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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
म्रग नहिं मूरिख जीव से, फस फासि के मांहि । करि अनुराग जु राग सौं, प्रथा जीव सी जाहि ॥२२२।। अहंकार ममकार से, नांहि अहेरी कोइ ।
कार जिसमें सः, धंधा सम हैं सोइ ।।२२३॥ जाल न बिकलप जाल से, इह बन जाल स्वरुप । अति जंजाल भरचो सदा, महा भंप विड रूप ॥२२४।। जी बनि के कुल जाति जे, अर नाना विधि बस । तिन सेवां सुन और को, नहि कुभाव से कंस ।।२२५।। भरयो बस पर कंस लें, अस मात्र सुख मांहि । लुट पंथ निरवान को, बहु पंथी बिनसांहि ।।२२६।। सम्यक दरसग सोइ कण, ता बिन पर की ग्रास । घास सोइ तासौं भरयो, भव वन कष्ट निवास ।।२२७॥ नहि कंटिक क्रोधादि से, तिन करि पुरण एह । क्रू र भात्र से सिंध नहि, भव वन तिन को गेह ।।२२८।। दुरनववादी जीव से, मांहि कुपक्षी कोय । या संसार असार मैं, करै सोर अति सोय ।।२२६ ।। नही अजगर अज्ञान सौ. ग्रस जगत नौं जोय । बसै मही भव वन विषै, वचं कहां से कोय ।।२३० ।। मद अष्ठनि से और को, अष्टापद नहि बीर । भव अटवी मैं ते रहै, तिनं नहीं पर पीर ।।२३१।। अति उदमाद प्रमाद सी, मत्त गयन्द न और । सो वनगज भव वन विषे, दुष्टनि को सिर मौर ।।२३२।। रहै सदा उनमत महा, काल स्वरूप विरूप । थिर चरसे नहि वन चरा, बस तहां भय रूप ।।२३३।। पीडै पाप पिसाच अति, दुष्टनि की सरदार | भूतन इन्द्री पच से, तिन को तहां बिहार ॥२३४।।