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प्रस्तावना
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से सांसारिक इच्छाओंों की पूर्ति के लिये निवेदन नहीं करता । स्त्री, सन्तान, स्वास्थ्य एवं सुन्दर शरीर की वह अपने प्रभु से वांखा नहीं करता और न वह कोट्याधीश बनने की याचना करता । वह तो उनसे स्वयं परमात्मा स्वरूप को प्राप्त करने की प्रार्थना करता है क्योंकि उसने इन्हीं के जाल में पड़ कर जन्म जन्मन्तरों में महान दुःख पाये हैं जिनका वहन करना भी कठिन है ।" वह स्वयं लोथंकर बनने की कामना करता है इसलिये वह निम्न शब्दों में स्तवन करता है
प्रतिसे जग के दासन मांगे दे अतिशय चउतीस जु मोहि अष्ट ज प्रतिहारहू देहो, केबल दे विनऊ कह तोहि ।
देहु अनंत चतुष्व निचे तू होहि । श्रतिशय प्रातिहार नहि देतो, अनंत चुतुष्टय दे प्रभु सोहि ।। ४०६ ।।
भगवान जिनेन्द्र देव जहां विराजते हैं उसका वर्णन भी कवि ने भक्ति वश किया है । वहाँ केवल प्रात्म सुख ही श्रात्म सुख है । जगत् का प्रन्य कोई व्यापार नहीं । न असि का व्यापार है और न यहाँ मसि का कार्य है। व्यापार एवं वरिज वहाँ नहीं होता। निर्वाण होने के पश्चात उस लोक में न पठन पाठन की आवश्यकता है और न गुरू शिष्य का भेद है यहाँ यह आत्मा शुद्ध स्वरूप में निवास करती हैं। मोह द्रोह एवं अन्य वैभाविक क्रियाओं को वहाँ कोई स्थान नहीं है और ऐसे ही स्थान प्राप्ति के लिये वह अपने प्रभु से प्रार्थना करता है।
स्तवन मे कवि ने
इस प्रकार सम्पूर्ण अध्यात्म बारहखडो भक्ति भावना से श्रोत प्रोत है । कवि ने इसमें अपना हृदय खोल कर रख दिया है और जितना भी उसे शाकि ज्ञान था उसे उसने अपने भावों में उतारा है। भक्ति एवं जैन सिद्धान्त का भी अच्छा वर्णन किया है क्योंकि जिन भगवान भी उन्हीं सिद्धान्त मय हैं। यही नहीं वर्ष भर के प्रमुख पर्वो के महात्म्य का भी इसी प्रसंग में वर्णन कर दिया है। क्योंकि इन पर्वो का महात्म्य भी तो इनके जीवन की किसी घटना का कारण है । और उनके जीवन की घटनाओं का सांगोपांग
१. सो मेरी मेटो जगनाथा निज परगति को देहु साथा।। पर पति से मैं दुख पायो, आप बिसारि जु जन्म मनायो || २४० ।
२. अध्यात्म बारहखडी- - पत्र संख्या ४३० पृष्ठ संख्या २४१.