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________________ प्रस्तावना जिन मंदिर जो शुभ रचं, अरचे जिनवर देव । जिन पूजा नित प्रति करै, धरै साधु को सेव ॥६१।। करै प्रतिष्ठा परम जो, जान्या कर सुजान । जिन सासन के ग्रन्थ शुभ, लिखवाब मतिवान ।। ६३।। चङ विधि संच ती सदा, सेना वारं यो पर उपगारी सर्व को, पीडा हरै जु वीर ।। ६३।। उक्त पंनियाँ धावक के लिए प्रशस्त मार्ग को निर्देशित करने वाली है । इमसे यह स्पष्ट है कि वे इन सभी क्रियाओं के पालन करने के पक्ष में थे जिन्हें पूर्वाचायों ने प्रतिपादित की थी। उनकी दृष्टि से जीवन निर्माण के लिये माचार की प्रधानता है चारित्र की विशेषता है। और श्रेपन क्रियाओं के सम्बन्ध में उन्होंने इसी दृष्टि से विस्तृत प्रकाश डाला है। कवि ने अपनी इस कृति के माध्यम स उदयपुर के सामाजिक वातावरण को स्वच्छ बनाया और श्रावकों को इन कियानों को जीवन में उतारने पर विशेष जोर दिया। कवि इससे पुरातन पंथी नहीं बना किन्तु उसने जीवन में चारित्र की. संयम की, अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं परिग्रहपरिमाण प्रादि व्रतों की पुनः प्रतिष्ठापना की। षट् कर्मों के परिपालन को जीवन का आवश्यक अंग चतलामा तथा मद्य मांस एवं मधु को मानव मात्र के लिये त्याज्य बतलाया। कवि के इन विचारों से समाज में नव चेतना का सचार हुअा। इसके लिये उन्होंने शास्त्र प्रवचन प्रारम्भ किया और उसे अपने विचारों को लोगों तक पहुँचान का माध्यम बनाया । भक्त कवि के रूप में उदयपुर में रहते हुए कवि ने अध्यात्म बारहखडो की रचना की। यह कवि की सबसे विशाल पद्यात्मक काव्य कृति है जिसे हम प्रध्यात्म एवं भक्ति का महाकाय भी कह सकते हैं। इस कृति में वे भक्त कवि के रूप में हमारे सामने उपस्थित हुए हैं । बारहखड़ी के रूप में उन्होंने जिस रूप में भक्ति एवं अध्यात्म की गंगा बहायी है वह हिन्दी काव्य जगत में अनोखी है । उसने सर्व प्रथम निम्न पाब्दों में निग्रंथ जिनमर का स्तवन किया है-- ओर न दूजो देवता और न दूजो पंथ । शिव विरंचि जगनाथ है, जो जिनवर भिनथ ।।१०।। १. अध्यात्य बारहखडी पद्य संख्या ४८
SR No.090270
Book TitleMahakavi Daulatram Kasliwal Vyaktitva Evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherSohanlal Sogani Jaipur
Publication Year
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth, History, & Biography
File Size7 MB
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