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विवेक विलास
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लोभ प्रीया तृष्णा महा, जगत द्रोहणी सोह । सर्व भक्षणी पापणी, मुनि ठगनी है सोइ ॥१३८।। काइक मुनिवर उमर की जिमणार प्रताप । तज्जै भोग प्रिश्ना सबै, सेब धर्म निपाप ।।१३६ ।। निज प्रतीति हर भरम कर, ठग न मिथ्यात्त समान । सो स्वरूप है मोह को, कुवुधी पाप निधान ।।१४०।। प्रीया मिथ्यात मलीन की, महा अविद्या जानि । टग थावरा जंगमा, जग ठगनी परवानि ।।१४१।। नहीं सोच सौ कष्ट कर, सुख हिरदै संताप । सोच प्रीया चिता अरति, उर जार्य बहुताप ।।१४२।। भकारी है भय महा, मारै चहुँगति माहि । ध्याकुलता है भम प्रोया, जामै अानंद नाहि ।।१४३।। रोग महाबल तन हरग, मरण करण दुखदाय । आधि व्याधि रोग प्रीया, कबहु नहीं सुखदाय ।।१४४।। सोक हरै पानंद कौं, करें सबनि को दीन । सो प्रीया संतप्तता. करै जगत को छीन ।।१४५।। अग्रत और असंजमा, विकथावाद विवाद । मोह राब के रावता, हर्ष विषाद प्रमाद ।११४६।। सव ठग सब पासीगरा, सर्व लुटेस नीच । सब दौरा सब चोर ए, भरे कालिमा कोच ।।१४७।। ऐ सब ही जु पिसाच हैं, भूत राक्षसा एह । दैत्य दानवा दुरमती, एही असुर गनेह ॥१४८।। ए अजगर अष्टापदा, मत मतंग सिंह सर्प । एहि व्याघ्रा है सदा, जीते मुनि नरसिंह ।।१४६ ।। ए भिडि पात्र अनादिका, ए भेरुड वित्रुड । दुष्ट एहि चीला महा, एई मगर प्रचंड ॥१५०।।