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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
ए दावानल दुमइ, ए दुख सागर जांनि । इन दुजा और माति, इह निपने तर प्रांनि ।।१५१।। सनु एहि मोहादिका, ए किरात दुखदाय । एहि पारधी धीवरा, एहि अहेरी राय ।।१५२।। एवा गुर अति दोष भर, महा पाप के रूप । हिंसक निर्दय दुरजना, ठग पुर मांहि विरूप ।।१५३॥ नांहि ठगोरी लोक मैं, विष वासना तुल्य । महा ईरषा आदि वहु, विष करि पुरण कुल्य ॥१५४॥ भोग भावना सारिखी, भुरकी जग सिर डारि । खोंस लेंहि सव ज्ञान धन, डार नरक मझारि ।।१५।। वात बनाय धिजा पते, विष ठमोरी डारि । लै हैं ज्ञान छिपाय धन, तातै जतन' विचारि ॥१५६।। जतन न कोई दूसरी, करी निज पुरी वास । बिलसी निज धन सासतौ, धारौ अतुल विलास ॥१५०।। कैसे पहुँचें निज पुरी, लंघि ठगनि की ग्राम । सो उपाय सुनि चित्त धरि, करहु प्रातमाराम ।।१५८॥ मोह विदारक सम्यका, राग विद्धार विराग। संत भाव है दोष हर, धारै जाहि सभाग॥१५६॥ काम बिडार विवेक है, मार्दव मान निवार । मार्दव कहिये मैंण सौ, नरम भाव अविकार ॥१६०।। क्रोध निवारक है क्षमा, प्रार्जव कपट निधार । आर्जव कहिये विमलता, महा सरलता सार ।।१६१।। लोभ बिडारक लोक में, नहिं संतोष समान । पाप विडारण तप जिसौ, कोइ न दूजौ पान १६२।। १ मूल पाठ चेतन है।
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