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विषक विलास
सदा सधन अति मगन जे, भाव सुद्ध उपयोग । तिनमै अम्रत तह नहीं, तिनको दुर्लभ जोग ।।२०६।। नाहि कुपत्र कुसूत्र से, तिनही को विसत्तार । नाहि सुपत्र सुसूत्र से, तिनको तृछ विचार ।।२१०।। मानफूलि धनफूलि जो, राजफूल मनफूलि । विर्ष फुलि से विष पहुप, और न जानौं मूलि ।।२११।। फूलि रहे तेइ तहां. दुख फल फल अनंत । दुख फल से नहि विषफला, इह भासै भगवंत ।।२१२१॥ सदा प्रफूलित सहज ही, जे केवल निज भाव । तैसे फूलन सुस्व मइ, तिनको अलप लखाव ॥२१३।। परम भाव अति रस मइ, तिसे सुधा फल नांहि । ते अगम्य भव वन विषै, जिन करि सब दुख जाहि ।।२१४।। शांत भाव सौ मिष्ट जल, अम्रत रूप न कोय । सो भव मै मिलवी कठिन, जा करि तिरपत होय ।२१।। विर्ष बासना सारिखो, और न विष जल बीर । सो भव वन मैं बहुत है, क्षार मलिन जो नीर ॥२१६।। भरघो कपट मय कीच सौ, जारि त्रिषा न जाय । सो पोवं वन जन सबै, मर रोग दुख पाय ॥२१७।। मृग त्रिशरणा नहि भ्रांतिसी, सो अत्यन्त लखाय । इह वन म्रग तिष्णा मई, सब जन सदा भमाय ।।२१।। वांसिनि मैं मोती दुलभ, त्यों भव वन मैं साध । कोइक पइए धर्मधो, केवल तत्व अराध ।१२१६।। गिरन कठोर स्वभाव से, तिनकी भलो न तौर । ते भव दन मै मुख्य हैं, महा कष्ट को ठौर ।। २२०॥ नला न नीच प्रवृत्ति से, रमो तिनो तें पूरि । स्यालन का परभाव से, ते पावन मै भूरि ।।२२१।।