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प्रस्तावना
तर्क प्रस्तुत किया है। पंच उदम्बर-बड़फल, पीपल फल, पाकर, अमर एवं कटूमर फल्बों में असंख्य जीवों का निमास रहता है इसलिए मद्य, मांस एवं मधु के साथ ही इनका से धन भी वजित है। इसी प्रसंग में २२ प्रभावों का भी बरखन पाया है। इसके पश्चात रसोई, जलगृह ग्वं हाय चवको की क्रियानों में सावधानी बरतने के लिए कहा गया है। जिमसे जी सिा न हो। भोजन जितना सास्तिक होगा उतना ही वह स्वास्थ्यप्रद हो । भारतीय जीवन में खान-पान को शुद्धि को जो विश्लेष महत्व दिया गया है, इस दृष्टि से कवि ने इसका वर्णन किया है। जैन धर्म हिमा प्रधान धर्म है। इसलिय भोजन की सभी किसानों में अहिंसा धर्म का परिपालन प्रावश्यक है। कविवर दौलतराम ने अपनी इस कृति में इन सब पर बड़ा ही सूचम बर्गन किया हैग्रण जाणु फल त्यागहु मित्र, प्रण छाण्यो जल ज्यों अपवित्र । स्यागी पदमूल दूषित कर मुलभ जीव घनन्त ।।११६॥
दधि गुड़ खावो कबहु न जोग, घरजें श्रीगुर वस्तु प्रजोग।
मूलगुणों का वर्णन करने के पश्चात् बारहवतो का विस्तृत वर्णन किया गया हैं। इन बारह व्रतो के नाम है-पंच अरबत --हिसागुनता, सत्यागुयत. प्रचौमावस, ब्रह्मचर्वाणुनार एवं परिग्रहपरिमारणुवात । तीन गुणवत-दिग्नत, देशवन, एवं अनर्थदण्डवत । चार शिक्षाग्रतसामाधिक, प्रोषधोपवास, भोगौपभोगपरिमाणवत एवं यावृत्य । हन १२ प्रतो का वर्णन ३८८ पद्य से प्रारम्भ होकर १३५० पद्य संख्या सक समान होता है । इस प्रकार त्रिपाकोश मंथ का श्राधे से अधिक भाग इन व्रतों के चणन तक सीमित है। वास्तव में ये १२ व्रत एमे हैं जिनके पालने से मानव देवत्व सम बन सकता है। उसमें से बुराइपा समाप्त हो जाती हैं तथा अच्छाइयों की भोर उसकी जीवनचर्या बढ़ने लगती है। यदि हम व्रतों का अरगु मात्र भी हमारे जीवन में उतर जावे तो हमारा देश सभी हटियों से उन्नत हो सकता है।
यतों के वर्णन के पश्चात् १२ हपों के मत्व पर प्रकाश डाला गया है। प्रास्मा के विकारों पर विजय पाने के लिए तयों का रिपालन अावश्यक प्रतलाया गया है। इनमें ६ बाह्य तप हैं जिनका शारीरिक क्रियाओं में सम्बन्ध है। उपचास करना, झुल से कम खाना, प्रतिदिन किसी एक रस