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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
नौ मनुजा ह्र देव, हूँ नारक ए व्याणवै । इन में तेरी सेव, करहि तिके ही श्लाध्य जी ।। १६६।। ए सव ही अति खेद, जगत निवासी अति दुस्खी । जो जन ह निरवेद, खेद रहित हू शिव लहै ।।२०।। जीव रषिक जो साध, सो पावै जगदीस कौं । करही जीव जु वाघ, वह लिई संसार मैं' ।।२०१।।
छंद सरी
अष्टोत्तर शत हैं मगि काजे,
माला के तुव गुरण गरिण काजै । तिण करि तोहि जपें जे जीवा,
ते ताकौं पावे जग पोत्रा ॥२०॥ पण तीसाक्षर षोडश अंका,
षट अर पंचाक्षर चतुरंका । द्वै पर इक अक्षर के नामा,
तेरे जाप जपें सुख धामा ॥२०३।। अष्टोत्तर शत पाप निवारे,
तोहि भले ते आप उधार । ते अष्टोत्तर अघ हैं कैसे,
जीव विष कर्दम हैं जैसे ॥२०४।। सरंभो च समारंभी जी, .
प्रारंभो है अघ खंभोजी । ए त्रय पापा मन बच काय,
__नव भेदा ह गुरु समझायें ॥२०५।।
१ इसका नाम वेक्षरी में दिया है ।