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प्रस्तावना
विलास रूपकों से भोत-प्रोत है तथा प्रत्येक दोहे में किसी न किसी रूपक का प्रयोग हुपा है। इनसे कवि के अगाध ज्ञान एवं विशाल काव्य-शक्ति का सहज ही पता लगाया आ सकता है।
रचना काल
कवि ने अपनी इस कृति को किस शुभवेला में प्रारम्भ किया था, ओर किस शुभवेला में समाप्त करके साहित्यिक जगत का महान उपकार किया, इसके बारे में अपनी अन्य कृतियों के समान समय का अंचत नहीं समझा। यही नहीं इस महत्वपुर्ण कृति को पूरे राजस्थान के जैन ग्राधगारों में अभी तक एक ही पाण्डुलिपि उपलब्ध हो सकी है जो अयपुर के पाण्डे लूणकारमा जी के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है। यह पाण्डुलिपि सं० १८२७ पौष सुदी ३ वृहस्पतिवार को लिम्बी हुई है। जयपुर में प्राने के पश्चात् कवि ने एक ही पश्चात्मक रचना 'श्रीपाल चरित' को छन्दोबद्ध किया था, जिसमें भी स्पष्ट रूप से रचना काल दिया हुआ है। यह कृति संभवत: 'अध्यात्मबारहखडी' के पश्चात् लिखी गयी थी । वह कवि की काव्यशक्ति का सर्वोच्च समय था। और इसीलिए कवि की लेखनी में ऐसी उत्कृष्ट कृति का सर्जन हो सका। इसलिए इसका रचना काल सं. १७६८ से १८०० तक का माना जा सकता है ।
भाषा
भाषा की दृष्टि से विवेक-विलास एक परिमार्जित हिन्दी कृति है। कवि ने शुद्ध हिन्दो का प्रयोग करके तत्कालीन समय मे प्रपालत हिन्दी शैनी का उदाहरण प्रस्तुत किया है। यद्यपि कवि राजस्थानी थे। उदयपुर में उस समय रहते थे, लेकिन विदेक-बिलास की भाषा पर ढूढारी एवं मेवाली भाषा का सबसे कम प्रभाव पड़ा है। कवि ने शुद्ध हिन्दी में प्रपनी इस कृति को प्रस्तुत किया है। विषय वर्णन
विवेक-विलास "निजधाम वर्णन' से प्रारम्भ होता है । सर्वप्रथम ब्रह्मचर्य की महिमा एवं उससे ब्रह्म पद प्राप्ति का कथन मिलता है। इसके पश्चात् कवि ने जगत में अध्यात्म चर्चा एवं भगवद्भक्ति को ही प्रात्म-साधना के प्रमुख उपाय बतायें हैं। यह प्रात्मा अपने ग्राम प्रदेश में निवास करता है, वहीं उसका अभैपुर है। जहां उसे जरा भी काल का भय नही है।