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महाकवि कालसराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
चेतन सागर सारिखौं, और न सागर क्षीर । यह अम्रत सामर महा, हरै दाह दुख पीर ।।२७१।। विमल भाव सौ जगत मैं, होय म निर्मल नीर । भरयौ विमल जल भाव सौं, गुण सागर गंभोर ।।२७२।। लहरिन परमानंद सी, जामै लहरि अनंत । नंदी न निज पररगति जिसी, इह भास भगवेत ।।२७३॥ वहै प्रखंडित धार जे, निज परति रस धार । ते सब निज सागर विषै, मिल महा अबिकार ।।२७४।। रतनन दरसन ज्ञान से, है रतनाकर एह । भरघौ भाव रतनांनि तें, अंबुधि अचल अछेत् ।। २७५।। मुक्त सकल परपंच ते, जे पातम परिणाम | ते मुक्ताफल निरमला, सागर तिनको धाम ।।२७६।। उजल उत्तम भाव से, परम हंस नहि कोय । यह हंसनि की सागरा, अद्भुत अंबुधि होय ।।२७७।। अस्ति सदा सत्ता धरै, वस्तु रूप अतिसार । चेतनता प्रानंदता, ए निज भाव अपार ॥२७८।। भाष मइ सागर यहै, भाव समुद्र कहाय । सुख सागर रस सागरा, नाम अनंत धराय ।।२७६ ।। सुख नहि विषयादिक विर्ष, सुख प्रातम रस सार । मन इंद्री बरजित महा, अविनासी अविकार ।। २८०।। सुख समुद्र है सासतो, निज गुण रूप अरूप । लौकिक गुण से रहित जौ, गुरण सागर सद् प ।।२८१।। नाहि मगन भावानिसे, वन उपवन जग मांहि । ते सब या तीर हैं, यामै संसै नांहि ॥२८२।। अम्रत वेलि न लोक मैं, निज अनुभूति समान । सोइ फलि रहि जलधि तटि, अमरण फलर समान ॥२८३।।