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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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काम बरीन कवि के सभी पन उच्चकोटि के है। एक बार जीवघर नगर के बाहर अपने साथियो के साथ कोली का खेल खेल रहे थे। इतने में एक तपस्वी ने जीवन्धर से नगर की दुरी के बारे में पूछ लिया-इसका जीवन्धर ने जो सुन्दर उत्तर दिया वह कितना सामयिक एवं प्राकर्षक है
बोले कंवर सर्व यह जान, बालक चेलक पंथ पिछान । तू अति वृद्ध ज्ञान न तोकौं, किती दूर पुर पूछ मोकी ।।११।। तरवर सरवर वाग विसाला, बहुरि देखिए खेलत वाला । तहां क्यों न लखिए पुर मीरा, संस कहा राखिए वीरा ।।१२।। ज्यौं लखि धूम अनि हूं जाने, त्यौं बालक लखि पुर परवाने । जोबंधर के सूनिये वैना, तापस कीये नीचे नैनां ।।६३||
एक बार जीवन्धर रोने लगे । जब तपस्वी ने जीवन्धर से नहीं रोने के लिए कहा तो जीवधर ने उसका जवाय कितने व्यग्य से दिया, वह पढ़ने योग्य है
रोवे के गुन तुम नहि जानौ, मेरी वात यि परवानी। जाय सलेस्लम जो दुख दाई, नेत्र विमल व अति अधिकाई । १०५॥ तितै प्रहार हु सीतल होई, या तो प्रोगुन नहि कोई ।।
आदि काल से ही लड़की के विवाह की चिन्सा माता-पिता को रही है। पुत्री के विवाह के पश्चात् उन्हें अपूर्व प्रसन्नता होती है । इसी तरह का एक प्रसंग जीवन्धर चरित में भी आया है। जिसमें इसी तरह की बात कही गयी है--
रहै कंवारी कन्यका, व्याह् जोगि घर माहि । मात तात को दूसरी, ता सम चिंता नाहि ।। ४७।। पुत्री परणावन समा, नहि निर्चितता और ।।
प्रस्तुस काव्य में नायक का चरित्र अलौकिक कार्यों से ही नहीं उभारा गया है। किन्तु वीणा-वादना प्रतियोगिता में जीवन्धर की विजय बतलाकर