________________
महाकवि दौलतराम कासलीवाल व्यक्तित्व एवं कृतित्व
बाम्हन तापस क तौ एही, आभूषण जोर्नी जरदेही । तब वोली गुणमाला वाई, किती दूर जावो द्विजराई ।। १०८ ।। बाम्हन बोल्यो तीरथ तांई, धर्म हेत श्रागां कीं जांई । बाम्हन क लखि सेठ सुतानें, जानो मन मैं बुद्धि जुता
नं ।। १०६ ॥
५६
इह केवल तन ही करि वृद्धा, मन र वचन देखतां वृद्धा । तब पार्कों भोजन है चोखा, भली भांति करि प्रारण जु पोखा ||११० || दें भोजन बोली गुण वित्ता प्रव तुम जाहु जहां हैं चित्ता । बाम्हन कहयो भली तुम भाषी, भोजन मांहि कमी नहि राखी ।। १११ ।। करि परसंसा उठने लागों, वृद्धा सुरुप धरमा वड भागौ । डिग करि परयो धरि मैं सोई, फुनि लाठी गहि उठियो जोई।। ११२ । कान्या की सच्या परि एही जाय परयो बाम्हन जरदेही । तब सब सखी सहेली कोपी, देषी इन अति लज्या लोपी ।। ११३ ।। सज्या थंकी उठावन सारी, दौरि चितधरि रोस अपारी । वाम्हन को सत्य तुम भासी, में निर्लज्ज राग रस रासी ।। ११४ ।। लज्या तो नारीगरण मांही, सोहै बहुरि पुरिप में नाहीं । जो नर हू में ही लाजा, तौ नहि होइ भौग को काजा ।। ११५ ॥ ए सुनि वृद्ध वाक्य गुरणमाला, जानी इह नहि वृद्ध विसाला । रूप पलटनी विद्याधारी, है इह कोई गुरण निधि भारी ॥ ११६॥ इह विचारि वोली बुधवांना, आये द्विज अपने मिजमांना । कहा दोष सज्या परि एही, पौढ रही खीस प्रति देही ।। ११७ || हमरें सज्या और विछावो, एसज्या एहो ले जावो । यो कहि सारी सखी निवारी, बसे राति ह्यां द्विज तन धारी ।। ११८ ॥ निसी कौं बाम्हन मतौ विचारचो, शुद्ध सुरनि करि राग उच्चारयो । महा मधुर रस जनमन हारी, कांननि को अति आनंदकारी ।। ११६ ॥ सुनि करि सेठ सुता सुख पायो, सौ राग किनी न सुनायो । आगे जीअंधर नैं रागा, गायो हो चित धरि अनुरागा ।। १२० ।।