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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यनित्व एवं कृतित्व
सब बामें वह सबनि में, वह हैं सब ने भिन्न । वा ते सब ही भिन्न है वह भिन्नो च' अभिन्न ।।
कवि के शब्दों में ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश जिन स्वरूप है इसलिये उसने परमात्मा की निम्न शब्दों में भक्ति की है...
तुही जिनेश संकरो, सुखकरो प्रजापती । तुही हिरण्य गर्भ को, प्रगर्भ को धरापती ।।
वह परमात्मा अनन्त गुणात्मक है । प्रनत सुख एवं वीर्य का धारी है। उसके समान वही है और दूसरा कोई भी नहीं है। तेरी ममता तू ही सामी, तौ सौ पोर न अन्तरयामी" कह कर वह प्रभु का स्तवन करता है और अपने "संकल्पा पर सकल विकल्पा. मेरे भेटि जु देव प्रकल्पा" की याचना की है। कवि का प्रभु अमरेश्वर द्वारा पूजित है । सूर्य एवं चन्द्रमा जिनकी सेवा करते है । चारों निकायों के देवों द्वार पूरिस है ! लिप: :.' र भगवान जिन देव के १००८ नामों का मुरणानुवाद किया है उसी प्रकार इस बारहखडी में उसने उसी रूप में जिनदेव का स्तवन किया है। उसने भगवान से कर्म रूपी कलंक को हटाने की प्रार्थना की है। वास्तव में तो जो अरहंत सिद्ध पादि पंच परमेष्ठियों का स्तवन करता है उसके स्वत: ही माया एवं मोह दूर हो जाते हैं। एक स्थान पर उसने कहा है जब किसो भक्त को भव सागर से तारा है तो इन पंच परमेष्ठियों की भक्ति ने ही उसे तारा है अन्य ने किसी में नहीं । क्योंकि वह सब देवों का भी देव है
जब तार जब तू ही तारं, तो बिनु ओर न कर्म निवारै । सब देवनि को तू ही देवा, सब करि पूजति एक अभेवा ।
कवि ने उन सभी महापुरुषों का, भक्तों का, प्राचार्यों एवं साधुनों का नामोल्लेख किया है जिन्होंने जिनेन्द्र भक्ति से भव संकटों से मुक्ति प्राप्त की है क्योंकि जिनेश्वर सब के रक्षक हैं और सब भेदाभेद से विमुख हैं।' रणमोकार मंत्र की महिमा का भी कवि ने वर्णन किया हैं। इस मत्र की महिमा से मरपणासन्न स्थान ने भी देवगति प्राप्त की दी।
मरत मृत्यों स्वाने चितघारी, अघते रहित भयो शुभकारी। लकिन कवि की भक्ति एवं भक्त की कामना दोनों ही उल्लेखनीय है। वह प्रभु
१. अध्यात्म बारहखडी-पृष्ठ संख्या १६२ पद्य संख्या १६६