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अध्यात्म बारहखड़ी
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और न दूजो देवता. और न दूजो पंथ । शिव विरंचि जगनाथ है, जो जिनवर ग्रंथ ।।१०।। बर्दा केवल राम की, रमि जु रह्यो सब माहि । ग्रंसी ठोर न देखिये, जहा देव वह नाहि ।।१।। व्यागि रह्यो सब लोक मैं, पर अलोक हू मांहि । लोक शिखर राज प्रभू, साधु लखें निज पाहि ।।११।। सब बामें वह सबनि मै, वह है सब से भिन्न । याने सब ही भिन्न हैं, वह भिन्नोच अभिन्न ||१२|| बंधनहर हर नाम धर, यम करि नामक सिंह । वह जु हरी नरहरि धुरी, भवनासक नरसिंह ।।१३।। कल्यागातम शिब जिको. विधिकारी विधि नाम । द्वादशांग मूत्र जु रच, सहि विरंचि मु राम ।।१४।। रचे तत्व सिष्टी सवं. विरचै अतत नितं जु । बहै विरंचि न दूसरी, सही वम शिवमैं जु ।।१५।। शिव जु मुक्ति को नाम है, सिव कल्याण जु होय । शिव शंकर जिन देव है, और न दूजो कोय ।। १६|| कर्ता प्रातम भाव कौ, कर्ता शिव को सोय । हर्ता सर्व विभाव को, निवस जो शिवलोय ।।१५।। रतनत्रय को जोग है, नातं जोगी जोय । अतुल अनंते गुगनि को, भोगन हारी होय ।।१८।। जोगी भोगी हरि सही, और न जोगी जोग। पोर न भोगी भोग हैं, करि जु न जिन संजोग ।।१६।। सर्वधांम मैं रमि रह्यो, रहै जु एक ठाम । रम्य सकल मै रमण जी, रमैं अखिल मै राम ।।२०।। सर्वग व्यापक विष्णु जो, सर्वजो जिन ईश । जयकारी जिन नाम है, जो महेश जगदीश ।।२१।।