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जीवंधर स्वामि चरित
त्रात सकल ही संग है, श्रर सेना चतुरंग । जस गांवें जन नगर के, लखि लखि हर अंग || २ ||
जीवंधर गंधtent मिलन --
गंधसकट के भाग धनि, धन्य सुनंदा भाग । जिनकी सुत गुण जुत महा, घरें सकल जनराग || ३ || कीरति सव के मुख की, सुनत सुनत सुकुमार ! पहुँचे निज घरि धर्म धी, हरष सुरूप प्रपार ॥४॥ गंधोतक के पाव लगि लगे सुनंदा पाव 1 अति उच्छा हूवो तबै सुनी नगर के राव ||५||
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मन में धारयो दुष्टमति, काष्टांगारिक कोप | देखो वारिणज तनज ए करी कारिण सव लोप || ६ ||
प्रति उन्मत्त भयो इहै, डरं न मोतें रंच | मंत्री लखि याको हृदै, बोले तजि परपंच ॥ ७ ॥
इह जीवंधर ग्रति प्रवल, महाभाग पूरव पुण्य प्रभाव तें
याको उदे
मतिवंत ।
अनंत ||८||
अर या घर मैं महा, है गंधवंदता सती, रमा जक्ष सुदरसन सारिखे, महा मित्र बलवांन । कबहू न्यारे होंहि नहि, करं का परवान ।। १० ।। मधुरादिक सातौं सखा, साता करी जांनि । जिन सौं ररण मैं जीतिवां, समरथ को न मांनि ॥ ११॥
परवीन ।
खग पुत्री तुल्य गुणलीन ॥६॥
घर इह डीलां प्रति सुभट है अभेद्य रण मांहि । ता यास जुद्ध की, मन मैं आवै नांहि ॥१२॥ बलवंतनि सौं वैर करि सुखी न हो कोई । इत्यादिक युत्तिनि करी, समझायो खल सोय ।। १३ ।।
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