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विवेक विलास
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छल छिद्रनि से और को, नाहिं छलावा होय । फिरै छलावा बन विष, बचें कहां ते कोय ।।२३५।। भव कांतर असा रहै, अति दुष्टनि को बास । नहि उलूक मिथ्यात सो, ताको तहा विलास 11२३६।। काम लोभ परपंच से, ठग नहि कोइ अोर । सदा ठगै भव वन विषे, करें जगत को चोर ।।२३७।। बटयारी दोरी बुरो, नहि परद्रोह समान । दौर कर परधन हरै, घरै बहुत अभिमान ॥२३८।। बहि पगि साब में, गुर औ न तोर । सिथिल मन्द भाव से, गेंडा जानि न धीर ।।२३६।। भय दायक भावनि से, और नहि भिडि पाव । भव अरण्य भीतरी भया, तिनको सदा लखाव ॥२४०।। बाधाकारी भाव से, नाहि वधेरा कोय । ह्य ग्राहक भावनि से, सूकर और न होय ।।२४१।। अविवेकी भावनि से, महिष अरण्य न झोर । इत्यादिक खल जीव गण, दीस ठौर जु ठौर ।।२४२।। लोक गमार अजाण जे, तिसे न सांभर रोझ । सदा रहै भ्रम भाव मैं, धरै न तप व्रत बोझ ॥२४३1। इत उत डोलत हो फिर, अति हि झकोला खाय । चितवति चंचल रूप जो, निश्चल कबहु न थाय ।।२४४।। ता सम और न लौंगती, भव कांतार मझार । विचेरे भ्रांति भरी सदा, धरै न थिरता सार ॥२४५।। उड़े फिरै चंचल महा, जे जग के परिणाम । तिसे नभे रूडा गरूड़, तिनको भव बन धाम ।।२४६।। परमहंस मुनिराज से, हंस और नहि कोय । तिनकौं भव कानन विषै, दरसन दुरलभ होय ।।२४७।।