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विवेक विलास
निरमलता सी वापिका, अर निज रस से कूप । निज बन तिन करि सोह्इ, अम्रत मइ अनुप ।। १८६।। केवल कला कलोलनी, जामें सरस कलोल । ता सम नाहि कलोलनी, निज वन माहि अडोल ॥१८७।। या सम नंदन बन नहीं, वंदन जोगि विसाल । इह तीरथ निज धाम है, हरे सकल जंजाल ।।१८८।। रमै सदा या बन विषं, तेहि लहै आनंद । या सम:शिक जोरपना, महरि . कौ कंद ॥१६॥ जान संपदा सासती, सो निज दौलति जानि । निज संपति बिलस्यां विनां, वन केलि न परवानि ।।१६०।। इह निज बच वर्णन बुधा, पढं सुनै जो कोय । निज कानन क्रीड़ा करण, कर्म हरगा सो होय ॥१६१।।
॥ इति निज वन निरुपणं संपूर्ण ॥
निज भवन वर्णन
दोहा
भव वन सौ वन नाहि को, गहन विषम अघरूप । जहां न रंचहु रम्यता, दीसै महा विरूप ।।१६२॥ भव वन म्रमग निवारिक, देय अभयपुर बास । वंदौं देव दयाल कौं, करें आप सम दास ।।१३।। भकारी प्रम तम भरचो, है हिंसा को धाम 1 असुरन हिंसक भाव से, बस वहुत तिह ठाम ।।१६४।। दैत्य न दुष्ट स्वभाव से, ते बिचरै धन घोर । चोर न चाहि स्वभाव से, है तिनको अति जोर ।।१६५।।