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महाकवि दौलतराम कासलीवाल व्यक्तित्व एवं कृतित्व
भाव अलेप अप से, अदभुत अंबुज होय ।
सदा प्रफुल्लित र ति तिन से कमलन कोय ॥५६२ ॥
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निज लक्षण मय लक्षमी, भाव सरोजनि मांहि ।
वसे सदा सुख सासती जा सम कमला नांहि ||५.६३ ॥ सुख नहि निर-विकलप समो, प्रातम अनुभव रूप । बुधि न वस्तु अनूप ।। ५६४ ।।
जहां न इंद्री मन बचन,
केवल
अनुभव केलि सी,
और न अम्रत बेलि ।
परम भाव फल फलि रही, निज सर तदि रस रेलि ॥ ५६५॥
प्रति रस रसिया जेहि ।
केलि करें निति तेहि ।। ५६६ ।।
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भमर जु भाव रसज्ञ से भाव प्रलेप सरोज परि, हंस न उजल भाव से, स्वपर विवेकी वीर । यह हंसनि को सरवरा, हिंसा हर गंभीर ।। ५६७ ॥
परमहंस मुनिराज जे, अंस न धरें कलंकः । ते या क्रीड़ा करें, निस वासर निहसंक ||५६८ ||
सार भाव से सारिसा, तजें न इह सर कोइ । चकवा चेतन भाव से कबहु न विरही होय ।। ५६६ ।। जहां निसा नहि भ्रांति मय, चकवी को न वियोग |
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नहि चकवी निज शक्ति सो रहे सदा संजोग ।। ५७० ||
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ज्ञान भान भासिजु रह्यो, जाकी अस्त न होय ।
यह अदभुत सरवर भया, वरण सकै नहि कोय ||५७१ ।। गुण रतननि की रासि यहै, रहित रजोगुण रेत । संतान को सुख देत ।।५७२ ।। यह सर दूर अनादि । जहां नहीं रागादि ॥ ५७३ || सर्व कुपक्ष वितीत । है पवित्र पीयूष सर, रमै पुरिष जगजीत || ५७४ ||
वर्जित तामस तापसहु, इन्द्री सुख दुख तं सदा, भाव प्रतिद्री प्रति घरें, निज पक्षनि को धाम इह