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________________ जीवधर स्वामि चरित तव ते पुरष मात्र थी जाकी, चित्त उदास भयो अबला कौं। काहू कौं परणं नहि सोई. बसी करै तू तो प्रति होई ।।६६|| तेरी परसंसा जग माही, सक ही लें औषध सक नाही । जेती मांगै तेती मोला, दे तोकौं ले वस्तु प्रत्तोला ॥६॥ सुनि करि बनको वांनी भाई, बोले भेष धारण गुणराई । कहा विधी जीवंधर जाने, चूरण बास कछू न पिछाने ।।१८।। तुम्हरे गांव मांहि इक सोई, तह नहि जहां इरेडहि जोई । तवं सब बोले होय सकोपा, तू तो तापस पर गुन लोपा ।।६।। नोच पुरिष को इहै सुभाया, अपने गुन को करें प्रभावा। कहा जश्रेष्ठ वकै विप्रा, लोकौं हम जानें इन लपा ।।१००।। अपनी थुति अर पर की निंदा, न कर तेई जानि जतिंद्रा। तू दुश्रु त उद्धत अति गर्वा, जानै मैं ही जानों सर्वा ।।१०१।। ए सुनि वचन तापसी भाष, गुन ह सो छिपिया नहि राखे । एक महूरत मैं घट दासी, करो सेठ कन्या इह भासी ।।१०२।। वृद्ध ब्राह्मण के भेष में गुणमाला के पास जानागयो तुरत गुनमाला गेहा, धार बूढे बाम्हन को देहा । ताकी दासी लई बुलाई, तासौं यो भाषी द्विजराई ।।१०३।। तेरी स्वामिनि कौं कहु जाये, बूढ़े विप्र वारणे पाये । तव दासी गुणमाला पासे, जाय करी द्विज वात प्रकासे ।।१०४।। स्वेछाचारी वाम्हन आयो, असौ बुद्ध न और लखायो । तव गुणमाला लयो बुलाये, पूछयो विप्र कहां से आये ।।१०।। विप्र कहयो पाछाः पावै, पर ग्रागा को पाव धसंवें । तव सव हसी सहेली ताको सुनि बोली वाम्हन विरधा की ।।१०६।। वाम्हन को हसी मति कोई विरधापन सबही मैं होई । गनिका विरया पन नहि चाहै नव जोवन कौं अतिहि उमाहे ॥१०७।।
SR No.090270
Book TitleMahakavi Daulatram Kasliwal Vyaktitva Evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherSohanlal Sogani Jaipur
Publication Year
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth, History, & Biography
File Size7 MB
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