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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
दत्य सिरोमणि निरदयी, महा मोह छलवान । ता सम को इन दुरजनां, सो वन पति बलवान ।।१६६।। दुराचार सौ दूसरो, असुभ अवर नहि कोय । सो जुगराज महीप के, कहाँ भलाई होय ॥१६७।। राग दोष रजनीचरा, तिसे न राखिस और । तेहि मोह नरपति नख, सुभटनि के सिर मौर ।।१६८।। पाप समान पिसाच नहि, सो नृप के परधान । सपत विसन सेना सपत, सेनापति अज्ञान ।।१६।। नहिं अपराध बराबरी, महा पारधी कोइ । सो प्रोहित भूपाल के, दया कहां ते होय ।।२०।। परे जगत के जीव सहु, मौह पासि के मांहि । पंथ नगर निरवान को, नृप चलिवा दे नाहि ।।२०।। करि सथान भव बन विषे, वैठो मोह भूपाल । काल समो विकराल नहि, सो नृप के कुटवाल ।।२०२।। करै राज कानन विर्ष, कुबुधि कुटिल कुरूप । मोह राव को राज सब, लखिये पाप स्वरूप ।।२०३।। ममता पटरांनी महा, मोह भूप के जांनि । धरै ममत्व स्वभाव सो, कुबुधि भुल परवानि ॥२०४।। पाप ति समान को, और नहीं अन्याव । वरतं तहां अन्याव ही, मोहराव परभाव ॥२०५।। विष प्रक्षन बसु कर्म से, जे अति कंटिक रूप । मरण देहि भव भव विष, छाया रहित विरूप ।।२०६।। तिन करि पूरण भव बना, मन मरकट की केलि । फैलि रही माया तहां, तिसी न विष की बेलि ।।२०७।। शुधातम अनुभुति सी, अम्रत लता न कोइ । महा अगोचर है जहां, मरण हरण है सोई ।।२०८।।