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अध्यात्म बारहवडी
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अलबध गर्भज मैं नाही,
जलचर नाहि जु भोग घरांही । वास सारा द्वै ? सव ए,
चउतीसा पसुहे है अव ए ||१६३ ।। बयालीसा नत्र चौतीसा,
पच्यासो तिरयंच गतीसा । नव मनुजा हूँ मर हूँ नारक.
इन सब भेदनि ते तु फारक ।।१६।।
अठ अधिका निवै तू भाष,
सर्व समासा तू ही राखे । पच्यासी नव चउ जव मिलहीं,
दै कम इकशत जब सब रहहीं ।।१६५॥ ए बस थावर भेद सबै ही,
भये होहिगें हैं जु अवैही । जिनवर तू सन को प्रतिपालक,
श्री भगवंत सकल दुख टालक ||१९६१
इन भेदनि लें मोहि निकास,
शुद्ध रूप कर प्रभु अविनाम । इनकी रक्षक करि हरि मौकों,
इनते रहित करहु तुझ धोकौं ।।१७।।
सोरठा
ठाग बाग च्यार ए, चउतीस जु भेद पशु । नौ विकलत्रय धार, बयालीस जु भावरा ।।१६८।।