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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-पस्किस्व एवं कृतित्व
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हैं अनादि सिद्धा ए सर्वा, ए किरिया धरिवौ तजि गर्वा । ठौर ठौर इनको जस भाई, ए किरिया गावं जिनराई ।।२१३५।।
– रचना के अन्त में कवि ने हिन्दी भाषा में रचना का औचित्य-वर्णन करते हुए लिखा है कि गणवरों एवं प्राचार्यों ने प्राकृत में इन क्रियानों का वर्णन किया है तथा संस्कृत भाषा को इरा पचमकाल में बहुत कम व्यक्ति समझते हैं। इसलिए संस्कृत कृतियों के प्राधार पर ही यह कृति अन्हें नर भाषा अर्थात् हिन्दी में लिखी है। उम रामय हिन्दी को 'नर भाषा' से सम्बोधन किया जाता था, ऐसा संकेत कदि की एक प्रशस्ति से मिलता हैगराधर गावं मुनिवर गावें, देवभाष मै शबद सुमादै । पंचमकाल मांहि सुरभाषा, बिरला समझे जिनमत सास्त्रा ।।२१३६॥ ताते यह नर भाषा कीनी, सुरभाषा अनुसारे लीनी । जो नर नारि पढ़े मन लाई, सो सुख पावै अति अधिकाई ।। २१३७।। रचना काल :
अपन क्रियाकोश की रचना उदयपुर में रहते हुये की गई थी। उस दिन मंवत् १७६५ की भादवा सुदी १२ मंगलबार का शुभ दिन था। तथा कवि सवाई जयसिंह के पुत्र सवाई माधोसिंह के मंत्री एवं सवाई जयसिंह की योर से उदयपुर दरबार में जयपुर का प्रतिनिधित्व करते थेसंवत सत्रासै पच्चाराब, भादव सुदि वारस तिथि जारराव । मंगलवार उदपुर माहैं. पूरन कीनी संस नाहै ॥२१३८|| ग्रानंद सुत जयसुत को मंत्री, जय को अनुचर जाहि कहै । सो दौलत जिनदासनिदासा, जिन मारग की शरण गहै ॥२१३६।। विषय बर्णन :
जैसा कि पहले लिखा जा चुका है, अपनक्रियाकोश में ५३ क्रियानों का वर्णन किया गया है। क्रियाकोश अध्यायों अथवा भागों में विभक्त नहीं है। किन्तु नियमानुसार उसका नामोल्लेख कर दिया गया है। सर्व प्रथम ६६ पद्यों में मंगलाचरण किया गया है। जिसमें ६३ मलाका महापुरुषों को प्राचार्य कुन्द-कुन्द, दशलक्षण धर्म, षोड़शारणा भावना, रत्नत्रय एवं स साधुनों को नमस्कार किया गया है। इसके पश्चात वपन कियानों का वर्णन प्रारम्भ होता है। अष्ट मुलगणों का त्याग करने के लिये कवि ने सोदाहरण