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निवेक मिन्नास
जड सुभाय जलचर नहीं, चेतन सागर मांहि । मोह मांन मन मदन छल, मगर न एक रहांहि ।।२८४।। मृत्यु कारणं दुष्टते, इन से दुष्ट न और । रस सागर रतनागरा, नहीं तिनो की ठौर ।।२८५।। घरै पक्ष मिथ्यात की, दया भाव ते दूर । तेहि कुपक्षी नहिं तहां, सागर है सुख पूर ॥२८६।। जीभ लोलपा मांछला, निठुर काश्रिवा जेहि । वृथा विवादी मींडका, सागर मैं नहिं तेहि ।।२८७।। तुछ भाव जे झींगरा, कोट कालिमा रूप । जल सर्पा जग भावजे, सागर मैं नवि रूप ॥२८८।। जग जंजाल अनेक जे, ते जल देवत जांनि । तिनको तहां न ठाम है, यह निश्च परवांनि ।।२८६ ।। मलिन भाव हो काग जल, जलनिधि में नहि कोय । मद मछर माछर नहीं, अदभुन मागर सोय ॥२६०।। पर पीड़ा कर क्षुद्र जे, परिणामा जग मांहि । तेहि डांसरा दुष्ट घो, रस सागर मैं नाहि ।।२६१।। विषय वासना सारिखी, नहिं वासना कोय । निज सागर मैं सो नहीं, सुख सागर हैं सोय ॥२६॥ विष तरु राग विरोध से. मा पासी विष बेलि । नहि अमृत सागर नरे, सागर रस को रेलि ॥२६३।। कृपण भाव कोड़ी नहीं, नाहि मिथ्याती संख । द्विविधा सीप नहीं जहां, निज सागर मधि वीभ ।।२६४।। विषम पवन जग वायसी, और न कोई असार । सो वा नहि जलधि मैं, उदधि अथाह अपार ।। २६५।। वडवानल बांछा जिसी, नहीं विश्व के मांहि । सो नहि बिमल पयोधि में, खल नहि कोइ रहांहि ।।२६६।।