________________
55
महाकवि मौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतिस्व
नहि सरवर सम भाव से, निज रस पूरित जेह । कमलन भाव अलेप से, सदा प्रफुल्लित तेह ।। १७३।। भमरन भाव रस जसे, भमैं तिनों परि भूरि । इहै रंग बन है भया, सब कुरंग तें दूर ।।१७४।। म्रग नहिं चपल स्वभाव से, ते यामें नहि कोय । दुष्ट भावमय दुष्ट पसु तिनको नाम न होय ।।१७।। मोह दैत्य को बास नहि, नाहि किरात कषाय । असुर दुराचार न जहां, लोभ चोर न रहाय ।।१७६।। नहीं दंभ बल छिद्र ठग, नहीं धूर्त पाखंड । न परद्रोह दौरा कदे, दौर करें परचंड ।।१७७।। पाप रूप परपंच नहि, इन्द्री भूत न कोय । मदन पिसाच रहै नहीं, अद्भुत बन है सोय ।।१७८।।। नहीं एक कंटिक जहां, जहां न विकलप जाल । विष वेलि न मायामयी, सो वन महा विसाल ||१७६ ।। विष वृक्ष न अघ कर्ममय, नाहि कुपक्षि कदाचि । जहां क जीवन एक है, रहे ज्ञान घन रात्रि ॥१८०।। नहिं दुख फल नहिं दोष दल, नांहि विष विषफूल । सो वन सेय सुजाण तू, जो सब सुख को मूल ।।१८१।। रागादिक रजनीचरा, विचरै तहां न कोय । तरवर सघन स्वभाव जे, तिन करि पूरण सोय ।।१८२।। ते स्वभाव पीयूष तरु, सदा अमर फल दाय । यह निज' बन रमणीक है, रमैं जहां निजराय ॥१८३॥ शुद्धातम अनुभूति सी, अम्रत लता न कोय । सदा प्रफुलित भावमय, अति सुख फल है सोय ।।१८४।। भाव भवातप हरण से, और पत्र नहि होय । । तिन करि सोभित तरलता, अदभुत वन है जोय ॥१८॥