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विवेक विलास
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मोक्षि मारगी मुनि जिसे, और न जांनो कोय । मोह मान हरि ज्ञान धरि, निज पुर पहुंचे सोय ।।२६१।। संजम तप बैराग व्रत, निरविति विष कषाय । संवर निर्जर सुभट ए, भहारी सुखदाय ।।२६२।। इन सेवौ लावा नही, भत्र भै गनै न मूल। पहुँचावै निरवान ए, कबहु न आँ प्रतिकूल ||२६२।। क्षायक सम्यक केबला, वीरज और अनंत । वर दृग बोध अनंत सुख, हूँ तन भाव कहंत ।।२६४।। शुद्ध पारिणामीक ए, साथी प्रवल प्रचंड 1 इन से साथी और नहि, धारं साथ अखंड ।।२६५।। नहि सेरी जिनवानि सी, दरसिक गुरसे नाहि । नगर नही निरवांन सी, जहां संत ही जाहि ।।२६६।। भव कांतार वहैतरी, पढे सुने जो कोय । सो भव कानन लघि के, निज पुर नायक होय ।।२६७) लहै सासतो बोलतो, फेरि जु भव वन मांहि । उपजे मरण करै नहीं, निज पुर मांहि रहांहि ।।२६८।।
॥ इति भव वन निरूपणं ।।
भाव समुद्र वर्णन--
दोहा चिदानंद चिनमूरती, चेतनराय नरेस । रमैं सदा सुखा सिंधु मैं, नमैं जाहि जोगेस ॥२६६।। ताहि प्रणमि नमि मुनिमहा, प्रणाम सार सिद्धान्त । निज समुझ वर्णन करू, जा सम और न सांत ।।२७०।।