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महाकवि दौलतराम कासलीवाल - व्यक्तित्व एवं कृतिस्व
विष वेलिन ममता समा, वापी तीर विसेस | सुधा मयामयी, वाही तहां न लेस || ७०६ ॥
सघन भात्र निज मगनता, तेहि सुधा तरु वीर । ते वापी के तीर नहि, अघ विषतरु अति तीर ॥७१० ॥ दोष दैत्य को धाम है। रहूँ भूत भ्रमरूप । ठगै कामरति भूप ।। ३११ । ।
छ छलावा छलम इ.
पापी वापी वीचि ।
मोह निसाचर नृप जहां रागादिक रजनीचरा, अधिकारी अति नीच ।। ७१२ ।। पाप पिसाच रहै जहां जौ धारे परद्रोह | खारें चोर चहू दिसा, राजै राजा मोह ।।७१३ ।।
धन तृष्णा परिणाम से, तसकर और न कोय । तिन हो को यह यान है, कहां भलाइ होय ।। ७१४।। नहि मनोजता मूरि ।
इह क्रीड़ा वापी नहीं,
करें वास बंचक इहां सदा
अमंगल भूरि ।। ७१५।।
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मैं दंभ
प्रपंच समान ।
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वंचक और न विस्व पाखंडादि अनेक खल, छल वल भरे गुमान | १७१६ | उगे जांहि इन्द्रादिका ठगे जांहि चक्रेस | टगे जांहि नागिंद्र सुर, ठगे जाहि असुरेस || ७१७॥ लोभ लुटेरा जूटइ धर्मरूप घनसार । क्रोधादिक कंटिक बनें वापी बहुत असार १७१६॥ विषे वासना बितरी, धरै विकार अनेक | रति ठगनी परपंच करि, खोसे रतन विबेक ॥७१६|| वापी भववन में इहे पापी अंतक सांप |
बर्से सदा सुर नर असुर, पसु निकरे संतान ।। ७२० || st गलकटा बावरी, जाने सब संसार ।
रहे निरदयी दुर्जना, क्रूर कुभाव अपार ॥१७२१||