रिया पति को देव सन्मुख जाय हाथ जोडि सीस निवास नायनि पड़ी। तब प्राय वल्लभने अपने करते सीस उठाय खड़ी करी । अमृत समान वचन कहे कि हे देवी ! क्लेश का मकल खेद निवृत्त हो । सुन्दरी हाथ जोडि पतिके निकट खड़ी हुती । पति ने अपने करते कर पकड़करि सेजवर बियाई, तब नमस्कार कर प्रहस्त तो बाहिर गए पर वसंतमाला हू अपने स्यान जाय बैठी । पवनंजय कुमारने अपने प्रजानत लज्जावान होय सुदरीसों वारंवार कुशल पूछी पर कही हे प्रिये ! मैंने अशुभ कर्म के उदयत जो तिहारा वृथा निरादर किया सो क्षमा करो । तब सुन्दरी नीचा मुखरि मंद मंद वचन कहली भई, हे नाथ ! प्रापने पगभव कुछ न किया, कर्मका ऐसा ही उदय हुआ ।
ग्रज अापने कृपा करी, अति स्नेह जताया सो मेरे सर्व मनोरथ सिद्ध भए । श्रापके ध्यानकर सयुक्त मेरा हृदय सो श्राप सदा हृदय ही विविराजते, आपका अनादरहू प्रादर समान भास्या । या भांति अंजना सुन्दरी ने कह्मा त पवनंजयकुमार हाथ जोड़ कहते भए कि हे प्राररिये ! मैं वृथा अपराध किया । पराए दोपते तुमको दोष दिया सो तुम सब अाराध हमारा विस्मरण करो। मैं अपना अपराध क्षमावने निमित्त तिहारे पायनि परू है, तुम हम सों अति प्रसन्न होवो, ऐसा कहकर पवन नयकुमारने अधिक स्नेह बनाया तब अंजना सुन्दरी पति का ऐसा स्नेह देखकर बहुत प्रसन्न भई । घर पति को प्रियवचन कहती भई, हं नाथ ! मै अति प्रसन्न भई, हम तिहारे चरणारविदको रज है. हमारा इतना विनय तुमकों उमित नाहीं ऐसा कहकर सुग्वयों सेज पर विराजमान विए. प्राणनाथ की कृपाकरि प्रिया का मन अति प्रमन्न भया अर. शरीर अतिकांतिको घरता भया, दोनों परस्पर प्रतिस्नेहके भरे एक चित्त भा। सुखरूप जागृति रहे, निद्रा न लीनी । पिछले पहर अल्प निद्रा पाई, प्रभात का
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महाकवि दौलतराम कामली वाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
समय होय आया तब यह पतित्रता रोजसों उत्तर पति के पाय पलोटने लगी, रात्रि व्यतीत भई, सो सुप में जानी माहीं । प्रातः समय चन्द्रमा की किरमा फीकी पड़ गई। कुमार पानंद के भार में भर गए पर स्वामी को प्राज्ञा भूल गए, तब मित्र प्रहस्त ने, कुमार के हितविर्षे है चिन्न जाका, ऊंचा शब्द कर वसंतमाला को जगाकर भीतर पटाई पर मंद मद यापहु सुगंधित महल में मित्र के समीप गए । अर कहते भए, हे सुन्दर ! उठो, अब कहा सोचो हो ? चन्द्रमा.भी तिहार मुक कांति नहि होप ना है । यह बनन मनाकर पवनजय प्रबोध को प्राप्त भए । णिथिल है शरीर जिनका, जंभाई लेते, निद्रा के आवेशा करि लाल हैं नेत्र जिनके, कानोंको बाए हाथ की तर्जनी अंगुलीसों खुजावते, खुले हैं न जिनके, दाहिनी भुजा संकोचकरि अरिहंतका नाम लेकर सेजसों उठे, प्राणप्यारी प्रापके जगनत पहिले ही सेजसों उतरकरि भूमिथिों विराज है, लजाकर नम्रीभूत हैं नेत्र जाके, उठते ही प्रीतम की दृष्टि प्रियापर पड़ी । बहुरि प्रहस्तको देख कार, "प्रावो मित्र' शब्द कहकर सेजसों उठे । प्रहस्त ने मित्रसों रात्रि की कुशल पूछी, निकट बंटे, मित्र नीतिशास्त्रके वेत्ता कुमारसों कहते भए कि हे मित्र ! अ३ उठो, प्रियाजी का सम्मान बहुरि प्रायकर करियो, कोई न जाने मा भांति कटक में जाय पहूँचै अन्यथा लजा है। स्थतपुरका धनी किन्न गीत नगर का धनी रावण के निकट गया चाहै है सो तिहारी प्रोर देखें है । जो वे प्राग आई तो हम मिलकर चले । प्रर रावण निरतर मंत्रियोंने पूछ है जो पवनजय कुमार के डेरे कहां हैं घर कब प्रायेंगे, तास अब आप शीघ्र ही राषशा के निकट गधारो । प्रिया जीसों विदा मांगो, तुमकों पिता की अर रावण की प्राज्ञा अवश्य करती है। कुशल क्षेमसों कार्यकर शिताव ही पात्रंग तब प्रारप्रियामों अधिक प्रीति करियो ।
तब पचनंजय ने काही, हे मिथ ! ऐसे ही करना । ऐसा कहकर मित्रको तो बाहिर पटाया अर पाप प्राण वल्लभासों अलिस्नेहकर उरसों लगाय कहते भए. हे प्रिये ! अब हम जाय हैं, तुम उद्वेग मत करियो, थोड़े ही दिनोंमें स्वामी का कामकर हम आवेग, तुम मा नंदसों रहियो । तत्र अजनासुन्दरी हाथ जोड़कर कहती भई, हे महाराजकुमार ! मेरा ऋतुरामय है सो गर्भ मोहि अवश्य रहेगा । पर अबतक अापकी कुपा नाहीं हुती, यह सर्व जाने है सो माता पितासों मेरे कल्याण के निमित्त गर्भका वृत्तांत कह जावो । तुम दोधंदी सब प्राणियों में प्रसिद्ध हो । ऐसे जब प्रियाग कह्या तब प्राणवल्लभाकों कहते भए । हे प्यारी ! मैं माता पितासों विदा होय निकस्या सो प्रव उनके निकट जाना बन नाहीं, लज्जा उपजे है । लोक मेरी चेष्टा जान हंसेंगे, तात जब तक तिहास
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पद्म पुराण भाषा
गर्भ प्रकाश न पाव ता पहिले ही में भाऊ हूं, तुम चित्त प्रसन्न राम्रो पर कोई कहै तो ये मेरे नाम की मुद्रिका राखो हाथों के कड़े रावो, तुमको सब शांति होयगी, ऐसा कहकर मुद्रिका दई श्रर बसंतमाला को भाज्ञा दर्द इनकी सेवा बहुत नौके करियो, ग्राम पेजसों उठे, प्रिया विषै नगा रहा है प्रेम जिनका, कैसी है सेज ? संयोग के योगर्त बिखर रहे हैंहार के मुक्तकल जहां पर पुरुषनिकी सुगंध मकरंद भ्रम हैं भ्रमर जहां क्षीरसागर की तरंग समान प्रति उज्ज्वल बिछे हैं पट जहां, याप उठकर मित्र के सहित विमान पर बैठि भाकाशके मार्ग चाले । अंजना सुंदरी ने भ्रमंगल के कारण श्रांसू नका हे श्रेणिक ! कदाचित् या लोकविषै उत्तम वस्तु के संयोगत किचित् सुख होय है सो क्षणभंगुर है पर देहधारियों के पाप के उदयतें दुःख होय है, सुख-दुःख दोनों विनश्वर है, तातें हर्ष विषाद न करता । हो प्राणी हो ! जीवों को निरंतर सुख का देनहार दुःखरूप अंधकार का दूर करणहारा जिनवर-भाषित वर्ष सोई भया सूर्य ताके प्रतापकरि मोह- तिमिर हरहु ।
इति श्री रविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ ताकी भाषावचनिका विषै पवनंजय अंजनाका संयोग वर्शन करने वाला सोलहवां पर्व पूर्ण भया ।। १६ ।।
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[जना के गर्भ का प्रगट होना और सासू द्वारा घर से निकाला जाना ]
प्रथानंतर केक दिनों विष महेंद्र की पुत्री जो अंजना ताके गर्भ के चिन्ह प्रगट भए । कछुक सुख पांडुवर होय गया मानों हनुमान गर्भ में माया सो तिनका यश ही प्रगट भया है। मंद चाल चलने लगी जैसा मदोन्मत्त दिग्गज विचर है, स्तन युगल यति उन्नति को प्राप्त भए, श्यामलीभूत है अग्रभाग जिनके आलसतें बचन मंद मंद निसरें, भोहों का कंप होता भया, इन लक्षणनिरि ताहि सासू गर्भिणी जानकर पूछती भई कि तैंने यह कर्म कौनत किया। तब यह हाथ जोड़ प्रणाम कर पति के आवने का समस्त वृत्तांत कहती भई तदि केतुमती सासू क्रोधायमान भई । महा निठुर वाणीरूप पाषाण कर पोडती भई पर कहा है पापिनि ! मेरा पुत्र तेरे प्रति विरक्त, तेरा प्राकार भी न देख्या चाहै, तेरे शब्द को अब विषै घारं नाहीं, माता-पितासों बिदा होयकर रणसं
१७बां पर्व
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल व्यक्तित्व एवं कृतित्व
ग्राम को बाहिर निकस्या, वह धीर कैसे तेरे मंदिर में प्राने हे निर्लज ! धिक्कार है तुझ पापनको चंद्रमाको किरण समान उज्जवल वंशकों दूषरण लगा वनहारी, यह दोनों लोक मैं निद्य अशुभक्रिया लेने आचरी पर तेरी यह सखी वसंतमाला याने तोहि ऐसी बुद्धि दीनी, कुलटाके पास वेश्या रहे सत्र काहे की कुशल ? मुद्रिका पर कड़े दिखाए तो भी तहने न मानी, अत्यंत कोम किया। एक क्रूर नाम किंकर बुलाया। वह नमस्कार कर प्राय थाहा भया । तब क्रोध कर केतुमतीने लाल नेत्र कर कहा हे क्रूर! सखी सहित याहि गाड़ी में बैठाय महेंद्रनगर के निकट छोड़ घावो तब क्रूर केतुमती की प्राज्ञातं सखी सहित अंजना को गाड़ी में बैठाकर महेंद्रनगर की ओर ले चत्या । कंसी है अंजना सुन्दरी ? अति कां है शरीर जरका महा पवनकर उपड़ी जो बेल ता समान निराक्षय, प्रति भाकुल कांतिरहित दुःखरूप अग्निकर जल गया है हृदय जाका, भयंकर सासूकों कछु उत्तर दिया, सखीकी और धरे हैं नेत्र जाने, मनकर अपने अशुभ कर्मको वारंवार निदतों अश्रुधास नाखती, निश्चल नहीं है चित जाका, सो क्रूर इनको लेय चात्या सो क्रूरकर्मविधं प्रति प्रवीण है । दिवसके अंतमें महेंद्रनगरके समीप पहुंचा कर नमस्कार कर मधुर हे देवी! मैं अपनी स्वामिनी को प्राज्ञातें तुमको दुःख का सो क्षमा करहु । ऐसा कहकर सखी सहित सुन्दरीकू' गाड़ी उतार विदा होय गाड़ी लेय स्वामिनीपे गया । जाय विनती करी - आपकी आज्ञा प्रमाप तिनकू तहां पहुंजायश्राया है।
वचन कहता भया । कारण कार्य किया,
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श्रथानंतर महा उत्तम महा पतिव्रता जो अंजवासुन्दरी ताहि पतिके योगतं दुःख के भारत पीड़ित देख सूर्य भी मानों चिताकर मंद हो गया अर रुदनकर अत्यंत लाल होय गए हैं नेत्र जाके, ऐसी अंजना सो मानो या नेत्र की अस्पताकर पश्चिम दिशा रक्त होय गई, अंधकार फैल गया, रात्रि भई, अंजना के दुःख किसी जो श्रासून की धारा तेई भए मेघ तिनकर मानों दसों दिशा श्याम होय गई अर पंछी कोलाहल शब्द करते भए सो मानों जना के दुखतं दुःखी भए पुकारें हैं। वह अंजना पदावरूप महादुःख का जो सागर तामें डूबी क्षुधादिक दुःख भूल गई प्रत्यंत भयभीत श्रश्रुपात नाखं, रुदन करें, सो वसंतमाला सखी धैर्य बंधार्य, रात्री को पल्लव का सांथर बिलाय दिया सो याकों चिद्रा पंच भी न आई। निरंतर उष्ण अश्रुपात पढ़ सो मानों दाह के भयतें निद्रा भाज गई, बसंतमाला पांच दाने खेद दूर किया, दिलासा करी, दुखः के योगकर एक रात्री वर्ष बराबर बीती । प्रभात में सांयरेको तजकर नाना संकल्प विकल्पनिके सैकड़ानि शंका करि अति विह्वल पिता के घर की
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पग-पुराण भाषा
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और चाली । सखी छाया समान संग चाली। पिता के मन्दिर के द्वार जाय पहुँची । भीतर प्रवेश करती द्वारपाल ने रोकी, दुःख के योगत और ही रूप होय गया सो जानी न पड़ी। तब सनी ने सब वृतांत कहा सो जानकर शिलाकवाट नामा द्वारपाल ने एक और मनुष्य कों द्वारे मेलि प्राप राजा के निकट जाय नमस्कार करि विनती करी । पुत्री के प्रागमन का वृत्तान्त कह्या।
तब राजा के निकट प्रसन्नीति नामा पुत्र बैठ्या हुता सो राजा ने पुष को आज्ञा करी-तुम सुम्मुख जाय उसका शीघ्र ही प्रवेश करावो. तुम तो पहिले जावो और हमारी हासवारी लेयार करावों, हम भी पीछेत प्रा है, तदि द्वारपालने हाथ जोड़कर नमस्कार कर यथार्थ विनती करी । तब राजा महेंद्र लज्जाका कारण सुनकर महा कोपवान भए । घर पुत्रों आज्ञा करी कि पापिनीकू नगर ते काढ़ देवो, जाकी वार्ता सुनकर मेरे कान मानों वन कर हते' गए है । तब एक महत्साह नामावड़ा सामंत, राजा का प्रतिवल्लभ, सो कहता भया, हे नाथ ! ऐसी प्राज्ञा करनी उचित नहीं, बसंतमालासों सब ठीक पास लेहु । सासू केतुमती अति क्रूर है पर जिनधर्मत परान्सुख है । लौकिक सूत्र जो नास्तिकमत ताविष प्रवीण है तानं बिना विचार्या झूठा दोष लगाया । यह धर्मात्मा श्रावकके प्रतकी भरणहारी, कल्याण प्राचार विधं तत्पर पापिनी सासू ने निकासी है पर तुम भी निकासो तो कौनके घारग जाथ, जैसे व्यापकी दृष्टित मृगी त्रासकों प्राप्त भई संती महा गहन वनका शरण लेय, तसे यह भोलो निष्कपट सासूः मांकित भई तुम्हारे शरण प्राई है, मानों जेठके सूर्य की किरण के संतापत दुःखित भई महावृक्षरूप जो तुम सो तिहारे पाश्रय पाई है। यह गरीबिनी, विह्वल है आत्मा जाका अपवादरूप जो आताप ताकर पीड़ित तिहारे प्राश्रय भी साता न पार्च तो कहां पावै ? मानों स्वर्ग ते लक्ष्मी ही आई है। द्वारपाल ने रोकी सो अत्यत लज्जा को प्राप्त भई । दिलखि करि माया ढांकि द्वार खड़ी है, अापके स्नेह कर सदा लाइली है. सो तुम दया करो. यह निर्दोष है, मंदिर मांहि प्रवेश करावो पर केतुमती की ऋरता पृथ्वी विर्ष प्रसिद्ध है। ऐसे न्याय रूप अचन महोत्साह सामंत ने कहे, सो राजा कान न धरै, में कमलोंके पत्रनिविर्षे जलकी बूद न रहर तसे राजा के चित्त में यह बात न ठहरी ।
राजा सामंत सों कहते भए कि यह सवी वसंतमाला सदा पाके पास रहै पर याही के स्नेह के योगते कदाचित् सत्य न कहे तो हमको निश्चय कैसे मावै, यात याके शोल विष संदेह है, सी याको नगर निकास देख। जब यह
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
बात प्रसिद्ध होमगी तो हमारे निर्मल कुल विर्षे कलंक आवेगा । जे बड़े कुलकी बालिका निर्मल हैं. अर महा विनययंती उत्तम चेष्टाकी धरणहारी हैं ते पीहर सासुरै सर्वत्र स्तुति करने योग्य हैं । जे पुण्याधिकारी बड़े पुरुष जन्म ही तें निर्मल शील पाले हैं, ब्रह्मचर्य को धारण कर हैं पर सर्व दोष का मूल जो स्त्री तिनकों अंगीकर नाही करे हैं ते धन्य हैं। ब्रह्मचर्य समान और कोई व्रत नाहीं अर स्त्री के अंगीकार में यह सफल नाहीं होय है । जो पूत बेटा बेरी होय पर उनके अवगुण पृथ्वी विष प्रसिद्ध होंय तो पिताका धरती में गड़ जाना होय है 1 सम्म ही कुल को लज्जा उपज है. मेरा मन प्राज अति दुःखित होय रहा है, मैं यह बात पूर्व अनेक बार सुनी हुती जो यह भरतार के अप्रिय है पर वह याहोखत नाही वंह कार गर्म की उत्पत्ति कैसे भई. तातै पह निश्चय सेती सदोष है। जो कोई याहि मेरे राज्य में राखेगा सो मेरा शत्रु है । ऐसे वचन कहकर राजा ने कोरकर जैसे कोई जान नाहीं या भांति याकों द्वारले निकाल दीनी।
सखी सहित दुःखकी भरी अंजना राजाके निज वर्ग के जहाँ जहाँ मात्रय के प्रथि गई, सो प्राने न दीनी, कपाट दिए । जहाँ बाप ही क्रोधायमान होय निराकरण कर, तहां कुटुम्ब की कमी पाशा, ने तो सब राजा के अधीन हैं। ऐसा निश्चयकर सवतै उदास हो सखीसों कहती भई। आंसूबों के समूहकर भीज गया है अंग जाका, हे प्रिये ! यहा सर्व पाषाण चित्त है, यहां कैसा बास ? तात बन में चालें, अपमानते तो मरना भला । ऐसा कहकर सखी सदित बन को चाली, मानों मृगराजतं भयभीत मृगी ही है । शीत 'उष्ण पर बात के खेदकार पीडित बन में बैठि महा रुदन करती भई । हाय हाय ! मैं मंदागिनी दुःखदाई जो पूर्वोपार्जित कम ताकरि महाकष्टको प्राप्त भई । कौनके शरण जाऊ ? कौन मेरी रक्षा कर। मैं दुर्भाग्न सागरके मध्य कौन कर्मत पड़ी । नाथ ! मेरा अशुभ कर्मका प्रेर्या कहांत आया ? काहेको गर्भ रह्या, मेरा दोनों ही ठौर निरादर भया । माता ने भी मेरी रक्षा न करी, सो यह कहा कर । अपने घनी की प्राज्ञाकारिणी पतियतानिका यही धर्म है। पर नाथ मेरा यह वचन कह गया हुता कि तेरे गर्भकी वृद्धित पहिले ही मैं पाऊँगा सो हाय वह बचन क्यों भूले ? पर सासू ने बिना परखे मेय त्याग क्यों किया? जिनके शोल में संदेह होय तिनके परखने के अनेक उपाय हैं पर पिताकों में बालअवस्था विष प्रति लाड़ली हुती, निरंतर गोदमें सिलावते हुते सो बिना परखे मेरा निरादर किया, इनको ऐसी बुद्धि क्यों उपजी ? अर माताने मुझे गर्भमें धारी, प्रतिपाल किया, अब एक बात भी मुखते ने निकाली कि इसके गुण दोष का निश्चय कर लेवें।
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पग-पुराण-भाषा
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पर भाई जो एक माताके उदरसों उत्पन्न भया हुता, मो मो दुःखिनी कों न राख सम्या, सब ही कठोर चित्त होय गए । जहा माता पिता भ्राता ही की यह दशा, तहां काका बाबा के दूर भाई तथा प्रधान सामंत कहा करें अथवा उन सबका कहा दोष ? मेरा जो कमरूम वृक्ष फल्या सो अवश्य भोगना । या भांति अंजना विलाप कर सो सम्पी भी याके लार विलाप करें । मनते धैर्य जाता रहा, अत्यत दीन मन होय चे स्वरत रूदन कर सो मृगी भी याकी दशा देख आंसू डालवे लागी। बहुत देरतक रोनेते लाल होय गए हैं नेत्र जाके तब सस्वी वसंतमाला महाधिवक्षण याहि छातीसू लगाय कहती भई-हे स्वामिनि ! बहुत रोनेत क्या लाभ ? जो कर्म तैने उपाज्या है सो अवश्य भोगना है, सब ही जीवनिकै कम प्रागे पीछे लग रहे हैं सो कर्मके उदरविर्ष शोक कहा ? हे देवी ! जो स्वर्ग लोक के देव सैकड़ों ग्राम राघों के नेत्रनिकर निरंतर प्रत्रलोकिए है, तेडू मुलके अत होते परम दुःख पात्र हैं । मनमें चितए कछु प्रार, होय जाय पयार ।
जगतके लोक उद्यम में प्रवर्ते हैं तिनकों पूर्वोपार्जित कर्मका उदय ही कारण है । जो हितकारी वस्तु प्राय प्राप्त भई सो अशुभकर्म के उदयतें विटि जाय । पर जो वस्तु मनत अगोचर है सो प्राय मिल । कर्मनिकी गति विचित्र है तात हे देवी ! तु गर्भके खेदकरि पीड़ित है, वृथा क्लेश मत कर, तू अपना मन दृढ़ कर । जो तेने पूर्व जन्म में कर्म उपार्ज हैं तिनके फल दारे न टरें। अर तू तो महा बुद्धिमती है तोहि कहा सिखाऊ । जो तू न जानती होय तो मैं कहै, ऐसा कहकर याके नेत्रनिके प्रासू अपने वस्त्रत पोंछे । बहुरि कहती भईहे देवी ! यह स्थानक पाश्रय रहित है, तात उठो, प्रागै चालं, या पहाई के निकट कोई गुफा होय जहां दुष्ट जीवनिका प्रवेश न होय, तेरे प्रमूतिका समय आया है सो कई एक दिन यत्नम् रहना । तब यह गर्भके भारत जो प्राकाशके मार्ग चलनेमें हू असमर्थ है तो भूमिपर सीके संग गमन करती महा कष्टकार पांव धरसी भई । कैसी है बनी ? अनेक अजगरनितै भारी, दुष्ट जीवनिके नादकारि अत्यंत भयानक, प्रति सघन, नाना प्रकार के वृक्षनिकरि सूर्यको किरणका भी संचार नाही, जहां मुईके अग्रभाग समान डाभकी प्रती पति तीक्ष्ण, जहाँ ककर बहुत पर माते हाथीनिके समूह पर भीलों के समूह बहुत हैं पर बनी का नाम मातंगमालिनी है, जहां मनकी भी गम्यता नाहीं तो तनकी कहा गम्पता ? सखी आकाशमार्गतै जायवेको समथं पर यह गर्भ के भारकरि समर्थ नाहीं तात सखी याके प्रेम के बंबनसों बंधी शरीरको छाया समान लार लार साल है । अंजना बनी को अति भयानक देखकर कांप है. दिशा भूल गई।
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हाकवि दौलतराम कासलीवाल - व्यक्तित्व एवं कृतित्व
तब वसंतमाला या प्रति व्याकुल जानि हाथ पकड़ कहती भई, हे स्वामिनि ! तू डरें मत मेरे पीछे पीछे चली आबो ।
तब यह सखीके कांधे हाथ मेलि चली जाय, ज्यों ज्यों डाभ की अपी जल के चुभे त्यों त्यों प्रति दखिन होय, विलाप करती, देहकों कष्टतं धारती, नीभरने जे अति तीव्र वेग संयुक्त व तिनकों प्रति कष्टते पार उतरती, अपने जे सब स्वजन अति निदेई तिनका नाम विहार अपने प्रशुभ कर्मकों बारंबार निंदती, बेलों को पकड़ भयभीत हिररणी कैसे हैं ने जाके, अंगविषै पसेव को धरती, कांटों से वस्त्र लगि जांय सो छुड़ावती, लहूते लाल होय गए हैं चरण जाके, शोकरूप अग्निके दाह्करि श्याम ताकों धरती पत्र भी हानं तो त्रासकों प्राप्त होती, चलायमान है शरीर जाका, बारंबार विश्राम लेती, ताहि सखी निरंतर प्रिय वाक्य कर धैर्य बंधावे, सो धीरे धीरे अंजना पहाड़ीकी तलहटी आई, तह भर कर गई। कहती भई में एक ग धरने की शक्ति नाहीं, यहां ही रहूंगी, मरगा होय तो होय । तब सखी अत्यंत प्रेमकी भरी महा प्रवीर मनोहर बचननिकरि याक शांति उपजाय नमस्कारकरि कहती भई हे देवी! यह गुफा नजदीक ही है, कृपाकर इहां उठकर वहां सुनसों तिष्ठो, यहां क्रूर जीव विचरं हैं लोकों गर्भंकी रक्षा करनी है, तातें हठ मतिर ।
ऐसा कह्या तब वह आताप की भरी सखी के बचनकरि र सघन वनक भयकरि चलत्रेको उटी, तब सखी हस्तावलंबन देशकर याकों विषमभूमित निकासकर गुफा के द्वारपर लेय गई। बिना विचारे गुफा में बैठने का भय होय सो दोनों बाहिर खड़ी विषम पाषाण के उलंघ कर उपज्या है खेद जिनको तातें बैठ गई । वहां दृष्टि घर देख्या । कैसी है दृष्टि ? श्याम श्वेत बारक्त कमल सम्मान प्रभाकों घर से एक पवित्र शिला पर विराजे चारणमुनि देखे । पल्कासन धरे अनेक ऋद्धि संयुक्त निश्चल हैं श्वासोच्छवास जिनके, नासिकाके श्र भागपर धरी है सरल दृष्टि जिनने, शरीर स्तंभ समान निश्चल है, गोदवर ध को बांमा हाथ ताके ऊपर दाहिना हाथ, समुद्र समान गंभीर, अनेक उपमा सहित विराजमान आत्मस्वरूप का जो यथार्थ स्वभाव जैसा निजशासनविषे गाया है तैसा ध्यान करते, समस्त परिग्रह रहित पवन जैसे प्रसंगी, आकाश जैसे निमंस, मानों पहाड़ के शिखर ही हैं सो इन दोनों ने देखे । फँसे हैं वे साधु ? महापराक्रम के धारी, महाशांत ज्योतिरूप है शरीर जिनका ये दोनों मुनि के समीप गई । सर्व दुःख विस्मरण भया। तीन प्रदक्षिण देय हाथ
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पद्म-पुराण-भाषा
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जोडि नमस्कार किया, मुनि परम बांधव पाए, फूल गार हैं नेत्र जिनके, जा समय जो प्राप्ति होनी होय सो ये दोनों हाथ जोड़ विनती करती भई मुनिके चरणारबिंदकी ओर धरे हैं अश्रुपासहित स्थिर नेत्र जिनने। हे भगवान् ! हे कल्याणरूप हे उत्तम चेष्टा के धरणहारे । तिहारे पारीरमें कुशल है । कैसा है तिहारा देह ? सर्व तपनत आदि साधनेका मूल कारण है । हे गुग्गनि के सागर ! ऊपर ऊपर तपकी है वृद्धि जिनके, हे महाक्षमावान ! शांतभावके घारी ! मन इत्रियोंके जीतनहारे ! तिहारा जो विहार है सो जीवनिके कल्याणनिमित्त है, तुम सारिखे पुरुष सकल पुरुषनिकों कुशलके कारण हैं सो तिहारी कुशल कहा पूछनी परतु यह पूछने का प्राचार हैं सातै पूछी है, ऐसा कहि विनयते नम्रीभूत
म शरीर का हो म हो रही पर मनि के दर्शन मन भय रहित भई ।
प्रथानंतर मुनि अमृततुल्य परमशांति के वचन कहते भये-हे कल्याणरूपिरिण ! हे पुत्री ! हमारे कर्मानुसार सब कुशल है । ये सर्वही जीव अपने कर्मोका फल भोगवै है । देखो कर्मनिकी विचित्रता, यह राजा महेंद्र की पुत्री अपराध रहित कुटुम्बके लोगनिने कादी है । सो मुनि बढे ज्ञानी, बिना कहे भब वृतांत के जाननहारे तिनको नमस्कार कर बसंतमाला पद्धती भई-हे नाथ ! . कोन कारणले भरतार यासों बहुत दिन उदास रहे ? बहुरि कौन कारण अनुरागी भए अर यह महासुखयोग्य वन विर्ष कौन कारगत दुःखकों प्राप्त भई ? मंदभागी कौन याकै गर्भ में पाया जारि पाको जीवने कासंश भया । तदि स्वामी अमितिगति तीन ज्ञान के धारक सर्व वृत्तांत यथार्थ कहते भए । यही महा पुरुषों की वृत्ति है जो पराया उपकार करें। मुनि वसंतमाला सो कहै हैंहै पुषी ! याके गर्भविष उत्तम बालक पाया है, सो प्रथम तो ताके भव सुनि । बहरि जो पूर्व भव में पापका प्राचरण किया, जा कारणतं यह अंजना मे दुःखकों प्राप्त भई, सो सुन ।
[राम लक्ष्मण का वन गमन और भरत का राज्याभिषेक]
अयानंतर राम लक्ष्मण क्षरण एक निदा कर अर्धरात्रि के समय जब मनुख्य सोय रहे, लोकनिका शबद मिट गया पर प्रकार फैल गया ता समय भगवान नमस्कार कर बखतर पहिर धनुष बाण लेय सीताकू बीच में लेकर चाले, घर-घर दीपकनिका उद्योत होय रहा है, कामीजन अनेक चेष्टा कर हैं।
३२वा पर्व
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महाकवि दौलतराम कासलीवास व्यक्तित्व एवं कृतित्व
ये दोक भाई महावीर नगर के द्वारकी खिड़की की पोरसे निकसि दक्षिण दिशा का पंथ लिया। रात्रि के अन्त में दौड़कर सामंत लोक आय मिले। राघव के संग चलने की है अभिलाषा जिनके, दूरते राम लक्ष्मणकू' देख महा विनय के भरे असवारी छोड़ प्यादे आए, चरणारविंदकों नमस्कारकरि निकट प्राय वचनालाप करते भए । बहुत सेना आई पर जानकी की बहुत प्रशंसा करते भए जो याके प्रसाद हम राम लक्ष्मणको श्रम मिले। यह न होती तो ये धीरे धीरे न चलते पर हम कैसे पहुंचते ? ये दोऊ भाई पवन- समान शीघ्रगामी हैं पर यह सीता महासती हमारी माता है या समान प्रशंसा योग्य पृथ्वी विषै और नाहीं । वे दोऊ भाई नरोत्तम सीता की चाल प्रमाण मंद मंद दो कोस चाले ।
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खेत निचिषं नाना प्रकार के ग्रनहरे हो रहे है अर सरोवरनिमें कमल फूल रहे हैं अर वृक्ष महारमरणीक दीख हैं । अनेक ग्राम नगरादि में ठौर ठोर भोजनादि सामग्री करि लोक पूजें हैं । अर बड़े बड़े राजा बड़ी फौजसे ग्राव मिले जेसे वर्षा काल में गंगा जमुना के प्रवाह विष अनेक नदियनि के प्रवाह श्राय मिलें ।
इक सामंत मार्ग के खेद करि इनका निश्चय जान प्राज्ञा पाय पीछे गए। अर कैइक लगाकर, कोइक भयकर, कैइक भक्ति कर लार प्यादे चले जाय है सो राम लक्ष्मण क्रीड़ा करते परियात्रा नामा अटवी थिये कैसी है अटवी ! नाहर पर हाथीनिके समूहनिकर भरी, महा भयानक वृधानिकर रात्रि समान अधिकार की भरी, जाके मध्य नदी है ताके तट श्राए, जहां भीलनिका निवास है, नाना प्रकार के मिठ फल हैं। आप वहां तिष्ट कर कैएक राजनिक विदा किया अर कंएक पीछे न फिरे, राम ने बहुत कहा तो भी सग हो चाले सो सकल नदीको महा भयानक देखते भए । कैसी है नदी ? पर्वतनिसों निकसती महानील है जल जाका, प्रचंड हैं लहर जायें, महा शब्दायमान अनेक जे ग्रह मगर तिनकर भरी होऊ ढांहां विदारती, कल्लोलनिके भयंकर उड़े हैं तीरके पक्षी जहां ऐसी नदी को देखकर सकल सामंत कासकर कंपायमान होय राम लक्ष्मगाकू कहते भए कि हे नाथ ! कृपाकर हमें भी पार उतार । हम सब भक्तिवंत हमसे प्रसन्न होवो हे माता जानकी लक्ष्मणसे कहो जो हमकू पार उतारें या भांति धांसू डारते अनेक नरपति नाना चेष्टा के करणारे नदी विषं पड़ने लगे। तत्र राम बोले, अहो अब तुम पाछे फिरो ।
यह वन महा भयानक है, हमारा तुम्हारा यहां लग ही संग हुता, पिताने भरतकु सबका स्वामी किया है सो तुम भक्तिकार तिनकू सेवढ़ | तब के कहते भए, हे नाथ! हमारे स्वामी तुम ही हो, महादयावान हो, हमपर प्रसन्न
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पग-पुराण-भाषा
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होवो, हमको मत छोड़ह, तुम बिना यह प्रजा निराश्रय भई, प्राकुलतारूप कहो कौनकी शरण जाय ? तुम समान और कौन है ? घ्याघ्र सिंह पर गजेंद्र सादिकका भरा भयानक जो मह बन तामें तुम्हारे संग रहेंगे। तुम बिन हमारे स्वर्ग हू सुखकारी नाहीं। तुम कही पाछे जावो सो चित्त फिर नाहीं. कैसे जाहिं ? यह चित्त सबद्रियनिका प्रधिपति पाहीत कहिए, जो यह अद्भुत वस्तु में अनुराग करें । हमारे भोगनिकर घरकर तथा स्त्री कुटुम्बादिकर कहा ? तुम नररत्न हो, तुमको छोड़ कहां जाहिं ? हे प्रभो ! तुमने बालक्रीडा विर्ष हमसों फवहू वंचना न करी, अब अत्यंत निठुरताकू धारो हो। हमारा अपराध कहो । तिहोरे चरण रज कर परम वृद्धिकू प्राप्त भए, तुम तो भृत्यवत्सल हो । अहो माता जानकी ! अहो लक्ष्मण धीर ! हम शीण नवाय हाय जोड़ विनती कर, नाथकू हम पर प्रसन्न करहु । ये वचन सनिने कहे, तव सीता पर लक्ष्मण रामके चरणनिकी ओर निरख रहे । तब राम बोले-जाहु, यही उत्तर है । सुखसों रह्यिो, ऐसा कहकर दोनों धीर नदी के विष प्रवेश करते भए।
__श्रीराम सीता का कर गह सखसे नदीमें लेगए जैसे कमलिनी को दिग्गज ले जाय । वह असराल नदी राम लक्ष्मणके प्रभावकर नाभि-प्रमाण वहने लगी, दोऊ भाई जलविहार विर्ष प्रवीण क्रीड़ा करते चले गए। राम के हाव गहे ऐसी शोभै मानों साक्षत लक्ष्मी ही कमलदल में तिष्ठी है राम लक्ष्मण क्षणमात्र विर्षे नदी पार भए वृक्षनिके माथय प्राय गए । तब लोकनिकी दृष्टित अगोचर भए । तब कई एक तो विलाप करते ग्रासू डारते घरनिकू गए पर कई एक राम लक्ष्मण की घोर घरी है दृष्टि जिनने सो काष्ठ से होय रहे पर कई एफ मूर्छा साय धरतीपर पड़े पर कई एक ज्ञान को प्राप्त होय जिनदीक्षाको उद्यम भए, परस्पर कहते भए-जो धिक्कार है या प्रसार संसार को पर धिक्कार इन क्षणभंगुर भोगनिको ! ये काले नाग के फणा समान भयानक है । ऐसे शूरवीरनिकी यह अवस्था तो हमारी कहा बात ? या शरीरको चिक्कार ! ओ पानीके बुदबुदा समान निस्सार, जरा मरण इष्टवियोग अनिष्टसंयोग इत्यादि कष्ट का भाजन है। धन्य हैं वे महापुरुष भाम्यवंत उत्तम चष्टाने धारक ! जे मरकट (बन्दर) की भौह समान लक्ष्मी को चंचल जान नजिकर दीक्षा धरते भए । या भांति अनेक राजा बिरक्त होय दीक्षा को सम्मुख भए । तिनने एक पहाड़ीकी तलहटी में सुन्दर वन देख्या, अनेक वृक्षनिकर मड़ित महासघन, नानाप्रकार के पुष्पनिकर शोभित, जहाँ सुगंध के सोलुपी भ्रमर गुजार कर हैं तहां महापवित्र स्थानक में तिष्ठते ध्यानाध्ययनविष तीन महातप
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२७४ महाकवि दौलतराम कासलीवाल- व्यक्तित्व एवं कृतित्व
के धारक साधु देखे । तिनको नमस्कार कर वे राजा जिननाथ का जो चैत्यालय तहां गए वा समय पहाड़निके शिखर विर्षे अथवा रमणीक वन विषं अथवा नदी के तट विषे प्रथा नगर ग्रामदिक विषै जिन मंदिर हुते तहां नमस्कार करि एक समुद्र समान गम्भीर मुनिनके गुरु सत्यकेतु आचार्य तिनके निकट गए, नमस्कार कर महाशांत रस के भरे प्राचार्य से वीनती करते भए - हे नाथ ! हमको संसार समुद्र पार उतार सब भूमि कही तुमको रक्षार हारी भगवती दीक्षा है सो अंगीकार करहु
मुनि की यह आज्ञा पाय ये गरम
हर्ष प्राप्त भए ।
राजा विदग्धविजय मेरुर संग्रामलोलुप, श्रीनागदमन, धीर शत्रुदमन र विनोद कंटक, सत्यकठोर, प्रियवर्धन इत्यादि निर्भय होते भए, तिनका गज तुरंग रयादि सकल साज सेवक लोकनि ने जाय करि उनके पुत्रादिकनिकू सोप्या, तब ने बहुत वित्तावान भए । बहुरि समझकर नाना प्रकार के नियम धारते भए | fun सम्यग्दर्शन कू अंगीकार कर संतोष प्राप्त भए, कैयक निर्मल जिनेश्वरदेव का धर्म श्रवणकरि पाप परान्मुख भए । बहुत सामंत राम लक्ष्मी वार्ता सुन साधु भए, कैंपक श्रावक के श्रणुव्रत धारते भए । बहुत रानी प्रायिका भई, बहुत श्राविका भई, कैथक सुभट राम का सर्व वृत्तांत भरत दशरथ पर जाकर कहते भए सो सुनकर दशरथ भर भरत कयक खे प्राप्त भए ।
श्रथानंतर राजा दशरथ भरलको राज्याभिषेक कर, कछुयक जो राम के वियोग कर व्याकुल भया हुता हृदय सो समता लाव, विलाप करता जो अंतःपुर ताहि प्रतिबोधि नगर बनकू गए। सर्वभूतहित स्वामी को प्रणामरि बहुत नृर्णन सहित जिनदीक्षा श्रादरी । एकाकी बिहारी जिनकल्पी भए । परम शुक्लध्यान की है अभिलाषा जिनके तथापि पुत्र के शोक कर कहूँ कछु इक कलुषला उपज आ सो एक दिन से विचक्षरण विचारते भए कि संसार के दुःख का मूल जगतका स्नेह हैं, इसे विकार हो ! या करि कर्म बंधे हैं। मैं अनन्त जन्म धरे तिनविषै गर्भ - जन्म के अनेक माता-पिता भाई पुत्र कहां गए ? अनेक बार में देवलोकके भोग भोगे । पर अनेक बार नरक के दुःख भोगे, तिर्वच गति वि मेरा शरीर अनेक बार इन जीवनि में भख्या, इनका मैं भख्या नाना रूप मे योनियाँ तिन विष में बहुत दुःख भोगे । घर बहुतबार रूदनके शब्द सुने । घर बहुत बार वीरगाबांसुरी आदि वर्शदत्रों के नाद सुने, गोतसुने, नृत्य देखे ratha मनोहर प्रप्सरानिके भोग भोगे । अनेक बार मेरा शरीर नरक विष
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पद्म पुराण भाषा
कुल्हाडतिर काटा गया । घर श्रनेक बार मनुष्यगतिविषं महासुगन्ध महावीर्य करणारा षटूरस संयुक्त अन्न बाहार किया। घर श्रनेक बार नरकविषे गला हुआ सीसा और तांबा नारकियोंने मार मार मुझे प्याया पर अनेक बार सुर नर गतिविर्षे मन हराहारे सुन्दर रूप देखे घर सुन्दर रूप धारे। पर प्रक बार नरक विषं महा हु करे प्रकार के देव राजपद देवपदविषं नाना प्रकारके सुगन्ध मूंदे तिनपर अमर गुजर करें 1 अर कैथक बार नरकको महा दुर्गंध सुधी श्रर अनेक बार मनुष्य तथा देवगतिfat महालीला की घरणहारी, वस्त्राभरण मंडित, मन की चोरनहारी जे नारी तिनसों आलिंगन किया । श्रर बहुत बार नरकविषं कूटशाल्मलि वृक्ष तिनके तीक्ष्ण कंटक र प्रज्वलित लोह की पुतलीनि से स्पर्श किया ? या संसार विषै कर्म निके संयोग में कहा कहा न सूत्रा, कहा कहा न सुना, कहा कहा न भखा । पर पृथिवीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय
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काय विषै ऐसा देह नाहीं जो मैं न धरा । तीनलोकवि ऐसा जीव नाहीं जासू मेरे अनेक नाते न भए, ये पुत्र मेरे कई बार पिता भए, माता भए, शत्रु भए । ऐसा स्थान नाहीं, जहां मैं न उपजा न मूझ ।
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भोगादिक अनित्य, या जगतविर्ष कोई शरण नाहीं यह चतुर्गतिरूप संसार दुःखका निवास है, मैं सदा अकेला हूँ ये षद्रव्य परसर सब ही भिन्न हैं। यह काय अशुचि, मैं पवित्र ये मिथ्यात्वादि श्रतादि कर्म भाव के कारगा है, सम्यक्त व्रत संयमादि संबर के कारण हैं। तपकर निर्जरा होय है । मह लोक नानरूप मेरे स्वरूतै भिन्न, या जगत विषं श्रात्मज्ञान दुर्लभ है अर वस्तु का जो स्वभाव सोई धर्म तथा जीव धर्म सो मैं महाभाग्यत पाया । धन्य ये मुनि जिनके उपदेश मोक्षमार्ग पाया सो अब पुत्रतिकी कहा चिंता ? ऐसा विचार कर दशरथ मुनि निर्मोह दशाकू प्राप्त भए । जिन देशों में पहिले हाथी चढ़े, चमर करते, छत्र फिरते हते पर महारण संग्राम विषै उद्धत वैरिनिकु' जीते हेतु तिन देवनिवि निर्ग्रन्थ दशा धरे, बाईस परीषह जीतते, शांतिभाव संयुक्त विहार करते भए ।
अर कौशल्या तथा सुमित्रा पति के वैरागी भए पर पुत्रनिके विदेश गए महा शोकती भई निरंतर अनुपात हारे, तिनके दुःखकू देख भरत राज्य विभूति को विष समान मानता भया । पर केकई लिनकू दुःखी देख, उपजी है करुणा जाके, पुत्रको कहती भई कि हे पुत्र ! तू राज्य पाया, बड़े बड़े राजा सेवा करें हैं परन्तु राम लक्ष्मण विना यह राज्य शोभं नाहीं सो वे दोऊ भाई
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महारवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
महाविनयवान उन विना कहा राज्य पर कहा सुख अर कहा देश की शोभा अर कहा तेरी धर्मज्ञता ? वे दोऊ कुमार पर वह सीता राजपुत्री सदा सुख के भोगनहारे पाषाणादिककार पूरित जे मार्ग ताविर्ष वाहन विना कैसे पायेंगे ? अर तिन मुण-समुद्रनिकी ये दोनों माता निरन्तर स्वन का है सो मरणकू' प्राप्त होयगी, तात तुम शीघ्रगामी तुरंग पर चल शितावी जावो, उनको ले प्रावो, तिन सहित महागुनसों चिरकाल राज करियो अर मैं भी तेरे पीछे ही उनके पास बाऊ हूं । यह माता की प्राज्ञा सुन बहुत प्रसन्न होय ताकी प्रशंमा कर अति यातुर भरत हजार अश्यसहित राम के निकट चला । पर जे रामके समीप वापिस र ते जनः गो नल, अ त तुरंग पर चढ़ा, उसावली चालसे वन वि पाया । वह नदी असराल बहती हुती सो तामें वृक्षनिके लठे गेर, बेड़े बांध क्षरणमात्र में सेना सहित पार उतरे, मार्ग विर्षे नर नारिनसों पूछते जाय जो तुम राम लक्ष्मण कहीं देखे ? वे पहै हैं, यहाँते निकट ही हैं । सी भरत एकात्तित्त चले गए। सघन वन में एक सरोवर के तट पर दोऊ भाई सीता सहित बैठे देखे, समीप हैं धनुष बाण जिनके । सीताके साथ ते दोक भाई घने दिवस विष पाए । पर भरत छह दिनमें आया । रामकू दूरते देख भरत तुरंगत उतर पाय पियादा जाय राम के पायनि पर मूच्छित होय गया तब राम सचेत किया । भरत हाथ जोड़ सिर नवाय रामसू वीनती करता भया ।
हे नाथ ! राज्य देयवेकर मेरी कहा विडम्बना करी । तुग सर्व न्याय. मार्गके जाननहारे, महा प्रवीण मेरे या राज्यकरि कहा प्रयोजन ? तुम बिना जोवेकर कहा प्रयोजन ? तुम महा उत्तम चेष्टाके धरणहारे मेरे प्राणनिके आधार हो । उठो, अपने नगर चल । हे प्रभो ! मो पर कृपा करहु, राज्य तुम करह, राज्य योग्य तुम ही हो, मोहि सुखकी अवस्था देह । मै तिहारे सिर पर चत्र फेरता खड़ा रहेगा और शत्रुघ्न चमर होगा पर लक्ष्मण मंत्रीपद धारेगा। मेरी माता पश्चातापरूप अग्निकर जरै है पर तिहारी माता अर लक्ष्मण की माता महाशोक कर है, यह बात भरत कर हैं ताही समय शीघ्न रथपर चढ़ी अनेक सामंतनिस हित महाशोककी भरी केकई माई पर राम लक्ष्मएकू उरसू लगाय बहुत रुक्ष्न करती भई । राम ने धयं बंधाया।
तब केकई कहती भई-हे पुत्र ! उठो, अयोध्या चलो, राज्य करहु, तुम बिन मेरे सकल पुर वन के समान है । पर तुम महा बुद्धिमान हो, भरतकू सिखाय लेहु । बहुरि हम स्त्रीजन मष्ट बुद्धि हैं, मेरा अपराध क्षमा करहु । तब राम कहते भए. हे मात ! तुम बातगि बिर्ष प्रवीण हो, तुम काहा न
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पप-पुराण-भाषा
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जानो हो कि क्षत्रियन का नियम है जो वचन न चूक ; जो कार्य विचाऱ्या ताहि पोर भांति न करें। हमारे तात ने जो वचन कहा सो हमकू पर तुमकू निवाहना, या बात विर्ष भारत की प्रीति न होयगी। बहुरि भरतसू कहा कि हे भाई! तु चिता मत कर, तू अनाचार शक है सो पिता की माझा भर हमारी प्राशा पालवेतै अनाचार नाहीं । ऐसा कहकर बनविर्ष सख राजनिके समीप भरत का श्रीराम ने राज्याभिषेक किया कर केकई प्रणाम कर बहत स्तुति कर वारंवार संभाषण कर भरतकू उरसू' लगाय बहुत दिलासा करी, नीटित विदा किया । केकई अर भरत राम लक्ष्मण सीता के समीपत पाले नगरकू चाले, भरत राम की आज्ञा प्रमाण प्रजा का पिता समान हुश्रा । राज्यविर्षे सर्व प्रजाकू सुम्न, कोई मनाचार नाहीं; ऐसा नि:कंटक राज्य तोहू भारत का क्षणमात्र राग नाहीं। तीनों काल श्री अरनाथ को वंदना कर है पर मुनिन के मुखत धर्म श्रवण कर; घुति भट्टारक नामा जे मुनि, अनेक मुनि मार है सेवा जिनका, तिनके साभास में यह नियम लिया कि राम के दर्शन मात्र ही मुनिव्रत धारूंगा। तब मुनि कहते भए किहे भव्य ! कमल सारिखे हैं नेत्र जिनके, ऐसे राम जी लग न प्राव तो लग तुम गृहस्थ के व्रत घारहु । जे महात्मा नियंथ हैं तिनका प्राचरण प्रति विषम है सो पहिले धावक के व्रत पालने तासू यति का धर्म सुम्पसू सधै। जब वृद्ध अवस्था आवेगी तब तप करेंगे, यह वार्ता कहते हुवे अनेक जड़बुद्धि मरणकू प्राप्त भाए । महा अमोलक रत्न समान यति का धर्म, जाकी महिमा कहने विर्ष न आय ताहि जे धार हैं तिनकी उपमा कोन की देहि । यति के धर्मत उत्तरता श्रवक का धर्म है जे प्रमाद रहित करें हैं ले धन्य हैं।
यह प्रणुप्रत हू प्रबोध का दाता है। जैसे रत्नद्वीप विर्ष कोऊ मनुष्य गया पर वह जो रल लेय सोई देशांतर विर्षे दुर्लभ है तसे जिनधर्म नियमरूप रत्तनिका द्वीप है, ता विर्षे जो नियम लेय सोई महाफल का दाता है। जो अहिसारूप रत्नफू अंगीकारकर जिनवरकू भक्तिकर भरच सो सुर नरके सुख भोग मोक्ष प्राप्त होय 1 पर जो सत्ययतका घारण मिथ्यात्व का परिहारका भावरूप पुष्पनिकी माला कर जिनेश्वरकूपूजे हैं, ताकी कीति पृथ्वी विप विस्तर है पर माज्ञा कोई लोप न सके । पर जो परधन का त्यागी जिनेंदकू उरविर्षे धार बारंबार जिनेंद्रफू नमस्कार कर, वह नव निधि चौदह रत्न का स्थामी होय अक्षयनिधि पावै। पर जो जिनराज का मार्ग अंगीकार कर परगारी का त्याग कर सो सबके नवनिकू पानंदकारी मोक्ष-लक्ष्मी का बर होय । पर जो परिग्रह का प्रमाणकर संतोष घर जिनपतिका ध्यान कर सो
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व .
लोकपूजित अनंत महिमाकू पावै । पर प्राहार दान के पुण्य कर महासुखी होय, ताकी सब सेवा करें । पर अभयदान कर निर्भय पद पावै, सर्व उपद्रवत रहित होय । अर ज्ञानदान कर केवलज्ञानी होम सर्वज्ञपद पाये ! अर औषधिदान के प्रभाव का रोगरहित निर्भयपद पाई। पर जो रात्रिकू पाहार का त्याग करे सो एक वर्ष विष छह महीना उपवास का फल पावै, यद्यपि गृहस्थगद के प्रारंभ विर्षे प्रवत है तो हूँ शुभ गति के सुस्त पावै ।
जो त्रिकाल जिनदेव की वंदना कर ताके भाव निर्मल होय, सर्व पापका माश करें । पर जो निर्मल भाव रूप बहुपनिकर जिननाथकू पूर्ज सो लोकविर्षे पूजनीक होय । पर जो भोगी पुरुष कमलादि जल के पुटप तथा केतकी मालती प्रादि पृथ्वी के सुगंध पुष्पनिकर भगवानकू परचै सो पुष्पक विमानकू पाय यथेष्ट क्रीड़ा करै । पर जो जिन राज पर अगर चंदनादि घूप खेवै सो सुगंध मारीर फा धारक होय । प्रा. जो गृहस्थी जिनमंदिर विर्षे विवेकसहित दीनोद्योत कर सो देवलोक विष प्रभाव सयुक्त शरीर पावै । पर जो जिनभवन विर्षे छत्र चमर झालरी पताका दर्पणादि मंगलद्रव्य चढ़ावै पर जिनमदिर... शोभित करें सो पाश्चर्यकारी विभूति पाद । मर जो जल-चंदनादितं जिनपूजा करें सो देवनिका स्वामी होय, महानिमल सुगंश्रमय शरीर जे देवांगना तिनका बल्लभ होय । पर जो नीरकर जिनेंद्र का अभिषेक कर सो देवनिकर मनुष्यनित सेवनीक चक्रवर्ती होय, जाका राज्यभिषेक देव विद्याधर करें । अर जो दुग्धकरि प्ररहत का अभिषेक कर सो क्षीरसागर के जलसमान उबल विमान विर्ष परम कांति धारक देव होय बहुरि मनुष्य होय मोक्ष पावै । पर जो दधिकर सर्वज्ञ बीतरागका अभिषेक कर सो दधि समान उज्जवल यशपायकर भवीदधिक् तरै । पर जो धृतकर जिननाथ का अभिषेक कर सो स्वर्ग विमान में महा बलवान देव होय परंपराय अनंत वीर्य कू धरं । अर जो ईख-रसकर जिमनाथ का अभिषेक करै सो अमृत का पाहारी सुरेश्वर होय नरेश्वर पद पाय मुनीश्वर होय पविनश्वर पद पावै । अभिषेक के प्रभाघवार अनेक भव्य जीय देव भर इन्द्रनिकरि अभिषेक पद पावते भए, तिनकी कथा पुराणनि में प्रसिद्ध है। जो भक्ति कर जिनमंदिर घिर्ष मयूरपिच्छादिककर बुहारी देय सो पापरूप रजतै रहित होम परम विभूति अर प्रारोग्यता पावै ।
पर जो गीत नृत्य वादिनादिकर जिनमंदिर विर्ष उत्सव कर सो स्वर्ग विर्ष परम उत्साहक्कू पावै पर जो जिनेश्वर के चैत्यालय करावं सो ताके पुष्प की महिमा कौन कह सके, सुर मंदिर के सुख भोग परंपराय अविनाशी बाम
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पग-पुराण-भाषा
पाये । पर जो जिनेंद्र की प्रतिमा विधि पूर्वक करावं सो सुर नर के सुख भोग परम पद पावै । व्रत विधान' तप दान इत्यादि शुभ चेष्टनिफरि प्राणी जे पुष्य उपाजें हैं सो समस्त कार्य जिनविद कराने के तुल्य नाहीं । जो जिनबित्र करायै सो परंपराय पुरुषाकार सिद्ध पत्र पावं । पर जो भव्य जिनमंदिर के शिखर चढ़ावे सो इद्र धरणेद्र यादिक्र सुख भोग लोक के शिखर पहूँच । पर जो जीरगं जिन मंदिनिकी मरम्मत कराब सो कर्मरूप अजीरशंकू हर निर्भय विरोग पद पावं । पर जो मधीन चैत्यालय करार जिनबिंब पधराय प्रतिष्ठा कर सो तीन लोक विर्षे प्रतिष्ठा पावै । पर जो सिद्धक्षेवादि तीर्थनिकी यावा कर सो मनुष्य जन्म सफल करें । पर जो निनप्रतिमा के दर्शन का चितवन कर ताहि एक उपवास का फल होय, अर दर्शनको उद्यम का प्रभिसाषी होय सो बेलाका फल पावै । पर जो चैत्यालय जायवे का प्रारंभ करें, ताहि तेला का फल होय । पर गमन किए चौला का फल होय । पर कछुएक मागे गए पंच उपवासका फल होय, प्राधी दूर गए पक्षोपवास का फल होम पर चैत्यालय के दर्शन तें मासोपमास का फल होय । अर भाव भक्ति कर महास्तुति किए अनंत फलकी प्राप्ति होस । जिनेंद्रकी भक्ति समान और उत्तम नाहीं । अर जो जिनसूत्र लिखवाय ताका व्याख्यान करै करावै, पढ़ पढ़ाई, सुनै सुनावै, शास्त्रनिकी तथा पंडितनिकी भक्ति करें, वे सर्वाग के पाठी होय केवल पद पावें । जो चतुर्विध संघ की सेवा कर सोचतुति के दुःख हर पंचमगति पावं 1 मुनि कहै हैं-हे भरत ! जिनेन्द्र की भक्ति पर कर्म क्षय होय भए प्रक्षयपद पावै । ये वचन मुनि के सुन राजा भरत प्रणामकर श्रावक का व्रत अंगीकार किया । भरत बहुश्रुत अलिधर्म महाविनयवान श्रद्धावान चतुविध संघक्त भक्ति कर भर दुःखित जीवनि दमाभाव कर दान देता भया। सम्यग्दर्शन रहल कु उर विर्षे धारता भर महासुन्दर श्रावक के प्रत विषं तत्पर न्यायसहित राज्य करता भया।
भरत मुगनिका समुद्र ताका प्रताप पर अनुराग समस्त पृथ्वी विर्षे विस्त रत्ता भया । ताके देवांगना समान राणी तिन विर्व प्रमक्त न भया, जल में कमल की न्याई अलिप्त रहा। जाके चित्त में निरंतर यह चिता घरले कि कब पति के व्रत धरू, निन्थ हुया पृथिवी विषं विचरू । धन्य हैं दे धीर पुरुष जे सर्व परिग्रह का त्याग कर तप के बल कर समस्त कर्मनिक भस्मकर सारभूत जो निर्वाण का सुख सो पायें हैं। मैं पापी संसार विर्षे मम्न प्रत्यक्ष देखूहूँ जो यह समस्त संसार का चरित्र क्षरणभंगुर है। जो मभात देखिये सो मध्याह्नविर्ष नाहीं। मैं मूढ़ होय रहा हूं। जे रक विषया
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महानि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
भिलाषी संमार में राचे हैं तो खोटी मृत्यु मरे हैं, सर्ग व्याघ्र गज जल अग्नि शस्त्र विद्यु पात शूलारोपण असाध्य रोग इत्यादि कुरीतित शरीर तजेंगे । यह प्राणी अनेक सहस्रों दुःख का भोगनहारा संसारविर्षे भ्रमण कर है। बड़ा आश्चर्य है वह यह सार में जाम रहा है। मैं कोई मदोन्मत्त क्षीरसमुद्र के तट सूता तरंगों के समूह से न डरे तैसे मैं मोहकर उत्पन्न भवभ्रमरण से नाहीं हरू हूँ, निर्भय होम रहा है। हाम हाय ! मैं हिंसा प्रारम्भादि अनेक जे पाप तिनकर लिप्त राज्य कर कौनसे घोर नरक में जाऊँगा ? फंसा है नरक, बाग खड्ग चक के प्राकार तीक्षण पत्र हैं जिनके ऐसे शाल्मलीवृक्ष जहां हैं अथवा अनेक प्रकार तिर्यञ्चगति ता विषै जाऊँगा । देखो जिनशास्त्र सारिखा महा ज्ञानरूप शास्त्र ताहूकों पाय करि मेरा मन पापमुक्त होय रह्या है । निस्पृह होकर यति का धर्म नाहीं धार है सोन आनिए कौन गति जाना है 1 ऐसी फर्मनिकी नाशनहारी जो धर्मरूप चिंता ताकू निरंतर प्राप्त हुवा जो राजा भरत सो जैनपुराणादि ग्रन्थनिके भवरण विष यासक्त है, सदैव साधुनकी कथाविषं अनुरागी रात्रि दिन धर्म में उद्यमी होता भया ।
इति श्रीरविषेणाचार्य विचरित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा घनिका विर्ष दशरथ का वैराग्य, राम का विदेश गमन पर भरत का
राज्य वर्णन करने वाला बत्तीसवां पर्व पूर्ण भया ॥३२॥
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हरिवंश पुराण
रचनाकाल :----संवत् १८२६ मंत्र सुदी सिमा
रचना स्थान : जयपुर (राजस्थान)
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
अथ ग्रन्थ की उत्पत्ति
अथानन्तर-मैं हरिवंश नाम जो पुराण महा मनोहर उसे प्रकट करता हूँ, कैसा है यह पुराण संसार विपे कल्पवृक्ष समान उत्कृष्ट है। कैसा है कल्पवृक्ष प्राँडी है जड़ जिसकी और कोसा है यह पुराण प्रति अगाध है। जड़ जिसकी महादृढ़ है । जिसकी जड़ जिनशासन है। और कल्पवृक्ष और पुराण दोनों पृथ्वी विषे प्रसिद्ध है और कल्पवृक्ष तो बहशाखा कहिये अनेक शाखा उन कर शोभित है और यह पुराग बहुशाखा कहिये अनेक कथा उन कर
गति है . को। न विस्तार का दाता है और यह पुराण महापवित्र पुण्य फल का दाता है पोर पाप पवित्र है और कल्पवृक्ष भी पवित्र है। यह हरिशंश पुराण थीनेमिनाथ के चरित कर महा निर्मल है ॥५१॥ जैसे छु मरिण कहिये सूर्य उसकी ज्योति कर प्रकाशे पदार्थ तिनको दीपक तथा मरिण तथा खद्योत कहिये (पटवीजना) तथा विजुली यह लघु वस्तु भी अपनी शक्ति प्रमाण मथायोग्य प्रकाश करे हैं ।।५।। सैसे बड़े पुरुष केवली श्रुतकेवली उनकर प्रकाशित जो यह पुराण उसके प्रकाशि मिषे अपनी शक्ति प्रमाण हम सारिखे अल्प बुद्धि भी प्रवों हैं, जैसे सूर्य के प्रकाशे पदार्थों को कहा दीपादिक न प्रकारों सैसे केवली श्रुतकेवली के भाषे पुराण को कहा हम सारिखेन प्रह अपनी शक्ति अनुसार निरूपण करें ।।५३।। द्रव्य प्रछन्न १ क्षेत्र छन्न २ कालप्रछन्न ३ भावप्रशन्न ४ । द्रव्यप्रष्ट्रान कहिये कालाणु ॥१।। पोर क्षेत्रप्रछन्न कहिवे, प्रालीकाकाश २ और कालप्रछन्न कहिले अनागत काल ३ और भाव प्रछन्न कहिये, प्रथं पर्यायझप षट्गुणी हानिवृद्धि ४ ऐसे जे अगम्य पदार्थ प्राचार्यरूप जो सूर्य उन्होंने किया है प्रकाश जिनका उनको सकुमारता कर युक्त जो यह मन सो स्थूल पदार्थों को कैसे लोक वा दृष्टि करने से देखें तैसे देखे हैं। द्रव्य क्षेत्रादिक के भेदों से पांच प्रकार के भेद हैं जिसका ऐसा यह पागम पुगरण पुरुषो का भाषा होने से प्रमाण है ।।५५॥ इस ग्रंथ के मूल कर्ता आप श्री तीर्थकर देव और उसर ग्रन्थ कर्ता गौतम नामा गसाधरदेव और उत्तरोत्तर प्रथका अनेक आचार्य वे सब ही सर्वज्ञदेव के अनुसार कथन करण हारे हमको प्रमाण हैं ।।५७|| उन केवली और पांच चतुर्दश पूर्वके धारी श्रूत केवली और ग्यारह अङ्ग दश पूर्वके पाठी ग्यारह और एकामश अङ्ग के धारक पांच और एक याचारांगके धारक चार और यह पांच प्रकार के मुनि पन्धम काल के आदि विष होते भए तिनमें धी बर्द्धमान के पीछे तीन फेवसी भए । इन्द्रभूत कहिये गौतम और सुधर्माचार्य और जम्बू स्वामी मतिम केवली भए। यह तीन तो केवली भए अौर विषा १, नन्दिमित्र २.
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हरिवंश पुरास
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अपराजित ३, गोवर्धन ४, भद्रबाहु ५. ये पांच चतुर्दश पूर्व के धारक यतकेवली भए । और विशाखाचार्य १, घोस्टलक्ष २, त्रिय ३, जय ४, नाग ५, सिद्धार्ग ६, धृतिषेण ७, विजय ८, बुद्धिस t, गंगदेव १०, धर्मसेन ११. ये ग्यारह अंग प्रौर दश पूर्वके पाठी भए ||६३।। और नक्षत्र १. यशः पाल २, पाण्डु ३, ध्वसेन ४, और कम्पाचार्य ५ ये पांच मुनि ग्यारह अंग के पाठी भर : प्रो हुगा, याना, गशीन हुँ , जाचार्य ४, ये चार मुनि एक प्राचारांग के धारक भये ।।६।। ये पूर्वाचार्य और भी जो प्राचार्य उनकर विस्तार यह एक देश प्रागम उसका एक देश व्याख्यान फरिये है ।।६६।। यह हरिवंश पुराण अपूर्ण कहिये पाश्वर्यकारी अर्था थकी तो बहुत है शब्द थकी अल्प है इससे शास्त्र के विस्तार के भय कर अल्परूप सारवस्तु का संग्रह करिए है ॥६७|| मन पचन कायको शुद्धता को धार जे भव्य जीव सदा जैन सूत्र का अभ्यास करें उनको वक्तापने कर और श्रोतापने कर यह पुराण का अर्थ कल्याण का कार्ता होय है। वाह्य मोर प्राभ्यन्तर के भेद कर जो तप की विधि है सो दो प्रकार की है उस विषे स्वाध्याय नामा परम तप है क्योंकि जो यह स्वाध्याय नामा तप है सो अजानता को निवारे है ।।६६।। इससे परम पुरुषार्थ का करण हारा यह पुगण का अर्थ इस देश काल के जानन हारे पण्डित उन कर व्याख्यान करणे योग्य है। और जो भत्सर भाव रहित थद्धावान पुरुष हैं उन कर सुननं पोग्य है, मत्सर कहिये दपक व्याख्यान करणे योग्य जो भाव मो सत्पुरुषों को त्याज्य है ॥७॥
प्रागे इस पुराण विषे प्राट बड़े अधिकार हैं सो अनुकम से कहेंग इन विषे प्रश्रम ही सोक्यका कथन ॥ १।। और राजाम्रो के वश की उत्पत्ति ।। २ ।। और हरिवंश का निरूपण ।। ३ ।। और वसुदेव का चरित्र ॥४॥ और नेमिनाथका चरित्र ।। ५ ।। और यादवों का द्वारिका विषे निवास ॥६॥
और नारायण प्रतिनारायण के युद्ध का वर्णन ॥७ ।। और नेमिनाथ के निर्वाण का निरूपण ।। || यह माठ महा अधिकार पूर्वाचार्यों ने सूयों के
अनुसार प्ररूप सो यह अवांतर अधिकारों कर शोभित है !!७३।। संग्रह कर विभाग कर वस्तु के विस्तार कर इस जिनशासन विषे उपदेश होय है इसलिमे अधिकारों के विभाग कहिए हैं ।,७४।। प्रथम ही कई मान जिनेश्वर का धर्म तीर्थ प्रवर्तन । फिर गरगधरादिक गणों की संख्या। फिर गजगृह विषे आगमन । और गौतम स्वामी से राजा नरिणक का प्रश्न । पौर क्षेत्र कहिए लोक्य । और काल कहिए षट्कास तिनका निरूपण । फिर कुलकरोंकी
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महाकवि दौलतराम कासलील-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
उत्पत्ति और ऋषभजो की उत्पत्ति और क्षत्रियादिक के वंश का वर्णन । फिर हरिगंश की उत्पत्ति । भौर हरिवंश विष मुनिसुव्रतनाथ की उत्पत्ति ।।७७॥ फिर दक्षप्रजापतिका धरित्र । फिर राजा वसु का वृतांत । फिर अंधकवृष्टि का दीक्षा। और समुद्रबिजय का राज। और बमुदेव का सौभाग्य वर्णन और उपाय कर वसुदेव का घर से विदेश को निकसना ॥६६॥ और वसुदेव के राणी सीमा और बिजयसेना का लाभ फिर बनगज का वश करणा और विद्याधर की पुत्री स्यामा का संयोग ।।८०॥ फिर वसुदेव को अगारक विद्याधर का ले उड़ना और चम्पापुरी विधे डारना और गंधर्नसेना का लाम विष्णु कुमार मुनि का चरित्र फिर चारुदत सेठी की कथा और उसको मुनि का मन और दानेन के नीलयमारणी का लाभ और सोमथी का लाभ १८२॥ और देवकी की उत्पत्ति का कथन, घऔर राजा सौदास का कथन ! मौर बसुदेव के कपिला राजकन्या का लाभ प्रौर पथावती का लाभ और राणी पारुहासिनी और रत्नवती की प्राप्ति और राजा सोमदत्त की पुत्री वेगवती का संगम और मदनवेगा का लाभ बालचन्द्रका अवलोकन तथा प्रियंगुसुन्दरी का लाभ, और बंधमती का समागम, प्रभावती की प्राप्ति और रोहिणी का स्वयंवर, उसके स्वयंवर विषे संग्राम और संग्राम विषे वसुदेव की जीत, और समुद्रबिजयादिक बड़े भाइयों में मिलाप ।।८६।। और अलभद्र की उत्पत्ति कंस का व्याख्यान और जरासिंधु को प्राज्ञा से राजा सिंहरण का बंधन पा८७॥ और कंस को जरासिंध की पुत्री जीनंजशाका लाभ और राज्य की प्राप्ति उग्रसेन पिता का नधन फिर वसुदेव से देवकी का विवाह 1|| भिर कंस का बड़ा भाई जो प्रतिमुक्त उसके प्रादेश कर कंस की प्राकुलता का होना जो देवकी के पुत्र कर मेरा मरण है फिर पसुदेव सो प्रार्थना करना जो देवकी की प्रसुति हमारे घर होय |६सो वसुदेव प्रमाण करी फिर वसुदेव का प्रतिमुक्त मुनि से प्रश्न, और देवकी अष्ट पुत्रों के पूर्वाभव का श्रवन और पाप का नाश करण हारा श्री नेमिनाथ के परित्र का श्रवण 118011 फिर श्रीकृष्णा की उत्पत्ति और गोकुल विषे बाल लीला और बलदेव के उपदेश से सभा शास्त्रों का ग्रहण १९|| फिर बसुदेव के धनुष रत्न का प्रारोपण और यमुना विष नागकुमार का जीतना फिर हाथी को जीतना और चाणूरमल्ल का निपात, और कंस का विध्वंस ।।१२।। और उग्रसेन को राज मौर हरि का सत्यभामासौं पाणिग्रहण और तासे अधिक प्रीति ।।९३३ और जीबंज शा का जरासंध पं जाना और विलाप करना जरासंध का यादबों पर रोष होना और बड़ी सेना भेजना रण विषे काल यथन का पराभव अपराजित का हरि के हाथ कर रण विर्षे मरण। भोर यादवों को परम हर्ष का उप
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हरिवंश पुरा
जना और किसी का भय नहीं ||३५|| फिर शिवदेवी के नेमिनाथ की उत्पत्ति जब गर्भ में भाये तब षोडश स्वप्न का देखना और पति से स्वप्न का फल पूछना, पति कही तुम्हारे श्रीनेमिनाथ पुत्र होंगे || ३६ || फिर भगवान का जन्म और सुमेरु विषे जन्माभिषेक फिर बाल कीड़ा और जिनराज का प्रताप और जरासंध का यादवों पर प्राक्रमण और यादवों का समुद्र की ओर गमन ||२७|| और मार्ग में देवसायों ने जो माया दिखाई उसकर जरासन्ध पीछे फिरना फिर श्री कृष्णा का समुद्र के तीर दाभ की सेज पर तिष्ठ सेसा करना ||१८|| और इन्द्र के वचन से गौतम नामा देवकर समुद्र का सो चना और कुबेर कर के द्वारिकापुरी का क्षणमात्र में रचना फिर रुक्मणि का विवाह और सत्यभामा के देदीप्यमान भानुकुमार का जन्म और रुक्मसी के प्रद्युम्न का जन्म और पूर्वला देरी जो धूमकेतु उस कर प्रद्युम्न का हरा ||१०० || विजयाद त्रिषे प्रद्युम्न की स्थिति काल संवर विद्याचर के मंदिर में और कृष्ण और रुक्मणी को प्रद्युम्न का खेद का निवारण प्रद्य ुम्न को षोडश लाभ की प्राप्ति और प्रज्ञप्ती और विद्या की प्राप्ति ||१| और मन का काल संबर से संग्राम और नारद के आग्रह कर माता पिता के काम और कुमार की उत्पत्तिको बालकौड़ा और पिता का पिता जो वसुदेव उसने प्रथम्न से प्रश्न किया ।। २ ।। और प्रद्युम्न ने अपने परिभ्रमण का सकल व्याख्यान किया। फिर यादवों के सकल कुमारों का वन, फिर यादवों की वार्ता के सुनने से जरामन्ध का कोप और यादवों के निकट दून पावना उसके आगमन में यादवों की सभा वि क्षोभ और दोनों सेनाओं का निकसना और विजयार्द्ध बिषै वसुदेव का श्रागमन, विद्याधरों का क्षोभ वसुदेव का पराक्रम ||४|| और प्रक्षोहिणी का प्रमाण थोर रथी अतिरथी अस्थी जे राजा महासर्थ तिनका कथन ॥ ५॥ और जरासंध ने चक्रव्यूह रची, उसके भेदित्रे अर्थ कृष्ण कटक विषे गरुड व्यूह की रचना और कृष्ण के गरुडवाहिनी विद्या की प्राप्ति और वलिदेव को सिवानी विद्या की प्राप्ति श्रोर नेमिनाथ के द्विमात भाई रथनेमि पोर कृष्ण के भाई अनावृष्टि और अर्जुन इन नक्रव्यूह भेया, और कृष्ण की सेना विषे मुख्य पांडव । और जरासन्ध की सेना विषे मुख्य धृतराष्ट्र के पुत्र जो कौरव उनमें परस्पर महायुद्ध फिर कृष्ण जरासन्ध का महायुद्ध ॥६॥ उस समय कृष्णा के हाथों में चक्र का श्रावना और जरासन्ध का वध, वसुदेव की विजय सो वसुदेव को विजयार्द्ध विषे विद्याचारी प्रगट भई और कृष्ण का कोटि शिला का उठावना और वसुदेव का विजयार्द्ध से प्रागमन और बलदेव वसुदेव की दिग्विजय और देवो पुनीत रत्न की प्राप्ति ||१०11 और दोनों
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महाकवि दौलतगम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
भाईयों को राज्याभिषेक और द्रोपदी का हरण फिर घातकी खंड में कृष्ण सहित पांडव जाय द्रौपदी माये ॥११॥ फिर नेमिनाथ के शरीर के बल का वर्णन ब नेमिनाथ के विवाह का हर्ष ||१२।। फिर जीवों को बन्ध से छुडावना और नेमिनाथ की दीक्षा, और केवलज्ञानका उपजना, देवों का प्रागमन समवसरण की विभूति का बर्णन, राजमती को प्राप्ति तप की । और पति श्रावक के धर्म का उपदेश और भगवान का तीर्थ विहार और देवकी के षट् पुत्रों का संयम ॥१४। फिर भगवान् का गिरनार मिरि विष प्रागमन और देवकी के प्रश्न का उत्तर और रुक्मणी सत्यभामा प्रादि पाठों पटराणियों के भवांतर का कथन ।।१५।। फिर राजकुमार का जन्म और उसकर दीक्षा ग्रहण प्रौर वसुदेव टार नव भाइयों का वैराग्य और त्रिषष्ठि शलाका के पुरुषों की उत्पत्ति का वनि और जिनराजा के अन्तराल का कयन और बलभद्र का प्रश्न । प्रद्युम्न की दीक्षा और रुक्मणी प्रादि कृष्ण की स्त्रियों का और पूत्रों का संगम और द्वीपायन मुनि के क्रोध से द्वारावती का नाश ॥१८॥ प्रौर बलभद्र नारायण का द्वारका से निकलना और कुटम्ब का भस्म होना और दोनों भाइयों का शोक सहित कौशांबी नगरी के धन बिषे प्रवेश ।।१६।। मोर बलभद्र का जल के अर्थ जाना और कृष्ण का अफेला रहना और बिना जाने जरद कुमार के हाथ से छूटा जो वारण उसकर देवयोग से हरि का परभव गमन करना ।।२०।। उसकर जरदकुमार को शोक उपजना और बलभद्र के प्रति टुस्तर दुःख का उपजना फिर सिद्धार्थ देव के उपदेश से बलभद्र को
राम्य उपजना तप धरना। प्रोर पांचवें स्वर्ग में जाना और पांडवों को वैराग्य होना और गिरनार विष नेमिनाथ का मुक्ति होना ॥२२॥ और पांचों पांडव महापुरुषों को उपसर्ग का जीतना, मोर जरदकुमार को दीक्षा लेना।
और जरदकुमार की सन्तान से हरिवंश का रहना और उनके वंश के दीपक जे राजा जितशत्रु उनको केवल ज्ञान की प्राप्ति और जो राजा श्रेणिक हरिवंश शिरोमरिण उनका राजगृह विषे राज ।।२४।। और वर्द्धमान भगवान का दीपमालिका के दिन निर्वाश गमन उससे देवों का वह दिन उत्सव रूप मानना । तब धीप्यमान दीपमालिका प्रसिद्ध भई और गणधरों का निर्वाण गमन यह हरिवंश पुराण का विभाग संक्षेप कर कहा है ।
प्रधानन्तर-भव्य जीव प्रसिद्धि के अर्धा विस्तार सहित व्याख्यान सुनें ।२६। एक ही पुरुष का चरित्र सुना हुमा पाप का नाश करे और जो सर्व तीर्जेश्वर चक्रवर हलधर उनका चरित्र भव्य जीव चे सुने उनका क्या पूछना, वह तो जन्म जन्म के पाप निवारे हैं जैसे महामेघ की बूद ही महा ताप का विच्छेद
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हरिवंश पुराण
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करे तो समस्त लोक विषे व्याप रहे जे मेघ उनकी जो माला के समूह उनकी जो सहनधारा झरे उनकर पाताप क्यों न दूर होय सर्वधा दूर होय ।:२७॥ जो पि जन हैं सी जिन बदमाग से सोविक पुरारा प्रतिरूप उनको तज कर जैन पुराण की पदवी महासरल कल्याण की करणहारी हितकारी उसे गहो, · मोह ही है बाहुल्यता जिसमें ऐसी दिग्मूढ़ता कहिये दिशा भूलपना उसे तजकर भव्य जीत्र शुद्ध मार्ग लेवो । जिन कहिये भगवान वेई भये भास्कर कहिये सूर्य तिन कर प्रगट किया जो शुद्ध मार्ग महा विस्तीर्ण उसके होते सन्ते शुक्र है दृष्टि जिसकी ऐसा सम्यक दृष्टि सो खाडे विर्षे काहेको परे।
भावार्थ---सूर्य के प्रकाश विना अन्ध पुरुष संकीर्ण मार्ग विष खा. में पड़े और सूर्य के उदय कर प्रगट भया मार्ग विस्तारणं उस विषे विष्य नेयों का धारक काहेको स्वाद में पड़े ॥२८॥ इति श्री मरिष्टनेमिपुराण संग्रहे हरिवंश जिनसेना वार्यस्य कृती
संग्रहविभागवर्णनं नाम प्रथम : सर्ग ॥१॥
पाठवां अधिकार । श्री नेमिनाथ का निर्धारण गमन
प्रधानन्तर--सर्व देवन के देव तीर्थ के कर्ता धर्मोपदेम कर भव्यन को कृतार्थ कर उत्तर दिशात सोरठ की ओर गमन किंगा ।।।।। जब जिन रवि उत्तरायणते दक्षिणायन प्राये तब या तरफ पूर्वते उद्योत भयो ।॥ २ ॥ अरहत पद की विभूति कर मंडित महेश्वर जब दक्षिस को विहार किया तब ने दक्षिण के सर्व देश स्वर्ग की शोभा को धारसे भये ।। ३ ।। भगवान भूतेश्वर निवारण कल्याणक पाया है निकट जिनके सुर असुर नरफ कर अचित गिरनार ग्राय विराजे ॥ ४ ॥ पूर्ववत समवसरणकी रचना तहां भई देव दानव मानव तथा तिरयंच सब हो प्रभु की दिश्य ध्वनि सुनते भये ।। ५॥ श्री भगवान सम्यग्दर्शन चारित्र रूप जो महा पवित्र जिनेश्वर धर्म ताका म्यास्यान करते भये सो धर्म स्वर्ग मोक्ष के सुख का साधन है भर साधुन को प्रिय है ।। ६ ।। जैसा केवल ज्ञान के उदय विषे पहले धर्म का उपदेस दिया हुता वैसा ही विस्तार सहित निर्वाण कल्याणक का एक मास
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महाकवि दौलत राम कासलीवाल-व्यक्तिटव एवं कृतित्व
रहा तब लग दिया ।। ७॥ जैसे अग्नि का मुरा सुषण पर अर्ध जलन पर जल का गुण शीत पर पवन का गुण शीघ्र गमन और तिरछा गमन भर सूर्य का गुण प्रकाया पना पर प्राकाश का गुगण अमुतत्व पर पृथ्वी का गुण अनेक बस्तु का धारण अर सहनशीलपना तो कृतार्थ जे जिनेन्द्र तिनका गुण धर्मोपदेश है ॥ ६ ॥ जैसे शानावररणी दर्शनावरणी मोहनीय अंतराय यह चार घातिया कर्म क्षय किये हुते तसे योग का निरोध कर नाम गोत्र आयु मर वनीय इन चार माया काहू अन्त कर अनेक मुनिवरों सहित जिनवर सिद्ध लोक को सिधार ॥ १०॥ तब इन्द्र को मादि देय चतुनिकायनके देव निर्वाण कल्याणक की पूजा करते भये ॥ ११ ॥ जब भगवान मुक्त होय तब देहबंध रूप स्कंध परमारगु होय जाय प्रनादि कालकी यह रीति है जैसे बिजुरी विलाय तैसे जिनेश्वर का देह बिलाय गया पर मायामयी शरीर रच कर इन्द्रादिक दा क्रिया करते भये ।। १२ ।। अग्निकुमार भवनवासी देष तिनके इन्द्र के मुकुट ते प्रगट भई अग्नि ताकर जिनेन्द्र की देह का दाह भया ।। १३ ।। गंष पुष्पादि मनोहर द्रव्यन कर प्रभु की पूजा कर देव अपने अपने स्थान गये। इन्द्र वनकर गिरनार गिर विर्षे सिद्ध सिला उकीर गया । वरदत्तादि युनि को बंदना कर इन्द्रादिक पर नरेंद्रादिक अपने अपने स्थान गये ।। १५ । घर समुद्रविजयादि नव भाई पर देवकी के छ पुत्र पर प्रद्युम्न शंबु श्रीकृष्ण के पुत्र घर अनिरुद्ध प्रधुम्न का पुत्र यह गिरनार गिरते जगत के शिखर गये सो भव्य जीवन कर बंदनीक है गिरनार वड़ा तीर्थ है जहां अनेक भव्य जीव यात्रा को ग्रावे हैं ।। १७ ॥
अथानन्तर-पांडव महाधीर प्रभु का सिद्ध लोक गमन सुन कर शत्रुजय गिर विर्षे कायोत्सर्ग धर तिष्ठे ।। १८ ॥ तहा दुर्योधन के वंश का यवरोधन पापी प्राय कर बैर के जोग ते महा दुसह उपसर्ग करता भया ।। १६ ॥ लोहे के मुकुट अति प्रज्वलित इनके सिर पर धरे पर लोहे के कड़े मर कटि सूत्रादि लोहे के पामरण अग्नि मई इनको पहराये ॥ २०॥ तिन कर दाहका उपसगं प्रति रौद्र होता भया परन्तु वे महावीर मुनि धीर कर्म के विपाक के जानन होरे कर्म के क्षय करने को समर्थ दाह का उपसर्ग हिम हिम समान शीतल मानते भये ।। २१ ।। तिनमें युधिष्टर भीम अर्जुन यह तीनों साधु क्षपक श्रेणी विर्षे पारूढ़ होय शुक्ल ध्यान कर अष्टम भूमि जो निर्वाण ताकों पधारे अन्त कृत फेवली अविनाशी भये ।। २२ ।। पर नकुल सहदेव ने उपशम श्रेणी मांडी हुती सो ग्यारहवां गुणठारण से फिर गिर घोष मुणठाणे प्राय देह तज सर्वार्थसिद्धि पधारे। तहाते चय मनुम होय जगत् के
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हरिवंग पुराण
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मुकुट मरिण होहिंगे ।। ::। भाइ माता देख ५. वित्त कुछ ५ अथिर भया अर अन्य हूँ मध्य जीव कइक तद्भव मोक्षगामी शुद्ध रलय के धारक मोक्ष प्राप्त भये पर कईयवा स्वर्गवासी देव भये सो भवघर अभय पद पाबंगे ॥ २४ ।। अर मारद भी आयु पूर्ण कर परभव पधारे। भवान्तर में भवरहित होहिंगे ।। २५ ॥
प्रधानन्तर—बलदेव स्वामी तुगीगिर शिखर पर नाना प्रकार के दुई र तप किये एक उपनास दोय उपवास तीन उपवास, पक्ष उप वाम छ: मासोपवास कर शरीर बहुत सोस्या अर कषाय सोखे पर घंयं पोख्या ।। २७ ।। नगर प्रामादि विर्षे तो गमन निवारा ही हुता ग्राहार के प्रर्थ कातार चर्या धारी हुती सो वन वि विहार करते लोकोंने देखे, मानों याक्षः चद्रमा ही है ॥ २८ ॥ उनको वार्ता पुर ग्रामादि थिों प्रसिद्ध भई सो दर्जन भूपनि बलदेव के समाचार सुन कर शंका मान नाना प्रकार के प्रायुध घर जपसर्ग करने को आये तब सिद्धार्थ देव उनको ऐसी माया दिखाई वे जहा देखें तहां दीखें ।। ३० । मुनि के चरण के समीप सिंहनको देख दुष्ट राजा मनिकी सामर्थ्य जान प्रणाम कर शांत रूप होय गये ।। ३१ ।। तबमे बलदेव को लोग नरसिंह मानते भये दुष्टन को नरसिंह रूप भासे वे महा मुनि सौ वर्ष तप कर चार प्रकार प्राराधना आराध पांचमां ब्रह्म नामा स्वर्ग तहां पदगोनर विमान विषे ब्रह्मा भये ।। ३३ ।। वह विमान रतनमयी देदीप्यमान महामनोहर देव देवियों के समूह कर मडित सुन्दर हैं मन्दिर पर उपवन जा विषं ॥ ३४॥ ऐसे रमणीक विमान विर्षे महा कोमल उत्पादक सज्या ना विवे' हलधर मुनिवर का जीव ब्रह्मद्र भया । जैसे समुद्र विषे महा मणि उपजे तैसे स्वामी स्वर्ग विषे उपजे ॥ ३५ ।। आहार कहिये कर्म वर्गगणाका पाकर्षण अर वैक्रियक शरीर पर पांच इन्द्री पर श्वासोश्वास पर भाषा पर मन इन पट पर्याप्ति तत्काल पुरे कर वस्त्राभरण मंडित सेज पर विराज नव यौवन महा सुन्दर देवन के राजा वह स्वर्ग संपदा देख भर देवांगनान के गीत सुन पर सब देवन को नम्रीभूत देख मन में विचारी यह सब लोग मेरा मुख विलोके हैं मो विषे अनुरागी हैं अर या लोक के सकलही चन्द्र सूर्य हुने अधिक ज्योतिवन्त हैं ॥ ३८ ॥ यह कौन मनोहर देश है यहां के सब लोक हर्षित हैं पर मैं कौन हूं जो यहां का अधिपति भया हूँ अर में कौन धर्म उपाया जो ऐगा उत्तम भव पाया है ।। ३६ ॥ तब वहां के जो मुख्य देव है तिन विनती करी जो यह पांचवां ब्रह्म नामा स्वर्ग है। प्रर. बाप ब्रह्म व हाय यहां सबनके स्वामी भये हो महा तप कर यहां प्राय उगजे हो तब ग्राप अघि
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
कर सब वृत्तान्त जाना ।।४।।। पूर्व भवका सब चरित्र प्रत्यक्ष जाना अर. देव इनका अभिषेक करण्वते भये पर इन्द्रपदकी विभूति दृष्टिगोचर करी ।।४।। पर वासुदेवसे अधिक है प्रेम जिनका सो जाय कर भाईसे मिले परस्पर अबलोकन कर दोऊके हर्ष उपज्या बासुदेव कही आपो दोऊ मनुष्य भव पाय वीतराग का धर्म प्राराध केवल प्रगट कर मोक्ष पायेंगे । अर. द्वारिकाके दाह कर पर यदुवंशके क्षय कर लोकापवाद भया सो तुम ऐसा करहु जो भरतक्षेत्र विषं मेरी मुत्ति शंख चक्र गदा पदमादि कर शोभित लोग पूजें यह बचन वासुक्षेवके उसमें धार बलदेव याही भांति करते भये देवनका किया कहा न होम ।। ४६।। ठोर ठौर पुर ग्रामादि विर्षे वासूदेवके मन्दिर कराय तिनकी सेवाकी विधि वताय बलदेव स्वर्ग विर्षे जाय जिनेश्वरकी सेवा करते भये ।।४७।। अनेक देन पर देवी तिन कर मंडित स्वर्गके अधिपति सुख भोगते भये । यह कथा गौतम स्वामीने राजा श्रेणिकसे कहीं फिर कहे हैं-हे थगिक ! यह स्नेही जगतके जीवनको जगत विषे भ्रमण करावे है स्नेहके योग कर जहां मित्र होय तहां जाय कर स्नेह की अधिकतासे आपको मुस्त्र प्राप्त भये हैं ते न भोगवे भर दुखका उद्यमी होय तात यह संसारका स्नेह ही मोशके सुखका विघ्न करनहारा है ।।४६ः। श्री नेमिनाथ जिनेंद्रका तीर्थ महा मोहका बिच्छेद करन हारा ता विर्षे नरदत्त नामा सुनि केवली भये हरियंश विर्षे करलकुमार राजा राजकी धुराके धोरी भये ।। ५०।।
इति श्री अरिष्टनेमि पुराण संग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यस्य कृती भगवन्निवारणवर्णनो नाम पंचषष्टितमः सर्गः ।।६५।।
अथानन्तर ...-राजा जरत्कुमार राज्य करे ताके राज्यमें प्रजा प्रानन्दको प्राप्त होती भई राजा महा प्रतापी जिनधी ताके राजको लोग अति चाहें ।।१।। सो जरत्कुमारने राजा कलिंगकी पुत्री परनीताके राजवंशकी ध्वजा समान वसृष्वज नामा पुत्र भया ।।२।। ताहि राजका भार सौंप जरत्कुमार मुनि भये सत पुरुषनके कुलकी यही रीति है पुत्र को राज देय आप चारित्र घारे ।।३॥ फिर वसुध्वजके सुवसु नामा पुत्र भया सो चन्द्रमा समान प्रजाको प्रिय राजा वस सारिखा प्रतापी होता भया ।।!अर वसुके भीम वर्मा भया फलिंग देशका पालक पर ताके वंशमें अनेक राजा भवे ।। ५। फिर ताही बंशमें हरिवंशका भाभूपण राजा कपिण्ट भया अर ताके अजातशत्र, भया ताके शत्र केन भया । पर ताके जितार नामा पुत्र भया ।१६|| साके जितशत्रु भया सो हे श्रेणिक ! ताहि तू कहा न जाने है जो राजा सिद्धार्थ महावीर स्वामीके पिताकी छोटी बहन परना महा प्रतापवान शत्रमंडलका जीतन हारा जगत
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हरिवंश पुराण
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विर्षे प्रसिद्ध भया । श्री भगवान महावीरका फूफा सो प्रभुका जन्म भया तब कुण्डलपुर प्राया। सो राजा सिद्धार्थ ने बहुत सन्मान किया ॥ राजा जितसव महा जिनधर्मी इन्द्र समान पराक्रमी ताके यगोदा नाम रानी ताके प्रयोकवती नामा पुत्री सो यश अर दया कर महा पवित्रताका अनेक राजकन्या सहित श्रीमहावीर से विवाह मंगल वांछता भया यह हर्ष देखने के मनोरथ रूप विर्षे आरूढ था सो भगवान वीतराग कहा विवाह करें जे स्वात्मानुभूति रूप मिद्धिके करन हारे तिनके स्त्रीका कहा प्रयोजन ? जब तीर्थश्वर तप कल्यागकको प्राप्त भये सब वे राजकन्या आर्यका होय गई पर भगवान स्वयंभू जब केवल कल्याणक विषे जगतके सारवे अर्थ बिहार किया तब राजा जितश्च राज तज मुनि राज भया महातप विषे प्रवर्ता ।।१०। सो तपके प्रभावकर जितशत्र के केवल ज्ञान प्रगट भया मनुष्य भवका यही फल है जो केवल पाय मुक्ति जाय ॥११।। हे रिणक यह कथा हरिवंशकी कथा तोहि संक्षेपसे कही यह कथा लोक विषे प्रसिद्ध है पर चोवीस तीर्थरघर पर बारह चक्रेश्वर अर नव बलदेव नब वासुदेव नव प्रति बासुदेव यह नियष्टि शलाकाके महा पुरुष तिनका चारित्र तोहि कहा सो यह पुरा पद्धति तोहि कल्याणके अर्थ होहुँ ।।१३।। यह परमेश्वरी कथा गौतम स्वामी के मुख अनेक राजाओं सहित राजा थेगिक सुनकर नगरमें गया वारंबार नमस्कार करता भक्ति रूप है बुद्धि जाकी सो वित वि धर्मद्रीको धारता भया । पर चतुनिकायके देव पर विद्याधर प्रभुको प्रणाम कर अपने २ स्थानक गये धर्मकथा के अनुरागी धर्महीको सार जानते भवे ॥१४॥ निर्याणकी है इच्छा जिनके पर जितशत्र केबली जगत पूज्य प्राय क्षेत्र विषे विहार कर प्रघातिया कर्म हू क्षपाय अक्षम धामको प्राप्त भये अनंत सुखका है प्रभाव जहां जाके अर्थ यती यतन करे हैं सो पद पाया ॥१५॥ भर बीरजिनेन्द्र है भव्य जीवनके समूहको संबोध कर पावापुरीके मनोहर नामा उद्यानते कार्तिक वदी भमा बस प्रभात समय स्वाति नक्षत्र विषे योगनका निरोध कर अघातिया कम हूँ खपाये जरो घातिया कर्मनका पात किया था तसे अधातियान हु का घात कर बन्ध त रहित जो अपवर्ग स्थानक सिद्धक्षेत्र तहां सिधारे निरन्तर है अनन्त सुखका संबंध जहां ।।१७। वे जिनेश्वर शकर मुगत सदा शिव परम विषा शुद्ध बुद्ध महेश्वर पंच कल्याएकके नायक चतुनिकायके देवन के देव निर्धारण प्राप्त भये तब इन्द्रादिक देवोंने निर्वाण कल्याएक किया प्रभुके माया मई शारीर की पूजा कर दाह क्रिया करी ।। १ ।। प्रभु परम घाम पधारे ता दिन चतुर्थ काल के वर्ष तीन और मारा साडा प्राट बाकी हुते । दीपोत्सव के दिन जिनवर जगत के शिखर पधारे तिस दिन देवन दीपन के समूह कर वह पुरी प्रकाश रूप करी प्राकाश और धरती पित
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-हयक्तित्व एवं कृतित्व
दीपन की माला प्रज्वलित भई ।। १६ 11 इद्रादिक सब देव और श्रेणिकादि सकल भूप श्री महावीर स्वामी का निर्वाण कल्याणक देय प्रभु से शान की प्राप्ति की प्रार्थना कर अपने २ स्थान नये ।। २० ।। उस दिन से इस भरतक्षेत्र बिषे दीप मालिका प्रसिद्ध भई प्रति वर्ष भव्य जीव निर्वाण की पूजा करें पर लोक दीपोत्सव करें ।। २१ ।। अर भगवान को मुक्ति गये पीछे बासठ वर्ष में केकली भव गौतम सुधर्म और जंबू स्वामी सो यह तीनों चतुर्थ कालके उपजे पंचम काल में पंचम गति जो निर्वाण तहां पधारे और इन पीछे सौ वर्ष में पांच श्रुत केवली भये ।। २२ ।। और उन पीछे वर्ष एकसौ तीरासी में ग्यारह अंग पर दस पूर्व के पाठी मुनि दस भये और तिन पीद्धे बरस दो सौ दीस में पांच मुनि ग्यारह अग के पाठी भये ओर लिन पीछे वर्ष एकसौ अठारह में चार मुनि एक प्राचारांग के पाठी भये तिनके नाम सुभद्र जयभद्र ! लोहगार यहाँ गरे । १६ : हर इन पीछे अंगन के पाटी तो न भये परन्तु महा विद्यावान ब्रतनके धारक भये तिनमें कई एकनके नाम कहे हैं-महा तपकी है वृद्धि जिनके ऐसे नयंधर ऋषि, श्रुति, ऋषि, गुप्ति, शिवगुप्त, अलि, मंदराचाचं, मित्रवीर, बल मित्र, सिघल, वीरवित ।। २५ ।। गद्ममसेन, गुणपद्य, गुणगागुणी, जितदण्ड, नन्दीपण, दीपसेन, तप ही है धन जिनके ऐसे श्री धरसेन, धर्मसेन, सिंहलेन, सुनन्दिसेन, सूरसेन, अभयसेन ॥ २७ ॥ सुसिधरोन, अभयसेन, भीमसेन, जिनसेन, शांतिसेन, समस्त सिद्धान्त के वेत्ता पट भाषान में गुणवान पटखा के प्रखष्ट नाथ ही हैं जिनके शब्द अर्थ अगोचर नाही ।। २८ ।। फिर जयसेन नामा सद्गुरु होते भये कर्म प्रकृति नामा श्रुति ताके पारगामी इन्द्रीन के जेता प्रसिद्ध वैयाकरणो महा पण्डित प्रभाववान समस्त शास्त्र समुद्र के परगामी ॥ २६ ।। तिनके शिष्य अमित तेज नामा सदगुरु पनिन पुन्नाटगण के अग्रणी जिन शासन की है वात्सल्यता जिनके महा तपस्वी मो वर्ष ऊपर है अवस्था जिनकी शास्त्रदान के बड़े दाता पण्डितों में मुख्य जिनके गुण पृथिवी में प्रसिद्ध तिनका बड़ा भाई, धर्म का सहोदर महा शांत संपूर्ण बुद्धि धर्ममूर्ति जिनकी तपोमई कीति जगत में विस्तार रही ऐसे कीतिरोन तिनका मुख्य शिष्य श्रीनेमिनाथ' का परम भक्त जिनसेन ताने अपनी शक्ति के अनुसार अल्प वुद्धि से प्राचीनग्रन्थ के अनुक्रम हरिवंश की पद्धति कही मो यामें प्रमाद के दोष से प्राब्द में तथा अर्थ में कहीं भूल होय तो पुराण के पाठी पण्डित सुघार लीजो एक केवली भगवान ही कयन में न चूके और समस्त चूकें ताका अचरज नाहीं । कहां यह प्रशंसा योग्य हरिवंश पुराण रूप पर्वत और कहा मेरी अल्म में अल्प बुद्धि की शक्ति ॥ ३४ ।। जो काहू ठौर श्राखडे तो कहा अचरज है। या पुराण विर्षे
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हरिवंश पुराण
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जिनेन्द्र के वंश के स्तवन कर पुण्य की उत्पत्ति है यही बांछा कर मैंने वर्णन किया और काव्य बांध से प्रबन्ध कर कीति की कामना रास्त्र कथन न फिया ।। ३५ ।। काव्य रचना के गर्ष कर तथा अन्य पण्डितों से ईर्षा कर मैंने यह प्रारम्भ न किया। केव: :: :ज की है. काम किया चौबीस तीर्थ कर और वादश चक्रधर और नव हलधर नवहरि और नब प्रतिहरि इनका वर्णन किया और अन्य अनेक राजान के चरित्र कहे । भूमिगोचरी प्रौर विद्याधर मबनके वंश का वर्णन या विर्ष है ॥ ३७ ।। जो धर्म अर्थ धाम मोक्ष के साधन हारे पुरुषार्थ के धारक धीर पुरुष कीति के पुंज तिनकी स्तुति कर मैं पुण्य उपाा गुण संचय किया ताका यही फल जियो जो या मनुष्य लोक के भव्य जीव जिन शासन विषे श्रद्धा करें पर अशुभ कर्म को हरें ।। ३८ ॥ यह नेमि जिनेश्वर का चरित्र सकल जीवादि पदार्थ का प्रकाशक है यामें पट द्रव्य सप्त तत्त्व नव पदार्थ पचास्तिकाय की प्ररूपमा है ।। ३९ ।। जो महा पण्डित हैं सो याकी समाविष व्याख्यान अपने घर पराये हितार्थ करियो पर सभा विर्षे आवे जे भव्य जीव ते कामहप हस्तांजली कर हरिबंश कथा रूप अमृतका पान करियो जिनेन्द्र नाम ग्रहणकर नव ग्रहकी पीडा दूर होय है। यह समस्त पुराण प्राधोपान्त वांचे प्रथवा सुने तो पापका नाण होय इसलिये एकाग्र चित्त कर पण्डित जन याका ब्याख्यान अपने पर पराये कृताय के अर्थ करहु व्याख्यान निज परका तारक है ।। ४२ ।। यह पुराण मंगल के अर्थियों को महा मंगल का कारण है पर जो घन के अर्थी हैं तिनकों धनकी प्राप्ति का कारण है। पर निमित्त ज्ञानियों को निमित्त ज्ञान का कारण है पर महा उपसर्ग विर्षे धारण है शन्निका कर्ता है पर जैन का बडा शकुन शास्त्र है, शुभ सूचक है ज्ञानार्थीन को शान, ध्यानार्थीन को ध्यान, योगार्थीन को योग, भोगाथियों को भोग, राज्यार्थीन को राज्य, पुत्रार्थीन को पुत्र, विजयाथींन को विजय सर्व वस्तु का यह दाता मवंज्ञ वीतराम का पुराग है । जो चौबीसों तीर्थेश्वर का महा भक्त चौबीसों शासन देवता चक्रेश्वरी पद्मावती अम्बिका ज्वालामालिनी प्रादि सम्याष्टिनी सो सब इस पुराण के ग्राश्रित है कैसे हैं यह शासन देवता सदा जिनधर्म पर जिनधन के समीप ही हैं।। ४४ ॥ पर गिरनार गिरि विर्षे श्रीनेमिनाथ का मन्दिर ताकी उपासफ सिहवानी च की बग्नहारी जाके आगे छुद्र देवता न टिकें ऐसी अम्बिका कल्यासा के अर्थ जिन शासन की सेवक है तहां परचक्र का विघ्न कैसे होय ।। ४५ ।। नवग्रह पर असुर नाग भूत पिशाच राक्षस यह लोगों को हित की प्रवृत्ति वि विन करे हैं। तातें बुध जन जिन शासन के देवतान के जे गुण तिन कर क्षुद्र देवन को शान्त करे हैं ।। ४६ || प्रक्ति कर यह
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
हरिवंश पुराणा पढे तिनके विना सेद मनवाञ्छित काम की सिद्धि होय पर धर्म अर्थ मोक्ष की प्राप्ति होय ।।४७|| तासे जे निष्कपट प्रायं पुरुष है ते पूजा सहित या पुराण को पृथिवी विषै विस्तारहु । कहा कर यांकू विस्तारह मात्सर्य कहिये पराई उच्चता का न सहना ऐसा अदेखसका भाव ताहि घयं के बल कर प्रबलता रूप जो बुद्धि ताके प्रभाव से निवार कर पर जेते मायाचार के पाचरण हैं तिन सत्रन को तज कर याका रहस्य विचारह ।।४।। अथवा भव्य जीवन से यह प्रार्थना है कौन अर्थ, वे स्वतः स्वभाव ही याहि पढ़ेंगे बांचेंगे विस्तारेंगे, जैसे पर्वत मेहकी धारा को सिर पर धारे पर पृथिवी विषे विस्तारे ॥४६।। यह श्रेष्ठ पुराण प्राचीन पुराण के गम्भीर शब्द तेई भय जल तिन कर पूर्ण सो मुनि मण्डली रूप नदी दोय नयन रूप दायेन की धरन हारी तिन कर पूर्ण चारों दिश समुद्रान्त विस्तरेगा ।।५०|| वे जिनेश्वर देव तत्व के द्रष्टा देवन के समूह पर सवने योग्य जयवन्त होहु प्रजा को अति शांति के देनहारे शान्त है मार्ग जिनका अर निर्मल है निद्वारहित केवल नेत्र जिनके ||५१॥ अर जिनधर्म की परम्पराय जयवन्त होहु जो अनादि काल से काहू कर जोति न जाय । पर प्रजा विर्षे कुशल होहु । वहु दुभिक्ष मति होहु मरी मति होस् पापी मति होहु पापी राजा मति होहु । अर सुख के प्रथं प्रति वर्ष भली वर्षा होहु पर अति वृष्टि अनावृष्टि मति होहु पृथिवी अन्न जल तुरण कर सदा गोभित रहो। प्रागीमको काहू प्रकार की पीड़ा मति होह ॥५२।। विक्रमादित्य को सात सौ पांच वर्ष व्यतीत भयं तब यह ग्रन्थ भया । ता समय उत्तर दिशा का राजा इन्द्रायुभ कृष्णराजका पुत्र था । पर दक्षिण दिशा का राजा श्रीवल्लभ हुता पर पूर्व दिशा का राजा अवन्ति हुता पर पश्चिम का राजा वत्सराज हुता। यह चारों दिपा के चारों राजा महा सूरदीर जीत के स्वरूप पृथिवी मण्डल के रक्षक हुते ।।५३।। कल्याण कर बडी है विस्तीर्ण लक्ष्मी जहां ऐसा श्री वर्धमानपुर तहां श्रीपार्श्वनाथ के चैत्यालय विर्षे राजा रत्न के राज विषे पह ग्रन्थ प्रारम्भ पर पूर्ण भया फिर शान्तिनाथ के मन्दिर विप ग्रन्थ समाप्त किया पूजा भई अति उच्छव भया । जीती है अर संघ की शोभा जाने ऐसा श्रेष्ठ पुन्नाट नामा संघ ताकी परिपाटी विषे उत्पन्न भये श्रीजिनसेन नामा आचार्य तिन सम्यकज्ञान के लाभ के अर्थ रचा यह हरिवंशचरित्र लक्ष्मी का पर्वत सो या पृथिवी विर्षे बहुत काल अति निश्चल तिष्ठो सव दिपि विषे सब जीवन का हरा है शोक जाने ।।४।। इति श्री अरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यस्य गुम पर्व
कमल वर्णनो नाम पष्टितमः सर्ग ॥६६॥
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परमात्म प्रकाश भाषा टीका
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परमात्म प्रकाश भाषा टीका
|| ॐ नमः: सिद्धेभ्यः ।। अथ "परमात्मा प्रकास" ग्रंथ "श्री योगिन्दाचार्य" कृत, ता परि संस्कृत टीका 'श्री ब्रह्मदेव' कृत ताकी भाषा वनिका रूप लिखिए है ।
दोहा चिदानंद चिद् प जो, जिन परमातम देव । सिद्ध रूप सुचि सुद्ध जो, नमो ताहि करि सेव ।।१।। परमात्म निज वस्तु जो, गुराण अनंत मय सुद्ध।
ताहि प्रकासन के निमित्त, बेदू देव प्रबुद्ध ।। २ ।। श्लोक-चिदानंदैकरूपाय, जिनाय परमात्मने ।
परमात्मप्रकाशाय, नित्यं सिद्धात्मने नमः ।।१।। अर्थः
थी जिनेश्वर देव शुद्ध परमात्मा ज्ञान प्रानन्द रूप चिदानंद बिद्रप तिनिक ताइ मेरा सदाकाल नमस्कार होह । केमे अथि नमस्कार होहू । परमात्मा का स्वरूप ताके प्रकासवे मथि । को हव भगवान सुद्ध परमात्मा स्वरूप के प्रकासक है । निज अर पर सबके स्वरूप प्रकामक है । बहुरि कैसे हैं सिद्धात्मने कहीये कृत कृत्य है, प्रात्मा जिनका । नमस्कार योग्य परमात्मा ही है । तात परमात्मा कू नमस्कार करि परमात्म प्रकास नामा मय का च्यास्यान करू हूँ ||१||
श्री योगिन्द्र देवकृत परमात्म प्रकास नाम दोहक छंद व ता बीर्ष प्रक्षेपक हीये उक्त च तिमि बिना व्याख्यान के अंथि अधिकारनिको परिपाटी कहीये है। प्रथमही पंच परमेष्टी के नमस्कार को मुख्यता करिजे है ।। २ ।।
जे जाया जमारागिए.--- इत्यादि सात दोहा जानने । बहुरि विजापना की मुख्यता फरि भावं पवि वि इत्यदि दोहातीन ||३||
वहरि बहिरात्मा मंतरात्मा परमात्मा निके भेद करि तीन प्रकार प्रात्मा के कथन की मुख्यता करि पुण पुणे परग विधि इत्यादि दोहा पांच ।। ५ ।।
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व स्पं कृतित्व
अयानंतर मुक्ति प्राप्त भये जे प्रगट स्वरूप परमातमा साके कथन की मुख्यतः करि तिहू इण वंदिउ इत्यादि दोहा दस ।।१०।।
प्रथानंतर देह विर्ष तिष्टता सक्तिरूप परमात्मा ताके कथन की मुख्यता करि जेहत निम्मल इत्यादि चोबीस दोहा ।।२४||
जिनि में पांच उक्त च है ।।५।।
प्रथानंतर जीव का निज देह प्रमाण कथन ता विर्ष स्व मत परमत के विचार की मुख्यता करि भरणं ति जिउ सत्व गउ इत्यादि दोहा छह ॥६॥
बहरि द्रव्य गुण पर्याय का स्वरूप ताके कथन की मुख्यता करि प्राप जरिणय उ इत्यादि दोहा तीन ।।३।।
बहरि कर्म विचार की मुख्मता करि जीवह कम्म अरणार जीय इत्यादि दोहा पाठ ।।८।।
बरि सामान्य भेद भावना ताके कथन की मुख्यता करि अप्पाप्रप्युजि इत्यादि दोहा तीन ।।३।।
बरि कर्म विचार की मुख्यता करि जीवह कम्म अाइ जिपरि अप्पे अप्पु इत्यादि योहा एक ||१||
बहूरि मिथ्या भाव के कथन को मुख्यता करि पहूं इरतउ इत्यादि दोहा साठ ॥८॥
बरि सम्यग दृष्टी को भावना को मुख्यता करि काल है, विगु इत्यादि दोहा पाठ ॥८॥
बहरि सामान्य भेदभाव की मुख्यता करि अप्पा संयम इत्यादि दोहा इकतीस ॥३१॥
इति श्री योगिंद्र देव विरचित परमारमा प्रकास प्रय ला विर्ष एक सो सेईस ।।१२३॥
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परमात्म प्रकाश भाषा टीका
अंतिम भाग:
अथानन्तर य के प्रतिमंगल के अणि मासीर्वाद रूप नमस्कार है ।।
।। मालिनी छन्द ।
परम पय गवारगं भास उ दिव्बकाउ । मणि सि मुगि बराणं मुख दो दिन जोउ ।। विसय सूहरयाणं दुल्ल होजो हलोए ।
जयउ शिब सरूवो के वलोको विवोहो ।।४३।।
अर्थः-जहत कहिए सभोन्द्र, राति जति माता वाला है वह परमतत्व दिव्य काउ कहिए दिग्य है ग्यान प्रानन्द रूप शरीर जाकै अथवा अरहंत पद की अपेक्षा दिव्य काय कहिए परम प्रौदारिक गरीर, कु धारे है। बहुरि कैसा है हजारौ मूर्यनित अधिक है, तेज जाका सकल प्रकासी है । जे परम पद कूप्रापत भए है, केवली तिनिकू' तो साक्षान् दिव्य काय भास है पुरषाकार भासि रहा है । परजे महा मुनि है तिनिके मन वि द्वितोय सुकल ध्यानरूपी धीतराग निर्विकल्प समाधियोग रूप भास्या है। कैमा वह तत्व मोश दो कहिए मोक्ष का देनहा रा है अर फेवल ग्यान है स्वभाष जाका ऐगा प्रपूर्व ग्यान योति सदा कल्याण रूप शिव स्वरूप अनते परमात्म भादनां ताकार उत्पन्न जो परमानंद प्रतिद्री सुख तातै विमुख जे पंच इंदौनि के विषय निनि सूजे प्रासक्त है सिनिफू सदा दुर्लभ है ।। या लोक विषइजीव जा न पावं ऐसा वह परम तत्व सो जयवंत होऊ ।। या भाति या परमात्मा प्रकामनामा नथ विष प्रथम ही जे जाया, झरिमाए इत्यादिक एक सौ तेईस दोहा १२३ पर प्रक्षेपक तीन ३ तिनि सहित पहला अधिकार कह्या । बहुरि एक सौ चौदा ११४ दोहा पर प्रत्येक ५ पांच तिनि सहित दूसरा महा अधिकार कहया ।
अरं पर जाणं तु वि परम मुरिण, पर ससम्म चयति । इत्यादिक एक सो सात १०७ दोहा नि में तीसरा महा अधिकार का प्रक्षेपक अर मति की दोय काव्म तिनि सहित तीन से पंतालीस ३४५ दोहानि में परमात्मा प्रकास का व्याख्यान ब्रह्म देवकात टीका सहित संपूर्ण भरा ।। छ।।
या ग्रंथ विष प्रचुरताकरि पदनि की संधि करनी ।। अर वचन भी भिन्न भिन्न कहिए जुदे जुबे धरे सुख सू समझिवे के मथि कठिन संस्कृत न धर्या तात इहा लिंग वचन क्रिया कारक संधि समास विसेव्य विशेपण दूपा
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२१८ महाकवि दौलतराम कासलीवाल व्यक्तित्व एवं कृतित्व
न लेने जो पंडित जन विशेषग्य है ते ग्रेसा जांनहूं ।। जो इह प्रथवाल बुद्धिनिके समभिदे कू सुगम कीया है या परमात्मा प्रकाश की टीका का व्याख्यान जांनि करि भव्य जीवनिकू ऐसा विचार करना । जो मैं सहज सुद्ध ज्ञानानंद स्वभावि नीविकल्प हूं उदासीन हूं। निजानंद निरंजन सुद्धातम सम्यक् दर्शन सम्यक ज्ञान सम्यक चारित्र रूप निश्चय रत्नत्रय मई निर्विकल्प समाधि कर उपज्या वीतराग सहजानन्दरूप श्रानंदानुभूति मात्रा जो सु संवेदन ज्ञान ताकरि गम्य है और उपायनि करि गम्य नाही || निविकल्प निजानंद ज्ञान ही करि प्राप्ति है, मेरी भारतावस्थ कहिए पूर्ण हूँ राग द्वेष मोह क्रोध मान माया लोभ पांच द्रीनिके विषय व्यापार मनकाय द्रव्य कर्म भावकर्म दो कर्म क्षाति पूजा लाभ देखे सुनें अनुभघु जेभोग तिनि की चोखा रूप निशन बंषभयः । मिथ्या शल्य त्रियादि विभाव परिणाम रहित सुन्यौ हूं कहिए सब प्रपंचनि त रहित हूँ ।। तीन लोक सोनकाल विषै मन वचन काय करि कृत कारिल अनुमोदना करि शुद्ध निश्चय नय की मैं समाराम ऐसा है तथा सर्व ही जीव ऐसे हैं इह निरंतर भावनां करनी ॥छ ।
यह परमात्म प्रकास ग्रंथ का व्याख्यान प्रभाकर भट्ट के संबोधने अभि श्री योद्रि देव ने किया ता परि श्री ब्रह्मदेव ने संस्कृत टीका करी | श्री योगाचार्य ने प्रभाकर भट्ट संवोधिवेक अधि दोहा तीन से तोयालीण कीए ता परि श्री ब्रह्मदेव ने संस्कृत टीका हजार पांच च्यारि ५००४ कीएता परि दौलत राम ने भाषा वचनिका का श्लोक प्राइसठि से निवे ६८९० संख्या प्रमाण की || श्री योगिंद्राचार्य कृत मूल दोहा ब्रह्मदेव कृत संस्कृत टीका का दौलतिराम कृत भाषा वचनिका पूर्ण भई । छ । । इति श्री योगिंद्राचार्य विरंचित परमात्मा प्रकास की भाषा वचनिका संपूर्ण ||छ ||
दोहा:---
कटि कूर्वाड कर बेगडी, नीचा मुख पर नंग | इस संकट पुस्तक लिखु, नीका राखो सैंगा ||
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आदिपुराण
रचनाकाल :-संवद १८२४त्र सुदी पूणिमा
रचना स्थान :-जयपुर (राजस्थान)
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३०.
महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
अथ तीसवां पर्व ।
अथानंतर पृथ्वी का प्रभु पश्चिम दिशा के जीतिवेकू उद्यमी 'मया, नैऋत्य कोण के मागं अपनी सेना के साधन करि पृथ्वी कू वशि करता चाल्या ॥१॥ भागे मागे घोड़े जाप हैं तिनि के पीछे रथ चने पर मध्यविर्षे हायनिकी घटा चाली अर पयाड़े सर्वत्र चाले ॥२॥ या भांति चतुरंगबल देवनि के पर विद्याधरनिके कदक राहित पडंग पृथ्वी वि विस्त ग्घा ।। ३।। चालता कटक का क्षोभ ता थकी समुद्र चलायमान भया सो मानू सेवक जे मुभट तिनिकू स्वामी के पीछ चालना पहचावनें कू संग होना प्रगट दिखाये है ।।४।। कटक के लोकनि बलात्कारते भोगे बुनि के फल सो फल तोड़वं वृक्ष नय गए प्रर नदीनिका जल सुसि गया कीच होय गया पर बड़े बड़े पहाड़ थल होय गए ।।५।। यावे कार्य की सिद्धि सब सफल होतो भई अतिरसको भरी सुखकी करगाहारी सेवक जननिकरि नांदिवे योग्य महा उत्साह सहित अत्यंत फलती मई याकी मंत्र शक्ति उत्साहशक्ति प्रभुत्वशक्ति ।।६।।
पर सेना, पृथ्वीके जोतिबेकी है इच्छा जाकं सो देदीप्यमान होती भई कैसी है णक्ति पर सेना-कात भेदी न जाय, हेल है प्रबन्ध जिनिका नर शत्रु नि के क्षयका कारण ।।७।। थाके योद्धा बारण निसहित जीतिके भाव प्राप्त भए, कसे हैं बारा पर योद्धा बारण तो फल कहिए भाला तिनकार संयुक्त हैं अर योद्धा मनाछित फलकार युक्त हैं पर बाराहू तीक्ष्ण हैं अर योद्धाहू तीक्षा हैं अरु बारा तौ पक्ष कहिए पांख तिनिकरि सहित हैं पर योद्धा पक्ष कहिए सहायी तिनिकरि संयुक्त हे भर बाणह दूरगामी श्रर योद्धाहू दूरगामी ।।६।। अर याके विपक्षी कहिए शत्रु ते सत्याने विपक्ष कहिए पक्षरहित सहायरहित होते भए, सेना के लोकनि तितिकू' दूरि काढि दीए, ते सर्व सामग्रीसू रहित होय गाए ।।६।। एक बड़ा चिरज है याके विरोधी याके कोपळू होतसत भी कुपति कहिए कुमाणस होय गए सब सामग्रीरहित भए, अर दूजा अर्थ-व्यंम्वरूप-कुपतिनाम पृथ्वीपतिका है । पर याके विरोधी पहाडनिक उलंघि दूरि भागे अर दूजा अर्थ भूभृत् नाम राजानिका है अर याके विरोधी असे होय गए गो अन्न न मिल कनफल खाय प्राजीविका पूर्ण करते भए घर दुजा व्यंग्य अर्थ-पालसंपदा भोगवते भए ।।१०|| यार्क संधि कहिए मिलाप अर विग्रह कहिए युद्ध ताकी खर्चा शास्त्रविर्षे होती भई समस्त शत्रुको पक्षका निराकरण करणहारा ताके कौनसू संधि ? पर कोनसू पुद्ध ? याकं सब सेबक है कोऊ समान होय तो
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भादि पुराण
संधिविग्रह संभवं ।। ११।। या भांति इह प्रजेतव्यपक्ष कहिए नांही रहया कोऊ प्रबल शत्रु जीतिबे योग्य जार्क मार्केटिंग सत्र दीन है तथापि वह दिग्विजय कू उद्यमी भया सो मानू अपना पालित्रेका भरत क्षेत्र ताकी दिग्विजयके मिसकरि प्रदक्षिणा देता भया ।। १२३१
३०१
याकी सेना लोकनि समुद्र के तोरकों भूमि सत्र वशीभूत करी कैपी है सीर की भूमि सुपारी के वृक्षनिकरि करी है छाया जहां पर नालेरनिके चनकरि मंडित है ||१३|| साकी सेना के लोक सरोवरनिके तीर वृक्षनिकी छाया सहां विश्वास करसहारे तरुण नारेलनिका चया जो रस ताहि पीवते भए ॥१४॥ अर वाकी सेना के लोक ताल न सुनते भए सूखे पनि शब्द, पवन के इलायवेवरि प है ताडपत्र तिनिके पि महा कठोर ध्वनि होय रही है ।। १५ ।। घर दुइ नृपनिका पति तांबूलनि बेसिसत देखता भया खेर के वृक्ष, सो परस्पर मिलिरहे हैं मानू लोकनिकू ऐसी दिखाये हैं जो पातविका श्रर हमारा एक कार्य है जहां पान तहाँ काथ ||१६|| नृपनिका इन्द्र तांबूसनिकी वेलि लगिरहे
र के वृक्ष तिमिकू देवता संता इनि वृक्षनिकरि वेढी तांबूलकी बेलि तिनिकू अवलोकिकरी हर्षित भया, मातु ए स्त्री-पुरुष के युगलभाव आचरे हैं ॥१७॥ श्रर वनविर्षे विहग जे पक्षी तिनिकू देखला संता हर्षित भैया मातृ ए पंखी मुनिसारिखे सोह हैं मुनिको यह रीति है जहाँ सूर्य अस्त होयवेका समय निकट प्रावे तहांही निवास करें रात्रीकू गमन न करें पर पंछीहू निष्ठाविषे गमन न करें पर पंत्री निरतंर शब्द करें है सो मातृ स्वाध्यायही करें हैं ॥१८॥
अर कटहल के वृक्ष मांही मृदु पर बाहरि जिनिकी त्वचा कांटेनिकरि युक्त तिनिके मिष्टरस अमृतसमान सेनाके लोक यथेष्ट भवते भए ।।१६।। नारेलनिका रस पीना पर कटहलका भोजन पर मिरचनिकी तरकारी, यहां चनका निवास सुखकारी है ॥२०॥ श्रर तीक्ष्णमकी भरी मिरच तिनका श्रास्वादकर पंखी शब्द करें हैं घर पर हैं प्रनिनि प्रभुशत जिनिके तिनि भूपेंद्र देखता भया ॥२॥ अर तरुण मर्केट महातीक्ष्ण मिरचनिकी मंजरी ताहि भखिकरि मशंकित भए सिर लाई है तिनिकू पृथ्वीका पति निरखता भया ||२२|| ता समें कटकके जन लोकके उपकारी जे बनके वृक्ष तिनिकू फलनिकरी नीभूत देखि कल्पवृदानिके अस्तित्वयि निःसंदेह भए, मनमैं विचारी - ए वृक्षही फलदाता हैं तो कल्पवृक्ष तो फलदाता होयही होय ॥२३३॥ लतारूप स्त्री ताकरि मडित पर फूलरूप प्रसूतिकरि संयुक्त अंसे बनके वृक्ष मातृ
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल - व्यक्तित्व एवं कृतित्व
पृथ्वीपतिके करदेया किसागही हैं, ते वृक्ष लोकनिक्कू फलनिकरि पोते भए ||२४|| नालेरनिका रस सोई भया भासव ताकरि मदोन्मत्त कछुइक घुमें हैं नेत्र जिनके जैसी सिंहलदेशको श्री पृथ्वीपतिका यथ श्रुतिगभीर स्वरसू गावती भई, वह यश सुननारेनि श्रवशमिक मतिसुन्दर ||२५||
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अर त्रिकूटांचल मलयाचल तिनिके तटदिषै अर पांड्ययाटक नामा पर्वताविषयाका यश क्निरीदेवी प्रतिगम्भीर स्वरसू गावती भई ||२६|| भर मलयाचल के निकट वननिविषं पर सह्याचल के वनविषैयाका यश पृथ्वी के जीतिबेकार उपज्या सो भीलनिकी स्त्री गावती भई ||२७|| घर चंदन का उद्यान ताहि पकिरि मन्द सुनन्ध पवन बाजली भई, मलयाचल के कुन्जनित हरे है नीरनिके जन्नकरण जानें ||२५|| दक्षिण दिशा की पवन चौगिरद विस्तरती नृपका खेद हरती मानू पाहुणगतिकरि सेनाकै लोकनिका सरकारही करें है ।।२६।। अर केरल देशकी श्री लोग इलायची यादि सुगन्ध वस्तुनिकी बारा fare सुगन्ध है मुखके श्वास जिनिके पर जिनके स्तन सघन चन्दन के द्रवकरि चरचे गांड होम रहे हैं ||३०|| पर लीलासहित मन्द है गमन जिनिका मातृ नितंबनिके भारकरि मन्द चालें हैं घर कामके पुष्पवास तिनिकी कली के खिलिकेसे विभ्रमकू घरे सुन्दर है मुलकनि जिनिकी ॥ ३१ ॥ श्रर कोयल के आलाप समान मधुर हैं बचन जिनिके ते बचत प्रतिप्रकट नाही भी बरें है पर प्रतिकोमल जो बाहुलता प्रतिसुभग हिंडोरे समान तिनि मनोज्ञ है चेष्टा जिनिकी ||३२|| घर महासुन्दर नृत्य करती नृत्यसमय स्खलित होय है पगनिकी रचना जिनिकी र बाहुल्यताकरि मोतीनिके आभूषण पहरे जीते हैं भंवर निकै गुन्जार जिनि से मन्द मनोहर गान करती ॥३३॥
स्वर'
नाबती
तमालवनकीकुजगलीनिर्मे यथेष्ट विचरती नवयोजनकू' करे केरल देशकी स्त्री याका मन प्रसन करती भई ||३४|| सो राजेंद्र दक्षिण दिशा कु शिकार चोल देश केरलदेश के राजा तिनि सबनिकू जीतिके साधनतं वशिकर प्रणाम करावता भया, सब राजा श्राय पांय परे ||३५|| कलिंगदेशके उपजे गज मलयाचल पर्वत समान ऊंचे मातू अपने उच्च शरीरकरि गिरिनिकी उच्चताकू उध हैं ||३६|| दिग्विजयवर्ष सेनाके गज सब दिशानिमें विश्राम करते दिग्गज अंगीकार करते भए, लोकनि जानी- एही दिग्गज हैं मर और दिग्गज कहिए हैं सो उपमाकं अधि कहिलेमात्र है ||३७||
बहूरि भरत क्षेत्रका भूपाल पश्चिमदेशकू प्राप्त होय सध्याचल के समीप मिदिशि के समुद्र तटके राजा तिमिक जीतता भया ||३८|| जीतिका
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प्रादि पुराण
साधन माका कटक पश्चिमदिशाके समुद्र के तीर निवास करता भया ।१६६।। जपसिबु कहिए खारडी समुद्र सो अपने दोऊ तनियिर्ष गजानिके राजाका कटक देरिन भयथकी क्षोभ प्राप्त सोय मानू पाकुल व्याकुल भया !1४०।। सेनाके भोभते समुद्र या तट की उर प्राप्त होय अर या तट की उर निवास करती से नाके भोभते या तटकी उर प्राप्त होय है ।।४१॥ हरितारण निनिकी प्रभाके विस्तारकरि समुद्रका जल अंसा सोहता भया मानू चिरकालत मिवाले नीचे हुता सो ऊरि प्राय गया है ।।४।। अर कहूंइक परागमरिणनिकी किरणनि करि ममुद्रका जल असा सोहता भया मा कटकके क्षोभते ममद्रका हृदय विदारया गया है नाते चले है रुधिरकी छटा ॥४३॥ समाचल पर्वतके तर समुद्रका जल स्पर्श है सो मानूयाकी गोहमैं लोटता संता अपना दुम निवेदन कर है पर वह या धारता संता मार्नु भाईका भाव प्रगट कर है 11४४।। न सधा पर प्रेमा बलका संघट्ट ताकर सो सह्माचल भग्न भए जे वृक्ष तिनिकरी मानू हाथ ऊँचेकरि पुकारही कर है ।।४५।। मह्माचल कटककरि बिदाऱ्या, चलायमान हैं प्रागनी जहाँ सो गुफा के छिद्रनिकरि प्राकुल णन्द करता मानू मृत्युदशाक् प्राप्त होय है, कैसा है पर्वत-सिंहादि प्राणी ने ही हैं. प्रारण जाके । भावार्थ-जो मृत्यु दशालू' प्राप्त होय है ताके प्राण चलायमान होय हैं पर याके प्रारपी चलायमान हैं ।।४६।। चलायमान हैं वृक्ष जाके पर चलायमान हैं प्रासी जहाँ पर शिथिल होय गई है कटिनो जाकी मी पर्वन या भांति चलाबल होता थका काहिब मात्रही अचलनाम धरावता भया. लोकन जानी-कहिलेका प्रचल है ।।४।।
प्राणीनि के समूदन कीया है धनका भोग अः तुगनिक मरघट्ट नकार तश्रा कटकके लकनिक पायनिकरि चूरी संनी महाचलकी भूमि क्षणमायमै स्थलके भाव प्राप्त भई ।।४।।। चक्रवर्ती के विजय गज पश्चिमके समुद्र के तटपर्यंत प्रर. मध्यमाचलगिरीपर्यंत अर तु गवर पर्वतपर्यत भ्रमत्ते भए, कमा है तुगबर-ऊ'चे पापागानिकरि संयुक्त है ।।४६|| बहरि कृष्सागिरी उलंचि पर सुमंदरगिरीक उलंघि बहुरि मुकूदगिरिकू उलंघि राजेंद्रके गजराज भूमिमै भ्रमते भए ।।५०।1 नहीं पश्रिमविशिके समीपके हाथी छोटी है पीवा कहिए नारी जिनिकी अर लांब हैं दांत जिनके प्रर मुदर हैं नेत्र जिनके पर मृद है त्वना जिनिकी सचिङ्कण श्याम महापुष्ट ।।५१।। बडा है शरीरका ऊपला भाग जिनिका उत्तुग है अंग जिनिका अर रक्त हैं जीभ होठ तालवे जिनके महामानके धरणहारे अर दीर्घ है पूछ जिनकी अर कमालसमान सुगंध भरे है मद जिनिक ।। ५२ ।। अपने बनविप संतुष्ट अर महाशूग्वोर १८ हैं चरण बिनिके
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल - व्यक्तित्व एवं कृतित्व
पर सुंदर है शरीर जिनिका जैसे पश्चिम के हस्ती वननिके स्वामी यति आदरसू भेट ल्याए तिनिकू आप राखता भया १४५३॥
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सो पृथ्वीका राजा अनेक नदी उलंघता भया, कैसी हैं नदी-यत हो हैं रोमावली जिनिक पर ऊंचे तट तेई हैं नितंब जिनिके, केई नदी पूर्वग्रामिनी केई नदी पश्चिमगामिनी मात्र सह्याचलकी पुत्री ही है, तिनिकू उलंघत्ता भया ।। ५४ ।। विच है भीषण ग्राह जिनिमें ऐसी भीमानामा नदी भर भीमरथी जलचर के समूह तिनिकरि उठ्चा है भंवर जिनि अँसी दारुवेणा घर दारुणा महानदी तितिकू उलघता भया ।। ५५ ।। अर नीरानामा नदी नीरके तीर जे वृक्ष तिनिके शाखाके अग्रभागकरि बाच्छादित है जल जाका श्रर मूलानामा नदी दानिकू उपास है प्रवाह जाका सो अपने प्रवाहकरि मूलतें उतारे हैं तटके वृक्ष जानें || ५६ || यर वारणा नामा नदी, सो कैसी है - निरंतर बहँ हैं जल जायें भर केतवा नामा नदी सदा जलकर भरी बहुरि करीरीनामा नदी सो फँसी है— करी जे हाथी तिनिके दांतनिकरि बिदारे हैं तट जाके इत्यादि महानदी तिनिक्कू नृपनिका उलंघता भया ||१७|| बहुरि प्रहरा लामा नदी विषम जे ग्राह तिनिकर दुषित धातु वह नदी सती कहिए दुराचारिणी नारोही है, दुरावारिणी स्त्री विषम ग्राह जे नीचजन तिनिकरि दूषित है बहुरि मुररा नामा नदी जातिनियम की शहत मानू महासतीही है महासती पंक कहिए कलंक ताकरि रहित है ।। ५६ ।।
अर पारा नामा नदी जाके जलके तीर शब्द करें हैं कुरंचि कलईस सारस । श्रर मदनानामा नदी कैसी है मदना - समानस्थल घर नीचेस्थल तिनिजिलकर समान है घर अखंड हैं गति जाकी ।। ५६ ।। श्रर वेणुकानामा नदी मानू इह नदी सह्याचलरुप गजकी मदधारा ही है । यर गोदावरी प्रखंड है प्रवाह जाका अति विस्तारकू घर है ३६० ।। घर करीरवनकरि मंडित है सीरकी भूमि जाकी भैसी तापी नामा नदी तापके संतापले कछुइक उष्णजल धरतीसंती बहै है ।।६१।। घर रम्या नामा नदी ताके तीरके वृक्ष तिनिकी छाया सूते हैं मृगनि के बालक, घर लांगल खातिकानामा नदी कैसी है मातृ पश्चिम दिशाको खाई ही हूँ ||६२ || इत्यादि अनेक नदी तिनिक्कू सेनापति सेनासहित उलंघता भया जहां जहाँ सेनापति गया वहां तहां चनके माते हाथी चक्रवृत्तिका कटक गया चलकू उलंधि विष्याचल जाय सहयाचल पसरी हैं नदीरुप जीभ जानें सो मातृ समुद्रकु
हता भया ।। ६३ ।। प्राप्त भया, कैसा है पोबेकू उद्यभि भया
है ।। ६४ ।।
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प्रादि पुराण
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अब कट विपाचल पाया सो विमानला पनिका ए भापममान देखता भया-वह गिरिनिका पति उत्तुग पर वह धापहू उत्तुग पर पाप तौ बड़े वंशकू घो पर वह बड़े बांसनिकू धरे, पाप दीर्घता घर पर बहुत दीर्घताकू घरे, पापहू नौरनिरि अलंध्य पर गिरिह औरनिकरि अलंध्य तातें गिरीवकू माप तुल्य देखि प्रसन्न भया ॥६५|| कैसा है गिरी--अपने ऊंचे शिखरनिकरि सोहै है उछलकर दुरि जाय परै हैं निझरने जिनित अर वजासहित विमान निके समूहकरि मानू विनामक अथि पाका प्राश्नय ले हैं ॥६६॥ जो विध्याचल अपनी पूर्व भर पश्चिमकी अणो तिनिकरि समुद्र अवाहिकरि तिष्ठया है मानू दावानलके भयतं समुद्रसू मित्रता कीया चाहे है ।।७।।
पर निरन्तर झर हैं नीझरने जाक तलहटोके वृक्षनिके सींचिदेक प्रथि सो मानू इह गिरि असा भाव कहै है-बडे नृपनिक इह योग्य है जो अपने चरणनि लागे तिनि कू पालन करें ।।६८|| पर तटविय तिष्ठते ऊंचे पापारण तिनिसू स्खलित होय उद्दल है जल जाका प्रेसी नदी रूप नारी तिमिकू' मान शब्दसहित नीझरने तिनिकरि हसंसी है ।। ६६ ।। अर दावानल नीचले विस्तो वन तिनिकजसकी सरदीकरि दाहिबेकू असमर्थ तातै भृगुपात कहिए मिरित गरिबके प्रथि शिखरकू चतु है भावार्थ-तलै सरदी जलकी घनी है पर शिखरपरि जल ठहरे नाही तातै शिखरपरि दावानल लाग है सो मानू झपापात बेलेकू चढ़ी है ।।७०।। प्रज्वलित दावानल ताकरि संयुक्त जे गिरि के शिखर तिनिक बनयर जे भील से ज्येष्ठ पापाढके दिनानिमें सुवर्णसारिने लखे हैं ॥७१।।
जाके वन मातंग चे हाथी अथवा भीलादिक चांडाल तिनिकरि संयुक्त हैं पर भुजंग कहिए सर्प अथवा विषके भरे दुष्ट जीव तिनिका है संचार जहाँ पर विजाति कहिए पक्षी प्रथवा नीच जाति तेई भए कंटक तिनिकरि पूर्ण हैं ताते कहूंइफ प्रतिकण्टकू धर हैं ॥७२॥ प्रर माते हाथी लिनिका है योग जहाँ पर समुद्र लवणकी है बाहुल्यता जहाँ पर विपत्र कहिए पंखीनिको पांख जहाँ बहुत पड़ी हैं भर पत्र तथा कूपल तिनिकरि बहुत सोहै है ।।७३।। पर कहूंइक फटि गए हैं बीस जिनिफे उदरत गिरे जहाँ तहाँ विम्वरि रहे हैं मुक्ताफल तिनिकरि मान वनलक्ष्मी प्रगट जो दांसनिकी किरण ताकरि वनविणे हसही है ।।७४।। पर इह विध्याचल गुफानिके मुख तिनिकरि झर है नीझरने तिनिके शब्दकरि मानू गाजही है, अपनी महिमाकरि करी है कुलाचलनिसू स्पर्धी जान ।।७५॥
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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तिव एवं कृतित्व
___ पर इह पहाड नीचे के स्थानक सिनिकरि अर नानाप्रकारको गेसः मादि धातु तिमिरि अर नानाप्रकारके मृगनिके रुप तिनिकरि मान चित्रपटके माकारकू परे है १७६ । पर जाके वनविषं रात्रिसमैं औषधि प्रज्वलित होय है मो मा देवनि । दीपक प्रज्वलित कीए है अन्धकारके हरणहारे १७७।। प्रर का नि बिदारे में गन.. मत हिनिह: स हैं मोती तिनिरि जाका समीपस्थल बिसरे पुष्पनिकी शोभा घर है ।।७८५। मो नपनि का नृग दूरिहीत महागिरिकू देखि परम प्रान्नद प्राप्त भया मान वह गिरि राजराजेंद्र पवनकरि हालते तट के वृक्ष सिनिकरि बुलाये है ७६।। मो चक्रेशर विष्माचलके किरात कहिए भील पर करी कहिए हाथी तिनिक समूहसहित दूरत देखला भया, करो हैं किरात पर कैसा है करी-कालीघटानयान काले घर भील तौ बांस के धनुप घर पर हाग्री धनुषके प्राकार वंश काहिए पीठ ताहि धरै ।।८०॥ ता पर्वतके तटविर्षे नदीका स्त्री चंचल जे मच्छी तेई हैं नेत्र जिनिक प्रा. पछीनिके शब्द तेई है अव्यक्त सुन्दर शब्द जिनके अंसी नदीरूप नारी तितिक नरपति निरखता भया ।।१।।
पर विध्याचल के मध्य नर्मदा नदीकू देखता मया सो नर्मदा नदीनिमें बही मानु विध्याचलकी समुद्रपर्यंत कीति विस्तरी है काहू निवारी न जाय ।।२।। तरंगरूप है जलका वेग जाका प्रेसी नर्मदा मानू पृथ्वीकी लांबी चोटीही ह पर विध्याचल पर्वतकी पनाकाही है समस्त पर्वतनिकू जीतै ताकी प्रशंसा प्रगट कराहारी ॥३॥ सो नदी कटकके क्षोभते उठी है पंछीनिकी पंक्ति जाविर्षे सो मानू' पृथ्वीका पति अपने स्थल पाया तात तोरणही बांधे हैं, पग्नीनिके डिबेतै क्षक औसी भासी ॥८४|| पर इह सांचिली नर्मदा है जो राजानिकी रानीनिफू नर्म कहिए क्रीडा ताकी देनहारी ताके मध्य मच्छी केलि कर हैं ।।८५।। ता नमंदाकू उतरिकरि राजेश्वरका कटक विध्याचलकै पले तट जाय पाँच्या घरकी देहलीकी बुद्धिकरि विंध्याचलकू उलध्या पर नर्मदाके पार भए, कैसी है नर्मदा-कटकके क्षोभत उडी है पंखीनिकी पंक्ति जाविर्ष ॥६६।।
अर विध्याचल नर्मदाकै दक्षिणदिशिभी देख्या पर उत्तर दिशिभी देख्या मान विध्याचलने दोऊदिशानिषं अपना रूप दोयप्रकार कीयां है दोजही दिशातिमै जाका छेह नाही ।।८७॥ चक्रीका कटक नर्मदाकी चौगिरद विध्याबलकू बेटिकरि निवास करता भया मानू इह कटक दूजा बिध्याचलही है ।।८।। वह कटक पर बिध्याचल परस्पर भेद न धारते भए, कटकमैं तो गज पर गिरी में गेडोपल कहिए ऊंचे स्थानक पर कटक मैं अश्व पर पर्वत मैं अश्व
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मादि पुराण
चक्र कहिए किनर देव, अश्वहू चपल पर किनरहू चपल ||८६1 कटकन भत्र समस्त फल पर पल्लव भर तर सो विध्याचल दल फल पुष्प बलि पत्र तिनिकरि रहित होयगमा मो मान, विध्याचल बंध्याचल होय गया । वंध्या नाम निफलका है ।। || बांसनिके चावल बांसनिके मोती निकरि मिथित तिनिकरि कट के लोग जिनद्रको अर्चा करते अपनी इच्छाकरि सुम्बसू तिष्ठते महामनोज्ञह विध्याचल की स्थली ।।६१तहां पृथ्वीपतिनं निवास किया तब वन के राजा राजाधिराजकू देखते भाए पर बनकी नानाप्रकारकी वस्तु प्रशंसायोग्य रोगको निवारणहारी महाऔषध भेट करते भग हरा। हाथीनिके दांत पर गजमोती पर बांसनिके मोती भीलनिके अधिपति भंट करते भए सो उचितही है पृथ्वीपतिका सत्कार करना ।।३।।
नर्मदाकू उतरि विघ्याचलकू. उलघि चक्रवर्तीका नाटक पपिचदिनांक जीतिबे प्रयाण करता भया ।।१४।। पहली कछुद्धक उत्तरदिशाकी तरफ कटक जायकरि पश्चिम दिशाकू चक्रसहित प्राप्त भया, पाका प्रताप तो पहिलोही सब उर व्यापि रया है ।। ६५|| कटकके अश्व तिनिक खुर नितै उठी पृथ्वीको रज मो सूर्य के तेजकू रोकती भई केवल वैरीनिकाही तेज न रोक्या जाके तेज मार्ग सूसंहका तेज किंगया ।।६६।। लाट देश के राजा ललाटकरि स्पश्या है पृथ्वीतल जिनि प्रतिसुन्दर भाषा बोलते प्रभुकी आज्ञाके वशि होय लाभाटिक पदक प्राप्त भए । जो स्वामीका अभिप्राय जानं पर आज्ञाप्रमाण कार्य केरिबेकू समर्थ नाहि लालटिक कहिए ।।१७।। कैयक वनके अधिपति सोरठदेश के गज पर पंचनदीके वननिक गज भेंटकरि पृथ्वीनाथका दर्शन करते भए, वक्रकरि मब चलायमान होय गए ||६|| चक्रके देखिबेत डरे, देश तजि पृथ्वीनाधकं समीप आए तिनि जानी इह सब पृथ्वी चक्रेश्वरकी है जाहि जो स्थल देय सी पाई केयक राजा रमह समान महाऋ र हुते' सो चक्रीक वशि भए ।।१६।।
भरत क्षेत्रका पति सब दिशानिके देशपनि पाते हाथी समान मदोन्मन तिनिक अपने बलते दबाय तूचे करता भया कम हैं गजा अर कैमे हैं गजराजराजा तो बड़े वंशके उपजे पर गज बड़े पीठिकू धरें, वंशनाम पीठहका है, पर हाथी मदोन्मत्त राजाहू मदोन्मत्त सो सब राजा गजेंद्रके प्रतापत निमंद होय गए ।।१०।। सोरठदेश के राजा अर उष्ट्रदेशके राजा ल्याए है अनेक प्रकार भेटानिक समूह तिनि पृथ्वीनाथ संतुष्ट करता तिनिपरि कृपा करता गिरिनार. गिरिको थली आमा ।। १०१।। सोरठदेशविष गिरिनारगिरि सुपेरुमारिया पर्वत तहां भरतक्षेत्रका पति प्राय पहोंच्या, प्रसवारीते उत्तरि गिरिनारिको प्रदक्षिणा
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महाकवि दौलतराम फासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
देय होनहार बाथीसमें तीर्थकर तितिका ध्यान करता मिरिकी बंदना करी ॥१०२।। रोमी कपडे पर रेशमी कपड़े पर चीन पाटवर इत्यादि अनेक प्रकारके बस्त्र भेंटकरि भूपति भूपेंद्रका दर्शन करते भए ।।३। फेयकनिकू सन्मान दानकरि के इकनिक स्नेहवचनरि कंक्रनिकू कृपाकी दृष्टिकरि अत्तिहर्षित करता भया ।।४।। पर नानाप्रकारके गज पर. ऐराकी घोडे पर नानाप्रकारले रत्न तिनिफरि पश्चिमदिशा के राजा सोरटमैं आया नृपतिका नाथ ताहि पूजते भए ||५।। महासेजस्वी शरीर जिनिका अतिसुन्दर बुद्धिमान तरुण वय पराकमगुणाकरि मंडित तुरुङ्कादेशके उपजे तुरंगम तिनिकरि कैटकराजा राजेश्वरकू पूजते भए ।१६।। पर कैयक राजा कांबोजदेश के बोडे भर पाल्हीकदेश के बोर्ड तथा तंतिनदेशके पर अट्टदेशके सिंधुदेशक बनायुदेशके गांधारदेश के कारण देशके इत्यादि अनेक देशनिके तुरंगम तिनिकरि भूपेंद्र कू पागयते भए ।।१०७।। महाकुलीन पैराकी जातिके घोडे नानादेशके विचरणहारे पूर्ण है यंग जिनके सिनिकरि भूप भूपेंद्र सेवते भए ।। १०८॥ प्रयारा प्रयारण प्रति या कै केवल रत्ननिहीका लाभ न भगः ए. का अ भयानमा हुने ग़पने बलत सब वशि कीए ।।। जल और पलके गंथ तिनिकू सब पौरतै रोकि अपनी जीनिके माधनकरि गए सिंधुके सब राजानिकू सेनापति जोतता भया ।।१२।।
नानाप्रकारके देश भर वन नदी पर्वत निनिकू उलंधि सेनापति पश्चिमके रामानिक पृथ्वीपतिकी प्राजा सुनावता भया । १११।। जो काहू ठौर कछु अपराध न होय, हिंसादिक पाप पर अनीति को ऊ करि न सके, चोरी जोरी न होय, या भाति आज्ञा सुनाय जैसे पूर्वके भूपाल वशि की हुते ते में पश्चिमके अनुकमत वशि कोए, हर्या है तिनिका मानधन, या भांति सबनिकू वशिकरि राजेंद्र पपिचमके समुद्र पाया ।।१२।। सो समुद्र तरंगनिरूप कर तिरिकू विस्तारता दूरहीत भानू नरेंद्रका सत्कार करता भया तरंगनिमैं नानाप्रकारके रत्न विस्तरे सो मानू समुन्द्र अर्घपाचही कर है ।।१३।। जवाहिनिकरि प्रशंसायोग्य जे बड़े जवाहरी तिनिकरिया समुद्र के रत्न अल्पमूल्य गिनिये हैं अर या चक्रेश्वरके रत्न बहुमूल्य गिनिये हैं ।।१४।। पर इह नामकरि लनगासमुद्र सो लघु भया तात तासमै नृपनि धैमा माना जो इह चडी रत्नाकर है अनेक रलनिकी राशि है, या भांति सब गजनि बहुत प्रशंसा करी ।।१५।।
या पश्चिदिशाविर्ष सूर्य पात्र है तब मुहका तंज मंद होय जाय है सो पाहू दिशिमैं नृपेंद्रका तेज अति देदीप्यमान होता भया, पश्चिमके सन्न राजा जीते ।।१६।। इह चक्रेश्वर शत्रुनिक तीव उदग' उपजावता सूर्पसमान दिपता
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शादि पुराण
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भया यरल धारता सकलप्रजाके दुख दारता गुणरुप समुद्रकू पूर्ण करता भया, सब शत्रु करायमान करे ॥१७॥ समुद्र के तीर चाल्या, पश्चिमके तीर पहुंच्या जो द्वार होय सिंधुनी समुद्र में प्रवेश कीया है असा सिंधूदार ताके समीप कटकके डेरे फराए, कैसा है कटक-अपने चित्तसमान निराकुल है चक्रेश्वर महालक्ष्मीनान जा समान अन्य कोऊ विभूतियंत नाही ।।१८।। सिंधुके तटके कन तहां सेनाके डेरे भए फौजके हाथी तिनिके चरिबेकरि पेडमात्र रहिमये ||१६|| तहां मंत्रसहित चकरनकी पूजा करो समस्त रीतिका वेत्ता पुरोहित, पंचपरमेष्ठीकी विधिपूर्वक पूजा करी ।।२०।। पवित्र गंधोदकसू मिश्रित आसिकासहित
क्षत देयकरि पवित्र आशीर्वाद दय पुरोहित चक्रीकू प्रानन्द उपजावता भया ।।२१॥ तासमैं धरे हैं देवोपनीत शस्त्र जान पहली रातिप्रमाण रविष प्रारूद्ध होय लवणोदधिकू गायके खोज समान अल्प जानि पृथ्वीका पति लवणोदधिक अवगाहता भया । २२।। उत्कृष्ट है दीप्ति जाकी पैसा प्रभासनामा देव ताहि जीत्या पृथ्वीका पति अपनी प्रभाके समूहकरि सूर्यको प्रभाकू तिरस्कार कर है ।।२३।। जो वीरलक्ष्मो सोई भई मच्छी ताके दशि करिवेकू जालसमान मोतीनिका जाल अर संतान जातिके कल्पवृक्षनिकी माला प्रर मुवणंका जाल ए सब प्रभासदेव भेट करी सो चाधर ग्रही ।।२४11 या भांति पुण्यके उदयतें पृथ्वीपति बड़े देवनिकूजीतता भया तातै बुद्धिमान पुण्यरुप धनका निरंतर उपार्जन करहु, मो पुण्यधन महाप्रबन है ।।२५।।
वक्रवर्तीनिमैं आदि प्रथमनको प्रतुल है लक्ष्मी जाके पर नाचने उछलने उनु ग तुरंग तिनिके ग्रनिकार चूर्ण कीए हैं विषमस्थल जान, तुरंगनिके धुरनिकर उठी रेगु ताकरि समुद्रक श्यामता उपजावता संता प्रभासदेवकू जीतिकरि ताथकी गारभूत वस्तु लीन्हो ।।२६ । लक्ष्मौके हीदिवे की लतासमान मदानजातिके कल्पवृक्षनित पुरुषनिकी माला उरवि धारी पर मोतिनिका पर सुवर्णका जाल जुगल ताकारि संयुक्त जैसे कोक बौंद बीदनी परणि भीतरते बाहर निकस तैस लक्ष्मीका ईश लक्ष्मीकू परणकरि समुदत निर्भय निकसता नूतन वरकी शोभाकू धरता अत्यन्त मोहता भया ।।१२।। समुद्रपर्यन्त पूर्वके राजा पर समस्त दक्षिा के राजा वैजयंतद्वारपर्यन्त तिनिक जीतिकरि पश्चिमका समुद्र है सीमा जाकी घेसी पश्चिमदिशा तहांके दिकपालनितुल्य भूपाल तिनित प्रणाम कारायला समस्त देवनिकू कंपायमान करता समस्तदिशाके चक्र अरिचकरहित करता भया । या भांति जीते हैं सकलभूष जाने प्रेमा नपनिका प्रभु पृथ्वी वशि करता भया ।।१२।। इन कथा गौतमस्वामी राजा श्रेणिक सू कहे हैंहै राजन् ! पुण्यके प्रयायत इह जीव भूमंडलकी जीतनहारी चक्रवर्तीकी लक्ष्मी
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________________ 31. महाकवि दौलत राम कासलीवाल-श्यक्तित्व एवं कृतित्व ताहि पा है पर इन्द्रपदकी दिव्यलक्ष्मी पाब है अर पुष्यथ कोही तीर्थ करक) विभूति पाव है पर पुष्य ही धकी परंगराय मोक्षकी अविनाणी लक्षमी पाव है। या भांति पुश्यक प्रभावतं ए च्यारू विभूतिनिका भव्य गीय भाजन होय है, तान असा जानि जे सुद्धि है ते पवित्र जिनेंद्र के प्रागमतं पुण्यकू उपार्जी / / 126 / / इति श्री भगवज्जिनसेनाचार्यविरचित त्रिषष्टिलक्षणमहापुराण संग्रहे पश्चिमार्ग - यद्वारविजयवर्णन नाम तीसवां पर्व पूर्ण भया / / 6 / /