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विवेव विलास
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हिमक पिसुन पसूचना, मिथ्याती मतिहीन । परधन परदारा हरा, लोभी लंपट दोन ।।७२२।। तेइ करें प्रवेस ह्यां, रहै सनमती दूर। कबहु करै मति क्रीड़ तू, यहै कलपना पूर ।।७२३।। निर्मल भावन हंस ह्यां, युग ठग भाव अनेक । दरसन ज्ञान स्वभाव से, सारिस जुमल न एक ।।७२४।। रमैं विष अनुराग से, काग कालिमा रूप । विकल विवेक बितीत खल, पापी पाप स्वरूप ।।७२५॥ पापात्रारी पारधी, श्रीवर अघ परिणाम । मारे तिर नर सुर असुर, थिर चर आठौं जाम ।।७२६।। निज पुर सौं दूरी इहै, वापी अति बिकराल । वहु वूडै बहु मरि पचें, दुख देखें असराल ।।७२७।। त्यागि कषाय कलंक सब, तजि विषयनि सौ प्रीति । गही पंथ निजपुर तनौं, दहौं दोष दुख रीति ।१७२८।। जीति काल कंटिक भया, मारि मोह रिपु राव । रहो मोक्षपुर मैं सदा, प्रगट करौ निज भाव १७२६।। मिथ्यामति अति मूढ़ता, रूप बापिका तोर। कदे रमै न विचक्षणा, व0 विष रस वीर ।।७३०।। लहि निज संपति सासती, ज्ञानानंद स्वरूप । करें केलि निजपुर विर्षे, तजि भव वन भ्रम रूप ।।७३१।। अध्यातम अम्रत भरी, वापी निरव्रति जोय । करें सनान तहा सुधी, लहैं विमलता सोय ।।७३२।। इहै मूढ़ता वाबरी, विष प्रवत्ति स्वरूप । नहि सनान कौं जोग्य हैं, मलिन विकट विष रूप ।।७३३।।