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श्रीपाल चरित्र
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तात पास लाई तब सुता, गंधोदक सिर लायो पिता । धारी सनेह सुता सु कहीं, मांगो वर मनवंछित कही ।।३।। तब यह कन्या सील की खानि. तात थको इम वचन जु ठानि । अहो तात गारी किम देय, मन वंछित वर वेस्या लेय ।।३।। अथवा नारि कुसीली होय, सो वंछित वर मांगे जोय । बत शील कुल अची नार, सो बर कबहू न जाचे धार ||६| मात पिता ताकू परणाय, सोही वर यह नीति कहाय 1 पीछे मुभ अरु असुभ सु जोय, कर्म उदसाहै सौ होय ।।४।। सुख दुख होय भाग तें सही, ताकू मेट सके नहीं कोइ । ताते पिता सला तुम होय, ताही कु, पररणाबो जोय ।। ८१ ।। तात वचन सुन मन कोपियो, मेरो बचन सुता खंडियो । थाप्यो कर्म प्रापनो जानि, सो अब देहु महा दुख थान ।।४।। महानिद कोढी धनहीन, जानि दलिद्री सुरती दोन । ऐसो वर लखि ब्याहू सही, गाखी गन काहू नहि कही ।।४३।। इक दिन राय गयो बन थान, क्रीडा करत फिरत हित मान । ताही वन श्रीपाल नरेस, प्रा निकसे पलटनों तन भेय ।।४४।। महा कोड तोके तन माहि. लार सात से सेबक थाहि । सोभी सर्व वोट करि सही, वास दुर गंध भार तन कही ।।४।। छत्र चमर सिंघासरण लार, राज बजु ज बन्यो सत्र सार। ये तन वास दुरगंध अपार (महान), फैल रही सब बन के थान ।। ४६ ।। ऐसे श्रीपाल लखे राय, प्रजापाल जु हरप उपाय । मंत्रिन सू राजा इम कही, यह मेरणासुन्दर वर सही ।।४।। याक राखो जागा बनाय, तब मंत्री बहु मनै कराय। राय न मानी काहू बात, कीमो हठ मूरख हपान ||४|| राय हुकम तो बन में जानि, जागां बगाई लवि मुभ थानि । राय जाय कन्या सू' कही, तो वर कोढी अान्यो मही ॥ ४६।।