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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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प्रारम्भ से ही व्युत्पन्न मति था, साहसी था, निडर था तथा प्रापसियों से जूझने वाला था। बचपन में जब उसकी भेंट तपस्वी से हुई तो तपस्वी और उसके मध्य होने वाला वार्तालाप उसके व्युत्पन्न मति होने का स्पष्ट प्रमाण है। तपस्वी द्वारा नगर की दूरी पूछी जाने पर, जीवन्धर द्वारा दिया गया उत्सर उसकी उत्पन्न मति का द्योतक है।
जीवन्धर ने सर्व प्रथम भीलों का उत्पात शांत किया और उनसे गायों को छुड़ा कर काष्ट्रागार को सौंप दी । यह जीवघर की प्रथम सफलता थी। काष्टांगार जैसे धूतं राजा भी उससे लड़ने का साहस नहीं कर सके । उसे जीवन्धर ने अपने भाइयों को साथ लेकर ऐसी शिकस्त दी, जिससे जीवघर की बीरता की चारों ओर प्रशंसा होने लगी। इसके पश्चात् जीवन्धर ने सुधोषा बीन बजाकर गंधर्वदत्ता के साथ विवाह किया-- वह उसका संगीत प्रावीण्य था। काष्टांगार के बिगड़े हुए हायी असनिवेग को सहज ही में वश में कर लिया जिसके उपलक्ष्य में उसे सुरमंजरी जैसी सुन्दर कन्या प्राप्त हुई। काष्टांगार के षडयन्त्र को विफल किया । पभोतमा का विष दूर कर उससे विवाह किया एवं प्राधा राज्य भी प्राप्त किया । सहस्रकूट घत्यालय के कपाट खोलकर क्षेमसुन्दरी को विवाह में प्राप्त किया । धनुष विद्या में प्रवीणता दिखला कर हेमाभा को परिणय संस्कार में बांध लिया तया अपने ही नगर राजपुर में प्राकर उसने विमला एवं गुणमाला जैसी कन्याओं से विवाह किया। इनसे जीवाधर की कीर्ति चारों और फैल गयी। यही नहीं रत्नावली को स्वयंवर में प्राप्त करके अपनी निशाने बाजी की कला में सफलता पाई और अपने पिता की जय हत्या करने वाले तथा प्रवल शत्रु काष्टांगार को रण भूमि में मारकर अपना राज्य वापिस प्राप्त किया और एक लम्बे समय तक अपने कुटुम्बीजनों के साथ उसने जनता को स्वच्छ प्रशासन दिया। इस प्रकार काव्य के नायक जीवन्धर का चरित्र अन्त तक निखरता गया है।
काम कलाः
प्रस्तुत 'चरित' में सभी कान्य गुण उपलब्ध होते हैं। पांच अध्यायों में विभक्त यह कात्म हिन्दी भाषा का प्रमुख काव्य है जो अभी तफ विद्वानों की दृष्टि से प्रोमल रहा । दोहा, चौपई, सोरठा, वेसरी, अरिल्ल, बढदोहा, चालि छन्द, भुजंगी प्रयात, छप्पय प्रादि छन्दों का प्रयोग किया गया है । कवि ने बीच-बीच में दोहा चौपई के अतिरिक्त अन्य छन्दों का प्रयोग करके काव्य की उपयोगिता में वृद्धि की हैं। इसी तरह अलंकारों का प्रयोग भी