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१. सम्यवत्व ११. प्रतिमा
४. दान
१. जलमाल
९. रात्रि भोजन ध्यान
३. रत्नत्रय
५३. योग
प्रस्तावना
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मानव मात्र के जीवन को शुद्ध, सात्विक एवं प्राचारवान बनाने के लिये इन क्रियाओं का पालन प्रावश्यक है । कवि ने अपने रचना चातुर्य मे इन सबका इतना सुन्दर वर्णन किया है कि सारा क्रियाकोश ही एक धारावाहिक उपन्यासमा मालूम देता है। गृहस्थों के जीवन-विकास एवं सुधार की ऐसी परिष्कृत कृति भारतीय साहित्य की सुन्दरतम कृति है ।
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"क्रियाकोश" यद्यपि पूर्णतः धार्मिक रचना है | श्रावकों की क्रियाओं से इसका सम्बन्ध है लेकिन फिर भी कवि ने इसे पूर्णतः मणिकर, आकर्षक तथा सरस बनाने का प्रयास किया है। जिस समय यह रचना निबद्ध की गयी थी उस समय कवि अपनी पूर्ण यौवनावस्था में था। जगत का वैभव उनके लिए सुलभ था । एक और शासन का उच्चपद उन्हें प्राप्त या तो दूसरी बोर उनकी विद्वत्ता, साहित्यिक रूचि एवं लोकप्रियता की कहानी चारों धोर फैल चुकी थी। आगरा एवं जयपुर में उन्होंने जो स्थाति प्राप्त की थी उसमें उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही थी। ऐसे समय में त्रेपनक्रिया कोश' की रचना इस तथ्य की ओर संकेत करती है कि तत्कालीन जैन समाज में जो आचार हीनता एवं क्रियाओं के पालन में डिलाई व्याप्त हो गयी थी, उससे कबि स्वयं विन थे। उन्हें शिथिलता जरा भी पसन्द नहीं थी। इसलिये उदयपुर जाने के पचात् ही उन्होंने 'पनक्रियाकोश' को रचना निबद्ध किया। जिसके महत्व के सम्बन्ध में उन्होंने निम्न शब्दों का प्रयोग किया है
सब ग्रंथति में त्रेपन किरिया, इन करि इन बिन भव वन फिरिया । जो ए त्रेपन किरिया धारें, सो भवि अपनो कारिज सारे ।।२१३३ ।।
सुरंग मुकति दाता एकिरिया, जिनवानी सुनि जिनि ए घरिया । तिन पाईं निज परति शुद्धा ज्ञान स्वरूपा प्रति प्रति बुद्धा ।। २१३४