________________
जीवंधर स्वामि चरित
जब गंधर्वरता तिन व्याही, वाम्हन हूं गाव विधि याही । उठि के प्रा. सनक गुणमाला, माइन गित जिसका ::१२१ ।। पूछन लागी द्विज पति भाषौ, कौंन सारत्र में परच रात्रौ । वोले विप्र सुनौं मृगनैना, तुमको देखि लयो हम चना ।।१२।। धर्म अर्थ कामादिक सारा, हम अभ्यासे ग्रंथ अपारा । धर्म अर्थ ए वृक्ष सुरूपा, काम शास्त्र फल रूप अनुपरा ।। १२३।। ताको कडू यक कहीं विचारा, सुनौं कान धरि वचन हमारा । पञ्चेन्द्री अर विषय जु पंचा, इनही की इह सकल प्रपंचा ।।१२४।। करकस नरम आदि वसु फर्मा, अर मधुरादिक पट रस सर्सा । कर्तुम स्वाभाविक द्वय गंधा, ताके भेद सुगंध दुगंधा ।।१२५।। चेतन और अचेतन वस्तू, कुइ दुरगंध कोई परसस्तु । रूप पंच विधि है कृश्नादी, स्वर है सप्त भेद षडगादी ।।१२६।। जीव अजीव संभवा जानौ, चौदा दूण विष परवानौं । इष्ट अनिष्ट गर्ने छप्पन्ना, पुण्य जागते इष्ट उप्पन्ना ||१२७।। धर्म थकी ह्व पुण्य निबंधा, अब तुम सुनों धर्म परवंधा । जे अजोग्य विषया अन्याया, तिनको त्याग सुधर्म बताया ।।१२८।। तातें निषध विष तजि दक्षा, सबै न्याय विप सुभ पक्षा । काम शास्त्र के पण्डित तेई, कवहु अजोग्य विष नहि सेई ॥१२६।। सुनि करि सेठ सुता यों भाष, बुधजन सोइ जु असुभ न राषं । हमर जो कछु लखौ प्रजोग्या, सोइ टावो पंडित जोग्या ।।१३०।। देहु जोग्य को तुम उपदेसा, करों आपनी दास बिसेसा । तब पंडित सव कला सिखाई, याकौं बुद्धि दई अधिकाई ।।१३।। एक दिवस सह पुर के लोका, वन विहार की गये असोका । आपहु गुणमाला लें साथा, वन देखन चाले गुणनाथा ।।१३२।। लखि एकांत ठौर रमणीका, सेठ सुता जुत वैठे नीका। तव याकौं निजरूप दिखायो, परै जाहि लखि सुर गरमायो ।। १३३।।