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अध्यात्म बारहखड़ी
नव कौं कृत कारित अनुमति,
च कषाय तें गुणिये ते सव
करिति गुल करें तो ठीक।
अधहारी
ए सव पापा दूरि पुलावें,
अष्टोत्तर शत ह्न अघ ए तब || २०६३।
जब गुरण मणिका कोय फिरावें ।
तू
श्रमृतधारी,
अमृत रूपो पतित उधारी ॥२०७॥
वरष
हरिसौं र ठतार जु
मेरे
केवलदे बंदो पद
ग्रष्टतरणों सौ अर अठताला,
पंत्र शरीर गर्ने ए तेही,
हमरे घातक टारि विशाला ॥२०८ ||
द्वारि जु हमरे सौ श्ररठांजन,
पंद्रह गर्ने अधिक दश एहो ।
अपन वास देहु मन भावन ॥ २०३ ॥
अढाईसँ जव बीते,
तेरे |
पारसनाथ पछें जु अतीते ।
तब प्रगटे श्री जिनवर बीरा,
बर्द्धमान अति गुणह गंभीरा ।। २१ ।।
तिन सव रीति बसी ही भाषी,
जैसी तेवीसनि
चौवीसम अंतिम जिनस्वामी,
राखी ।
सनमति नाथ जु अंतरजामी ॥२११
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