________________
प्रवेश नि:स
कायर कृपण कुत्रील जो, भाव भूप के ताहि । सेनापति पदवी धरघां, कैसे राज जमेहि ॥६६३।। द्वारपाल दराबर मै, परमादी परिणाम । रौके नहि अपराध के, रोक विधि को नाम ।।८६४।। दुराचार कुटवाल है, सेठ महासठ भाव । वहुरि महा अन्याय से, जहां मीर उमराव ।।८६५।। कुविसन सेना है जहां, वसती जहां विभाव । है फैलाव कुभाव को, राब कर नहि न्याव ।।८६६।। भोग भावना भर्म मैं, भूपही दोयो भमाय । करै कामदारौ कुमन, सुमनहु सके न आय ।।८६७।। छल प्रपंच पास्त्रण्ड अर, पिसुन धूर्त खल भाव । पेसगार ए कुमनके, चोहै कुबुद्धि कुभाव ।।८६८१५ फैलि रहे वद फैल सहु, मैल भरे तहकीक । खेल मचि रह्यो पुर विषै, बोलें वचन अलीक १८६६ ।। अपने अपने स्वारथी, नही स्वामि की पीर। राज दावि लीयो अरयां, सुभटन नृप के तीर ।।८७०।। ज्ञानावर्ग जु कम खल, मित्र मोह को एह । ज्ञाना शक्ति दावै सवै, दे दुख दोष अछेह ।।८७१ ।। दरसन आवरणी कर्म, द्रिा अवरोध करेय । भाब भनि की भूप को, दरसन होन न देय ॥८७२।। कर्म वेदनी वलवता, महा मोह के जोर । कर असाता जीबकौं, करवावै अति सौर ||८७३।। कबहुक साता देय के तुरत खोसि ही लेय । सुखन अतिंद्री होन दे, भव भव कष्ट करेय ।।७४।। लाग्यौ काल अनादि की, नृप को मोह पिसाच । थावर जंगम जोनि मै, करवावं बहु नाच ।।८७५।।