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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
तब इनकी पुत्री परणाई, दियो दायजो अति अधिकाई । कैयक दिन सुसराकै स्वामी, रहे महा सुखी विसरांमी ।।८३।। जीबंधर परियाजक के भेष मेंएक दिवस परिव्राजक भेषा, धरि करि जाय भूपकौं देषा। दे प्रासीरवाद बडभागी, बोले मोहि भूख बहु लागी ।।८४॥ तात तोहि जाचने प्राये, दै सुभ भोजन भूख नसाये । जब काष्टांगारिक अज्ञाना, करी इनौं की बात प्रमांना ||८५ तब जोवंधर सकुन विचारयो, निश्च अपने उर मै धारयो । मेरौ उद्यम जो फल रूपा, ताको एही फूल अनूपा ।।६।। इह चितवन करि भोजन काजें, बैठे वड प्रासन प्रभु राजें। ल भोजन निकसे जव धीरा, जव वोले मुखतं वरवीरा ।।८७11 बसीकरण चूर्णादिक वस्ता, है मोपं औषध परसस्ता । जिनको फल परतक्ष जु देखो, मेरौ वचन सांच तव लेखी ।। ८८।। जाकी रुचि व ल्यो ए सोई, इन ते मनमथ जाग्रत होई ।।८६ ।। चाही जाहि ताहि बसि कारी, ए मुझ. वचन हिया मैं धारौ ।।१०।। राजद्वार के लोकनि पासे, असी विधि के वचन प्रकासे । सुनि करि हंसे सकल ही लोका, इन नैं मदन सूत्र अवलोका ।।११।। देखो वृद्ध निलज्ज महा ए, भेष धार गनियें जु कहाए । मरण काल अति नीरै आयो, तौ पनि मनमथ मैं मनलायो ।।६।। चूरण अजन गांठि कनारे, बसीकरण मोहण उरधार । अस कहि हंसि करि सब वोले, तपसी तोमैं लखण अतोले ।।१३।। सुनि इक बात हमारी भाई, गुणमाला कन्या अधिकाई । याही पुर में सेठ सुता जो, जोवनवंती रूप जुता जो ॥१४॥ प्रागै इक जीबंधर नामा, गंधोतकट सुत बहु गुण धामा। ताने चूरण और सराह्यो, अर गुणमाला को विसराहो ॥६५॥