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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
देखि कन्यका संस वंशी, न्यावंत नः पुरण : मौन लेय गैठी सुभ रूपा, कंवर लखी संदेह सुरूपा ॥१३४।। तो सौ चूरण बासादी, गुणमाला की वात जतादी । उपजायो विस्वास विसेषा, बहुरि धरचो विरधा को भेषा ।।१३५।। पहप सेज परि गैठे वृद्धा, कन्यासौं वोले गुण गृद्धा । दावि हमारे पाव जु प्यारी, तू हमसौं कबहू नहि न्यारी ।।१३६।। तत्र वह महा नेह थी पावा, दावन लागी सरल सुभावा । देखि राजपुत्रादिक सारा, अचिरज रूप रहे गुण धारा ॥१३७।। परसंसे मंत्रादिक याके, जस भासे सबने विरधा के । वन तें प्राय कही गुणमाला, मात पितासौं वात रसाला ।।१३८॥ जीवधर आये सुखकारी, तव तिन जांनी मन मैं सारी। दई ताहि परणाय कुमार, जा लखि सुर तिय अचिरज धारै ।।१३६।। ता संजुक्त रहे दिन केई, ससुरा के घरि अति सुख लेई । पुण्य प्रभाव सकल सुख होई, पुण्य समान न जग मैं कोई ।।१४०।।
इति श्री जीवघर-स्वामी-चरित्रे महापुराणानुसारि वालावोष भाषायां विद्याधर मिलन, पूर्व भव निरूपण, हेमामपुर प्रागमन, मधुरादि षट् धातू मिलन, स्वदेश प्रमाण, दंरक बने-विजया मात दर्शन, यक्षी सत्कार, राजपुरे प्रागमन, सागरवत्त पुता विमला विवाह, राजवार गमन, पूर्णावि वर्णन, गुणमाला वशीकरण, गुणमाला विवाह, सुखानुभवन निरापरणो नाम चतुर्थोध्यायः ।।४॥
पंचम अध्यास
दोहा अव ससुरा के घर थकी, चले आपने गेह । नाम विणगिर गंध गज, चढ़ि करि सुदर देह ।।१।।