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जीवंधर स्वामि चरित
निज मन मैं धारी लव स्वामी, विनां समै सूरत्व न कामी । सव कारिज को साधन काला, काल पाय व धांन विसाला ॥७२।। तब मात सौं अमृत बांनी, वोले पुत्र महा सुखदानी । तुत्र परसाद सकल ह्व नीकी, तुम चिंता मेटौ निज जीकी ॥७३।1 इह कारिज पूरण व माई, तव नवराज्य तो कनें पाई। तोहि बुलाऊं तव ह्व साता, तू माता नर देही दाता ।।७४।। तव तक ह्यां तिष्ठी सुखरूपा, सोक रहितधरि ज्ञान अनूपा । इह कहि सब सामिग्री मा पें, अर कछुयक परिवार हु ता ।।७५।। राग्वि आप चाले बुधिवंता, नगर राजपुर कौं वलवंता । पहुचे नगर निकटि जब नाथा, मने कियो अपनौं सव साथा ।।७६।।
जीगंधर का राजपुर नगर में प्रवेशमेरो प्रावी गोपिहि राखौ, काहू पासि कछू मति भाखौ । भिन्न भिन्न समझाये लोका, पाप विचक्षन प्रति गुन धोका ।।७।। जक्ष मुद्रिका के परभावा, बरिणक भेष धारयो सुभ भावा । पंसि नगर मैं अानंद रूपा, कोइक देखी हाट अनूपा १७८।। तहां विराजे पुण्य निधांना, भाग्यवंत सावंत सुजाना। लह्यो लाभ जव साह अपारा, तव तिन जांनीए गुरपधारा ।।७६ ।। सागरबत्त नाम है जोई, जाकै ममला नारि जु होई । विमला पुत्री अति मतिवंती, रूपवती सो बहु गुणवंती ।।८।।
विमला के साथ विवाह--- प्राग निमति या विधि भाख्यो, कही सांच संदेह न राख्यो । जो नर हाटि विराज पाई, होय लाभ तारि अधिकाई ।।८।। सो विमला परनै सुभकारी, ए सव बात सेठ उरधारी। देखि कवर कौं जांनी एही, विद्या निधि अति सुन्दर देही ।।१२।।