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विवेक विलास
निजपुर वासी होय के
लहैं भावोदधि तैं सदा
भव समुद्र भव वन इहै. अंध कूप विरूप इह
भाव समुद्र विलास 1 दूर रहें सुबराम ।।३८३ || एहि भाव नल रूप | तिरें महामुनि भूप ।। ३८४ ।।
धीर । नीर || ३८५||
भव समुद्र वर्णन भया, उर बारे जो सो न परै भवसिंधु मैं, तिरं तुरत भव
॥ इति भव समुद्र वन ॥
ज्ञान निरूपण -
दोहा
अचल अटल प्रति विमल है, जगदीस्वर जस रासि । ताहि प्रामि नमि सूत्र की, श्री गुरु गुण परकासि ।। ३८६ ।। भाष सुधिर सुभावमय, गिरवर अमल सुभाव । कीड़ानिधि कीड़ा करे, जा परि वेतन राव ||३८७ || अचल सुधिर सुभाव से, क्रीड़ा गिर नहि कोय | रतनाचल] रम्याचला, ताहां न कंटिक जोय || ३८८ || प्रति उतकिष्टे उत्तमा, उच्च सवनितं जेहि । अचल भाव ते अचल हैं, और न प्रचल गनेहि ||३८६||
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रतन न निज नुरण रतन से ग्रस्ति स्वभाव अनत । चेतनता आदिक महा, थिर गिर मांहि रहंत ।। ३६०|| परम पुनीत पदार्थ जे है तिनको यह थान | जहां मगन भावानि से, सघन वृक्ष
रसवान ।।३६१।।
भरो सदा रस बस्तु ते
जहां कुपक्षी एक नहि,
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अम्रत रूप अनूप । चंचल भाव स्त्ररूप ॥३६२॥